सीटों की संख्या, प्रत्याशियों के नाम, फलाने ने नामांकन भरा और ढिकाने ने वापिस लिया, मतदान और गणना की तारीख़, कौन जीता कौन हरा और किसने किसको गाली दी, चुनावी कवरेज के नाम पर इसके आलावा कुछ भी यहां से बाहर नहीं जाने दिया जाता है. पुलिस की विज्ञप्ति ही यहां का समाचार होती है. सरकारी महकमे ने यहां लोकतंत्र का टेंटुआ दबा रखा है. छत्तीसगढ़ चुनाव के पहले चरण में, बस्तर की जिन बारह सीटों पर मतदान होने हैं उनमे बहुत से इलाके ऐसे हैं जहां के लोग घरों से निकलने तक में खौफ़ खाते हैं, और उससे भी ज़्यादा संख्या में ऐसे इलाके हैं जहां पत्रकारों का जाना प्रतिबंधित है (हालांकि ये अघोषित प्रतिबन्ध है, जैसे अघोषित इमरजेंसी है).
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में दो चरणों में मतदान होने हैं. पहले चरण में 18 सीटों पर 12 नवम्बर को मतदान होने हैं जिसमें 6 राजनांदगांव की और 12 सीटें बस्तर क्षेत्र की हैं. बीती एक नवम्बर को छत्तीसगढ़ राज्य को बने 18 वर्ष पूरे हो गए. पिछले 15 वर्षों से यहां भाजपा की सरकार है. इन 15 वर्षों में प्रदेश की जनता ने भारी सामाजिक अस्थिरता का सामना किया है. संविधान की खुल्लमखुल्ला अनदेखी जिस तरह छत्तीसगढ़ में की जाती है शायद ही भारत के किसी और राज्य में की जाती होगी. आदिवासी बाहुल्य इस राज्य में, संविधान की अनदेखी का सबसे ज़्यादा खामियाज़ा यहां के आदिवासी ही भुगत रहे हैं. राज्य गठन के समय प्रदेश में 36% आदिवासी आबादी थी जो बीते 18 वर्षों में घटकर 32% रह गई है. संविधान ने आदिवासियों को पांचवी अनुसूची के तहत विशेष अधिकार दे रखे हैं, परन्तु ये संवैधानिक अधिकार किताबों में ही कैद हैं. किताबों के बाहर ये सिर्फ़ नेता जी की ज़ुबान पर ज़रा देर को दिखते हैं फिर भाषण की चुनावी चाशनी के साथ आश्वासन के दोने में टपक जाते हैं.
सच दिखाने वाले पत्रकारों पर सरकारी शिकंजा
पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के विरोध में दहशत का माहौल बना दिया गया है. पुलिस और उसकी अनैतिक कार्यप्रणाली के कुकर्मो पर सवाल उठाने वाले पत्रकारों को डराया धमकाया जाता है, उन्हें फ़र्ज़ी और बेबुनियाद आरोपों में फंसाकर या तो जेल भेज दिया जाता है या बस्तर छोड़ने पर मजबूर कर दिया जाता है. बीते कुछ वर्षों में यहां कई पत्रकारों को गिरफ़्तार किया गया है. जुलाई 2015 में सोमारू नाग को और अगस्त 2015 में संतोष यादव को गिरफ़्तार किया गया. सोमारू नाग को एक साल तक जेल में रखा गया. उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत न पेश कर पाने के चलते एक साल की जबरन कैद के बाद उन्हें रिहा किया गया. संतोष यादव पर शस्त्र अधीनियम के साथ-साथ UAPA और CSPSA के तहत धाराएं लगाई गईं. संतोष यादव को 17 महीने तक जेल में बंद रखा गया. अंततः फ़रवरी 2017 में सर्वोच्च न्यायालय से उन्हें ज़मानत प्राप्त हुई. मालिनी सुब्रमण्यम को पुलिस और पुलिस द्वारा पोषित संस्थाओं ने सितम्बर 2015 में जगदलपुर का अपना घर छोड़कर जाने के लिए मजबूर कर दिया. प्रभात सिंह और दीपक जायसवाल को भी इसके कुछ ही दिनों के अन्दर गिरफ़्तार कर लिया गया. बस्तर क्षेत्र के स्वतंत्र पत्रकार कमल शुक्ला पर कुछ महीने पहले ही राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया है.
एडिटर्स गिल्ट ने मार्च 2016 में बस्तर, बीजापुर व आसपास के इलाकों का दौरा किया. वे काम करने के हालातों को समझने के लिए यहां के स्थानीय पत्रकारों से मिले. अपनी रिपोर्ट में उन्होंने कहा कि “उन्हें यहां एक भी ऐसा पत्रकार नहीं मिला जो बिना डरे काम कर पा रहा हो”.
नक्सल उन्मूलन के नाम पर करोड़ों का वारान्यारा
छत्तीसगढ़ की रमन सरकार बड़े गर्व से बताती है कि बस्तर के आसपास का हज़ारों किलोमीटर वनक्षेत्र इलाका अब भी बाहरी दुनिया से अछूता है. इस बाहरी दुनिया में सरकार ख़ुद भी शामिल है. इस विशाल अछूते इलाके में, ज़ाहिर है इंसानी आबादी भी रहती ही होगी, जो इसी देश, इसी लोकतंत्र का ही हिस्सा हैं. इन इलाकों को नक्सल प्रभावित और नक्सलियों का गढ़ कहकर अलग थलग और बेसहारा छोड़ दिया गया है. हालांकि इस उपेक्षित इलाके का भी छत्तीसगढ़ की सरकार भरपूर फ़ायदा उठा रही है. जिन क्षेत्रों में सरकार की पहुंच हैं वहां इसने प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा लूट मचा रखी है, और जिन क्षेत्रों में राज्य सरकार की पहुंच नहीं है वहां के लिए नक्सल उन्मूलन के नाम पर केंद्र से करोड़ों रुपयों का फण्ड आता है. इस फण्ड से नेताओं और अफसरशाहों की जेबें भरी जाती हैं.
