मीडिया में तमाम लानत-मलानत के बावजूद लालू प्रसाद का वोटर टस-से-मस नहीं हुआ है। इसलिए नहीं कि उनके तमाम समर्थक येन-केन-प्रकारेण धनार्जन के पक्षधर हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें मालूम है कि यह बदले की कार्रवाई है। गिन-चुन कर निशाना बनाया जा रहा है, ये वो समझते हैं, और शायद इसीलिए वे और मज़बूती से लालू के पक्ष में गोलबंद होंगे। इधर लालू प्रसाद से मुलाक़ात के बाद मीरा कुमार ने बयान दिया, “लालू प्रसाद सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले सबसे मज़बूत और साहसी योद्धा हैं। इस चुनाव के समय उनके जेल में रहने से मुझे अफ़सोस है”।
अब प्रश्न है कि लालू की गैर-मौजूदगी में जिस तरह एक वक़्त राबड़ी देवी ने पार्टी और सरकार को संभाला था, क्या उसी तरह की स्थिति फिलवक्त तेजस्वी के सामने है? तब जब राबड़ी देवी पर इल्ज़ाम लगते थे कि उनकी सरकार बेऊर जेल से लालू प्रसाद चला रहे हैं, और वो नाम मात्र की मुख्यमंत्री हैं, तो प्रभु चावला के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने बड़ी कड़ाई से कहा, “हमको जनता ने मुख्यमंत्री बनाया है। लालू प्रसाद हमारी पार्टी के अध्यक्ष हैं, और एक मुख्यमंत्री को अपने दल के अध्यक्ष से परामर्श लेने औऱ प्राज़िड़ेंट को अपनी सीएम को सलाह देने का हक़ है या नहीं? बाक़ी, सरकार मैं अपने विवेक से चलाती हूँ”।
लेकिन 1997 और 123123ष्ठ के ज़िलाध्यक्ष व प्रखंड अध्यक्ष समेत दल के राष्ट्रीय पदाधिकारी और बिहार की 11 करोड़ जनता ने तेजस्वी को एक संभावनाशील व सहज स्वीकार्य नेता मान लिया है जिन्होंने अब तक अपने कामकाज से बिना किसी लकीर को काटे एक स्पष्ट बड़ी लकीर खींची है। उनकी कार्यशैली में लेकिन-किंतु-परंतु-हालांकि-यद्यपि-तथापि जैसी गाभिन बातों के लिए कोई जगह नहीं दिखाई पड़ती है। और शायद इसी प्रखरता, स्पष्टवादिता और साथ ही शालीनता व सौम्यता के चलते तेजस्वी की स्वीकार्यता 8 साल के तरुण से लेकर 18 साल के किशोर तक, 28 साल के नौजवान से लेकर 80 साल के बुज़ुर्ग तक तीव्रतम गति से बढ़ी है।
तेजस्वी के इस व्यक्तित्व का निर्माण अकस्मात् नहीं हुआ। जब हम उनके शुरूआती जीवन से अब तक के सफ़र पर गौर करें, तो एक तारतम्यता दिखाई पड़ती है। उनमें एक क़िस्म की विकासशीलता है। वे एक शानदार और समर्पित लर्नर हैं। क्रिकेट के प्रति दीवानगी व क्रिकेट को पहली मोहब्बत बना लेने के बाद डीपीएस से माध्यमिक पढ़ाई को बीच में ही उन्हें छोड़ना पड़ा। कई बार लोग तेजस्वी को इस ग्राउंड पर घेरते हैं कि उन्होंने शिक्षा पूरी नहीं की। लोग भूल जाते हैं कि यह कबीर की परंपरा का देश है जहाँ लोकज्ञान, लोकबुद्धि व लोकनीति राजनीति में बहुत मायने रखती है। कांग्रेस के अध्यक्ष रहे के. कामराज कौन-से बहुत पढ़े थे, मगर राष्ट्रीय पार्टी को बहुत शादनाद तरीके से चलाया। बतौर मुख्यमंत्री, तमिलनाडु, उनके कामराज फॉर्मुले को आज भी याद किया जाता है। जब तेजस्वी की विधिवत् शिक्षा-दीक्षा से जुड़ा सवाल एक पत्रकार ने शरद यादव से पूछा कि वो इतने सीनियर लीडर हैं औऱ उनकी पार्टी लोकतांत्रिक जनता दल बहुत ही छोटी व नई पार्टी है, तो कम उम्र के तेजस्वी की अगुआई वाली बेहद बड़ी पार्टी राजद के साथ उनके नेतृत्व वाले अलायंस में काम करने में ख़ुद को असहज महसूस नहीं करेंगे?, तो शरद यादव ने प्रत्युत्पन्नमति से कहा, “विवेकानंद की कित्ती उमर थी?”
