नागरिकता के सवाल ने क्या छात्र आंदोलन की जमीन तैयार कर दी ?

Written by Puny Prasun Bajpai | Published on: December 18, 2019
क्या भारत 21 वी सदी में सबसे बडे छात्र आंदोलन की दिशा में बढ रहा है। क्या नागरिकता का सवाल छात्र आंदोलन की एक ऐसी जमीन तैयार कर रहा है जो राजनीतिक सत्ता को चुनौती देने लगी है। क्या देश की बिगड़ती इकनोमी ने शिक्षा से लेकर रोजगार तक के ऐसे सवालो को जन्म दे दिया है जिसमें छात्र अपने वजूद के ही खत्म होने की परिस्थितियां देख रहा है। क्या पहली बार छात्र उन सारे मुद्दो को उठाने के लिये तैयार हो रहा है जो मुद्दे कमोवेश हर समुदाय विशेष से जुडे है लेकिन एक तरफ राजनीतिक शून्यता तो दूसरी तरफ कालेज-यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ चुनाव ना होने की स्थिति में वह खामोश रहा। या फिर नागरिकता के सवाल ने अर्से बाद छात्रो के हाथो में आंदोलन की वह ट्रिगर थमा दी है जो सामाजिक-राजनीतिक अंतर्विरोध तले अभी तक दब जाती थी। कभी जाति तो कभी धर्म की राजनीति छात्रों को खेमो में बांट देती थी। पर नागरिकता का सवाल सीधे संविधान की आत्मा से जुडा है तो खेमे टूट रहे है। 



जेएनयू, जामिया, बीएचयू, इलाहबाद, उस्मानिया, एएमयू, जाधवपुर सरीखे दर्जनो विश्वविघालय के भीतर छात्रो के सवाल अब जिस तरह उठ रहे है उसमें ये कहना या सोचना गलत होगा कि सवाल सिर्फ नागरिकता संशोधन अधिनियम या सिटीजन रजिस्टर का है या फिर मसला सिर्फ मुसलिमो से जुडा है। दरअसल भारत पहली बार उन परिस्थितियो से गुजर रहा है जहा संसद की ताकत संविधान और लोकतंत्र को भी अपने तरीके से परिभाषित करते हुये संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देने से नहीं हिचक रही है। 

तो समझना जरुरी है कि आखिर जामिया यूनिवर्सिटी में पुलिस के घुस कर लाठी बरसाने को शिवसेना नेता उद्दव ठाकरे भी जालियांवाला बाग से क्यों जोड़ रहे हैं। संसद की मुहर लगने के बाद भी छह राज्य नागरिकता संशोधन अधिनियम लागू करने से इंकार क्यों कर रहे हैं। फिर 1985 में हुये असम आंदोलन में छात्र अगर संस्कृति और भाषा को अपने वजूद से जोड कर आंदोलन करने उतरे थे और 861 आंदोलनकारियों के शहीद होने के बाद उन्हे असम समझौता मिला। तो 2019 में असम आंदोलन से जुडे छात्रो का मिजाज अपने राजनीतिक हक को ना गंवाने देने के लिये भी संघर्ष कर रहा है और राजनीतिक सत्ता से प्रभावित होती छात्रो की जिन्दगी से जुडे मुद्दो को भी अब अपनी राजनीतिक ताकत तले पाने की ललक आंदोलन कर रहे छात्रो की आंखो में है। 

संघर्ष की यह ललक देशभर के छात्रो के साथ उनके अपने दायरे में कैसे अलग अलग तरीके से उभर रही है। ये बेरोजगारी से भी समझा जा सकता है और आर्थिक मोर्च पर सरकार के फेल होने के बाद कमोवेश हर सेक्टर में छिनती नौकरियो से भी जाना जा सकता है। छात्रों के भीतर का आक्रोष जेएनयू और आईआईएमसी में फीस बढोतरी के आंदोलन से भी जाना जा सकता है और नई शिक्षा नीति के जरीये शिक्षा के निजीकरण की तरफ बढते कदम से भी जाना जा सकता है। जहा शिक्षा उन्ही के लिये होगी जिनकी जेब शिक्षा को खरीद पाने लायक होगी। यानी शिक्षा मंहगी हो रही है। 

