देश में ऐसे मामले कम ही हैं जहाँ सरकार ने अपनी गलती मानी हो और पीड़ित को किसी तरह का मुआवजा दिया हो। मुआवजा देने का अर्थ है की आपने ये किसी चीज़ के एवज में दिया। जब आपकी ज़मीन किसी विकास परियोजना के लिए डुबाई जाती है तो उसके बदले में, मतलब एवज में आपको मुआवजा दिया जाता है। अब वो कम है या पर्याप्त, वो सवाल अलग है और वो एक ही तराजू पर नहीं तुल पाता। लेकिन अगर मुआवजा दिया है तो ये तय है कि किसी एवज, में किसी बदले में दिया है।
अपनी गलती को मान लेना सदा ही से उत्कृष्ट मानवीय गुण माना गया है। हालाँकि ऐसा व्यवहार में बहुत कम देखने में आता है। हाल में छत्तीसगढ़ सरकार ने इस मामले में एक मिसाल पेश की है। छत्तीसगढ़ पुलिस ने वर्ष 2016 में हम छः मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और शोधकर्ताओं को क़त्ल और आतंकी गतिविधियों जैसे झूठे इल्जामों में फंसाया था। चार वर्ष बाद हमें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के निर्देश पर छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार ने प्रत्येक को रुपये एक लाख का मुआवजा अदा किया है। मुझे एक लाख रुपये की राशि बैंक में जमा होने का सन्देश सोमवार को मिला हालाँकि राशि शनिवार को ही सुकमा कलेक्टर कार्यालय द्वारा बैंक में अंतरित कर दी गयी थी। हम कुछ साथियों ने तय किया है कि मुआवजे की पूरी राशि बेगुनाह होने के बावजूद क़ैद में पिस रहे ग़रीब आदिवासियों की मदद के लिए दान करने का फैसला किया है।
दरअसल मई, 2016 में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो. नंदिनी सुंदर, मैं विनीत तिवारी, जेएनयू की प्रो. अर्चना प्रसाद और माकपा नेता संजय पराते के साथ महिला फेडरेशन की स्थानीय नेत्री मंजु कवासी और स्थानीय ग्रामीण मंगलूराम कर्मा ने बस्तर के अंदरूनी आदिवासी इलाकों का दौरा किया था। हमने जो देखा और पाया उसकी जाँच रिपोर्ट दिल्ली से मीडिया को जारी कर दी थी। हमने पाया था कि सरकार और नक्सलवादियों के बीच हो रहे संघर्ष में बेगुनाह आदिवासी पिस रहे थे। पुलिस के विशेष अधिकारियों (एसपीओ) द्वारा कुछ बलात्कारों के मामले, फर्जी मुठभेड़ों में बेगुनाह आदिवासी युवकों की हत्याएँ और लूटपाट के मामले और नक्सलियों द्वारा आदिवासी ग्रामीणों से की जाने वाली वसूली और हिंसा के मामले हमारे सामने आये थे। हमारे सामने यह तथ्य भी आया था कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सलवा जुडूम पर प्रतिबन्ध लगाए जाने के बाद भी तत्कालीन सरकार और पुलिस ढँके छिपे तरह से अघोषित सलवा जुडूम जारी रखे हुए थी। यह सब देश के मीडिया के सामने ला देने से छत्तीसगढ़ सरकार और छत्तीसगढ़ पुलिस तिलमिला गयी। जैसे ही तत्कालीन भाजपा सरकार को इस शोध दल के दौरे का पता चला, तत्कालीन आईजी एसआरपी कल्लूरी के इशारे पर बस्तर पुलिस द्वारा नंदिनी सुंदर, और मुझ सहित शोध दल के अन्य सदस्यों के पुतले जलाए गए और एसआरपी कल्लूरी द्वारा “अब की बार बस्तर में घुसने पर पत्थरों से मारे जाने” की धमकी दी गई थी।
पूरे छः महीने बाद 5 नवम्बर 2016 को सुकमा जिले के नामा गांव के शामनाथ बघेल नामक एक व्यक्ति की हत्या हुई जिसके आरोप में शोध दल के हम सभी छह सदस्यों के खिलाफ आईपीसी की विभिन्न धाराओं, आर्म्स एक्ट और यूएपीए के तहत फर्जी मुकदमा गढ़ा गया। बताया गया था कि शामनाथ बघेल की पत्नी ने इन लोगों का नाम लेकर नामजद रिपोर्ट की थी लेकिन जब एक पत्रकार ने शामनाथ बघेल की पत्नी से पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं इनमे से किसी को नहीं जानती और मैंने इनके नाम नहीं लिए। ज़ाहिर है कि बदले की भावना से शोध दल के सदस्यों के नाम रिपोर्ट में शामिल किये गए थे और उन पर इतनी भयंकर धाराएं लगाईं गईं मानो ये दुर्दांत आतंकवादी हों। तब सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर छत्तीसगढ़ पुलिस को चेतावनी दी थी कि बिना सुप्रीम कोर्ट की आज्ञा लिए इन लोगों से कोई पूछताछ न की जाये और और अगर इन लोगों के खिलाफ अगर कोई सबूत हों तो पहले सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश किये जाएं। तब कहीं जाकर दल के सदस्यों की गिरफ्तारी पर रोक लग पाई थी। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही गठित वर्ष 2019 में एक एसआईटी जांच में इन्हें निर्दोष पाया गया और एफ आई आर में से सभी छः सदस्यों के नाम निकाल दिए गए थे। उल्लेखनीय है कि मानवाधिकार हनन के इस मामले में राष्ट्रीय आयोग द्वारा समन किये जाने के बावजूद कल्लूरी आयोग के समक्ष उपस्थित नहीं हुए थे और बीमारी की वजह बताकर एक अस्पताल में भर्ती हो गए थे। मेरा यह मानना है कि मानवाधिकार आयोग और छग सरकार बधाई के और शुक्रिया के पात्र हैं लेकिन मुआवजा पूरा इन्साफ नहीं है। जब तक अपराधी को सजा न मिले, इन्साफ मुकम्मल नहीं होगा। हम लोगों की तो आवाज़ सुन ली गयी लेकिन न जाने कितने ही गरीब और अनपढ़ आदिवासियों को झूठे मामलों में फंसाया गया, फर्जी मुठभेड़ों में मारा गया और महिलाओं के साथ ज़्यादतियां की गईं। उनके अपराधियों को भी सजा मिलनी चाहिए। कल्लूरी ने अपने पद और अधिकारों का दुरूपयोग किया है। उनके कार्यकाल में हुए ऐसे मामलों की गंभीर जांच हो और उन्हें जिन्होंने राजनीतिक संरक्षण दिया, उन पर भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
मुआवजा भुगतान करके राज्य सरकार ने प्रत्यक्ष रूप से यह मान लिया है कि बस्तर में राज्य के संरक्षण में मानवाधिकारों का हनन किया गया है। मानवाधिकार आयोग के इस फैसले से स्पष्ट है कि भाजपा के राज में बर्बर तरीके से आदिवासियों के मानवाधिकारों को कुचला गया था और संघ की विचारधारा से असहमत व भाजपा की नीतियों के विरोधी जिन मानवाधिकार और राजनीतिक कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों ने बस्तर की सच्चाई को सामने लाने की कोशिश की थी, उन्हें राजनीतिक निशाने पर रखकर प्रताड़ित किया गया था और उन पर ‘देशद्रोही’ होने का ठप्पा लगाया गया था। जब यह सब स्पष्ट है तो छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार को कल्लूरी के खिलाफ अविलम्ब जाँच बिठानी चाहिए।
मानवाधिकार आयोग के निर्देश पर राज्य सरकार के अमल से मुआवजा देने से उन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के संघर्षों को बल मिलेगा, जो बस्तर और प्रदेश की प्राकृतिक संपदा की कॉर्पोरेट लूट के खिलाफ लड़ रहे आदिवासियों पर हो रहे राजकीय दमन को सामने ला रहे हैं और यह काम करते हुए वे खुद भी राजकीय दमन का शिकार हो रहे हैं। यही हाल कवि वरवर राव, सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुंबड़े, जी. एन. साईंबाबा, गौतम नवलखा, शोमा सेन आदि मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओं के साथ हुआ है।राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इन मामलों का भी संज्ञान लेना चाहिए।
क्या ही विडंबना है कि जब हमारे ख़िलाफ़ यह झूठा मुकदमा दर्ज किया गया तब मैंने सुधा भारद्वाज को ही फ़ोन किया था क्योंकि वो दोस्त भी हैं और वकील भी और ऐसे ही बिनायक सेन वाले केस में भी वो वकील थीं। और आज ख़ुद सुधा को ऐसे ही झूठे प्रकरण में गिरफ्तार किया हुआ है। मानवाधिकारों के इस संघर्ष को इस मुकाम तक लाने में पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) की विशेष भूमिका है जिन्होंने इस मामले को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष रखा, वर्ना तो आम तौर पर लोग बरी हो जाने को ही काफी समझते हैं कि जान बची तो लाखों पाए। इस मामले में जान भी बची और एक लाख रुपये भी पाए। हालाँकि इस एक लाख रुपये की पूरी राशि को ऐसे ही बेगुनाह गरीब आदिवासी लोगों के लिए न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ने के लिए खर्च किया जाएगा, जिन्हें झूठे इल्जामों में फंसाया गया है और जो वर्षों से जेलों में बंद हैं। आख़िर में फ़ैज़ का शेर ही याद आता है:
यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
(विनीत तिवारी प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव और जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़, दिल्ली के शोधार्थी हैं।)
अपनी गलती को मान लेना सदा ही से उत्कृष्ट मानवीय गुण माना गया है। हालाँकि ऐसा व्यवहार में बहुत कम देखने में आता है। हाल में छत्तीसगढ़ सरकार ने इस मामले में एक मिसाल पेश की है। छत्तीसगढ़ पुलिस ने वर्ष 2016 में हम छः मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और शोधकर्ताओं को क़त्ल और आतंकी गतिविधियों जैसे झूठे इल्जामों में फंसाया था। चार वर्ष बाद हमें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के निर्देश पर छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार ने प्रत्येक को रुपये एक लाख का मुआवजा अदा किया है। मुझे एक लाख रुपये की राशि बैंक में जमा होने का सन्देश सोमवार को मिला हालाँकि राशि शनिवार को ही सुकमा कलेक्टर कार्यालय द्वारा बैंक में अंतरित कर दी गयी थी। हम कुछ साथियों ने तय किया है कि मुआवजे की पूरी राशि बेगुनाह होने के बावजूद क़ैद में पिस रहे ग़रीब आदिवासियों की मदद के लिए दान करने का फैसला किया है।
दरअसल मई, 2016 में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो. नंदिनी सुंदर, मैं विनीत तिवारी, जेएनयू की प्रो. अर्चना प्रसाद और माकपा नेता संजय पराते के साथ महिला फेडरेशन की स्थानीय नेत्री मंजु कवासी और स्थानीय ग्रामीण मंगलूराम कर्मा ने बस्तर के अंदरूनी आदिवासी इलाकों का दौरा किया था। हमने जो देखा और पाया उसकी जाँच रिपोर्ट दिल्ली से मीडिया को जारी कर दी थी। हमने पाया था कि सरकार और नक्सलवादियों के बीच हो रहे संघर्ष में बेगुनाह आदिवासी पिस रहे थे। पुलिस के विशेष अधिकारियों (एसपीओ) द्वारा कुछ बलात्कारों के मामले, फर्जी मुठभेड़ों में बेगुनाह आदिवासी युवकों की हत्याएँ और लूटपाट के मामले और नक्सलियों द्वारा आदिवासी ग्रामीणों से की जाने वाली वसूली और हिंसा के मामले हमारे सामने आये थे। हमारे सामने यह तथ्य भी आया था कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सलवा जुडूम पर प्रतिबन्ध लगाए जाने के बाद भी तत्कालीन सरकार और पुलिस ढँके छिपे तरह से अघोषित सलवा जुडूम जारी रखे हुए थी। यह सब देश के मीडिया के सामने ला देने से छत्तीसगढ़ सरकार और छत्तीसगढ़ पुलिस तिलमिला गयी। जैसे ही तत्कालीन भाजपा सरकार को इस शोध दल के दौरे का पता चला, तत्कालीन आईजी एसआरपी कल्लूरी के इशारे पर बस्तर पुलिस द्वारा नंदिनी सुंदर, और मुझ सहित शोध दल के अन्य सदस्यों के पुतले जलाए गए और एसआरपी कल्लूरी द्वारा “अब की बार बस्तर में घुसने पर पत्थरों से मारे जाने” की धमकी दी गई थी।
पूरे छः महीने बाद 5 नवम्बर 2016 को सुकमा जिले के नामा गांव के शामनाथ बघेल नामक एक व्यक्ति की हत्या हुई जिसके आरोप में शोध दल के हम सभी छह सदस्यों के खिलाफ आईपीसी की विभिन्न धाराओं, आर्म्स एक्ट और यूएपीए के तहत फर्जी मुकदमा गढ़ा गया। बताया गया था कि शामनाथ बघेल की पत्नी ने इन लोगों का नाम लेकर नामजद रिपोर्ट की थी लेकिन जब एक पत्रकार ने शामनाथ बघेल की पत्नी से पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं इनमे से किसी को नहीं जानती और मैंने इनके नाम नहीं लिए। ज़ाहिर है कि बदले की भावना से शोध दल के सदस्यों के नाम रिपोर्ट में शामिल किये गए थे और उन पर इतनी भयंकर धाराएं लगाईं गईं मानो ये दुर्दांत आतंकवादी हों। तब सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर छत्तीसगढ़ पुलिस को चेतावनी दी थी कि बिना सुप्रीम कोर्ट की आज्ञा लिए इन लोगों से कोई पूछताछ न की जाये और और अगर इन लोगों के खिलाफ अगर कोई सबूत हों तो पहले सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश किये जाएं। तब कहीं जाकर दल के सदस्यों की गिरफ्तारी पर रोक लग पाई थी। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही गठित वर्ष 2019 में एक एसआईटी जांच में इन्हें निर्दोष पाया गया और एफ आई आर में से सभी छः सदस्यों के नाम निकाल दिए गए थे। उल्लेखनीय है कि मानवाधिकार हनन के इस मामले में राष्ट्रीय आयोग द्वारा समन किये जाने के बावजूद कल्लूरी आयोग के समक्ष उपस्थित नहीं हुए थे और बीमारी की वजह बताकर एक अस्पताल में भर्ती हो गए थे। मेरा यह मानना है कि मानवाधिकार आयोग और छग सरकार बधाई के और शुक्रिया के पात्र हैं लेकिन मुआवजा पूरा इन्साफ नहीं है। जब तक अपराधी को सजा न मिले, इन्साफ मुकम्मल नहीं होगा। हम लोगों की तो आवाज़ सुन ली गयी लेकिन न जाने कितने ही गरीब और अनपढ़ आदिवासियों को झूठे मामलों में फंसाया गया, फर्जी मुठभेड़ों में मारा गया और महिलाओं के साथ ज़्यादतियां की गईं। उनके अपराधियों को भी सजा मिलनी चाहिए। कल्लूरी ने अपने पद और अधिकारों का दुरूपयोग किया है। उनके कार्यकाल में हुए ऐसे मामलों की गंभीर जांच हो और उन्हें जिन्होंने राजनीतिक संरक्षण दिया, उन पर भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
मुआवजा भुगतान करके राज्य सरकार ने प्रत्यक्ष रूप से यह मान लिया है कि बस्तर में राज्य के संरक्षण में मानवाधिकारों का हनन किया गया है। मानवाधिकार आयोग के इस फैसले से स्पष्ट है कि भाजपा के राज में बर्बर तरीके से आदिवासियों के मानवाधिकारों को कुचला गया था और संघ की विचारधारा से असहमत व भाजपा की नीतियों के विरोधी जिन मानवाधिकार और राजनीतिक कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों ने बस्तर की सच्चाई को सामने लाने की कोशिश की थी, उन्हें राजनीतिक निशाने पर रखकर प्रताड़ित किया गया था और उन पर ‘देशद्रोही’ होने का ठप्पा लगाया गया था। जब यह सब स्पष्ट है तो छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार को कल्लूरी के खिलाफ अविलम्ब जाँच बिठानी चाहिए।
मानवाधिकार आयोग के निर्देश पर राज्य सरकार के अमल से मुआवजा देने से उन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के संघर्षों को बल मिलेगा, जो बस्तर और प्रदेश की प्राकृतिक संपदा की कॉर्पोरेट लूट के खिलाफ लड़ रहे आदिवासियों पर हो रहे राजकीय दमन को सामने ला रहे हैं और यह काम करते हुए वे खुद भी राजकीय दमन का शिकार हो रहे हैं। यही हाल कवि वरवर राव, सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुंबड़े, जी. एन. साईंबाबा, गौतम नवलखा, शोमा सेन आदि मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओं के साथ हुआ है।राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इन मामलों का भी संज्ञान लेना चाहिए।
क्या ही विडंबना है कि जब हमारे ख़िलाफ़ यह झूठा मुकदमा दर्ज किया गया तब मैंने सुधा भारद्वाज को ही फ़ोन किया था क्योंकि वो दोस्त भी हैं और वकील भी और ऐसे ही बिनायक सेन वाले केस में भी वो वकील थीं। और आज ख़ुद सुधा को ऐसे ही झूठे प्रकरण में गिरफ्तार किया हुआ है। मानवाधिकारों के इस संघर्ष को इस मुकाम तक लाने में पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) की विशेष भूमिका है जिन्होंने इस मामले को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष रखा, वर्ना तो आम तौर पर लोग बरी हो जाने को ही काफी समझते हैं कि जान बची तो लाखों पाए। इस मामले में जान भी बची और एक लाख रुपये भी पाए। हालाँकि इस एक लाख रुपये की पूरी राशि को ऐसे ही बेगुनाह गरीब आदिवासी लोगों के लिए न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ने के लिए खर्च किया जाएगा, जिन्हें झूठे इल्जामों में फंसाया गया है और जो वर्षों से जेलों में बंद हैं। आख़िर में फ़ैज़ का शेर ही याद आता है:
यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
(विनीत तिवारी प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव और जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़, दिल्ली के शोधार्थी हैं।)