कोरोना महामारी: मौजूदा तबाही और सरकारी लापरवाही

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: May 20, 2021
कोरोना महामारी की दूसरी लहर अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच चुकी है अब इस महामारी की तीसरी लहर के आने और उसके भयावह दुष्प्रभाव की चर्चा देश भर में हो रही है. भारत में हर ऱोज कोरोना के जितने मामले आ रहे हैं उतने केस तो पुरे विश्व को मिलाकर भी नहीं आ रहे हैं. महामारी को लेकर सरकार द्वारा बरती जा रही असंवेदनशीलता को अरुंधती रॉय नें ‘मानवता के ख़िलाफ़ अपराध’ बताया है. 



यह दीगर बात है कि इस अपराध को आज सिस्टम के मत्थे पर मढ दिया गया है. इस व्यवस्था (सिस्टम) की विफलता के पीछे निश्चित रूप से उनका हाथ होता है जो सत्ता को संभाल रहा होता है. आज ऑक्सीजन, आईसीयू बेड, दवाई के अभाव में कई लोग जान गवां चुके हैं. देश भर के लोग बेबसी, क्षोभ. क्रोध, खीझ, लाचारी में जीने को मजबूर हैं. यह बेबसी आज उनलोगों में भी देखी जा सकती है जो कभी अपनी नादानियों, या मोदी सरकार की अंधभक्ति में सरकारी जनविरोधी नीतियों के समर्थन में खड़े हुए थे. यह पहली बार हुआ है कि मोदी सरकार के घोर समर्थक भी आज या तो चुप्पी साघे बैठे हैं या मुखर होकर विरोध में बोल रहे हैं. सरकार को लेकर लोगों की चहक कम हुई है और खीझ बढ़ी है लेकिन फिर भी सरकार सकारात्मकता का पाठ पढ़ाने में अपना पूरा ध्यान लगाए हुए हैं. 

आज हमें याद रखना चाहिए कि जब वैज्ञानिक लोग कोरोना महामारी के दूसरी लहर आने की चेतावनी दे रहे थे उस समय हमारे देश के जिम्मेदार नेतृत्व के लोग सुपरस्प्रेडर बने फिर रहे थे. क्या हम उन 700 से ज्यादा शिक्षा कर्मियों को भूल पाएंगे जिसे जबरन उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव में ड्यूटी करने भेजा गया या उन 800 से अधिक डॉक्टरों को जो काम के बोझ, ख़राब स्वास्थ्य व्यवस्था और अत्यधिक तनाव के कारण कोरोना महामारी से शहीद हो गए. देश का एक वर्ग यह जरुर मानने को तैयार है कि हम मोदी के बनाए अर्धनिर्मित शौचालय याद रखें लेकिन नदियों में तैरती लाशें भूल जाएं. हम गोबर, गोमूत्र, रामदेव, कोरोनिल के चमत्कारों से अभिभूत होना बंद न करें और भूल जाएं कि जिस सरकार को अच्छे दिन के लिए वोट दिया था, वह आपसे सच, तथ्य, आंकड़े सब में हेराफेरी कर रही है. 
हमें भूल जाना चाहिए कि नदी किनारे गड्ढे में डाली गयी इंसानी लाशों को कुत्ते नोच कर खा रहे हैं, सरकार के ख़िलाफ़ एक पोस्टर लगाने मात्र से लोगों को जेल में डाला जा रहा है. सरकारी नीतियों के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर लिखने से FIR करवा कर गिरफ्तार किया जा रहा है. 

हमें यह भी भूल जाना चाहिए कि सरकार को अड़ियल बता कर देश के जाने माने विषाणु वैज्ञानिक शाहिद जमील ने भारतीय-सार्स-कोव-2-जीनोमिक्स कंसोर्टियम यानि INSACOG के प्रमुख पद से इस्तीफ़ा दे दिया है. ग़ौरतलब है कि INSACOG देश के जीनोम अनुक्रमण कार्य का समन्वय करने वाला वैज्ञानिक सलाहकार समूह है. इसे देश में फैले वायरस और इसके कई रूपों के जीनोम अनुक्रमण को बढ़ावा देने और इसे तेज करने के लिए इस वैज्ञानिक निकाय का गठन किया गया है. 

