देश के 5 राज्यों पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुदुचेरी में हुए चुनाव का परिणाम कोरोना महामारी के भयावह दौर में घोषित हो चूका है. कोरोना की दूसरी लहर के बीच जिस परिस्थिति में लोग घिरे हुए हैं, उसमें किसी भी राजनीतिक दल के जीत की ख़ुशी मनाने या किसी के हार पर चर्चा करने के हालात नहीं हैं. ऑक्सीजन, आईसीयू बेड्स, इंजेक्सन की किल्लत और शमशान-कब्रिस्तान में लगती लम्बी कतार आज का सच है. ऐसी परिस्थति में चुनाव परिणामों की घोषणा हुई है. कोरोना के जिस दूसरी लहर की चपेट से देश जूझ रहा है उसके लिए इन राज्यों में कराए गए चुनाव और उसको जीतने के लिए की गयी कार्यकलाप भी जिम्मेदार है. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन चुनावी रैलियों और सभाओं की अगुवाई देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी ने ही की है.
किसी भी देश के प्रधानमंत्री की यह जिम्मेदारी होती है कि नागरिक हित में वो फैसले लें और महामारी के इस दौर में अपने देश की आवाम को सुरक्षा प्रदान करे लेकिन हमारे प्रधानमंत्री का आचरण इससे ठीक उलट है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA) के उपाध्यक्ष डॉ. नवजोत दहिया ने कोरोना महामारी के नियमों की धज्जियाँ उड़ाने के लिए प्रधानमंत्री को कोरोना का सुपरस्प्रेडर या महाप्रचारक की संज्ञा दे डाली है. कोई भी राजनीतिक दल चुनाव जीतना चाहती है और किसी भी लोकतंत्र के लिए यह ठीक भी है लेकिन कोरोना महामारी से तड़पती देश की जनता को दरकिनार कर महज चुनाव जीतने पर फोकस करना जीत की भूख नहीं हवस को दिखाती है जिसे हर पल जान गंवाते हुए लोग नजर नहीं आते हैं.
अगर चुनाव परिणामों की बात की जाए तो इन 5 राज्यों में से 2 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी ने जीत दर्ज की है जबकि अन्य राज्यों में क्षेत्रीय दलों के द्वारा उन्हें करारी शिकस्त मिली है. क्षेत्रीय दल पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु की राजनीति से फ़ासीवादी, मनुवादी सरकार को दूर रखने में कामयाब जरुर हुई है पर उनकी उपस्थिति के ख़तरे को नकारा नहीं जा सकता है. विपरीत और कठिन परिस्थितियों के बावजूद पश्चिम बंगाल में संघ और बीजेपी काफ़ी हद तक जनता को दिग्भ्रमित करने में कामयाब रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को सिर्फ़ 2 सीटें मिली थी लेकिन इस चुनाव में उनकी सीटें 80 तक पहुंच गयी है और बंगाल में यह भाजपा की बड़ी जीत है. लेफ्ट के वोट को अपने पाले में कर बीजेपी ममता बनर्जी को भी हराने में कामयाब रही है. हालाँकि ममता की टीएमसी (TMC) पार्टी ने भाजपा को चुनाव में मात जरुर दी है लेकिन आने वाले समय में धार्मिक, जातीय व् सांप्रदायिक उन्माद की स्थति को पैदा कर ममता बनर्जी की सरकार इनके द्वारा अस्थिरता पैदा करने का ख़तरा बना रहेगा.