लगभग 15 वर्षों पहले छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में स्थिति इतनी बुरी नहीं थी. आदिवासियों के साथ सरकारी अत्याचार तो तब भी था, परन्तु तब आप एक पत्रकार की हैसियत से उस अत्याचार को उजागर करता समाचार लिख सकते थे. दूरस्थ आदिवासी इलाकों में जाकर आप स्वतंत्र औए ईमानदार पत्रकारिता कर सकते थे. तब कम से कम ये डर तो नहीं ही था कि सच लिखने पर पुलिस गोली मार देगी. पत्रकारों को सवाल पूछने की आज़ादी थी. तब सामाजिक कार्यकर्ताओं को सरकारी प्रशय वाली संस्थाओं के गुण्डे खुलेआम धमकाते नहीं थे. सत्ता की ग़लत नीतियों पर तंज़ करने वाले समाजसेवियों और पत्रकारों पर राष्ट्रद्रोह का का मुकदमा नहीं चलाया जाता था. लेकिन आज परिस्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं.
मीडिया विहीन बस्तर चुनाव
बस्तर क्षेत्र के स्वतंत्र पत्रकार कमल शुक्ला कहते हैं कि 2018 के बस्तर चुनाव पूरी तरह से मीडिया विहीन चुनाव हैं. वो कहते हैं कि चुनावी गतिविधियों से मीडिया को दूर रखने की ये साज़िश कोई नई नहीं है. पिछले चुनावों में भी यही परिस्थिति थी. और ऐसा भी नहीं है कि पत्रकारों पर ये रोकटोक सिर्फ़ चुनावी मौसम में लगाई जाती हो. 12 नवम्बर को बस्तर की जिन सीटों (अंतागढ़, भानुप्रतापपुर, कांकेर, केशकाल, कोंडागांव, नारायणपुर, बस्तर, जगदलपुर, चित्रकोट, दंतेवाड़ा, बीजापुर, कोंटा) पर चुनाव होने हैं, वहां के मैदानी क्षेत्रों के आलावा लगभग सभी दूरस्थ इलाकों में मीडिया की पहुंच न के बराबर है.
यहां युद्धक्षेत्र सा माहौल है
कोंटा, बीजापुर, दंतेवाड़ा और नारायणपुर विधानसभा का नाम लेते हुए कमल शुक्ल कहते हैं कि “यहां अधिकांश इलाकों में युद्ध का माहौल है, मीडिया वालों की तो छोड़ ही दीजिये, सामान्य लोगों के लिए भी यहां जाना मुश्किल है. यहां शहरी इलाकों में तो थोड़ा बहुत काम दिख भी जाता है, पर दूरस्थ आदिवासी इलाकों में विकास के सारे सरकारी दावों की पोल खुल जाती है और सरकारी लूट ज़ाहिर होने लगती है.” कोंटा विधानसभा के जगरगुंडा गाँव का उदाहरण देते हुए कमल शुक्ल बताते हैं कि “एक समय जिस जगरगुंडा में स्कूल, अस्पताल आदि विकास की द्योतक संस्थाएं संचालित थीं आज वहां जाने के लिए ढंग की सड़क तक नहीं हैं. इतना ही नहीं यदि आप ख़राब रास्ते में हिचकोले खाते हुए वहां जाने की हिम्मत बना भी लें तब भी आप वहां नहीं पहुच पाएंगे क्योंकि रास्ते में सुरक्षाबलों के लगभग 10 कैम्प पड़ते हैं जिन्हें पार करना जीवन की सबसे बड़ी चुनौती पार करने से भी ज़्यादा तकलीफदेय होता है. कैम्प में पत्रकाओं से इस बेहूदगी के साथ पूछताछ होती है के जैसे वो कोई आतंकवादी हों.
मीडिया पर पाबन्दी है ताकि सरकारी कुकर्म छुपा रहे
सन 2000 में जब छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ था तब सिर्फ़ 03 विकासखण्ड ही नक्सल प्रभावित थे, आज इससे लगभग 16 ज़िले प्रभावित हैं. राज्य की मौजूदा भाजपा सरकार ने आज तक न तो आदिवासियों की आवाज़ सुनी है और न ही नक्सल समस्या से निपटने के लिए कोई कदम उठाया है. सरकार आए दिन दावा करती रहती है कि नक्सलवाद कम हो गया है लेकिन बीते 15 वर्षों की घटनाएं नक्सलवाद में इज़ाफ़े का इशारा करती हैं. इस बात के सीधे संकेत मिलते हैं कि जैसे सरकार नक्सलवाद का ख़ात्मा चाहती ही न हो, और इसका कारण है 9000 करोड़ रूपए का वो फण्ड जो केंद्र की तरफ़ से छत्तीगढ़ राज्य को मिलता है. ऐसे ढेरों उदाहरण सामने आए हैं जब आदिवासियों को जबरन नक्सली घोषित कर एनकाउन्टर किया गया और पुलिस ने वाहवाही लूट ली. इस गोरखधंदे को सरकार के इशारे पर पुलिस चलाती है.
ये सब कराया जाता है ताकि कार्पोरेट घरानों को फ़ायदा पहुचाया जा सके. सरकार आदिवासियों को उनकी ज़मीन से बेदख़ल करने की साज़िश रच रही है ताकि ये बेशकीमती ज़मीने बड़े उद्योगपतियों को दे दी जाएं. दंतेवाड़ा, जगदलपुर, बस्तर, नारायणपुर जैसे ज़िलों में अपार खनिज संपदा है जिसे औने-पौने दाम में सरकार अडानी जैसे उद्योगपतियों को देना चाहती है.
आदिवासियों की ज़मीन को डुबाकर बिजली पैदा करने के लिए डैम का निर्माण किया गया लेकिन आदिवासी गांवों में अब भी बिजली नहीं है. उनकी ज़मीनों पर सिंचाई परियोजना स्थापित की गई, लेकिन उनके खेतों में पानी नहीं है. उनके इलाके का जंगल नष्ट कर वहां खनन करके करोड़ों का मुनाफ़ा कमाया जा रहा है लेकिन आदिवासी ग़रीब और बदहाल होता जा रहा है, उसके बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं, उन्हें शिक्षा, स्वस्थ्य और पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाएँ तक नहीं दी जा रही हैं. इन खदानों को सरकार विकास कहती है. लेकिन ये गूंगी, बहरी, अंधी सरकार ये नहीं देख पा रही है कि पूरा प्रदेश इस थोथे विकास की कितनी भयानक कीमत चुका रहा है.