जो भी लोग लालू परिवार के बारे में दुष्प्रचार करते रहते हैं, उन्हें शायद मालूम नहीं है कि राबड़ी देवी और लालू प्रसाद की सभी बेटियाँ सुशिक्षित, शालीन, लोकव्यवहार की धनी व राजनीतिक चेतना व संवेदना से संपन्न हैं। सचिन तेंदुलकर, धोनी, आदि अगर क्रिकेट खेलने की वजह से अपनी पढ़ाई पूरी न कर पाए हों, तो बहुत अच्छा, मगर तेजस्वी यादव अगर क्रिकेट खेलें और उस वजह से अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ें, तो मीडिया से लेकर अकेडमिया के लोग अलबल बोलना शुरू कर देते हैं। न्यूज़ 24 के साथ एक बातचीत में गत वर्ष तेजस्वी ने बताया कि वे विराट कोहली और ईशांत शर्मा के साथ प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेले हैं और ये लोग उनकी कप्तानी में भी खेले हैं। जो टूर्नामेंट 35 साल में दिल्ली नहीं जीती, उसे तेजस्वी से अपनी कप्तानी में जिताया। इनकी कैप्टनशिप में टीम ने दलीप ट्रॉफी जीती। वे अंडर-19, अंडर-17, अंडर-15 और जोनल मैच खेल चुके हैं और अभी भारतीय क्रिकेट टीम में 15 में से 12 क्रिकेटर तेजस्वी के बैचमेट रहे हैं। अंडर-15 और अंडर-17 टीम, दिल्ली के कप्तान रहे हैं। दोनों पैरों के टखने का लिगामेंट टूटने की वजह से भी उन्हें क्रिकेट छोड़ना पड़ा। मार्क ट्वेन ने ठीक ही कहा था, “I never let my colleges and universities interfere with my education”.
अब सवाल है कि तेजस्वी ने कब, कैसे और कहाँ से सियासत में पहला क़दम रखा कि किसी को ख़बर भी नहीं हुई और वो शनैः-शनैः लोगों के बीच मक़बूल और मशहूर होते चले गए। वह वक़्त है 2010 का। वो राँची से रणजी खेल कर आए थे। सितंबर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस था लालू प्रसाद का। तेजस्वी यूँ ही साथ में थे बिना किसी सुनियोजित कार्यक्रम के तहत। लालू प्रसाद ने बस इतना कहा कि मेरा बेटा है। बस क्या था, भारतीय लोकतंत्र के चौथे खंभे ने अपना चिर-परिचित काम कर दिया कि तेजस्वी हुए लॉन्च, गोया कोई फ़िल्म रिलीज़ हो रही हो। अक्टूबर में 40 के आसपास छोटी-छोटी सभाएं की। 2012 में पटना में “इंटेरेक्शन विद युथ” नामक एक कार्यक्रम में तेजस्वी ने शिरकत की। धीरे-धीरे लोगों से मिलने लगे। राजनीति तो उनके शोणित में थी ही। बचपन से परिवार का माहौल सियासी देखा, पिता को साज़िशन जेल भेजे जाने के तिकड़म से कच्ची उम्र में दो-चार हुए। तो कुल मिला कर वक़्त ने उन्हें समय से पहले पका दिया।
उन्होंने पार्टी के युथ विंग के साथ सूबे के अलग-अलग हिस्से की कई यात्राएँ कीं। तब युवा राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष और सम्प्रति बिहार प्रदेश राजद के प्रधान महासचिव आलोक मेहता भी उनके साथ हुआ करते थे। 2013 में जाकर ज़िलावार युवा सम्मेलन टाउन हॉल में करना शुरू किया। दिल्ली में उनके कहने पर अपनी नौकरी छोड़ कर तेजस्वी यादव के साथ ही बिहार में डेरा डाल चुके संजय यादव उनके कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करते। इस तरह पब्लिक स्फेयर में हौले-हौले तेजस्वी की आहट सुनाई पड़ने लगी थी। यह एक शालीन मगर ठोस ज़मीनी शुरूआत थी। जनता के नब्ज़ को पकड़ने व उनकी ज़रूरतों को समझने का इससे बेहतर कोई और रास्ता व तरीक़ा नहीं हो सकता। 2014 का आम चुनाव आते-आते रघुवंश प्रसाद समेत पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने जनाकांक्षाओं को देखते हुए अपने क्षेत्र में तेजस्वी की सभाओं की मांग करने लगे कि लोग उनको देखना-सुनना चाहते हैं। और फिर 2015 में वो परंपरागत सीट राघोपुर से जनता का विश्वास जीतने मैदान में उतरे, और 91236 मत लाकर बीजेपी के सतीश कुमार (68503 वोट) को हरा कर पथ निर्माण विभाग के मंत्री बने।
जब तेजस्वी उपमुख्यमंत्री और पीडब्लयुडी मिनिस्टर बने, और 20 महीने में बिना ख़ुद पर आंच आने दिए रिकॉर्ड काम किया, तो ख़ुद नीतीश कुमार घबरा उठे। और सत्ता के गलियारे में यह भी चर्चा हुई कि लालू परिवार व तेजस्वी के ख़िलाफ़ ख़ुद नीतीश कुमार ने बहुत-सा मसाला उपलब्ध कराया। महज एफआईआर होने पर इस्तीफ़े के लिए मीडिया के ज़रिए दबाव बनवाना और यह कहना कि पब्लिक के बीच एक्सप्लेन करिए; निहायत ही ओछी राजनीति लगी। लालू-विरोध नीतीश कुमार की सियासत की एकमात्र युएसपी रही। येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहने के लिए अपनी अगली ईगो व अटैंशन सीकिंग सिंड्रोम के चलते किसी भी विचारधारा से हाथ मिलाने को तैयार रहते हैं औऱ मौक़ापरस्ती का अश्लील मुज़ाहिरा पेश करते हुए विधानसभा के अंदर धर्मनिरपेक्षता शब्द की खिल्ली उड़ाते हैं। आरएसएस द्वारा सीमा-सुरक्षा का ज़िम्मा लेने को राष्ट्रसेवा हेतु तत्परता बताते हैं।
किसी पार्टी विशेष का प्रवक्ता किसी उपमुख्यमंत्री से किसी मामले में सफाई कैसे मांग सकता है? नीतीश कुमार द्वारा जनादेश के अपहरण, बलात्कार व क़त्ल के बाद विधानसभा के अंदर तेजस्वी ने अपने 41 मिनट के भाषण के दौरान यह भी कहा कि क्या नीतीश कुमार कोई ऐसा क़ानून बनाएंगे जिसमें एफआईआर के बाद ही त्यागपत्र देना पड़े? अगर ऐसा हुआ तो सबसे पहले तो हत्या के प्रयास के मामले में नीतीश कुमार को ही इस्तीफ़ा देना पड़ेगा, और जिस छवि की दुहाई देकर वो हाई मोरल ग्राउंड लेते हैं, उस पर तो उन्हें कोई क़ानून बनने का इंतज़ार किए बगैर ख़ुद ही फौरन इस्तीफ़ा दे देना चाहिए। छविप्रधान सुशासन बाबू सुनील पांडेय, मुन्ना शुक्ला और अनंत सिंह के आगे हाथ जोड़े खड़े रहें, तो वो नैतिक आचरण के दायरे में कैसे आ जाता है?