बंगाल चुनाव में वामदलों की शिकस्त 34 साल के वामदलों की राजनीति पर सवालिया निशान खड़े करते हैं. वामदल पहली बार 1977 में सत्ता में आई थी जिसे 2011 में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने चुनौती दी. इस दौरान वाम मोर्चे के वोटों का कुल प्रतिशत 45 से 52 तक रहा. 2007 में, नंदीग्राम और सिंगुर में विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) व् भूमि अधिग्रहण को लेकर वाम सरकार के खिलाफ राजनीतिक आंदोलन शुरू हुआ. इसमें तृणमूल कांग्रेस ने विपक्ष का दामन थाम लिया. इसका परिणाम 2011 के विधानसभा चुनावों में वाम दलों की हार के रूप में सामने आया. हालाँकि वामदलों का कुल प्रतिशत इस बार ज्यादा नहीं गिरा. 2011 के बंगाल चुनाव में कुल वोटों का प्रतिशत कुल 43.3 था. 2016 का बंगाल चुनाव तृणमूल के ख़िलाफ़ वामपंथी और कांग्रेस द्वारा संयुक्त रूप से लड़ा गया लेकिन ममता बनर्जी ने अच्छा प्रदर्शन किया. उस समय भी बंगाल की जनता ने बीजेपी को विकल्प के रूप में नहीं देखा था. 2018 में बंगाल में पंचायत चुनाव हुए. इस बीच तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा प्रदेश में बेखोफ़ होकर कई हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया गया. इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि 2018 के पंचायत चुनाव में टीएमसी उम्मीदवारों को 1/3 सीटों पर निर्विरोध तरीके से चुना गया क्यूंकि विपक्ष के द्वारा इनके ख़िलाफ़ कोई भी आवेदन नहीं किया गया था या यूँ कहें कि आवेदन नहीं करने दिया गया था. इससे नाराज होकर आम जनता और ज़मीनी वाम-कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को वोट कर दिया. परिणामस्वरूप 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी नें उम्मीद से अधिक सीटें जीती और वे बंगाल में पैर पसारने के लिए प्रेरित हुए. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 40.64 फ़ीसदी हो गया था जबकि वाममोर्चे को कुल वोटों का 7.96 फ़ीसदी ही प्राप्त हुआ. यह बंगाल की राजनीति का एक ऐतिहासिक मोड़ है जिसे दिशा देने में केन्द्रीय वाम नेतृत्व असफ़ल रही.
कोरोना काल में संम्पन्न 2021 के बंगाल चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने तीसरी बार भारी मतों से जीत दर्ज की है. नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, तृणमूल कांग्रेस को 47.96%, भाजपा को 38.10%, राष्ट्रीय कांग्रेस को 2.98%, सीपीएम को 4.68% और सीपीआई को 0.21% प्राप्त हुए. वामपंथी पार्टी सीपीआई (एम) ने 0.03% वोट के साथ उपचुनाव लड़ा. इस चुनाव में जहाँ वाममोर्चे को एक भी सीट हासिल नहीं हुआ है वहीं भाजपा 80 सीट जीत कर प्रदेश में एक मजबूत विकल्प के रूप में उभरी है जो पश्चिम बंगाल सहित देश भर की राजनीति के लिए घातक है.
इसके अलावा केरल में वाम मोर्चे की जीत उल्लेखनीय है जहाँ हर साल सत्ता परिवर्तन हो जाने के रिकार्ड को धराशायी किया गया है. वाम मोर्चे की यह जीत 5 वर्षों में उनके द्वारा किए गए कामों की जीत है. इन पाँच वर्षों में प्राकृतिक आपदा और उसके बाद कोरोना महामारी से जिस तरह केरल की वाम मोर्चे की सरकार निपटी,वह दर्शाता है कि संवेदनशील और जनपक्षधर सरकार होना क्या होता है. ख़ास कर कोरोना की पहली और दूसरी लहर ममें केरल की वाम मोर्चा सरकार की कार्य प्रणाली और सुझबुझ ने अंतर राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की. कोरोना की पहली लहर के वक्त, उससे निपटने की कोशिशों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 23 जून 2020 को अंतरराष्ट्रीय सेवा दिवस के मौके पर आयोजित समारोह में केरल की स्वास्थ्य मंत्री के.के.शैलजा को वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया. इस वर्ष जब देश का हर राज्य कोरोना के दूसरी लहर से परेशान है तो ऐसे समय में भी केरल अपने राज्य की जरूरतों को पूरा कर के अन्य राज्यों तक भी ऑक्सीजन सप्लाई कर रहा है. देश में कोरोना के महाप्रसरक सत्ता के सामने वाम मोचा की जीत स्वास्थ्य व् शिक्षा के हितैषियों की जीत है.
3 राज्यों में भाजपा की हार में किसान आन्दोलन ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. किसान आन्दोलन में शामिल नेताओं द्वारा भाजपा के ख़िलाफ़ अभियान और बंगाल सहित दुनिया के अलग अलग स्थाओं पर चलाए गए ‘नो वोट फ़ॉर बीजेपी’ अभियानों का कारगर असर दीखता है. असम में 2019 से जेल में बंद किसान कार्यकर्ता अखिल गोगोई की जीत भी सड़कों पर आन्दोलन कर रहे कार्यकर्ताओं और CAA-NRC जैसे जनसंघर्षों की जीत है.