लाखों की तादात में आदिवासी यहां से पलायन कर चुके हैं. केंद्र की मोदी सरकार द्वारा इस वर्ष लघु वनोपज के समर्थन मूल्यों में भारी कटौती की गई है. सरकार ने तर्क दिया है कि चूंकि इससे घटा हो रहा था इसलिए ये कटौती की है. जिसे रमन सरकार ने चुपचाप स्वीकार कर लिया है. वनोपज से आजीविका चलाने वालों के लिए ये बड़ा नुकसान है.
लघु वनोपज के मामले में 75 प्रतिशत मूल्य केंद्र और 25 प्रतिशत राज्य सरकार देती है. 40 प्रतिशत जंगल और 32 प्रतिशन आदिवासी आबादी वाले राज्य में बड़ी संख्या में आदिवासी वनोपज से ही अपना जीवन यापन करते हैं. मुख्यमंत्री महोदय को इसका ख्याल होना चाहिए था. ये छत्तीसगढ़ सरकार की संवेदनहीनता को दर्शाता है.
1968 से छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में चल रही खदानों में एनएमडीसी ने अब तक सिर्फ़ 31 आदिवासियों को ही स्थाई नौकरी दी है, बाकी सभी से ठेके पर मजदूरी कराई जाती है जबकि इन्ही आदिवासियों की ज़मीन पर ये बड़ी-बड़ी खदाने संचालित होती हैं.
एनएमडीसी की किरंदुल की खदानों से लौह अयस्क के घोल को विशाखापट्टनम ले जाने वाली पाईप लाईन एस्सार कम्पनी ने बनाई है. इस खदान से निकलने वाले ज़हरीले अवशिष्ट को यहां की शंकनी और डंकनी नदियों में बहा दिया जाता है. इससे नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं, मवेशी मर रहे हैं और ज़मीन बंजर हो रही है. 52 से भी ज़्यादा आदिवासी गांवों का पर्यावरण बिगड़ चुका है.
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा विधानसभा में एक ऐसा कानून पारित करवा लिया गया है जिससे आदिवासियों की ज़मीन हथियाना सरकार के लिए अब पहले से ज़्यादा आसान हो गया है. अब सरकार आपसी सहमती से ज़मीन ख़रीद कर अपने पूंजीपति आकाओं को दे सकती है. ज़मीन के बदले इन आदिवासियों को चार गुना मुआवज़ा देना, कारखाने या खदान में नौकरी देने जैसे वादे तो किये जाते हैं पर वो कभी पूरे नहीं होते. बस्तर, दंतेवाड़ा, जगदलपुर, कोंटा, बीजापुर, नारायणपुर जैसी जगहों में जाकर आदिवासियों की बदहाली सहज देखि जा सकती हैं.
बीते दो दशक में बस्तर से लगभग 30000 लड़कियां मानव तस्करी के जाल में फंसकर ग़ायब हो गई हैं. सरकार न उनकी तलाश कर रही है, न इसे रोकने की कोशिश कर रही है, न उनके परिवार वालों की ही कोई सहायता कर रही है. यहां तो कुछ पुलिस अधिकारियों द्वारा ही मासूम आदिवासी लड़कियों को बंधक बनाए जाने का मामला सामने आया है. पर रमन सरकार ऐसे पुलिस वालों को सज़ा देने की बजाए उनका सम्मान और प्रमोशन करती है.
खेती के औजारों को घातक हथियार दर्ज करती है पुलिस
आदिवासियों द्वारा प्रयोग किये जाने वाले खेती के औज़ार को भी छत्तीसगढ़ की पुलिस घातक हथियारों से लैस होना मानती है. जबकि शस्त्र अधिनियम 1959 स्पष्ट रूप से कहता है कि खेती के औज़ार शस्त्रों की गिनती में नहीं आते हैं. बावजूद इसके बड़ी संख्या में लोगों पर इन औजारों को रखने के लिए शस्त्र कानून के तहत मामले दर्ज किये गए हैं. करीब 2000 आदिवासियों पर माओवादियों से जुड़े होने के मामले दर्ज किये गए हैं और लगभग हर बार शस्त्र अधीनियम की धाराएं भी लगाई गई हैं.
गांव के आदिवासियों को पकड़कर जबरन जेलों में ठूंसा जा रहा है. पुलिस और अर्धसैनिक बल घरों में घुसकर पैसे, बकरे, मुर्गे, बत्तखें, आदि लूट लेते हैं. और धमकी दी जाती है कि ये बात किसी को बताने पर उनके बच्चों को मार डाला जाएगा. हर आदिवासी को जेल में डालने के साथ पुलिस अधिकारी को इनाम मिलता है.
आदिवासी इलाकों में लगभग 3000 स्कूल बंद कर दिए गए हैं. पेसा कानून का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है. उद्योगों के लिए अधिग्रहित की गई ज़मीन, उद्योग न लग पाने की स्थिति में 5 वर्ष के भीतर मूल स्वामी को वापस कर देनी होती है, परन्तु टाटा प्लांट के लिए अधिग्रहित की गई ज़मीन अब तक मूल स्वामियों को नहीं लौटाई गई है. इन ज़मीनों को लैंड बैंक में डाल दिया गया है. ये घटना सरकार के लालची और कपटी होने को सिद्ध करती है.
आदिवासी क्षेत्रों में जहां पांचवी अनुसूची लागू हो वहां संवैधानिक व्यवस्था के लिए आदिवासी मंत्रणा परिषद बनाई जाती है, जिसका अध्यक्ष कोई आदिवासी होना चाहिए. लेकिन छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रमन सिंह ही परिषद के अध्यक्ष बने बैठे हैं.