यह एक ऐसे तनाव व जनाक्रोश के माहौल में दिया गया संयत व असरदार भाषण था जिसमें हर तरह का रस, भाव व प्रभाव मौजूद था। कहते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति लिंकन द्वारा 19 नवंबर 1863 को दिये गये गेटिसबर्ग एड्रेस का मुक़ाबला करना आज भी किसी अमेरिकी प्रेज़िडेंट और ऑरेटर्स के लिए एक चुनौती है। हर राजनीतिज्ञ अपने जीवन-काल में कभी-न-कभी कोई-न-कोई शानदार व ज़ोरदार संबोधन करता है, और ख़ुद उसकी ऊंचाई को दुबारा छूना मुश्किल होता है। तेजस्वी बाद के दिनों में और भी प्रखरता से बातें रखते रहे हैं। मगर विधानसभा का वह 41 मिनट का अविस्मरणीय भाषण तेजस्वी के मौजूदा शक्ल में ढलने का प्रस्थान-बिंदु कहा जा सकता है।
तेजस्वी यादव का वह भाषण दिखाता है कि कितनी तेज़ी से उन्होंने सूबे की सबसे बड़ी पंचायत के साथ-साथ जनता से भी कनेक्ट करने के लिए लोकशैली अपना ली है। अपने पिता के पदचिह्नों पर चलते हुए, कई बार उनसे मुख्तलिफ़ स्टाइल बरतते हुए आम जन की ज़बान में लोगों से गुफ्तगू करते हुए वो नज़र आते हैं। संस्कृत में कहते हैं –
सर्वत्र विजयमेच्छयेत्
पुत्रात्-शिष्यात् पराजयं।
अर्थात् व्यक्ति सारी दुनिया से जीतने की इच्छा रखता है, मगर पुत्र और शिष्य से हमेशा हारना पसंद करता है। तेजस्वी यादव ने अब तक ख़ुद को एक सुयोग्य पिता के सर्वथा कुशल पुत्र के रूप में हर मोर्चे पर सफल साबित किया है, और आगे भी समाजवादी परंपरा को ज़िंदा रखने की उनसे सहज-स्वाभाविक अपेक्षाएं लोगों की जुड़ गई हैं। संविधान बचाओ यात्रा समेत तेजस्वी की कई रैलियों में साफ़ देखने को मिला कि वो लालू प्रसाद की क्राउड पुलिंग एबिलिटी, जिसका अटल जी समेत उनके धुर विरोधी भी लोहा मानते आए हैं; को भी पीछे छोड़ते दिखे।
यह हिन्दुस्तानी सियासत का अंतरात्मा युग है। जबसे नीतीश कुमार ने हुलुकडिब्बाई चंपकगिरी की है, तबसे किसी पर यक़ीन करना मुश्किल है। मौजूदा रीढ़विहीनता के परिप्रेक्ष्य में बस एक बात कहा जा सकता है कि लालू प्रसाद और तेजस्वी जी कभी आरएसएस के आगे घुटने नहीं टेकेंगे। लालू का रिकॉर्ड और तेजस्वी का स्पिरिट इस बात को पुख़्ता करते हैं। पहली बार पटना की सड़कों पर गोडसे ज़िंदाबाद के नारे लगे, 2 लाख ऑनलाइन तलवारों की बिक्री हुई, केंद्रीय मंत्री के बेटे को गिरफ़्तार करने में नीतीश कुमार के पाँव फूल रहे थे। तब तेजस्वी यादव ने कहा, “मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चार सिपाही के साथ केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के दंगा आरोपी फ़रार बेटे को पकड़ने की मुझे प्रशासनिक अनुमति दें। एक घंटे में घसीटकर नीतीश कुमार के नकारा प्रशासन को सौंप दूँगा। मेरा दावा है। लटर-पटर से शासन नहीं चलता। दंगा रोकने के लिए कलेजा होना चाहिए”।
जब सीबीआई के अंदर की गंदगी बाहर आ गई, और उजागर करने वाले ख़ुद निदेशक वर्मा थे, तो भारतीय लोकतंत्र की जड़ें हिलती दिखाई पड़ीं। शीर्ष जांच एजेंसियां और शीर्ष अदालतें अगर भरोसेमंद नहीं रहेंगी, तो यह किसी के लिए भी ख़ुश होने वाली बात नहीं है। उनकी स्वायत्तता व पारदर्शिता बहाल होनी चाहिए। साथ ही, लालू समेत उन सभी मामलों की फिर से जाँच होनी चाहिए जो अस्थाना के जिम्मे थे। तेजस्वी ने तब गंभीर टिप्पणी की थी, “विपक्षी नेताओं के चरित्र-हनन और घर पर छापेमारी से मोदी जी का पेट नहीं भरा, तो अब सीबीआई से सीबीआई के मुख्यालय पर ही छापा डलवा दिया। सीबीआई को रॉ से और आईबी से सीबीआई को भिड़वा दिया। शर्मनाक तरीक़े से देश की जाँच एजेंसियां नंगा नाच कर रही हैं। पीएमओ डरा-धमका कर व ख़ौफ़ फैला कर वसूली करने का अड्डा बन गया है। लालू जी को फंसाने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल हुआ”।
यह भी खुलासा हुआ कि लालू प्रसाद को जेल भेजे जाने में पीएमओ, नीतीश कुमार, केंद्र सरकार के एक मंत्री, सुशील मोदी और सीबीआई अधिकारी ख़ासा दिलचस्पी ले रहे थे और दबाव बना रहे थे। सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग किये जाने पर तेजस्वी ने कहा, “बार-बार हमारे घर पर जाँच टीम भेजी जाती है, तलाशी ली जाती है और कुछ मिलता नहीं। मैं ऑफर देता हूँ सरकार को कि हमारे घर में ही सीबीआई, ईडी और इनकम टैक्स का ऑफिस खोल लें। उन्हें भी सहुलियत रहेगी”।