देश में 3 लाख से अधिक कोरोना के केस मिलने की स्थिति में भी प्रधानमंत्री सहित केंदीय नेतृत्व का बंगाल चुनाव में फोकस करना दिखाता है कि केन्द्रीय नेतृत्व की नजर में जिन्दगी की जंग पर चुनावी रण भारी पड़ गया. उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव का ताजा उदाहरण भी हमारे सामने है जहाँ शिक्षक संघ के अनुसार पंचायत चुनाव की ड्यूटी करने से 700 से अधिक शिक्षकों नें अपनी जान कोरोना की वजह से गंवाई है. मीडिया और प्रचार सरकार को कितना भी महामारी के प्रति संवेदनशील दिखा दे, कोरोना पर कितना भी मन के बात का प्रचार करवा लेकिन वर्तमान में कोरोना महामारी का प्रसार ही भाजपा के खाते में उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है.
किसी भी देश के प्रधानमंत्री की यह जिम्मेदारी होती है कि नागरिक हित में वो फैसले लें और महामारी के इस दौर में अपने देश की आवाम को सुरक्षा प्रदान करे लेकिन हमारे प्रधानमंत्री का आचरण इससे ठीक उलट है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA) के उपाध्यक्ष डॉ. नवजोत दहिया ने कोरोना महामारी के नियमों की धज्जियाँ उड़ाने के लिए प्रधानमंत्री को कोरोना का सुपरस्प्रेडर या महाप्रचारक की संज्ञा दे डाली है. कोई भी राजनीतिक दल चुनाव जीतना चाहती है और किसी भी लोकतंत्र के लिए यह ठीक भी है लेकिन कोरोना महामारी से तड़पती देश की जनता को दरकिनार कर महज चुनाव जीतने पर फोकस करना जीत की भूख नहीं हवस को दिखाती है जिसे हर पल जान गंवाते हुए लोग नजर नहीं आते हैं.
अगर चुनाव परिणामों की बात की जाए तो इन 5 राज्यों में से 2 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी ने जीत दर्ज की है जबकि अन्य राज्यों में क्षेत्रीय दलों के द्वारा उन्हें करारी शिकस्त मिली है. क्षेत्रीय दल पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु की राजनीति से फ़ासीवादी, मनुवादी सरकार को दूर रखने में कामयाब जरुर हुई है पर उनकी उपस्थिति के ख़तरे को नकारा नहीं जा सकता है. विपरीत और कठिन परिस्थितियों के बावजूद पश्चिम बंगाल में संघ और बीजेपी काफ़ी हद तक जनता को दिग्भ्रमित करने में कामयाब रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को सिर्फ़ 2 सीटें मिली थी लेकिन इस चुनाव में उनकी सीटें 80 तक पहुंच गयी है और बंगाल में यह भाजपा की बड़ी जीत है. लेफ्ट के वोट को अपने पाले में कर बीजेपी ममता बनर्जी को भी हराने में कामयाब रही है. हालाँकि ममता की टीएमसी (TMC) पार्टी ने भाजपा को चुनाव में मात जरुर दी है लेकिन आने वाले समय में धार्मिक, जातीय व् सांप्रदायिक उन्माद की स्थति को पैदा कर ममता बनर्जी की सरकार इनके द्वारा अस्थिरता पैदा करने का ख़तरा बना रहेगा.
बंगाल चुनाव में वामदलों की शिकस्त 34 साल के वामदलों की राजनीति पर सवालिया निशान खड़े करते हैं. वामदल पहली बार 1977 में सत्ता में आई थी जिसे 2011 में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने चुनौती दी. इस दौरान वाम मोर्चे के वोटों का कुल प्रतिशत 45 से 52 तक रहा. 2007 में, नंदीग्राम और सिंगुर में विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) व् भूमि अधिग्रहण को लेकर वाम सरकार के खिलाफ राजनीतिक आंदोलन शुरू हुआ. इसमें तृणमूल कांग्रेस ने विपक्ष का दामन थाम लिया. इसका परिणाम 2011 के विधानसभा चुनावों में वाम दलों की हार के रूप में सामने आया. हालाँकि वामदलों का कुल प्रतिशत इस बार ज्यादा नहीं गिरा. 2011 के बंगाल चुनाव में कुल वोटों का प्रतिशत कुल 43.3 था. 2016 का बंगाल चुनाव तृणमूल के ख़िलाफ़ वामपंथी और कांग्रेस द्वारा संयुक्त रूप से लड़ा गया लेकिन ममता बनर्जी ने अच्छा प्रदर्शन किया. उस समय भी बंगाल की जनता ने बीजेपी को विकल्प के रूप में नहीं देखा था. 2018 में बंगाल में पंचायत चुनाव हुए. इस बीच तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा प्रदेश में बेखोफ़ होकर कई हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया गया. इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि 2018 के पंचायत चुनाव में टीएमसी उम्मीदवारों को 1/3 सीटों पर निर्विरोध तरीके से चुना गया क्यूंकि विपक्ष के द्वारा इनके ख़िलाफ़ कोई भी आवेदन नहीं किया गया था या यूँ कहें कि आवेदन नहीं करने दिया गया था. इससे नाराज होकर आम जनता और ज़मीनी वाम-कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को वोट कर दिया. परिणामस्वरूप 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी नें उम्मीद से अधिक सीटें जीती और वे बंगाल में पैर पसारने के लिए प्रेरित हुए. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 40.64 फ़ीसदी हो गया था जबकि वाममोर्चे को कुल वोटों का 7.96 फ़ीसदी ही प्राप्त हुआ. यह बंगाल की राजनीति का एक ऐतिहासिक मोड़ है जिसे दिशा देने में केन्द्रीय वाम नेतृत्व असफ़ल रही.