डीडी के कैमरामैन की मौत कई सवाल खड़े करती है
दंतेवाड़ा से लगभग 30 किलोमीटर दूर अरनपुर में सुरक्षाबलों और नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ में दो सुरक्षाबलों समेत दूरदर्शन के कैमरामैन अच्युतानन्द साहू की मौत हो गई. ऐसा कहा जा रहा है कि दूरदर्शन को एक डॉक्युमेंट्री बनाने को कहा गया गया था जो ये दिखाए कि बस्तर जैसे इलाकों में सरकार कितना बढ़िया काम कर कर रही है. किसी का भी मारा जाना दुखद तो है ही पर नक्सली मुठभेड़ में दूरदर्शन के कैमरामैन के मारे जाने की ये घटना कई सवाल भी खड़े करती है.
बस्तर में हर कोई ये जानता है कि नक्सली, पुलिस से चिढ़ते हैं लेकिन पत्रकारों से उनका कोई बैर नहीं वे पत्रकारों पर कभी हमला नहीं करते हैं. सप्ताह भर पहले माओवादियों की ओर से एक पत्र जारी कर कहा गया कि बस्तर के किसी भी हिस्से में रिपोर्टिंग के लिए पत्रकार आ सकते हैं, उन्हें किसी भी इलाके में आने-जाने से रोका नहीं जाएगा. पत्रकारों को इन इलाकों में पुलिस के साथ न जाने की हिदायत भी माओवादियों द्वारा दी जा चुकी है. आलम ये है कि अंदरूनी इलाकों में जाते वक्त कई पुलिस वाले सादे कपड़ों में और अपनी गाड़ी में “प्रेस” लिखवा कर जाते हैं. ऐसी स्थिति में किसी पत्रकार को पुलिस के साथ भेजना घोर लापरवाही नहीं तो और क्या है. सरकार की ग़लत नीतियों से पर्दा उठाने वाले पत्रकारों को सुरक्षा का हवाला देकर अंदरूनी इलाकों में नहीं जाने दिया जाता है, तो मारे गए कैमरामैन को ऐसे खतरनाक इलाके में जाने की इजाज़त क्यों दी गई? क्या इसलिए कि वो सरकार का बखान करने वाली रिपोर्ट बना रहे थे? अब इस घटना को ढाल बनाकर पत्रकारों पर पाबन्दी और कठोर कर दी जाएगी.
बन्दूक वाली भारत सरकार
अबूझमाण और जगरगुंडा जैसे वनक्षेत्रों के आदिवासी भारत सरकार को सिर्फ़ बन्दूक की शक्ल में जानते हैं. क्योंकि सरकारी लोगों के नाम पर इन्होने सिर्फ़ फौजी जवानो को देखा है. जो बन्दूक ताने गाँव में घुसते हैं, कभी नोचते हैं, कभी लूटते हैं, कभी उठा कर ले जाते हैं और कभी मार ही डालते हैं.
जब कभी कोई पत्रकार या एक्टिविस्ट पुलिस से बचता-बचाता इस गाँवों में आता है तो ये भोले आदिवासी, बिना बन्दूक ताने आए उस व्यक्ति से बड़ी उम्मीद से कहते हैं “क्या आप सरकार की तरफ़ से आए हैं. सरकार तक हमारा ये सन्देश पहुंचा दो कि वो हमें नक्सली कहकर जेल में न डाले. हमारे गांव में भी मशीन लाए, हम वोट देना चाहते हैं.” स्कूल की बिल्डिंग की तरफ़ इशारा कर के वे कहते हैं कि “किसीको कहिये यहां आए, हम पढना चाहते हैं.” जिन इलाकों में सड़क तक नहीं हैं वहां कोई बीमार पड़ जाए तो 20 किलोमीटर दूर होती है सबसे पास की डिस्पेन्सरी. और जंगल का बीस किलोमीटर शहर के 200 किलोमीटर से ज़्यादा कठिन होता है.
हम वोट देना चाहते हैं साहब पर कोई आए तो सही
पत्रकार कमल शुक्ला दूरदराज़ के ग्रामीणों से मुलाकात का अनुभव बताते हुए कहते हैं कि “बस्तर के आदिवासी वोट देना चाहते हैं, वो लोकतंत्र के इस उत्सव का हिस्सा बनना चाहते हैं, लेकिन सरकार उन्हें इस देश का हिस्सा मानती ही नहीं. पोलिंग बूथ गांव से 40 किलोमीटर दूर बनाए जाते हैं. सारा चुनाव शहरों तक सीमित कर दिया गया है. सरकार और पुलिस द्वारा ये झूटी ख़बर फैलाई जाती है कि गांव के आदिवासी, माओवादियों के कारण वोट देने नहीं आते. पुलिस कहती है कि माओवादी वोट डालने वाले ग्रामीणों की उँगलियाँ काट देते हैं, जबकि आज तक ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया है. सरकार ने साज़िश के तहत मीडिया और आदिवासियों को चुनाव से दूर रखा है”.
मीडिया ने भी बस्तर से दूरी बना रखी है
किसी भी बड़े मीडिया हाउस ने बस्तर क्षेत्र में अपना कोई स्थाई संवाददाता नहीं रखा है. यहाँ से आम दिनों की ख़बरें भी बाहर नहीं निकलती हैं, चुनावी कवरेज तो दूर की कौड़ी है. अखबारों के लिए जो पत्रकार यहां काम करते हैं उनको भी न ढंग का वेतन मिलता है न पर्याप्त तवज्जो. दूरदर्शन के कैमरामैन की मौत के कारण जो गिने-चुने पत्रकार बाहर से आकर यहां चुनावी रिपोर्टिंग करना चाहते थे, अब वो भी नहीं आ पाएंगे, कुछ दहशत के कारण और कुछ पुलिस की घेराबंदी के कारण. आदिवासी मुद्दों पर लिखने वाले पत्रकार राजकुमार सोनी का चुनाव के पहले कोयम्बटूर तबादला कर दिया गया है. मानसिक रूप से प्रताड़ित छत्तीसगढ़ के दो पत्रकारों, रेणु अवस्थी और शैलेन्द्र विश्वकर्मा ने आत्महत्या कर ली. आत्महत्या क्यों की इस मामले की जाँच को ठन्डे बसते में डाल दिया गया है. कुछ हफ़्तों पहले बस्तर में चुनावी रिपोर्टिंग करने आए न्यूयार्क के पत्रकार सिद्धार्थ राय और स्वतंत्र पत्रकार कमल शुक्ल को घंटो थाने में बिठा कर परेशान किया गया और उनके कैमरों की तलाशी ली गई.