विश्वविघालय को सत्ताधारी अपनी राजनीति के अड्डे बनाने पर आमादा है। प्रोफेसरो की नियुक्ति हो या वाइस चासंलर की नियुक्ति अगर उसकी सोच सत्ता या संघ समर्पित नहीं है तो वह टिक नहीं सकता। ये तो दिल्ली से सटे सोनीपत में स्थापित अशोका यूनिवर्सिटी के वाइस चासलंर प्रताप भानु मेहता को कार्यकाल पूरा होने से पहले 1 अगस्त 2019 में हटा देने से भी समझा जा सकता है। जो सरकार की नीतियों पर सवाल उठाते रहे। फिर दूसरी तरफ शिक्षा के लिये सरकार के पास बजट नहीं है। हालात इतने बुरे है कि घोषित बजट में भी तीन हजार करोड की कटौती की गई। फिर उच्च शिक्षा व यूनिवर्सिटी के लिये सरकार के पास पूंजी नहीं है। उच्च शिक्षा का स्तर गर्त में जा रहा है। रोजगार मिल नहीं रहे है जो नियुक्तिया हो भी रही हैं वह सत्ता से प्रभावित हैं। 

यानी सवाल कई हैं और इस दौर में तमाम सवालों से दो-दो हाथ करने की स्थिति में छात्र तब सामने आ रहे हैं जब राजनीतिक वैचारिक शून्यता चरम पर है। सत्ता ने विपक्ष को इस तरह सिमटा दिया है कि संसदीय राजनीति भी शून्यता के दौर में जा फंसी है। संवैधानिक संस्थाओ की भूमिका सत्तानुकुल है। सत्ता भी चंद हथेलियो में कैद है। तो क्या राजनीतिक शून्यता ही छात्र आंदोलन की जमीन तैयार कर रही है और अगर ऐसा हो रहा है तो समझना ये भी होगा कि पहली बार छात्र संघर्ष पारंपरिक छात्र राजनीति को नकार चुकी है। छात्र स्वत-स्फूर्त निकले हैं। कोई सांगठनिक ताकत के तौर पर उनकी मौजूदगी नहीं है। 

पुरानी युवा लीडरशीप खत्म हो चुकी है। अब छात्र नेतृत्व के संघर्ष में नहीं फंस रहे है बल्कि वह खुद को नये तरीके से संघर्ष को व्यापक बनाने का ऐलान उस सोशल मीडिया के जरीये कर रही है जिसकी ताकत का एहसास पारंपरिक नेताओ ने नहीं समझा। खुद को इस काबिल नहीं बनाया कि वह युवाओ को या कहे छात्रो को भी अपने संघर्ष के साथ जोड पाये । और सत्ता यहा भी छात्रो को बांधने के लिये कमर कसे हुये है। 

भारत दुनिया का पहला देश है जहा सत्ता के इशारे पर सबसे ज्यादा इंटरनेट बंद किया जाता है। हालात ये है कि बीते पांच बरस (2014-2019) में 349 बार इंटरनेट सेवा बंद की गई जबकि पाकिसातन तक में राजनीतिक इशारे पर सिर्फ 12 बार और इराक व यमन में 7-7 बार इंटरनेट बंद किया गया। बांग्लादेश में पांच बार बंद किया गया। लेकिन भारत मे सिर्फ 2018-19 में सवा दो सौ बार इंटरनेट सेवा बंद की गई। नागरिकता के सवाल पर आंदोलन कर रहे छात्रो के आपसी संवाद रोकने के लिये समूचे असम में और यूपी के लखनऊ, इलाहबाद, बनारस से लेकर दिल्ली के भी तीन इलाक में इंटरनेट जैमर का प्रयोग किया गया। 