डॉ. लोहिया ने कहा था, “जो ज़्यादा बोलते हैं, वे क्रांति नहीं कर सकते हैं और न ही ज़्यादा कार्य कर सकते हैं। क्रांति के लिए तेजस्विता की ज़रूरत होती है”। तेजस्वी उसी तेजस्विता और ओजस्विता के साथ समाजवादी विचार व सिद्धांत को अपनाते हुए तेज़ी से जनता के बीच पैठ जमा रहे हैं। उनकी मंज़िल पटना नहीं, बल्कि दिल्ली होनी चाहिए, और उसके लिए जिस दूरदर्शिता, धैर्य, उदारहृदयता, संकल्पशक्ति व अध्यवसाय की ज़रूरत होती है, वो सब उनमें बहुत स्पष्टता और प्रखरता से नज़र आ रहे हैं।
15 मई 1993 को पटना के भारतीय नृत्य कला मंदिर में इंटेलेक्चुअल्स को संबोधित करते हुए बिहार के साबिक़ वजीरे-आला अब्दुल गफ़ूर ने कहा था “दुनिया के मुसलमान इस बात को मानते हैं कि अल्पसंख्यकों को पूर्ण सम्मान देकर लालूजी ने पूरे विश्व में बिहार के सिर को ऊंचा किया है”।
तेजस्वी ने भी उसी अंदाज़ में पिता के पदचिह्नों पर चलते हुए नफ़रतगर्दी की मुख़ालफ़त का रास्ता चुना है। उनकी राह है – फिरकापरस्ती के फ़न कुचलने की, क़ौमी एकता की, सामाजिक न्याय के लिए अनवरत संघर्ष की। यह वक़्त उनके लिए बेदाग़ रहने का है, मज़बूत इरादे व बुलंद हौसले के साथ लोहा लेने का है। जनता उनके साथ खड़ी दिखाई देती है, चाहे जनादेश अपमान के ख़िलाफ़ हुई उनकी यात्रा के दौरान अपार जनसमर्थन हो या सृजन घोटाले, शौचालय घोटाले, धान घोटाले, प्राक्कलन घोटाले, आदि को उजागर करने और जनता के बीच ले जाते हुए उनकी बढ़ती स्वीकार्यता हो। वो कतिपय प्रशासनिक ग़लतियाँ कतई न दुहराई जाएं जो अतीत में लालू प्रसाद से हुईं। नई रोशनी उनके नेतृत्व में समतामूलक समाज की स्थापना हेतु कुछ ठोस क़दम बढ़ाने को तत्पर दिखाई पड़ती है। फूंक-फूंक कर क़दम रखना होगा। चालें चली जा चुकी हैं। असली लड़ाई इसी 19 और 20 में है। तेजस्वी पूरे धैर्य व स्वाभाविक गरिमा के साथ जनता के मैदान में बने रहें, डटे रहें, जूझते रहें। जनता की अदालत कभी ग़लत फ़ैसले नहीं देती, संपूर्ण न्याय वहीं से मिलेगा।
लालू प्रसाद की बात को अगर कोई बिसराएगा तो हिस्टोरिकल ब्लंडर करेगा। जैसे राष्ट्रपति को भी कभी किसी बिंदु पर दुविधा होती है तो वो संविधान की प्रस्तावना उलट लेते हैं, वैसे ही पार्टी के किसी नेता को किसी मुद्दे पर स्टैंड लेना हो तो अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू जी का दिया सामाजिक न्याय और सांप्रदायिक सौहार्द का सूत्र याद कर लें। किंकर्त्तव्यविमूढ़ता समाप्त हो जाएगी। सामाजिक न्याय की लड़ाई कौन लड़ रहा है? ज़रा अपने इर्द-गिर्द देखिए। नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, सुशील मोदी, उनकी पार्टियां और उनके लोग कहाँ हैं इस लड़ाई में? बहुजन-विरोधी विभागवार रोस्टर के सवाल पर तेजस्वी यादव कोई आज मुखर नहीं हुए हैं, बल्कि गत वर्ष से ही डे 1st से इस लड़ाई में बहुजन युवाओं के साथ शामिल हैं। पिछले साल इस इशु पर डीयु में हुए सामाजिक न्याय युवा सम्मेलन में वो अपरिहार्य कारणों से शरीक नहीं हो सके तो अपने राजनैतिक सलाहकार संजय यादव के ज़रिए बेहद संजीदा संदेश उन्होंने भेजा था। विश्वविद्यालय की विसंगतियों पर वो कितनी पैनी दृष्टि रखते हैं, इससे साफ़ ज़ाहिर होता है।
तेजस्वी यादव ने जिस मुखरता, प्रखरता व प्रबलता से इसे जनता का मुद्दा बनाया है, अपनी सभाओं मे लोगों को समझाया है, वह बेहद काबिले-तारीफ़ है। अपने स्टैंड की वजह से आज वो देश के सबसे प्रखर विपक्षी नेताओं की अग्रिम पंक्ति में शुमार हैं। प्रधानमंत्री के नाम तेजस्वी यादव ने कड़े शब्दों में खुला पत्र लिख कर अपील की कि मनुवादी नागपुरी सरकार द्वारा बहुजनों का गला काटकर विश्वविद्यालयों में साज़िशन विभागवार 13 प्वाइंट रोस्टर लागू करने के विरोध में मंडी हाउस से संसद मार्ग तक के विशाल पैदल मार्च में शामिल होकर इनकी ईंट से ईंट बजायें। जंतर-मंतर पर वो ख़ुद, राजद के कई सांसद, विधायक, छात्र राजद, जेएनयू और युवा राजद के लोग पहुंचे। वो बिहार में लगातार “बेरोज़गारी हटाओ, आरक्षण बढ़ाओ” यात्रा कर रहे हैं।