बस्तर में पत्रकारिता की स्वतंत्रता और लोकतंत्र, दोनों पर जानलेवा हमले हो रहे हैं.
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में दो चरणों में मतदान होने हैं. पहले चरण में 18 सीटों पर 12 नवम्बर को मतदान होने हैं जिसमें 6 राजनांदगांव की और 12 सीटें बस्तर क्षेत्र की हैं. बीती एक नवम्बर को छत्तीसगढ़ राज्य को बने 18 वर्ष पूरे हो गए. पिछले 15 वर्षों से यहां भाजपा की सरकार है. इन 15 वर्षों में प्रदेश की जनता ने भारी सामाजिक अस्थिरता का सामना किया है. संविधान की खुल्लमखुल्ला अनदेखी जिस तरह छत्तीसगढ़ में की जाती है शायद ही भारत के किसी और राज्य में की जाती होगी. आदिवासी बाहुल्य इस राज्य में, संविधान की अनदेखी का सबसे ज़्यादा खामियाज़ा यहां के आदिवासी ही भुगत रहे हैं. राज्य गठन के समय प्रदेश में 36% आदिवासी आबादी थी जो बीते 18 वर्षों में घटकर 32% रह गई है. संविधान ने आदिवासियों को पांचवी अनुसूची के तहत विशेष अधिकार दे रखे हैं, परन्तु ये संवैधानिक अधिकार किताबों में ही कैद हैं. किताबों के बाहर ये सिर्फ़ नेता जी की ज़ुबान पर ज़रा देर को दिखते हैं फिर भाषण की चुनावी चाशनी के साथ आश्वासन के दोने में टपक जाते हैं.
सच दिखाने वाले पत्रकारों पर सरकारी शिकंजा
पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के विरोध में दहशत का माहौल बना दिया गया है. पुलिस और उसकी अनैतिक कार्यप्रणाली के कुकर्मो पर सवाल उठाने वाले पत्रकारों को डराया धमकाया जाता है, उन्हें फ़र्ज़ी और बेबुनियाद आरोपों में फंसाकर या तो जेल भेज दिया जाता है या बस्तर छोड़ने पर मजबूर कर दिया जाता है. बीते कुछ वर्षों में यहां कई पत्रकारों को गिरफ़्तार किया गया है. जुलाई 2015 में सोमारू नाग को और अगस्त 2015 में संतोष यादव को गिरफ़्तार किया गया. सोमारू नाग को एक साल तक जेल में रखा गया. उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत न पेश कर पाने के चलते एक साल की जबरन कैद के बाद उन्हें रिहा किया गया. संतोष यादव पर शस्त्र अधीनियम के साथ-साथ UAPA और CSPSA के तहत धाराएं लगाई गईं. संतोष यादव को 17 महीने तक जेल में बंद रखा गया. अंततः फ़रवरी 2017 में सर्वोच्च न्यायालय से उन्हें ज़मानत प्राप्त हुई. मालिनी सुब्रमण्यम को पुलिस और पुलिस द्वारा पोषित संस्थाओं ने सितम्बर 2015 में जगदलपुर का अपना घर छोड़कर जाने के लिए मजबूर कर दिया. प्रभात सिंह और दीपक जायसवाल को भी इसके कुछ ही दिनों के अन्दर गिरफ़्तार कर लिया गया. बस्तर क्षेत्र के स्वतंत्र पत्रकार कमल शुक्ला पर कुछ महीने पहले ही राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया है.
एडिटर्स गिल्ट ने मार्च 2016 में बस्तर, बीजापुर व आसपास के इलाकों का दौरा किया. वे काम करने के हालातों को समझने के लिए यहां के स्थानीय पत्रकारों से मिले. अपनी रिपोर्ट में उन्होंने कहा कि “उन्हें यहां एक भी ऐसा पत्रकार नहीं मिला जो बिना डरे काम कर पा रहा हो”.
नक्सल उन्मूलन के नाम पर करोड़ों का वारान्यारा
छत्तीसगढ़ की रमन सरकार बड़े गर्व से बताती है कि बस्तर के आसपास का हज़ारों किलोमीटर वनक्षेत्र इलाका अब भी बाहरी दुनिया से अछूता है. इस बाहरी दुनिया में सरकार ख़ुद भी शामिल है. इस विशाल अछूते इलाके में, ज़ाहिर है इंसानी आबादी भी रहती ही होगी, जो इसी देश, इसी लोकतंत्र का ही हिस्सा हैं. इन इलाकों को नक्सल प्रभावित और नक्सलियों का गढ़ कहकर अलग थलग और बेसहारा छोड़ दिया गया है. हालांकि इस उपेक्षित इलाके का भी छत्तीसगढ़ की सरकार भरपूर फ़ायदा उठा रही है. जिन क्षेत्रों में सरकार की पहुंच हैं वहां इसने प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा लूट मचा रखी है, और जिन क्षेत्रों में राज्य सरकार की पहुंच नहीं है वहां के लिए नक्सल उन्मूलन के नाम पर केंद्र से करोड़ों रुपयों का फण्ड आता है. इस फण्ड से नेताओं और अफसरशाहों की जेबें भरी जाती हैं.
लगभग 15 वर्षों पहले छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में स्थिति इतनी बुरी नहीं थी. आदिवासियों के साथ सरकारी अत्याचार तो तब भी था, परन्तु तब आप एक पत्रकार की हैसियत से उस अत्याचार को उजागर करता समाचार लिख सकते थे. दूरस्थ आदिवासी इलाकों में जाकर आप स्वतंत्र औए ईमानदार पत्रकारिता कर सकते थे. तब कम से कम ये डर तो नहीं ही था कि सच लिखने पर पुलिस गोली मार देगी. पत्रकारों को सवाल पूछने की आज़ादी थी. तब सामाजिक कार्यकर्ताओं को सरकारी प्रशय वाली संस्थाओं के गुण्डे खुलेआम धमकाते नहीं थे. सत्ता की ग़लत नीतियों पर तंज़ करने वाले समाजसेवियों और पत्रकारों पर राष्ट्रद्रोह का का मुकदमा नहीं चलाया जाता था. लेकिन आज परिस्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं.