जाहिर है छात्र आंदोलन के तेवर भी पुराने या पारंपरिक नेताओ सरीखे नहीं है। ध्यान दें तो पुराने या कहे बुजुर्ग नेताओ के सामने भी ये चुनौती है कि वह छात्र संघर्ष के जरीए राजनीतिक बदलाव का इंतजार करे या फिर आंदोलन को आगे बढाने के लिये अपनी ताकत भी झोंक दें। विपक्ष के तौर पर काग्रेस हो या क्षत्रपों की कतार, राजनीतिक साख किसी की बची नहीं है। पारंपरिक राजनीति में कोई नाम ऐसा है भी नहीं जो छात्र संघर्ष को दिशा सके या फिर छात्रो के सवालो का जवाब भी दे सके। 

सबसे युवा भारत का सच भी ये है कि करीब चार करोड छात्र कालेज-विश्वविघालय में है। 18 से 23 बरस के छात्रो की तादाद 70 फिसदी है और देश भर के 799 यूनिवर्सिटी हो या 39071 कालेज या फिर 11 हजार से ज्यादा वैसे सरकारी शिक्षा संस्थान जहा छात्रो का नामाकंन सिर्फ डिग्री पाने के लिये होता है। वहां पढ़ रहे छात्रों के सामने ये संकट है कि डिग्री हासिल करने के बाद रोजगार कहां मिलेगा। 

स्वरोजगार के लिये शुरु की गई मुद्रा योजना का सच भी यही है कि बीते तीन साल में (2017-2019) करीब 28 हजार करोड रुपये एनपीए खाते में चले गये। सरकारी आंकडो में रोजगार भी नहीं बढे जबकि इसी दौर सत्ताधारी पार्टी का झंडा उठाने के लिये करीब तीन करोड युवा पार्टी सदस्य भी बन गये। लेकिन अब जब आर्थिक स्थिति डगमग है तो युवाओ को सरकारी खजाने से पेंशन बांटने स्थिति में भी सरकार नहीं है। यानी दुनिया की सबसे बडी शिक्षा प्रणाली से निकलने वाले सबसे ज्यादा छात्र भारत में ही सबसे ज्यादा बेरोजगार हैं। तो सवाल यही है कि जब लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली में विपक्ष की राजनीति कुंद हो चली है।
 
बीजेपी के भीतर भी सरोकार की वह राजनीति सत्ता ने ही खत्म कर दी जहा जनता से जुडाव नेताओ का होता था और संसद को चुनौती देने के लिये छात्र-युवा सडक पर ये सोच कर उतर रहा है कि संसद की ताकत पाने के तरीके भी सत्ता ने हड़प लिये है। सत्ता ने खुद को कानून के दायरे से उपर रख कर कानून बनाने की स्थिति में परिभाषित करना शुरु कर दिया है तो फिर जनता करें क्या। असर इसी का है कि कभी पेशे से वकील रहे तरुण गगोई जो तीन बार असम के मुख्यमंत्री रहे वह भी अब जनता की लडाई लडने के लिये वकील का चोगा ओढ़ने के लिये तैयार है। 

कांग्रेस के होकर भी बीजेपी की सहयोगी असम गण परिषद की नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ दायर याचिका के लिये 36 साल बाद कोर्ट में जिरह के लिये तैयार है। यानी नागरिकता के सवाल ने अगर राजनीतिक सीमाओ को तोड दिया है तो पहली बार छात्र भी नागरिकता के सवाल के जरीये ही उन मुद्दो की पोटली को उठाकर संघर्ष के लिये तैयार हो चले है। जिसे विकास के नाम पर देश को परोसा गया और राजनीति साधने के लिये हिन्दु-मुस्लिम के दायरे में समेटने की कोशिश की गई।

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