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक भी ओबीसी एसोशिएट प्रफेसर और प्रफेसर नहीं होने एवं 496 कुलपतियों में बहुजन समाज के मात्र 48 कुलपति होने पर चिंता जाहिर करते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी। जातिवार जनगणना कराने की मांग, लाखों आदिवासियों की बेदखली पर आक्रोश व संख्या के मुताबिक़ हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की मांग को लेकर उन्होंने 5 मार्च के भारत बंद को समर्थन दिया है। असंवैधानिक ढंग से संविधान संशोधन कर बिना किसी कमीशन की किसी रिपोर्ट के रेकमेंडेशन के आनन-फानन में ओवररेप्रज़ेटेड 8 लखिया दरिद्र विप्रों व अन्य तथाकथित उच्च जातियों को आर्थिक आधार पर दिए गए 10% आरक्षण की पुरज़ोर मुख़ालफ़त करने वाली उत्तर भारत की इकलौती पार्टी राजद थी। तेजस्वी यादव ने तो यहाँ तक कहा, “भले ही हमारी पार्टी को एक भी सीट न आए, हम सामाजिक न्याय के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे”।
अपने कार्यकर्ताओं के साथ तेजस्वी के रिश्ते प्रेम के रिश्ते हैं, भरोसे के रिश्ते हैं, ऐतमाद के रिश्ते हैं, परस्पर विश्वास के रिश्ते हैं, वैचारिक रिश्ते हैं, उत्तरदायित्त्व-बोध के रिश्ते हैं। एक बार मैंने उनसे कहा कि जब पार्टी का चरित्र राष्ट्रीय है, इसकी फ़िलॉसफ़ी युनिवर्सल है, तो क्यूं नहीं इसका प्रसार राष्ट्रीय फलक पर किया जाए! अपने सलाहकार संजय यादव की मौजूदगी में उन्होंने कहा कि मैं तो कब से चाह रहा हूँ कि विस्तार हो। दिल्ली में, मणिपुर में हमारे विधायक जीतते रहे हैं। जेएनयु छात्रसंघ चुनाव में पार्टी की छात्र इकाई के शिरकत करने का फ़ैसला लेने में उन्होंने देर नहीं लगाई। जब आज तक के पत्रकार विकास कुमार ने उनसे एक इंटरव्यू में पूछा कि जेएनयु में अलग क़िस्म की पॉलिटिक्स होती है, आपके प्रेज़िडेंशियल कैंडिडेट को डिबेट के बाद पूछा गया कि आप समाजवाद की बात करते हैं, पर आपकी पार्टी में परिवारवाद है। क्या कहना चाहेंगे? तो तेजस्वी यादव का उत्तर था, “उन्होंने जवाब बहुत अच्छे ढंग से दिया होगा”। यह बतलाता है कि वो जिनके विवेक पर भरोसा करते हैं, तो फिर टूट कर करते हैं।
जिन्हें परिवारवाद का राग अलापना है, वो भूल जाते हैं कि वैश्विक परिदृश्य में कम्युनिस्ट नेता फिदेल कास्त्रो (1959-1976 तक क्यूबा के प्रधानमंत्री & 1976- 2008 तक राष्ट्रपति) के भाई रऊल कास्त्रो (मौजूदा राष्ट्रपति), पाकिस्तान के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री रहे जुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी बेनजीर भुट्टो (किसी मुस्लिम मुल्क की पहली प्रधानमंत्री), श्रीलंका की प्रधानमंत्री रही दम्पती श्रीमती सिरिमावो भंडारनायके (दुनिया के किसी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री) व श्री भंडारनायके की पुत्री चंद्रिका कुमार तुंग (श्रीलंका की एकमात्र महिला राष्ट्रपति), दूसरे अमेरीकी राष्ट्रपति जॉन ऐडम्स के बेटे जॉन क्विंज़ी ऐडम्स (6ठे अमेरिकी राष्ट्रपति), ज़ियाउर्रहमान की पत्नी बेगम खालिदा ज़िया, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति सीनियर बुश के बेटे जुनियर बुश (राष्ट्रपति रहे), बांग्लादेश के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री रहे शेख़ मुजीबुर्रहमान की बिटिया शेख़ हसीना वाज़ेद (बांग्लादेश की सबसे ज्यादा दिनों तक प्रधानमंत्री रहने वाली नेता), बांग्लादेश के राष्ट्रपति रहे जियाउर्रहमान की बीवी बेगम खालिदा जिया (बांग्लादेश की पहली महिला प्रधानमंत्री व किसी मुस्लिम देश की वजीरे-आज़म बनने वाली दूसरी महिला), पूर्व अमेरिकी प्रेजिडेंट बिल क्लिंटन की बीवी हिलेरी क्लिंटन (विदेश मंत्री रहीं), कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री पियरे त्रुदो के बेटे वर्तमान प्रधानमंत्री जस्टिन त्रुदो, सीपीएम नेता प्रकाश करात की बीवी बृंदा करात, सीपीआई नेता डी राजा की पत्नी एनी राजा, दर्जनों मिसाल हैं। यहीं पर यह सवाल पैदा हैता है कि अगर राजनीति में रुचि है, समर्पण, लगन व क्षमता है, तो जनता सराहती है, वरना खारिज़ कर देती है। जैसे एनी और बृंदा शादी से पहले से सक्रिय हैं, तो क्या एक ही परिवार में दो-तीन व्यक्ति के राजनीति में होने के चलते उन्हें घर बैठ जाना चाहिए?
