एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद वाराणसी में बीजेपी की हवा खराब

Written by Teesta Setalvad | Published on: March 4, 2017

आठ विधानसभा सीटों वाले वाराणसी में मोदी की भारतीय जनता पार्टी को बुरी तरह ध्वस्त होने का डर सता रहा है। भाजपा को सिर्फ दो सीटों पर जीत की थोड़ी उम्मीद दिख रही है। वह भी इन सीटों पर सेक्यूलर वोटों के विभाजन की संभावना की वजह से।


narendra Modi
 
वाराणसी यानी काशी धार्मिक और आध्यात्मिक शहर होने के साथ ही कारोबार का भी एक बड़ा केंद्र है। पीएम नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के मतदाता 8 मार्च को यूपी विधानसभा चुनाव में वोट डालेंगे। लेकिन वाराणसी के मतदाताओं का मिजाज 2014 के लोकसभा चुनाव जैसा नहीं है। यहां के मतदाता भाजपा से अंदर ही अंदर चिढ़े हुए हैं। यही वजह है कि घबराई मोदी सरकार ने अपने कैबिनेट के 75 मंत्रियों को वहां झोंक दिया है। मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में आठ विधानसभा क्षेत्र हैं। तीन शहरी और पांच ग्रामीण।

भारतीय संस्कृति की अनोखी मिलीजुली संस्कृति के प्रतीक शहर ने 2014 में लोकसभा चुनाव जिता कर पीएम मोदी को अनोखा उपहार दिया। लेकिन आठ विधानसभा सीटों वाले वाराणसी में मोदी की भारतीय जनता पार्टी को बुरी तरह ध्वस्त होने का डर सता रहा है। भाजपा को सिर्फ दो सीटों में जीत की उम्मीद दिख रही है। वह भी इन सीटों पर सेक्यूलर वोटों के विभाजन की संभावना की वजह से। दरअसल धार्मिक-आध्यात्मिक शहर होने के अलावा बिजनेस, उद्योग के बड़े केंद्र वाराणसी में वोटरों को ऐसा कुछ भी हासिल नहीं हुआ है, जिससे वे मोदी या बीजेपी के बारे में अपनी अच्छी राय जता सकें।
 
मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी में वोटरों में मोहभंग के हालात हैं। भारत के प्रधानमंत्री का चुनावी शहर गड्ढों से भरी सड़कों, ध्वस्त हो चुके सीवरेज और पहाड़ जैसे कूड़े के ढेर से जूझ रहा है। पीएम बनते ही मोदी ने बड़े-बड़े वादे कर वाराणसी को जापान के शहर क्योटो जैसा बना डालने का वादा किया था। लेकिन भारी प्रदूषण, धूल और नोटबंदी से पंगु हो चुकी अनौपचारिक कैश इकोनॉमी ने मोदी के चुनावी नारों को बुरी तरह चोट पहुंचाई है। मतगणना के दिन लोगों की जिंदगी पर लगी चोट का दर्द बीजेपी को साफ महसूस होगा।
 
हालात इस कदर खराब हो गए हैं कि बीजेपी के अपने समर्थक माने जाने वाले कारोबारी और व्यापारी वर्ग भी मोदी से खार खाए बैठा है। नोटबंदी की वजह से धंधे को पहुंची चोट की वजह से यह वर्ग अंदर ही अंदर नाराज और बेचैन है। चुनाव में किसी न किसी तरह उनकी यह नाराजगी जरूर दिखेगी। कारोबारी खुद को दोहरे तरीके से ठगे हुए महसूस कर रहे हैं। 8 नवंबर के बाद 30000 व्यापारियों को इनकम टैक्स का नोटिस मिल चुका है।

अब तक हिंदुत्व के समर्थक रहे और हमेशा बीजेपी या उससे जुड़े संगठन के पक्ष में खड़े रहे शहर के एक नामी कारोबारी का कहना है कि लोगों में बीजेपी के खिलाफ गुस्सा बढ़ता जा रहा है। लोगों को लगता है कि इसे सबक सिखाया जाना चाहिए। अपने वोटरों को इस तरह चोट पहुंचाने की सजा इस पार्टी को जरूर मिलनी चाहिए।
 