भारत ने कभी इतने बड़े पैमाने पर नहीं ली विदेशी मदद
महामारी के इस दौर में देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने केंद्र सरकार को इस भयावह स्थति से निबटने के लिए कुछ सलाह दीं जिसका उद्दंडतापूर्वक जबाब केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा दिया गया. इतिहास में अगर बहुत पीछे न भी जाया जाए तो भारतीय विदेश नीति पर गौर करने की जरुरत है. 2004 में देश में सुनामी आई जिसने काफ़ी तबाही मचाई उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री ने विदेशी सहायता लेने से मना कर दिया और देश के हालत को देश के संसाधनों  से ठीक किया गया. पहले भी देश ने आपदाओं का सामना किया है लेकिन विदेशी मदद के सामने इस कदर घुटने नहीं टेके. 

भारत में 1991 में उत्तरकाशी भूकंप, 1993 में लातूर भूकंप, 2000 में बंगाल चक्रवात और 2004 में बिहार में आए बाढ़ के बाद भी विदेशी मदद नहीं ली गयी थी. 2013 में उत्तराखंड में भीषण तबाही हुई, 2014 में कश्मीर में बाढ आई और हाल ही में 2018 में केरल जब भयावह बाढ़ के परिणामों का सामना कर रहा था तो यूएई द्वारा केरल को 700 करोड़ रूपये के मदद की पेशकश की गयी थी जिसे मोदी सरकार ने ही लेने से इनकार कर दिया. लेकिन आज कोरोना महामारी के समय सरकारी नाकामी को छुपाने के लिए सालों पुरानी परंपरा तोड़ दी गयी. कुछ दिन पहले तक आत्मनिर्भरता का ज्ञान बाँट कर विश्वगुरु बनने की बात करने वाले आज कांगो, रवांडा, सूडान जैसे अफ़्रीकी देशों से मदद लेने को तैयार हैं. अगर इस महामारी के संकट से ऊबर पाना भारत की क्षमता से बाहर होता तो दुसरे देशों से मदद लेना अच्छा था परन्तु इस देश के शासक को महल बनाने, बंगाल के विधायक को सुरक्षा देने, मूर्ति बनवाने के लिए प्रयाप्त धन है लेकिन वैक्सीन खरीद कर जनता की जान बचाने के लिए भिक्षाटन का सहारा लेना पड रहा है. 

निक्कमा नहीं है सत्तापक्ष, सरकार जो करना चाहती है वही कर रही है.
देश के लगभग हर राज्यों में कोरोना से मरे लोगों की लाशें अंतिम संस्कार तक से वंचित हो रही हैं लेकिन आत्म मुग्धता के जाल में गिरफ़्त मोदी सरकार सकारात्मकता फ़ैलाने में व्यस्त है. हठधर्मिता तो इतनी चरम पर है कि किसी भी परामर्श को अंगूठा दिखाने और शिकायत करने वालों पर क़ानूनी कार्यवाई करने तक का चलन जोरों पर है. एक से ज्यादा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक ने कहा है कि ‘ऑक्सीजन की कमी और जरुरी दवाएं नहीं मिल पाने के कारण हुई मौतें सामान्य मृत्यु नहीं है, ये हत्याएं है’ कोर्ट की एक–दो सुनवाई में तो इस परिस्थिति को नरसंहार तक कह दिया था. इन सताधारियों द्वारा कोर्ट द्वारा दी गई सलाह को भी अमल में नहीं लाया गया. आखिर में सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर सरकार द्वारा महामारी को रोक पाने में हुई विफलता को सामने लाया गया. सुप्रीम कोर्ट नें सरकार को विफ़ल बताते हुए कार्यवाई भी की. पहला-सरकार को नोटिस जारी किया गया और दूसरा 12 सदस्यीय टास्क फ़ोर्स गठित कर ऑक्सीजन सहित सभी आपूर्तियों के मामले की निगरानी स्वयं अपने हाथ में ले ली. ऐसा कदम उठाकर सुप्रीम कोर्ट ने लोकतंत्र में अपने वजूद के होने का अहसास बरक़रार रखा है साथ ही हाल के दिनों में लगातार नीचे गिरती सुप्रीम कोर्ट की साख को भी ऊपर किया है. हालाँकि सरकार की तरफ़ से ज़ारी नोटिस को लेकर दिए गए जबाब में अप्रत्यक्ष रूप से यह कहा गया कि कार्यपालिका काम करने में सक्षम है और न्यायपालिका को इसमें दख़ल नहीं देना चाहिए. गंगा से लेकर यमुना नदी में और दिल्ली से लेकर बिहार तक सैकड़ों लाशें नदियों में बहती चली जा रही हैं. सरकार कभी मरने वालों की संख्यां छुपाने में तो कभी आंकड़ों को संख्यां और प्रतिशत में बताने की चतुराई करने में लगी है. आज पूरी दुनिया यह मानती है कि कोरोना की दूसरी लहर भारत में आई नहीं है, बुलाई गयी है. दुसरे देशों को मदद करने का दंभ भरने वाली सरकार को आज युगांडा-रवांडा जैसे अफ़्रीकी देशों से मदद लेना पड रहा है.