मगर, हमले बस लालू प्रसाद व तेजस्वी यादव पर होंगे। यह मेनस्ट्रीम नहीं, मनुस्ट्रीम मीडिया है।
बिहार विधानसभा के ओजस्वी नेता, प्रतिपक्ष, पूर्व उपमुख्यमंत्री व युवाओं-छात्रों-किसानों-मज़दूरों-महिलाओं-बुजुर्गों, सबके बीच बेहद मक़बूल तेजस्वी कई मायने में अनूठे नज़र आते हैं और बाकी समकालीन युवा नेताओं से कहीं ज्यादा आश्वस्त करते हैं। जिस उम्र में लोग शरारत करते हैं, गुस्ताखियां अंजाम देते हैं, कुछ बेबाकियां कर लेते हैं, उस नाजुक उम्र में उन पर एक बडी जिम्मेदारी आन पड़ी, जिसे अब तक उन्होंने बहुत करीने व सलीके से निभाया है। कई बार उनके नीतीश चाचा बहुत इरिटेटेड नज़र आते हैं, इसलिए नहीं कि उन्हें दांवपेंच नहीं आता, बल्कि इसलिए कि तेजस्वी के आगे नीतीश कुमार का हर दांव विफल हो जा रहा है। कई उपचुनाव के नतीजे उन्हें इसलिए कचोट रहे हैं कि इस बार उन्हें बडे भाई नहीं, बल्कि भतीजे के आगे करारी शिक़स्त खानी पडी है।
उनकी धार को देख कर ऐसा आभास होता है कि वो इस देश की राजनीति के निर्णायक किरदार बन अगले 40 साल की सियासत तय करने जा रहे हैं। उन्हें कोई हड़बडी नहीं है। जनता खुद 1 अणे मार्ग के दरवाजे उनके लिए खोलने को तैयार है। मगर लडाई देश की है। बिहार के दायरे से बाहर भी वो संविधान बचाओ संघर्ष समिति द्वारा कॉन्स्टिट्युशन क्लब, दिल्ली में आयोजित सामाजिक न्याय केंद्रित सेमिनार में शिरकत से लेकर, बंगाल में ममता बनर्जी के यहां सीबीआई की ज़्यादती के ख़िलाफ़ पहलक़दमी करते नज़र आते हैं।
तेजस्वी आज इस देश के स्वप्नदर्शी युवाओं की सहज स्वाभाविक उम्मीदों-अपेक्षाओं-आकांक्षाओं के प्रतीक बन गए हैं। उनकी ओर यह मुल्क टकटकी लगाए है। देश के ढहते विश्वविद्यालयों में रोस्टर सिस्टम में मनुवादी तरीक़े से बदलाव लाकर सामाजिक न्याय को तहसनहस कर देने पर आमादा सिस्टम, रेज़र्वेशन की धज्जियां उड़ाये जाने, रिसर्च प्रोग्रैम में मैसिव सीट कट, फंड कट किये जाने, ऑटोनोमी के बखेड़े, बिहार में डबल इंजन की दंगाई सरकार की नाकामी और देश भर में हो रही किसानों-युवाओं की सांस्थानिक हत्या पर पिछले साल जून में उनसे बेहद सकारात्मक, प्रभावी व यादगार मुलाक़ात रही। संवाद में इतनी स्पष्टता व प्रखरता एक निश्छल नौजवान सियासतदां में ही संभव है। गुफ़्तगू के दौरान उन्होंने कितना सही फरमाया, “हम इन सारे मुद्दों को मुखरता से उठाएंगे, चौतरफा हमला है, पर निर्भीकता से लड़ना है हमें, संविधान को बचा लेंगे तो सब बच जाएगा”।
तेजस्वी यादव के बतौर नेता, विपक्ष, बिहार विधानसभा, पिछले तक़रीबन डेढ़ साल के सफ़र में एक सीधी सरल रेखा खींची जा सकती है, उसमें कहीं कोई भटकाव, वक्रता, विचलन या व्यतिक्रम देखने को नहीं मिला। मुज़फ्फरपुर शेल्टर होम में मासूम बच्चियों के साथ हैवानियत व क्रूरता से दुष्कर्म व जघन्य अपराध करने वालों को बचाने वाली डबल इंजन की सरकार को एक्सपोज़ कर दिल्ली में विपक्षी नेताओं का जमावडा कर उन्होंने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। रोहित वेमुला के आत्मबलिदान पर सड़क पर वही उतरे थे। 2 अप्रैल को भारत बंद पर अपने सभी 80 विधायकों के साथ सड़क पर उतर कर देश भर में नायाब मिसाल पेश करने वाले भी वो ही थे।
तेजस्वी यादव ने बारहा कहा है, “अगला चुनाव अंबेडकर-मंडल-गांधी बनाम गोडसे-गोलवलकर का चुनाव है”। वो समझते हैं कि लोकशाही लोकलाज से चला करती है। एक क्रिकेटर होने के नाते टीमभावना के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों व संवैधानिक नैतिकता की हिफ़ाज़त करना वो जानते हैं। साथ ही उनके लिए मंत्र ही रहा है – The best defense is a good offense. वे लालू प्रसाद की उस सीख को भलीभाँति याद रखना चाहेंगे, “लाठी, लालटेन और कलम सहोदर भाई-बहन हैं। लाठी ऊर्जा का स्रोत है, लालटेन रोशनी का प्रतीक और कलम ज्ञान का द्योतक। तीनों को मिलाकर चलना, कभी साथ मत छोड़ना”। लोग चाहते हैं कि उनका यश और फैले व वो जनहित के सवालों को यूं ही बुलंदी से उठाते रहें! तेजस्वी यादव को कभी विचलित होने की ज़रूरत नहीं है, न ही तेवर बदलने पाए! नया ज़माना उनके साथ है।