शहर के अंदर की तीनों सीटों की बात करें तो इन सभी में मुस्लिम वोटरों की खासी संख्या है। 2012 के चुनाव में वाराणसी कैंट में कायस्थ जाति की बीजेपी उम्मीदवार ज्योत्सना श्रीवास्तव और कांग्रेस के ही कायस्थ उम्मीदवार अऩिल श्रीवास्तव के बीच कड़ी टक्कर थी। ज्योत्सना 12 हजार से ज्यादा वोटों से जीतने में कामयाब रही थीं। यहां समाजवादी पार्टी के अशफाक अहमद (उर्फ डबलू) ने अनिल श्रीवास्तव का खेल खराब किया था। अशफाक को 37,922 वोट मिले थे वहीं बीएसपी के चंद्र कुमार मिश्रा उर्फ गुड्डू महाराज ने 22162 वोट हासिल किया था। अनिल श्रीवास्तव वाराणसी कैंट से फिर लड़ रहे हैं। बीजेपी ने इस बार ज्योत्सना श्रीवास्तव के बेटे को टिकट दिया है। पास की वाराणसी दक्षिणी सीट से कई बार चुने गए श्याम दादा चौधरी को न सिर्फ मोदी-शाह की जोड़ी ने अपमानित किया बल्कि उनके बेटे को भी टिकट नहीं दिया। अनिल श्रीवास्तव के सामने एक बार फिर सेक्यूलर वोटों के बंटने का संकट पैदा हो गया है। रिजवान अहमद बीएसपी से खड़े हैं। अगर मुस्लिम उनकी ओर गए तो श्रीवास्तव की जीत मुश्किल हो सकती है।
 
अगर वाराणसी दक्षिण की बात करें तो यहां बिहार जैसा गठबंधन मुस्लिम वोटों के विभाजन को रोक कर बीजेपी की हार पक्की कर सकता था। हालांकि यहां मोदी-शाह के पसंदीदा उम्मीदवार नीलकंठ तिवारी ब्राह्मण हैं। वह कमजोर उम्मीदवार हैं और उनका चरित्र भी संदिग्ध है। समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन ने पूर्व सांसद राजेश मिश्रा को उतारा है जो बीएसपी के नए उम्मीदवार राकेश त्रिपाठी का सामना कर रहे हैं। त्रिपाठी के पास दलित-धोबी और मल्लाह वोटरों का सॉलिड वोट है। वह यहां पिछले छह महीने से काम कर रहे हैं और उन्होंने लोगों में बीजेपी के प्रति खूब गुस्सा भरा  है। 2012 में बीजेपी के पुराने नेता श्यामदेव रायचौधरी (दादा) को यहां 57,868 वोट मिले थे। जबकि दयाशंकर मिश्रा ने 44046 वोट हासिल किए थे। मिश्रा कांग्रेस के उम्मीदवार थे । दो मुस्लिम उम्मीदवार कौमी एकता दल के अतहर जमाल लारी और समाजवादी पार्टी के मोहम्मद इस्तकबाल को क्रमशः 20454 और 14642 वोट मिले थे।
 
वाराणसी उत्तरी सीट पर 2012 में रवींद्र जायसवाल ने बीएसपी के सुजीत कुमार मौर्या को 2336 वोटों के मामूली अंतर से हराया था। मौर्या इस बार भी मैदान में है। अगर वे थोड़े भी मुस्लिम वोटों को खींचने में कामयाब रहे तो जीत सकतें हैं।
 
जहां तक वाराणसी के पांच ग्रामीण विधानसभा सीटों का सवाल है तो यहां बीजेपी के लिए भारी मुश्किल खड़ी होगी। अजगरा,शिवपुर, रोहनियां,  सेवापुरी और पिंड्रा में से कोई भीड़ सीट बीजेपी के पक्ष में जाती नहीं दिखती। तीन सीटों में से अजगरा  और शिवपुरी में बीएसपी मजबूत स्थिति में है वहीं पिंड्रा में कांग्रेस के अजय राय चुनाव लड़ रहे हैं।
 
मोदी 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी ‘लार्जर दैन लाइफ छवि’ का इस्तेमाल कर रहे थे। लेकिन यूपी चुनाव में मोदी का यह करिश्मा गायब है। राज्य के पश्चिमी इलाके से बीजेपी की हार के आसार दिखने लगे थे और यह माहौल पूर्व तक पहुंच चुका है, जहां दो चरणों के चुनाव होने बाकी हैं।
 
मोदी के दिल्ली की गद्दी पर बैठने के छह महीने के अंदर बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा था। दिल्ली और बिहार दोनों चुनाव में बीजेपी को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी।
बहरहाल, यूपी चुनाव का घमासान तेज होने के साथ ही बीजेपी ने हवा का रुख अपने पक्ष में करन के लिए मनी और मसल पावर का इस्तेमाल तेज कर दिया है।
 
वाराणसी में पूरा जोर इस  बात पर है किसी तरह बाजी बीजेपी के हाथ लग जाए। इसके लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया गया है। स्थानीय अखबारों में मोदी कैबिनेट के 75 फीसदी हिस्से के वाराणसी में मौजूद होने पर फब्तियां कसते हुए टिप्पणियां लिखी जा रही हैं। इंतजाम ऐसे किए जा रहे हैं ताकि मोदी को अपने ही चुनाव क्षेत्र में करारी हार का मुंह न देखना पड़ा।
 
वाराणसी और यूपी के लोगों का मोदी के प्रति मोहभंग के बीच बीजेपी मनी और मसल पावर से डूबती हुई किश्ती को निकालने की कोशिश में लगी है। लेकिन एक सप्ताह बाद ही यह पता चल जाएगा कि बीजेपी की चुनावी नैया डूबती है या उबरती है।
 

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