सीएसआर यानी कॉरपोरेट सोशल रेसपांसिबिलिटी - यह कॉरपोरेट पर थोपे गए एक टैक्स का नाम है। इसकी वसूली नहीं होती। यह एक जिम्मेदारी है। ‘भ्रष्ट’ सरकार इसे सीएसटी या कॉरपोरेट सोशल टैक्स भी कह सकती थी और वैसा ही बना सकती थी। पर उसने इसे टैक्स नहीं जिम्मेदारी कहा। इसलिए यह टैक्स नहीं जिम्मेदारी है। टैक्स चुकाना आम आदमी का दायित्व है। वह कॉरपोरेट भी चुकाता है। उससे अलग या अतिरिक्त सीएसआर एक टैक्स है जो दायित्व के नाम पर कारपोरट को खर्च करना होता है। इसलिए भी यह टैक्स से अलग है। यह खर्च चूंकि कॉरपोरेट की सामाजिक जिम्मेदारी है। इसलिए यह राशि उसके आस-पास के समाज या उस समाज के लिए खर्च किया जाना चाहिए जो प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से कॉरपोरेट का दायित्व हो।
संक्षेप में कह सकते हैं कि सीआरएस नाम यूं ही नहीं है। वह टैक्स नहीं जिम्मेदारी है। टैक्स सरकार वसूलती है जिम्मेदारी आप खुद पूरी करते हैं। जिसने आपको दी हो वह देख सकता है या देखने की व्यवस्था कर सकता है कि आप अपनी जिम्मेदारी ठीक से पूरी करें। इसमें कहीं ऐसी कोई गुंजाइश नहीं है कि देखने वाला कहे कि लाओ, तुम अपनी जिम्मेदारी की कीमत हमें दो हम पूरी कर देंगे। जैसे सजा जिसे हुई हो वही जेल काट सकता है वह किसी और को नहीं रख सकता है वैसी जिम्मेदारी खुद पूरी करनी होती है। पैसे देकर नहीं कराए जाते। कहने का मतलब है कि सीएसआर नाम मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलने की तरह नहीं है। सोच समझ कर रखा गया है। वैसे ही जैसे पीएम केयर्स फंड में हर शब्द का अर्थ और मतलब है ताकि वह संक्षेप में पीएम केयर्स बने।
पीएम केयर्स एक ट्रस्ट है उसके ट्रस्टी मंत्री हों पर ट्रस्ट सरकारी नहीं है। इसलिए ना तो वह अपने नियम बनाने में और ना सरकारी नियमों के पालन या अवहेलना में सरकार या सरकार से ऊपर है। ऐसे में सीएसआर के पैसे पीएम केयर्स में लेना निश्चित रूप से गलत है और प्रधानमंत्री का उसमें दान मांगना भी वैसे ही गलत है जैसे केरल सरकार का विदेश में बसे राज्य के निवासियों से चंदा लेना गलत था। नरेन्द्र मोदी सरकार ईमानदारी के दावे के साथ दो तरह के फैसले करती है और अलग-अलग समय दोनों को सही बताती है। अव्वल तो अदालतें भी सरकारी फैसलों की पुष्टि कर देती हैं पर जहां अदालत के फैसले अलग होते हैं वह अखबारों में नहीं छपते और इस तरह सरकार का छवि बनाने का कार्यक्रम अच्छा चल रहा है।
यह स्थिति तब है जब सीएसआर का पैसा पीएम केयर्स में तो दिया जा सकता है पर राज्य के मुख्यमंत्री के कोष में नहीं। हालांकि मेरा एक सवाल यह भी है कि पीएम केयर्स अगर सही तो क्या थाना स्तर पर दरोगा केयर्स या मुख्यमंत्री केयर्स भी क्यों नहीं होना चाहिए? हालांकि, वह अलग मुद्दा है। अभी स्थिति यह है कि झारखंड के कॉरपोरेट सीएसआर का पैसा पीएम केयर्स में दे सकते हैं पर झारखंड के मुख्यमंत्री को नहीं। पीएम केयर्स का पैसा केंद्र सरकार डबल इंजन की दूसरी सरकार (देने का झारखंड सरकार को भी दे सकती है) यानी उत्तर प्रदेश सरकार को दे सकते हैं। दूसरी ओर, राजनीतिक कारणों से उत्तर प्रदेश सरकार कांग्रेस की बसें नहीं लेती है क्योंकि लिस्ट में उसमें स्कूल बसें भी थीं।
