यूपी: लॉकडाउन में बिहार जा रहे मजदूरों से जब्त 5400 साइकिलें बेच दीं, अब खाते में भेजेंगे पैसे

Written by Navnish Kumar | Published on: June 7, 2022
कोरोना काल में लॉकडाउन के चलते अपने घरों को लौट रहे यूपी बिहार के मजदूरों की जमा कराई गईं 5 हजार से ज्यादा साइकिलों को, वापस सौंपने की बजाय, सहारनपुर प्रशासन ने महज 21 लाख रुपए में नीलाम कर दिया था। चौतरफा आलोचना हुई तो प्रशासन ने बड़ा यू टर्न लेते हुए, देर आए दुरस्त आए, की तर्ज पर नीलामी में प्राप्त पैसों को मजदूरों के बैंक खातों में भिजवाने का निर्णय लिया है। प्रवासी मजदूरों की साइकिलों की हाल में हुई नीलामी का मुद्दा गरमाया तो जिलाधिकारी ने स्पष्टीकरण दिया है। उन्होंने कहा है कि हम उन मजदूरों के खातों में नीलामी की रकम डालेंगे।



खास है कि कोरोना लॉकडाउन में पलायन झेलने को मजबूर यूपी बिहार के हजारों श्रमिकों की साइकिलों को, वापस सौंपने की बजाय, सहारनपुर प्रशासन ने 21 लाख रुपए में नीलाम कर दिया था। हरियाणा, पंजाब, उत्तराखंड और हिमाचल से पलायन करने वाले यूपी और बिहार के मजदूरों की मुश्किलों में ये साइकिल ही उनकी सारथी बनीं थीं। लॉकडाउन में अपने घरों की ओर जा रहे दूर प्रदेशों के मजदूरों से जब्त की गई इन 5400 साइकिलों को मजदूर वापस लेने नहीं आ पाए और न ही सरकार/प्रशासन ने इन्हें मजदूरों को भिजवाने को लेकर अपनी ओर से कोई पहल की। नतीजा हजारों साइकिलें 2 साल से पड़ी पड़ी कबाड़ में तब्दील हो गईं जिन्हें चार दिन पहले नीलाम कर दिया गया था और पैसे को सरकारी कोष में जमा करवा देने की बात थी। लेकिन बेबस मजदूरों के साथ हुए इस खिलवाड़ की देश भर में चौतरफा निंदा हुई लिहाजा प्रशासन को बड़ा यू टर्न लेना पड़ा है। सवाल है कि आखिर हजारों मजदूरों की साइकिलों की नीलामी प्रशासन को क्यों करवानी पड़ी।
 
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, उत्तर प्रदेश सरकार ने लॉकडाउन में अपने घरों की ओर जा रहे मजदूरों से जब्त हजारों साइकिलों से 21 लाख रुपये की वसूली की। सहारनपुर जिले में जब्त की गई मजदूरों की 5400 ऐसी साइकिलें नीलाम हुईं, जिन्हें लेने के लिए मजदूर नहीं आ सके। दरअसल, कोविड लॉकडाउन में मजदूरों से जब्त हजारों साइकिलें आज सहारनपुर के सुनसान मैदान में कबाड़ के रूप में पड़ी हैं। इन साइकिलों की गद्दी पर लिखा एक टोकन नंबर मजदूरों को दिया गया था। हालांकि, लॉकडाउन के दौरान सैकड़ों किलोमीटर दूर से अपने घरों को लौटे मजदूरों में न तो हिम्मत थी और न ही किराया खर्च करने के बाद कबाड़ साइकिल लेने के लिए पैसे बचे थे। इसलिए प्रशासन ने दो साल के इंतजार के बाद मजदूरों की 5400 साइकिल 21 लाख रुपये में नीलाम कर दी।

उस समय तपती धूप और भूख-प्यास के बीच यही साइकिलें इन मजदूरों की बैसाखी बनी थीं। उस दौरान मजदूरों की साईकिलों को राधा स्वामी सत्संग भवन के मैदान में खड़ा करवा दिया था। पिछले दो वर्षों से ये सभी साइकिल यहां खड़ी थीं लेकिन अब जिला प्रशासन ने इनमें से 5400 साइकिल नीलामी कर दी। सभी 5400 साइकिल महज 21 लाख रुपये में बेच दी गई। इस तरह एक साइकिल की औसत कीमत लगभग 370 रुपये बनी। यानी मजदूरों ने अपनी खून-पसीने की कमाई से जो साइकिल खरीदी थी उन्हें प्रशासन ने 370 रुपये में नीलाम कर दिया।

आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि लगभग 25 हजार मजदूर अपनी साइकिल सहारनपुर में छोड़ गए थे। उस दौरान इन मजूदरों को एक-एक टॉकन भी दिया गया था। इन टॉकन के आधार पर 14 हजार 600 मजदूर अपनी साइकिल ले गए लेकिन 5 हजार 400 मजदूर ऐसे थे जो दो वर्ष बाद भी साइकिल लेने नहीं पहुंच सके। दो साल के इंतजार के बाद अब प्रशासन ने इन सभी साइकिलों को 21 लाख 20 हजार रुपये में नीलाम कर दिया। अब ये ठेकेदार प्रत्येक साइकिल को 1200 से 1500 में बेच रहे हैं। जिलाधिकारी अखिलेश सिंह का इस बारे में कहना था कि राधा स्वामी सत्संग भवन में सभी साइकिल खड़ी कराई गई थी। यहीं से मजदूरों के मोबाइल नंबर लेकर उन्हे कॉल किया गया था। दो साल में 5400 साइकिल लेने के लिए कोई नहीं आया। इसलिए इन साइकिल को नीलाम किया गया है। यह पैसा शासन को भेजा जा रहा है।

सवाल यह है कि वे ग़रीब कहां हैं जिनकी साइकिलें सरकार ने बेच डालीं हैं। वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन सवाल उठाते हुए पूछते हैं कि कौन हैं ये गरीब और कहां से इनकी साइकिलें सरकार के पास बिक्री के लिए जमा होती गईं? इस सवाल का जवाब दिल दुखाता है। ये वे लोग हैं जो दो साल पहले अपने प्रधानमंत्री द्वारा आधी रात को अचानक घोषित लॉकडाउन की चपेट में आ गए। खास है कि जिस दिन प्रधानमंत्री यूपी में 80,000 करोड़ की योजनाओं की नींव रख रहे थे और यह विश्वास जता रहे थे कि यूपी एक ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था वाला राज्य बनने की क्षमता रखता है, उसी दिन यह ख़बर आ रही थी कि यूपी सरकार ने गरीबों की साइकिल बेच कर 21 लाख रुपये कमा लिए हैं।
 
दो साल पहले प्रधानमंत्री द्वारा आधी रात अचानक घोषित लॉकडाउन के चलते रातों-रात मजदूरों ने पाया कि वे कारख़ाने बंद हो चुके हैं जहां वे दिन में काम करते थे और रात को सो जाते थे। वे दुकानें नहीं खुल रहीं जहां से उनकी दिहाड़ी संभव होती थी, जिस नगरों-महानगरों की रफ्तार बनाए रखने में उनका पसीना ईंधन का काम करता था, वे अब उनके लिए नहीं रह गए हैं. इस अकेले मजबूर समय में उन्होंने अपने पांवों पर भरोसा किया. माथे पर असबाब लादा, पीठ पर बच्चों को बिठाया और सैकड़ों मील के सफ़र के लिए उन गांवों की ओर चल पड़े जहां उनका बहुत कुछ बचा नहीं था। कुछ ने अपना सामान बेच कर अपने लिए साइकिल खरीदी और चल दिए। 

21 लाख के यूपी सरकार के कारोबार की कहानी यहीं से शुरू होती है। इन चलते हुए लोगों की, साइकिल चलाते मजबूरों की कहानियां मीडिया में आने लगीं। लॉकडाउन का एक डरावना क्रूर चेहरा खुलने लगा। सरकार सक्रिय हो गई। जहां-तहां लोग रोके गए, उन्हें क्वॉरन्टीन कर दिया गया जिनके पास साइकिलें थीं, उनसे साइकिलें छीन ली गईं। उन्हें क्वॉरंटीन कर दिया गया और बाद में घर लौटने की इजाज़त दी गई। उन्हें साइकिलों के लिए टोकन दिया गया और कहा गया कि बाद में आकर अपनी साइकिल ले लें।

एनडीटीवी की एक रिपोर्ट के अनुसार ऐसी पांच हज़ार से ज़्यादा साइकिलें सहारनपुर में धूल और ज़ंग खाती रहीं। कोई इन्हें लेने नहीं आया जिन गरीबों का कोई ठिकाना नहीं था, वे सैकड़ों मील दूर अपनी साइकिलें लेने कहां आते? तो सरकार ने इन्हें एक ठेकेदार को 21 लाख में बेच दिया। ठेकेदार 1200 रुपये प्रति साइकिल बेचने की कोशिश कर रहा है। हालांकि उसकी भी शिकायत है कि साइकिलें खराब हो चुकी हैं और उसे 5400 बता कर 4000 साइकिलें थमाई गई हैं।