यह भी कहना गलत होगा कि भारत सरकार कुछ कर नहीं रही है. कुम्भ के दंगल और चुनावी रैलियों, सभाओं से निबटते ही सरकार द्वारा बुलाई गयी पहली कैबिनेट मीटिंग में कोरोना आपदा के प्रबंधन पर कोई योजना बनाने के बजाय आईडीबीआई बेंक को बेचने का फ़ैसला लेकर मोदी सरकार ने यह साबित कर दिया कि वो जो करना चाहते हैं वो ही करते हैं. असल बात यह है कि आरएसएस समर्थित कार्पोरेट पूंजीवाद को हिंदुत्व के नाम पर बल देना ही मनुस्मृति का मूल कथन है जिसमें माना गया है कि सामर्थ्यवान लोगों को ही उच्च स्तर का जीवन जीने का अधिकार है और इस लिहाज से देश की प्रगति का मतलब है पूंजीपतियों का उद्धार यानि उनकी सम्पतियों में उछाल लाना. जिन पूंजीपतियों का मानना है कि महामारी और आपदाओं में मुनाफ़ा की असीम संभावनाएं होती है. वर्तमान में प्रधानमंत्री मोदी बिना लोक-लाज के आपदा में अवसर का सूत्रपात कर इन पूंजीपतियों के इरादों को अमली जामा पहना रहे हैं. 

आज सत्ता के ख़िलाफ़ मुखर होती जनता और दुखी होते भक्तों ने सत्ताधारी पार्टी को बेचैन जरुर कर रखा है. आज आत्ममुग्ध स्वघोषित शक्तिशाली प्रधानमंत्री सिर्फ़ पोस्टर लगने से ही नहीं बल्कि कलम के चलने से भी घबराए हुए हैं. कभी भाजपा की प्रिय लेखिका रहीं गुजरात की कवयित्री पारुल कक्कड़ ने वर्तमान हालात पर कविता लिखी है जिसके बाद भाजपा की ट्रोल आर्मी नें उन्हें हजारों स्त्री विरोधी गालियों से नवाजा है. पारुल कोई वामपंथी या उदारवादी लेखिका नहीं रहीं हैं. अब तक आरएसएस से जुड़े पत्रकार पारुल को गुजराती कविता की अगली सबसे बड़ी कवियित्री बता रहे थे और आज उनके द्वारा लिखी गयी 14 पंक्ति की कविता ने उन्हें देशद्रोहियों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है. सत्ता की पोल खोलती इस कविता की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:

एक साथ सब मुर्दे बोले, सब कुछ चंगा चंगा,
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा.
ख़त्म हुए शमशान तुम्हारे, ख़त्म काष्ठ की बोरी. 
थके हमारे कंधे सारे आँखें रह गईं कोरी. 
दर-दर जाकर यमदूत खेले मौत का नाच बेढंगा, 
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा. 

नित लगातार जलती चिताएं राहत मांगें पलभर, 
नित लगातार टूटें चूड़ियाँ, कुटती छाती घर घर. 
देख लपटों को फ़िडल बजाते वाह रे बिल्ला-रंगा,
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा. 

साहेब तुम्हारे दिव्य वस्त्र, दैदीप्य तुम्हारी ज्योति, 
काश असलियत लोग समझते, हो तुम पत्थर ना तुम मोती.
हो हिम्मत तो आके बोलो, मेरा साहेब नंगा, 
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा. 
    
पारुल कक्कड़ 
हिन्दी अनुवाद: इलियास शेख 


इस भयावह कोरोना महामारी के कारण सड़कों पर तड़पते लोग, और सोशल मीडिया पर जिन्दगी बचाने की गुहार लगाते-लगाते जान गंवानें वाले मरीज सत्ता के स्वघोषित शक्तिशाली पुरुष को भले विचलित नहीं करते हैं लेकिन देश के बुद्धिजीवियों को मुखर होकर कलम चलाने पर जरुर बाध्य कर रहे हैं. आज निर्भीक होकर सवाल करते लोग और निडर होकर चलती कलम ने यह दिखाया है कि तानशाही हुकूमतों को भयभीत करने का आज भी यह सबसे बड़ा अस्त्र है.

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