आंधियां ही अब करेंगी रोशनी का फ़ैसला
जिस दीये में जान होगी वो दीया रह जाएगा।
एक ऐसे दौर में जबकि हर हाल में किसी भी क़ीमत पर चुनाव जीतने का भूत मौजूदा निजाम पर सवार है, तेजस्वी यादव ने स्टेट्समैनशिप की एक मिसाल पेश की है। उनकी पार्टी का ताज़ा बयान व फ़ैसला है, “मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा की परिस्थितियों के मद्देनज़र पूरा देश अपने जांबाज़ पायलट की सुरक्षित वापसी के लिए प्रार्थना कर रहा है। कल विपक्षी दलों की बैठक में तय किया गया कि इस माहौल में कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं हो। अतः जहानाबाद में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के कार्यक्रम को अगली सूचना तक स्थगित किया जाता है और NDA से आग्रह है कि देशहित में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की 3 मार्च की पटना रैली को स्थगित करते हुए संवेदनशीलता का परिचय दें”।
इस तरह लगातार संज़ीदे क़िस्म की राजनीति का उदाहरण प्रस्तुत कर तेजस्वी यादव ने एक बड़ी लकीर तो खींच ही दी है। वसीम बरेलवी के शब्दों में,
जहाँ रहेगा वहीं रोशनी लुटाएगा
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता।
(लेखक
जयन्त जिज्ञासु,
शोधार्थी, मीडिया अध्ययन केन्द्र,
सामाजिक विज्ञान संस्थान,|
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली)
अब प्रश्न है कि लालू की गैर-मौजूदगी में जिस तरह एक वक़्त राबड़ी देवी ने पार्टी और सरकार को संभाला था, क्या उसी तरह की स्थिति फिलवक्त तेजस्वी के सामने है? तब जब राबड़ी देवी पर इल्ज़ाम लगते थे कि उनकी सरकार बेऊर जेल से लालू प्रसाद चला रहे हैं, और वो नाम मात्र की मुख्यमंत्री हैं, तो प्रभु चावला के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने बड़ी कड़ाई से कहा, “हमको जनता ने मुख्यमंत्री बनाया है। लालू प्रसाद हमारी पार्टी के अध्यक्ष हैं, और एक मुख्यमंत्री को अपने दल के अध्यक्ष से परामर्श लेने औऱ प्राज़िड़ेंट को अपनी सीएम को सलाह देने का हक़ है या नहीं? बाक़ी, सरकार मैं अपने विवेक से चलाती हूँ”।
लेकिन 1997 और 123123ष्ठ के ज़िलाध्यक्ष व प्रखंड अध्यक्ष समेत दल के राष्ट्रीय पदाधिकारी और बिहार की 11 करोड़ जनता ने तेजस्वी को एक संभावनाशील व सहज स्वीकार्य नेता मान लिया है जिन्होंने अब तक अपने कामकाज से बिना किसी लकीर को काटे एक स्पष्ट बड़ी लकीर खींची है। उनकी कार्यशैली में लेकिन-किंतु-परंतु-हालांकि-यद्यपि-तथापि जैसी गाभिन बातों के लिए कोई जगह नहीं दिखाई पड़ती है। और शायद इसी प्रखरता, स्पष्टवादिता और साथ ही शालीनता व सौम्यता के चलते तेजस्वी की स्वीकार्यता 8 साल के तरुण से लेकर 18 साल के किशोर तक, 28 साल के नौजवान से लेकर 80 साल के बुज़ुर्ग तक तीव्रतम गति से बढ़ी है।
तेजस्वी के इस व्यक्तित्व का निर्माण अकस्मात् नहीं हुआ। जब हम उनके शुरूआती जीवन से अब तक के सफ़र पर गौर करें, तो एक तारतम्यता दिखाई पड़ती है। उनमें एक क़िस्म की विकासशीलता है। वे एक शानदार और समर्पित लर्नर हैं। क्रिकेट के प्रति दीवानगी व क्रिकेट को पहली मोहब्बत बना लेने के बाद डीपीएस से माध्यमिक पढ़ाई को बीच में ही उन्हें छोड़ना पड़ा। कई बार लोग तेजस्वी को इस ग्राउंड पर घेरते हैं कि उन्होंने शिक्षा पूरी नहीं की। लोग भूल जाते हैं कि यह कबीर की परंपरा का देश है जहाँ लोकज्ञान, लोकबुद्धि व लोकनीति राजनीति में बहुत मायने रखती है। कांग्रेस के अध्यक्ष रहे के. कामराज कौन-से बहुत पढ़े थे, मगर राष्ट्रीय पार्टी को बहुत शादनाद तरीके से चलाया। बतौर मुख्यमंत्री, तमिलनाडु, उनके कामराज फॉर्मुले को आज भी याद किया जाता है। जब तेजस्वी की विधिवत् शिक्षा-दीक्षा से जुड़ा सवाल एक पत्रकार ने शरद यादव से पूछा कि वो इतने सीनियर लीडर हैं औऱ उनकी पार्टी लोकतांत्रिक जनता दल बहुत ही छोटी व नई पार्टी है, तो कम उम्र के तेजस्वी की अगुआई वाली बेहद बड़ी पार्टी राजद के साथ उनके नेतृत्व वाले अलायंस में काम करने में ख़ुद को असहज महसूस नहीं करेंगे?, तो शरद यादव ने प्रत्युत्पन्नमति से कहा, “विवेकानंद की कित्ती उमर थी?”