बहरहाल, सरकार क्या करती? साइकिलें पड़ी-पड़ी सड़ जातीं तो इससे अच्छा हुआ कि बिक गईं। वैसे भी हाल के दिनों में सरकारों को सार्वजनिक सामान नीलाम करने की कला खूब आ गई है। मगर क्या सरकार किसी और ढंग से सोच सकती थी? क्या वह सुनिश्चित कर सकती थी कि जिस मजदूर की साइकिल उसने छीन ली है, वह उसे लौटा दी जाए? उसने कायदे से किसी मज़दूर का पता तक नहीं रखा होगा। मजदूर इतने मामूली लोग होते हैं कि उन्हें कहीं से भी उजाड़ा जा सकता है, कहीं भी फेंका जा सकता है और ज़रूरत पड़ने पर फिर काम पर बुलाया जा सकता है। उनके नाम नहीं चेहरे होते हैं, उनके छलनी कंधे होते हैं, उनकी झुकी हुई पीठ होती है, उनके सख्त बाजू होते हैं। वे बस मजदूरी कर सकते हैं। मज़दूर इन वर्षों में इस देश में कुछ और लाचार होता गया है। सरकार उसकी परवाह क्यों करती? उसके कारिंदे क्यों सोचते कि इन मज़दूरों को उनकी साइकिल मिल जाए। उनके लिए यह खर्चीला काम रहा होगा। उनको लगा होगा कि जितने की साइकिल नहीं है, उससे तो ज़्यादा उसे पहुंचाने का ख़र्च होगा. यह खर्च कौन उठाएगा। यह इंतज़ाम कौन करेगा कि अलग-अलग शहरों तक ये साइकिलें पहुंचें? इसका बजट कहां से आता? 

प्रियदर्शन नर्मदा आंदोलन पर लिखी अरुंधती राय की किताब 'द ग्रेटर कॉमन गुड' के एक बिंब को याद करते हैं जिसमें वे लिखती हैं कि सरकारी तंत्र इतना विराट होता है कि वह जिन लोगों की भलाई के लिए निकलता है, अक्सर उन्हें कुचल डालता है। वह जैसे नेलकटर की जगह हेजकटर इस्तेमाल करता है और लोगों के नाखून की जगह पूरी उंगली काट डालता है। इन मज़दूरों के साथ बिल्कुल यही हुआ। कोरोना से लड़ने और लॉकडाउन को मैनेज करने में लगी सरकार विदेशों में विमान भेज-भेज कर आप्रवासी भारतीयों को बुलवाती रही और अपनी पीठ ठोकती रही कि उसे भारतीयों की कितनी चिंता है, लेकिन दिल्ली-मुंबई-चेन्नई और बेंगलुरु से लौट रहे मज़दूरों की साइकिलें छीन कर रख ली गईं। सरकारों को डर था कि ये गंदे लाचार लोग बिना जांच के कहीं भी जाएंगे, कोरोना फैलाएंगे। बेशक, बाद में यह डर सही साबित नहीं हुआ, उल्टे यह दिखा कि विदेश से लौटे लोग अपने साथ हिंदुस्तान में कोरोना लेकर आए। 

अगर श्रम के प्रति हमारे भीतर थोडी सी संवेदना होती, अगर इन मज़दूरों से थोड़ा भी लगाव होता तो शायद हम इनकी साइकिलों का खयाल रखते। इन मजदूरों का पता रखते। यह उम्मीद रखते कि एक दिन ये लौटेंगे और अपनी साइकिलें लेकर अपने ठिकानों पर रवाना होंगे। यह यूटोपिया भी होता तो एक बेहतर यूटोपिया होता। यह यूपी को एक ट्रिलियन की जीडीपी वाला राज्य बनाने की कोशिश से कहीं ज़्यादा मानवीय कोशिश होती। क्योंकि हमें पता है कि यूपी के संसाधनों को निचोड़ कर जो एक ट्रिलियन की रक़म पैदा होगी, वह किनके खातों में जाएगी। आज भी ऐसे कई चेहरे प्रधानमंत्री के चारों ओर मौजूद थे। यह अनायास नहीं है कि कोरोना के बाद के तमाम आर्थिक सर्वेक्षण बता रहे हैं कि इस देश में अमीर बुरी तरह अमीर होते चले गए हैं और ग़रीब बुरी तरह ग़रीब। बीते दो साल में अपने आसपास की दुकानों के बाहर देख लीजिए- ऐसे बहुत सारे बच्चों को भीख मांगने का अभ्यास हो चुका है जिन्हें कायदे से स्कूलों में होना चाहिए था। लेकिन इनकी चिंता कौन करेगा? अभी ज़्यादा से ज़्यादा हवाई अड्डे बनाने की तैयारी है। ज़्यादा से ज़्यादा चमचमाते रेलवे स्टेशन बनाने का सपना है। ऐसे विराट हाइवे बनाने का खयाल है जिस पर साइकिल चल ही न सके, बल्कि वहां साइकिल चलाने पर रोक हो। ऐसे में धूल खा रही 5400 साइकिलों की क्या औकात और उनके मालिकों की क्या हैसियत। उन्हें इस विराट जनतंत्र के चक्के तले बस कुचल जाना है। उनकी नीलामी से हासिल 21 लाख से फिर भी यूपी की जीडीपी कुछ बढ़ जाएगी। 

खैर, अब देर आय दुरस्त आए, की तर्ज पर भले प्रशासन मजदूरों के खाते में पैसा डालने की बात कह रहा हो लेकिन सवाल अभी भी वही का वही बना हुआ है कि क्या साइकिल के बदले महज 370 रूपये ही मजदूरों के खातों में भिजवाएं जाएंगे या फिर यह रकम बढ़ाकर डाली जाएगी, अपने आप में देखने और समझने वाली बात होगी।

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