कोरोना काल में संम्पन्न 2021 के बंगाल चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने तीसरी बार भारी मतों से जीत दर्ज की है. नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, तृणमूल कांग्रेस को 47.96%, भाजपा को 38.10%, राष्ट्रीय कांग्रेस को 2.98%, सीपीएम को 4.68% और सीपीआई को 0.21% प्राप्त हुए. वामपंथी पार्टी सीपीआई (एम) ने 0.03% वोट के साथ उपचुनाव लड़ा. इस चुनाव में जहाँ वाममोर्चे को एक भी सीट हासिल नहीं हुआ है वहीं भाजपा 80 सीट जीत कर प्रदेश में एक मजबूत विकल्प के रूप में उभरी है जो पश्चिम बंगाल सहित देश भर की राजनीति के लिए घातक है.
इसके अलावा केरल में वाम मोर्चे की जीत उल्लेखनीय है जहाँ हर साल सत्ता परिवर्तन हो जाने के रिकार्ड को धराशायी किया गया है. वाम मोर्चे की यह जीत 5 वर्षों में उनके द्वारा किए गए कामों की जीत है. इन पाँच वर्षों में प्राकृतिक आपदा और उसके बाद कोरोना महामारी से जिस तरह केरल की वाम मोर्चे की सरकार निपटी,वह दर्शाता है कि संवेदनशील और जनपक्षधर सरकार होना क्या होता है. ख़ास कर कोरोना की पहली और दूसरी लहर ममें केरल की वाम मोर्चा सरकार की कार्य प्रणाली और सुझबुझ ने अंतर राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की. कोरोना की पहली लहर के वक्त, उससे निपटने की कोशिशों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 23 जून 2020 को अंतरराष्ट्रीय सेवा दिवस के मौके पर आयोजित समारोह में केरल की स्वास्थ्य मंत्री के.के.शैलजा को वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया. इस वर्ष जब देश का हर राज्य कोरोना के दूसरी लहर से परेशान है तो ऐसे समय में भी केरल अपने राज्य की जरूरतों को पूरा कर के अन्य राज्यों तक भी ऑक्सीजन सप्लाई कर रहा है. देश में कोरोना के महाप्रसरक सत्ता के सामने वाम मोचा की जीत स्वास्थ्य व् शिक्षा के हितैषियों की जीत है.
3 राज्यों में भाजपा की हार में किसान आन्दोलन ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. किसान आन्दोलन में शामिल नेताओं द्वारा भाजपा के ख़िलाफ़ अभियान और बंगाल सहित दुनिया के अलग अलग स्थाओं पर चलाए गए ‘नो वोट फ़ॉर बीजेपी’ अभियानों का कारगर असर दीखता है. असम में 2019 से जेल में बंद किसान कार्यकर्ता अखिल गोगोई की जीत भी सड़कों पर आन्दोलन कर रहे कार्यकर्ताओं और CAA-NRC जैसे जनसंघर्षों की जीत है.
देश में 3 लाख से अधिक कोरोना के केस मिलने की स्थिति में भी प्रधानमंत्री सहित केंदीय नेतृत्व का बंगाल चुनाव में फोकस करना दिखाता है कि केन्द्रीय नेतृत्व की नजर में जिन्दगी की जंग पर चुनावी रण भारी पड़ गया. उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव का ताजा उदाहरण भी हमारे सामने है जहाँ शिक्षक संघ के अनुसार पंचायत चुनाव की ड्यूटी करने से 700 से अधिक शिक्षकों नें अपनी जान कोरोना की वजह से गंवाई है. मीडिया और प्रचार सरकार को कितना भी महामारी के प्रति संवेदनशील दिखा दे, कोरोना पर कितना भी मन के बात का प्रचार करवा लेकिन वर्तमान में कोरोना महामारी का प्रसार ही भाजपा के खाते में उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है.