"अंतराष्ट्रीय पटल पर अमेरिकी बदतमीज़ी व भारत का अपमान"

Written by आकाश सिंह | Published on: April 25, 2020
भारत के स्वभिमान का तेज भला हेनरी किसिंजर ने नहीं देखा कि निक्सन नहीं देखा कि ट्रूमन ने नहीं देखा? शीतयुद्धकालीन समय में भी बार-बार अमेरिका अपने पाले में भारत को खींचने के लिए तमाम हथकण्डे अपनाकर हार मान चुका था, नेहरू की नॉन-अलायमेंट की नीति के आगे युनाइटेड स्टेट्स के सभी तिकड़म ध्वस्त हो गये थे।



जहाँ पूरा विश्व स्टारडम में लगा हुआ था, वहाँ भारत जैसे अभी-अभी आज़ाद हुए ग़रीब और सैन्य मामले में कमज़ोर मुल्क अपने हितों को कैसे सुरक्षित रख पाएं, यह नेहरू, शास्त्री, इंदिरा व चरण सिंह जैसे भारतीय हुक्मरानों ने करके दिखाया। आज और कुछ नहीं, तो उनके द्वारा अपनाये गये कुछ मूलभूत सिद्धांतों व नीतियों को भी बरकरार रखें, तो बहुत-से संकट व दबाव के सामने हम सीधी रीढ़ के साथ खड़े रह पायेंगे। हमारे पुरखों ने न ही किसी के साथ गोलबंदी की, न ही किसी का छिछला विरोध किया और खुद का सम्मान व स्वाभिमान बरकरार रखते हुए एवं सभी से मदद लेते हुए देश की एकता, अखंडता व संप्रभुता की खातिर परमाणु हथियार भी तैयार कर लिए। यह इसलिए भी सम्भव हो सका कि वर्तमान की भांति होमी जहांगीर भाभा, डॉक्टर अब्दुल कलाम, महबूब-उल-हक़ और सीवी रमन, अमर्त्य सेन के बीच धार्मिक असमानताओं व उन्माद की राजनीति नहीं होती थी, और सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से उनकी वृत्तिगत स्वायत्ता पर कोई दबाव नहीं था। आज जिस कोरोना वायरस की मारक औषधि की वैश्विक स्तर पर खोज हो रही, तमाम प्रयोगशालाएं रात-दिन एक करके इसी जद्दोजहद में लगी हुई है, लेकिन दुर्भाग्यवश भारत की मुख्यधारा की मीडिया लेबोरेट्रीज़ कोरोना के धर्म पर अनुसंधान कर रहे हैं।

बात राजीव गाँधी की सरकार की है, आधुनिकता और हिंदुस्तान पर उनका एक साफ़ विज़न था। इसी विज़न के अंतर्गत जब भारत ने अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन से सुपर कम्प्यूटर की मांग की, तो उन्होंने बेहूदगी भरे स्वर में मांग को ही नकार दिया। भारत ने इसको अपनी प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाते हुए रूस से मांग की, बिना किसी देरी के रूस ने भारत को सुपरकंप्यूटर भिजवाने का एलान कर दिया था। सैन्य उपकरणों की सुरक्षा या सेफ्टी, मरम्मत व सस्टेनिबिलिटी की बात करें तो अमेरिकी उपकरण सुरक्षा मानकों पर रूस के मुक़ाबले खरे नहीं उतरते हैं।

बांग्लादेश जैसे देश में इंदिरा गाँधी जैसी दूरदर्शी प्रधानमंत्री ने बिना किसी सेना को रेडियो पर अल्टिमेटम दिये पाकिस्तान को सरेंडर करने को मजबूर कर दिया, इतना ही नहीं सद्दाम हुसैन के ख़िलाफ़ अमेरिकी साज़िश पर भी भारत ने अमेरिका की आँखों मे आँख डाल सवाल करने की हिम्मत दिखाई थी।

सन 1988 में मालदीव के स्थानीय उग्रनेता अब्दुल्लाह लुत्तुफ़ी के सैन्य संगठन व श्रीलंकाई अलगाववादी ताक़तों के तालमेल से अब्दुल गयूम की लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार पर गुंडई व बलज़ोरी से कब्जा करने की कोशिश हुई थी, तब गयूम के एक अनुरोध पर भारत सरकार ने लोकतंत्र की मर्यादा व वहां के राष्ट्रपति की प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए भारत की ओर से ऑपरेशन कैक्टस चलाया था। भारत ने वायुसेना की इल्ल्युसिन-II 76 में पैराट्रूपर्स भरकर माले में लैंडिंग कराई व कुछ ही घण्टों में हालात पर काबू कर लिया।

हमारा संसाधन, हमारी मेहनत, हमारा ख़ून, हमारी दवाइयां! और खुद हमारे देश में इतने लोग पीड़ित हैं और आर्थिक रूप से कमज़ोर भी, भला यह ट्रम्प कौन बला है जो हमें ज़बरदस्ती हमारी निर्यात नीति की बाहें मरोड़ कर दवाइयां अपने देश भेजने को धमकाए?