मीडिया विहीन बस्तर चुनाव
बस्तर क्षेत्र के स्वतंत्र पत्रकार कमल शुक्ला कहते हैं कि 2018 के बस्तर चुनाव पूरी तरह से मीडिया विहीन चुनाव हैं. वो कहते हैं कि चुनावी गतिविधियों से मीडिया को दूर रखने की ये साज़िश कोई नई नहीं है. पिछले चुनावों में भी यही परिस्थिति थी. और ऐसा भी नहीं है कि पत्रकारों पर ये रोकटोक सिर्फ़ चुनावी मौसम में लगाई जाती हो. 12 नवम्बर को बस्तर की जिन सीटों (अंतागढ़, भानुप्रतापपुर, कांकेर, केशकाल, कोंडागांव, नारायणपुर, बस्तर, जगदलपुर, चित्रकोट, दंतेवाड़ा, बीजापुर, कोंटा) पर चुनाव होने हैं, वहां के मैदानी क्षेत्रों के आलावा लगभग सभी दूरस्थ इलाकों में मीडिया की पहुंच न के बराबर है.
यहां युद्धक्षेत्र सा माहौल है
कोंटा, बीजापुर, दंतेवाड़ा और नारायणपुर विधानसभा का नाम लेते हुए कमल शुक्ल कहते हैं कि “यहां अधिकांश इलाकों में युद्ध का माहौल है, मीडिया वालों की तो छोड़ ही दीजिये, सामान्य लोगों के लिए भी यहां जाना मुश्किल है. यहां शहरी इलाकों में तो थोड़ा बहुत काम दिख भी जाता है, पर दूरस्थ आदिवासी इलाकों में विकास के सारे सरकारी दावों की पोल खुल जाती है और सरकारी लूट ज़ाहिर होने लगती है.” कोंटा विधानसभा के जगरगुंडा गाँव का उदाहरण देते हुए कमल शुक्ल बताते हैं कि “एक समय जिस जगरगुंडा में स्कूल, अस्पताल आदि विकास की द्योतक संस्थाएं संचालित थीं आज वहां जाने के लिए ढंग की सड़क तक नहीं हैं. इतना ही नहीं यदि आप ख़राब रास्ते में हिचकोले खाते हुए वहां जाने की हिम्मत बना भी लें तब भी आप वहां नहीं पहुच पाएंगे क्योंकि रास्ते में सुरक्षाबलों के लगभग 10 कैम्प पड़ते हैं जिन्हें पार करना जीवन की सबसे बड़ी चुनौती पार करने से भी ज़्यादा तकलीफदेय होता है. कैम्प में पत्रकाओं से इस बेहूदगी के साथ पूछताछ होती है के जैसे वो कोई आतंकवादी हों.
मीडिया पर पाबन्दी है ताकि सरकारी कुकर्म छुपा रहे
सन 2000 में जब छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ था तब सिर्फ़ 03 विकासखण्ड ही नक्सल प्रभावित थे, आज इससे लगभग 16 ज़िले प्रभावित हैं. राज्य की मौजूदा भाजपा सरकार ने आज तक न तो आदिवासियों की आवाज़ सुनी है और न ही नक्सल समस्या से निपटने के लिए कोई कदम उठाया है. सरकार आए दिन दावा करती रहती है कि नक्सलवाद कम हो गया है लेकिन बीते 15 वर्षों की घटनाएं नक्सलवाद में इज़ाफ़े का इशारा करती हैं. इस बात के सीधे संकेत मिलते हैं कि जैसे सरकार नक्सलवाद का ख़ात्मा चाहती ही न हो, और इसका कारण है 9000 करोड़ रूपए का वो फण्ड जो केंद्र की तरफ़ से छत्तीगढ़ राज्य को मिलता है. ऐसे ढेरों उदाहरण सामने आए हैं जब आदिवासियों को जबरन नक्सली घोषित कर एनकाउन्टर किया गया और पुलिस ने वाहवाही लूट ली. इस गोरखधंदे को सरकार के इशारे पर पुलिस चलाती है.
ये सब कराया जाता है ताकि कार्पोरेट घरानों को फ़ायदा पहुचाया जा सके. सरकार आदिवासियों को उनकी ज़मीन से बेदख़ल करने की साज़िश रच रही है ताकि ये बेशकीमती ज़मीने बड़े उद्योगपतियों को दे दी जाएं. दंतेवाड़ा, जगदलपुर, बस्तर, नारायणपुर जैसे ज़िलों में अपार खनिज संपदा है जिसे औने-पौने दाम में सरकार अडानी जैसे उद्योगपतियों को देना चाहती है.
आदिवासियों की ज़मीन को डुबाकर बिजली पैदा करने के लिए डैम का निर्माण किया गया लेकिन आदिवासी गांवों में अब भी बिजली नहीं है. उनकी ज़मीनों पर सिंचाई परियोजना स्थापित की गई, लेकिन उनके खेतों में पानी नहीं है. उनके इलाके का जंगल नष्ट कर वहां खनन करके करोड़ों का मुनाफ़ा कमाया जा रहा है लेकिन आदिवासी ग़रीब और बदहाल होता जा रहा है, उसके बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं, उन्हें शिक्षा, स्वस्थ्य और पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाएँ तक नहीं दी जा रही हैं. इन खदानों को सरकार विकास कहती है. लेकिन ये गूंगी, बहरी, अंधी सरकार ये नहीं देख पा रही है कि पूरा प्रदेश इस थोथे विकास की कितनी भयानक कीमत चुका रहा है.
लाखों की तादात में आदिवासी यहां से पलायन कर चुके हैं. केंद्र की मोदी सरकार द्वारा इस वर्ष लघु वनोपज के समर्थन मूल्यों में भारी कटौती की गई है. सरकार ने तर्क दिया है कि चूंकि इससे घटा हो रहा था इसलिए ये कटौती की है. जिसे रमन सरकार ने चुपचाप स्वीकार कर लिया है. वनोपज से आजीविका चलाने वालों के लिए ये बड़ा नुकसान है.