मुझे पीएम केयर्स इसीलिए अनुचित लगता है क्योंकि मंत्रियों के ट्रस्टी होने के कारण यह भाजपा का ट्रस्ट हो गया है जबकि पैसा उसमें सरकारी या देश का है। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री राहत कोष के धन का वैसा दुरुपयोग (आप सदुपयोग या मनमाना खर्च कह सकते हैं) नहीं हो सकता है जैसा एक ट्रस्ट के ट्रस्टी आपस में तय करके कर सकते हैं। वैसे भी, प्रधानमंत्री जब मनमाने फैसले लिए जा रहे हैं तो ट्रस्ट के पैसे जो उनकी ही अपील पर इकट्ठे हुए हैं क्यों नहीं मनमाने ढंग से खर्च कर सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि यह पैसे दूसरे लोगों के पास होता तो वे अपनी जिम्मेदारी समझकर गरीबों और पैदल चलने वालों के लिए कुछ कर रहे होते जैसे सोनू सूद कर रहे हैं।
संक्षेप में कह सकते हैं कि सीआरएस नाम यूं ही नहीं है। वह टैक्स नहीं जिम्मेदारी है। टैक्स सरकार वसूलती है जिम्मेदारी आप खुद पूरी करते हैं। जिसने आपको दी हो वह देख सकता है या देखने की व्यवस्था कर सकता है कि आप अपनी जिम्मेदारी ठीक से पूरी करें। इसमें कहीं ऐसी कोई गुंजाइश नहीं है कि देखने वाला कहे कि लाओ, तुम अपनी जिम्मेदारी की कीमत हमें दो हम पूरी कर देंगे। जैसे सजा जिसे हुई हो वही जेल काट सकता है वह किसी और को नहीं रख सकता है वैसी जिम्मेदारी खुद पूरी करनी होती है। पैसे देकर नहीं कराए जाते। कहने का मतलब है कि सीएसआर नाम मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलने की तरह नहीं है। सोच समझ कर रखा गया है। वैसे ही जैसे पीएम केयर्स फंड में हर शब्द का अर्थ और मतलब है ताकि वह संक्षेप में पीएम केयर्स बने।
पीएम केयर्स एक ट्रस्ट है उसके ट्रस्टी मंत्री हों पर ट्रस्ट सरकारी नहीं है। इसलिए ना तो वह अपने नियम बनाने में और ना सरकारी नियमों के पालन या अवहेलना में सरकार या सरकार से ऊपर है। ऐसे में सीएसआर के पैसे पीएम केयर्स में लेना निश्चित रूप से गलत है और प्रधानमंत्री का उसमें दान मांगना भी वैसे ही गलत है जैसे केरल सरकार का विदेश में बसे राज्य के निवासियों से चंदा लेना गलत था। नरेन्द्र मोदी सरकार ईमानदारी के दावे के साथ दो तरह के फैसले करती है और अलग-अलग समय दोनों को सही बताती है। अव्वल तो अदालतें भी सरकारी फैसलों की पुष्टि कर देती हैं पर जहां अदालत के फैसले अलग होते हैं वह अखबारों में नहीं छपते और इस तरह सरकार का छवि बनाने का कार्यक्रम अच्छा चल रहा है।
यह स्थिति तब है जब सीएसआर का पैसा पीएम केयर्स में तो दिया जा सकता है पर राज्य के मुख्यमंत्री के कोष में नहीं। हालांकि मेरा एक सवाल यह भी है कि पीएम केयर्स अगर सही तो क्या थाना स्तर पर दरोगा केयर्स या मुख्यमंत्री केयर्स भी क्यों नहीं होना चाहिए? हालांकि, वह अलग मुद्दा है। अभी स्थिति यह है कि झारखंड के कॉरपोरेट सीएसआर का पैसा पीएम केयर्स में दे सकते हैं पर झारखंड के मुख्यमंत्री को नहीं। पीएम केयर्स का पैसा केंद्र सरकार डबल इंजन की दूसरी सरकार (देने का झारखंड सरकार को भी दे सकती है) यानी उत्तर प्रदेश सरकार को दे सकते हैं। दूसरी ओर, राजनीतिक कारणों से उत्तर प्रदेश सरकार कांग्रेस की बसें नहीं लेती है क्योंकि लिस्ट में उसमें स्कूल बसें भी थीं।
मुझे पीएम केयर्स इसीलिए अनुचित लगता है क्योंकि मंत्रियों के ट्रस्टी होने के कारण यह भाजपा का ट्रस्ट हो गया है जबकि पैसा उसमें सरकारी या देश का है। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री राहत कोष के धन का वैसा दुरुपयोग (आप सदुपयोग या मनमाना खर्च कह सकते हैं) नहीं हो सकता है जैसा एक ट्रस्ट के ट्रस्टी आपस में तय करके कर सकते हैं। वैसे भी, प्रधानमंत्री जब मनमाने फैसले लिए जा रहे हैं तो ट्रस्ट के पैसे जो उनकी ही अपील पर इकट्ठे हुए हैं क्यों नहीं मनमाने ढंग से खर्च कर सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि यह पैसे दूसरे लोगों के पास होता तो वे अपनी जिम्मेदारी समझकर गरीबों और पैदल चलने वालों के लिए कुछ कर रहे होते जैसे सोनू सूद कर रहे हैं।