हमारी ऐसी कौन मजबूरी कि हम उसकी धमकी सुनें, जिसे सुनना है वो सुने, और जिन्हें दोस्ती निभानी है वो निभाए, लेकिन कुर्सी पर कोई भी हो कुर्सी भारत की है। यह बाबा साहब के संविधान की अस्मिता पर चोट है, भारतीय गणतंत्र की इयत्ता पर हमला है। प्रधानमंत्री की गरिमा व ख्याति हमारे पुरखों द्वारा ख़ुद्दारी से अर्जित सम्मान पर टिकी है, जिसे पिछले प्रधानमंत्रियों ने जतन से बनाया था। इसलिए, अमेरिका की इस अंतराष्ट्रीय बदतमीज़ी व बदनीयती की जिस हद तक निंदा किया जाए, कम है। एक निंदा प्रस्ताव सदन में पास किया जाना चाहिए था, संयुक्त राष्ट्र को भी इसकी कॉपी भेजी गई होती।

जगजाहिर है कि अमेरिका सुपरपावर है, लेकिन सैन्य व आर्थिक मामलों में वह सुपर है न कि हमारे स्वभिमान और प्रतिष्ठा में यह महाशक्ति काम आने वाली है। अभी के हालात में अमेरिका को कोरोना से निपटने के लिए दवाई चाहिए भी थी, दबाव बनाया जा सकता था, जिससे पूरे विश्व स्तर पर एक अनुशासनात्मक संदेश जाता।

तेजी से उभरता पड़ोसी देश चीन की बदनीयत जगजाहिर है, फिर भी विदेश-नीति में जीवन-मरण जैसे मुद्दों को तरजीह देकर अपना हित सुरक्षित रखना ही असल कूटनीति होती है जिसमें हमारी चीन के साथ विदेश नीति विफल है।

फॉरेन पालिसी के भी प्रोटोकॉल होते हैं जिसका बकायदा पालन करना होता है। यह कोई देश के अंदर की राजनीति नहीं, जो मन सो कह दें, वोट ले लें। अंतर-राष्ट्रीय राजनीति है, बहुत सतर्कता, सजगता व होशियारी से हर क़दम रखने होते हैं। कोई आस्तीन का सांप भी साबित होता है तो कोई-कोई रूस जैसे बन्दरी सेना भेजकर दोस्ती की नायाब मिसाल भी पेश करता है।

मौजूदा उदारवादी व्यवस्था अपने स्थायित्व की चुनौती का सामना कर रहा है, पूरा विश्व पुनः दो ध्रुवों में बटता दिख रहा जहाँ एक ओर चीन की ओर से उभरती नई ताक़त अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दे रही, उसके संतुलन हेतु अमेरिका को निसन्देह भारत की ज़रूरत है। लेकिन भारत उसकी कई वैकल्पिक व्यवस्थाओं में से एक है। क्योंकि पाकिस्तान, इज़राइल और तमाम देश अमेरिका के चहेतों में शुमार हैं।

चीन से भी पूरा ही रिश्ता बिगाड़ लेना और उसके सबसे बड़े दुश्मन से ऐसी दोस्ती कर लेना कि वह जब तब हमें हुरपेट लगाए, तो इसे ससम्मान दोस्ती नहीं, बल्कि ख़ुद भारत के वजूद का अंतर-राष्ट्रीय बाज़ार में डॉलर की करेंसी में बोली लगवाना कहेंगे। और बिकाऊ मुख्यधारा की भारतीय मीडिया इसे भारत-अमेरिका यानी मोदी-ट्रम्प के रिश्ते का रुद्राभिषेकीकरण का नाम भी दे, तो इसमें हैरत करने की संभावनाएं शून्य हैं।

अव्वल कि चीन के नेताओं से सीख लेते हुए भारत के सत्तासीन नेतागण इधर-उधर महाशक्तिशाली देशों की पहलदारी, हरवाही-चरवाही और धर्म व जाति के वोटबैंक की राजनीति करने के बजाय अपनी मूलभूत व्यवस्थाओं का उच्च स्तरीय सुदृढ़ीकरण करें, जिससे सर्वश्रेष्ठ युवाओं का देश कहे जाने वाले भारत के युवाओं को काम मिले, कौशल-स्वास्थ्य-शिक्षा और सुरक्षा की ऐसी जाल बुने कि अन्य देशों की बेवजह राग-दरबारी न करनी पड़े!

जब कोई भी देश आंतरिक रूप से मज़बूत होता है तब उसे किसी भी मंच पर अपेक्षित तवज्जो हासिल होती है, अन्यथा “नमस्ते ट्रम्प”, “अबकी बार, ट्रम्प सरकार” के नासमझी से भरे नारे देकर, देश के लोगों का पैसा स्वागतम अभियान में खर्च कर हमें बारम्बार निराशा ही हाथ लगने वाली है।

(आकाश सिंह डिपार्टमेंट ऑफ बुद्धिस्ट स्टडीज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्ययनरत हैं।)

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