वनोपज | पुराना समर्थन मूल्य/रु.किलो | नया समर्थन मूल्य | बदलाव प्रतिशत |
रंगीन लाख | 230 | 100 | -56.52 |
कुसुमि लाख | 320 | 150 | -53.13 |
इमली | 22 | 18 | -18.16 |
करंज बीज | 20 | 18 | -10.00 |
महुआ | 22 | 20 | -9.09 |
चिरौंजी | 100 | 60 | -4.0 |
हर्रा | 11 | 8 | 27.27 |
लघु वनोपज के मामले में 75 प्रतिशत मूल्य केंद्र और 25 प्रतिशत राज्य सरकार देती है. 40 प्रतिशत जंगल और 32 प्रतिशन आदिवासी आबादी वाले राज्य में बड़ी संख्या में आदिवासी वनोपज से ही अपना जीवन यापन करते हैं. मुख्यमंत्री महोदय को इसका ख्याल होना चाहिए था. ये छत्तीसगढ़ सरकार की संवेदनहीनता को दर्शाता है.
1968 से छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में चल रही खदानों में एनएमडीसी ने अब तक सिर्फ़ 31 आदिवासियों को ही स्थाई नौकरी दी है, बाकी सभी से ठेके पर मजदूरी कराई जाती है जबकि इन्ही आदिवासियों की ज़मीन पर ये बड़ी-बड़ी खदाने संचालित होती हैं.
एनएमडीसी की किरंदुल की खदानों से लौह अयस्क के घोल को विशाखापट्टनम ले जाने वाली पाईप लाईन एस्सार कम्पनी ने बनाई है. इस खदान से निकलने वाले ज़हरीले अवशिष्ट को यहां की शंकनी और डंकनी नदियों में बहा दिया जाता है. इससे नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं, मवेशी मर रहे हैं और ज़मीन बंजर हो रही है. 52 से भी ज़्यादा आदिवासी गांवों का पर्यावरण बिगड़ चुका है.
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा विधानसभा में एक ऐसा कानून पारित करवा लिया गया है जिससे आदिवासियों की ज़मीन हथियाना सरकार के लिए अब पहले से ज़्यादा आसान हो गया है. अब सरकार आपसी सहमती से ज़मीन ख़रीद कर अपने पूंजीपति आकाओं को दे सकती है. ज़मीन के बदले इन आदिवासियों को चार गुना मुआवज़ा देना, कारखाने या खदान में नौकरी देने जैसे वादे तो किये जाते हैं पर वो कभी पूरे नहीं होते. बस्तर, दंतेवाड़ा, जगदलपुर, कोंटा, बीजापुर, नारायणपुर जैसी जगहों में जाकर आदिवासियों की बदहाली सहज देखि जा सकती हैं.
बीते दो दशक में बस्तर से लगभग 30000 लड़कियां मानव तस्करी के जाल में फंसकर ग़ायब हो गई हैं. सरकार न उनकी तलाश कर रही है, न इसे रोकने की कोशिश कर रही है, न उनके परिवार वालों की ही कोई सहायता कर रही है. यहां तो कुछ पुलिस अधिकारियों द्वारा ही मासूम आदिवासी लड़कियों को बंधक बनाए जाने का मामला सामने आया है. पर रमन सरकार ऐसे पुलिस वालों को सज़ा देने की बजाए उनका सम्मान और प्रमोशन करती है.
खेती के औजारों को घातक हथियार दर्ज करती है पुलिस
आदिवासियों द्वारा प्रयोग किये जाने वाले खेती के औज़ार को भी छत्तीसगढ़ की पुलिस घातक हथियारों से लैस होना मानती है. जबकि शस्त्र अधिनियम 1959 स्पष्ट रूप से कहता है कि खेती के औज़ार शस्त्रों की गिनती में नहीं आते हैं. बावजूद इसके बड़ी संख्या में लोगों पर इन औजारों को रखने के लिए शस्त्र कानून के तहत मामले दर्ज किये गए हैं. करीब 2000 आदिवासियों पर माओवादियों से जुड़े होने के मामले दर्ज किये गए हैं और लगभग हर बार शस्त्र अधीनियम की धाराएं भी लगाई गई हैं.
गांव के आदिवासियों को पकड़कर जबरन जेलों में ठूंसा जा रहा है. पुलिस और अर्धसैनिक बल घरों में घुसकर पैसे, बकरे, मुर्गे, बत्तखें, आदि लूट लेते हैं. और धमकी दी जाती है कि ये बात किसी को बताने पर उनके बच्चों को मार डाला जाएगा. हर आदिवासी को जेल में डालने के साथ पुलिस अधिकारी को इनाम मिलता है.
आदिवासी इलाकों में लगभग 3000 स्कूल बंद कर दिए गए हैं. पेसा कानून का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है. उद्योगों के लिए अधिग्रहित की गई ज़मीन, उद्योग न लग पाने की स्थिति में 5 वर्ष के भीतर मूल स्वामी को वापस कर देनी होती है, परन्तु टाटा प्लांट के लिए अधिग्रहित की गई ज़मीन अब तक मूल स्वामियों को नहीं लौटाई गई है. इन ज़मीनों को लैंड बैंक में डाल दिया गया है. ये घटना सरकार के लालची और कपटी होने को सिद्ध करती है.
आदिवासी क्षेत्रों में जहां पांचवी अनुसूची लागू हो वहां संवैधानिक व्यवस्था के लिए आदिवासी मंत्रणा परिषद बनाई जाती है, जिसका अध्यक्ष कोई आदिवासी होना चाहिए. लेकिन छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रमन सिंह ही परिषद के अध्यक्ष बने बैठे हैं.
डीडी के कैमरामैन की मौत कई सवाल खड़े करती है
दंतेवाड़ा से लगभग 30 किलोमीटर दूर अरनपुर में सुरक्षाबलों और नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ में दो सुरक्षाबलों समेत दूरदर्शन के कैमरामैन अच्युतानन्द साहू की मौत हो गई. ऐसा कहा जा रहा है कि दूरदर्शन को एक डॉक्युमेंट्री बनाने को कहा गया गया था जो ये दिखाए कि बस्तर जैसे इलाकों में सरकार कितना बढ़िया काम कर कर रही है. किसी का भी मारा जाना दुखद तो है ही पर नक्सली मुठभेड़ में दूरदर्शन के कैमरामैन के मारे जाने की ये घटना कई सवाल भी खड़े करती है.
बस्तर में हर कोई ये जानता है कि नक्सली, पुलिस से चिढ़ते हैं लेकिन पत्रकारों से उनका कोई बैर नहीं वे पत्रकारों पर कभी हमला नहीं करते हैं. सप्ताह भर पहले माओवादियों की ओर से एक पत्र जारी कर कहा गया कि बस्तर के किसी भी हिस्से में रिपोर्टिंग के लिए पत्रकार आ सकते हैं, उन्हें किसी भी इलाके में आने-जाने से रोका नहीं जाएगा. पत्रकारों को इन इलाकों में पुलिस के साथ न जाने की हिदायत भी माओवादियों द्वारा दी जा चुकी है. आलम ये है कि अंदरूनी इलाकों में जाते वक्त कई पुलिस वाले सादे कपड़ों में और अपनी गाड़ी में “प्रेस” लिखवा कर जाते हैं. ऐसी स्थिति में किसी पत्रकार को पुलिस के साथ भेजना घोर लापरवाही नहीं तो और क्या है. सरकार की ग़लत नीतियों से पर्दा उठाने वाले पत्रकारों को सुरक्षा का हवाला देकर अंदरूनी इलाकों में नहीं जाने दिया जाता है, तो मारे गए कैमरामैन को ऐसे खतरनाक इलाके में जाने की इजाज़त क्यों दी गई? क्या इसलिए कि वो सरकार का बखान करने वाली रिपोर्ट बना रहे थे? अब इस घटना को ढाल बनाकर पत्रकारों पर पाबन्दी और कठोर कर दी जाएगी.
बन्दूक वाली भारत सरकार
अबूझमाण और जगरगुंडा जैसे वनक्षेत्रों के आदिवासी भारत सरकार को सिर्फ़ बन्दूक की शक्ल में जानते हैं. क्योंकि सरकारी लोगों के नाम पर इन्होने सिर्फ़ फौजी जवानो को देखा है. जो बन्दूक ताने गाँव में घुसते हैं, कभी नोचते हैं, कभी लूटते हैं, कभी उठा कर ले जाते हैं और कभी मार ही डालते हैं.
जब कभी कोई पत्रकार या एक्टिविस्ट पुलिस से बचता-बचाता इस गाँवों में आता है तो ये भोले आदिवासी, बिना बन्दूक ताने आए उस व्यक्ति से बड़ी उम्मीद से कहते हैं “क्या आप सरकार की तरफ़ से आए हैं. सरकार तक हमारा ये सन्देश पहुंचा दो कि वो हमें नक्सली कहकर जेल में न डाले. हमारे गांव में भी मशीन लाए, हम वोट देना चाहते हैं.” स्कूल की बिल्डिंग की तरफ़ इशारा कर के वे कहते हैं कि “किसीको कहिये यहां आए, हम पढना चाहते हैं.” जिन इलाकों में सड़क तक नहीं हैं वहां कोई बीमार पड़ जाए तो 20 किलोमीटर दूर होती है सबसे पास की डिस्पेन्सरी. और जंगल का बीस किलोमीटर शहर के 200 किलोमीटर से ज़्यादा कठिन होता है.
हम वोट देना चाहते हैं साहब पर कोई आए तो सही
पत्रकार कमल शुक्ला दूरदराज़ के ग्रामीणों से मुलाकात का अनुभव बताते हुए कहते हैं कि “बस्तर के आदिवासी वोट देना चाहते हैं, वो लोकतंत्र के इस उत्सव का हिस्सा बनना चाहते हैं, लेकिन सरकार उन्हें इस देश का हिस्सा मानती ही नहीं. पोलिंग बूथ गांव से 40 किलोमीटर दूर बनाए जाते हैं. सारा चुनाव शहरों तक सीमित कर दिया गया है. सरकार और पुलिस द्वारा ये झूटी ख़बर फैलाई जाती है कि गांव के आदिवासी, माओवादियों के कारण वोट देने नहीं आते. पुलिस कहती है कि माओवादी वोट डालने वाले ग्रामीणों की उँगलियाँ काट देते हैं, जबकि आज तक ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया है. सरकार ने साज़िश के तहत मीडिया और आदिवासियों को चुनाव से दूर रखा है”.
मीडिया ने भी बस्तर से दूरी बना रखी है
किसी भी बड़े मीडिया हाउस ने बस्तर क्षेत्र में अपना कोई स्थाई संवाददाता नहीं रखा है. यहाँ से आम दिनों की ख़बरें भी बाहर नहीं निकलती हैं, चुनावी कवरेज तो दूर की कौड़ी है. अखबारों के लिए जो पत्रकार यहां काम करते हैं उनको भी न ढंग का वेतन मिलता है न पर्याप्त तवज्जो. दूरदर्शन के कैमरामैन की मौत के कारण जो गिने-चुने पत्रकार बाहर से आकर यहां चुनावी रिपोर्टिंग करना चाहते थे, अब वो भी नहीं आ पाएंगे, कुछ दहशत के कारण और कुछ पुलिस की घेराबंदी के कारण. आदिवासी मुद्दों पर लिखने वाले पत्रकार राजकुमार सोनी का चुनाव के पहले कोयम्बटूर तबादला कर दिया गया है. मानसिक रूप से प्रताड़ित छत्तीसगढ़ के दो पत्रकारों, रेणु अवस्थी और शैलेन्द्र विश्वकर्मा ने आत्महत्या कर ली. आत्महत्या क्यों की इस मामले की जाँच को ठन्डे बसते में डाल दिया गया है. कुछ हफ़्तों पहले बस्तर में चुनावी रिपोर्टिंग करने आए न्यूयार्क के पत्रकार सिद्धार्थ राय और स्वतंत्र पत्रकार कमल शुक्ल को घंटो थाने में बिठा कर परेशान किया गया और उनके कैमरों की तलाशी ली गई.
बस्तर में पत्रकारिता की स्वतंत्रता और लोकतंत्र, दोनों पर जानलेवा हमले हो रहे हैं.