जो भी लोग लालू परिवार के बारे में दुष्प्रचार करते रहते हैं, उन्हें शायद मालूम नहीं है कि राबड़ी देवी और लालू प्रसाद की सभी बेटियाँ सुशिक्षित, शालीन, लोकव्यवहार की धनी व राजनीतिक चेतना व संवेदना से संपन्न हैं। सचिन तेंदुलकर, धोनी, आदि अगर क्रिकेट खेलने की वजह से अपनी पढ़ाई पूरी न कर पाए हों, तो बहुत अच्छा, मगर तेजस्वी यादव अगर क्रिकेट खेलें और उस वजह से अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ें, तो मीडिया से लेकर अकेडमिया के लोग अलबल बोलना शुरू कर देते हैं। न्यूज़ 24 के साथ एक बातचीत में गत वर्ष तेजस्वी ने बताया कि वे विराट कोहली और ईशांत शर्मा के साथ प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेले हैं और ये लोग उनकी कप्तानी में भी खेले हैं। जो टूर्नामेंट 35 साल में दिल्ली नहीं जीती, उसे तेजस्वी से अपनी कप्तानी में जिताया। इनकी कैप्टनशिप में टीम ने दलीप ट्रॉफी जीती। वे अंडर-19, अंडर-17, अंडर-15 और जोनल मैच खेल चुके हैं और अभी भारतीय क्रिकेट टीम में 15 में से 12 क्रिकेटर तेजस्वी के बैचमेट रहे हैं। अंडर-15 और अंडर-17 टीम, दिल्ली के कप्तान रहे हैं। दोनों पैरों के टखने का लिगामेंट टूटने की वजह से भी उन्हें क्रिकेट छोड़ना पड़ा। मार्क ट्वेन ने ठीक ही कहा था, “I never let my colleges and universities interfere with my education”.
अब सवाल है कि तेजस्वी ने कब, कैसे और कहाँ से सियासत में पहला क़दम रखा कि किसी को ख़बर भी नहीं हुई और वो शनैः-शनैः लोगों के बीच मक़बूल और मशहूर होते चले गए। वह वक़्त है 2010 का। वो राँची से रणजी खेल कर आए थे। सितंबर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस था लालू प्रसाद का। तेजस्वी यूँ ही साथ में थे बिना किसी सुनियोजित कार्यक्रम के तहत। लालू प्रसाद ने बस इतना कहा कि मेरा बेटा है। बस क्या था, भारतीय लोकतंत्र के चौथे खंभे ने अपना चिर-परिचित काम कर दिया कि तेजस्वी हुए लॉन्च, गोया कोई फ़िल्म रिलीज़ हो रही हो। अक्टूबर में 40 के आसपास छोटी-छोटी सभाएं की। 2012 में पटना में “इंटेरेक्शन विद युथ” नामक एक कार्यक्रम में तेजस्वी ने शिरकत की। धीरे-धीरे लोगों से मिलने लगे। राजनीति तो उनके शोणित में थी ही। बचपन से परिवार का माहौल सियासी देखा, पिता को साज़िशन जेल भेजे जाने के तिकड़म से कच्ची उम्र में दो-चार हुए। तो कुल मिला कर वक़्त ने उन्हें समय से पहले पका दिया।
उन्होंने पार्टी के युथ विंग के साथ सूबे के अलग-अलग हिस्से की कई यात्राएँ कीं। तब युवा राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष और सम्प्रति बिहार प्रदेश राजद के प्रधान महासचिव आलोक मेहता भी उनके साथ हुआ करते थे। 2013 में जाकर ज़िलावार युवा सम्मेलन टाउन हॉल में करना शुरू किया। दिल्ली में उनके कहने पर अपनी नौकरी छोड़ कर तेजस्वी यादव के साथ ही बिहार में डेरा डाल चुके संजय यादव उनके कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करते। इस तरह पब्लिक स्फेयर में हौले-हौले तेजस्वी की आहट सुनाई पड़ने लगी थी। यह एक शालीन मगर ठोस ज़मीनी शुरूआत थी। जनता के नब्ज़ को पकड़ने व उनकी ज़रूरतों को समझने का इससे बेहतर कोई और रास्ता व तरीक़ा नहीं हो सकता। 2014 का आम चुनाव आते-आते रघुवंश प्रसाद समेत पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने जनाकांक्षाओं को देखते हुए अपने क्षेत्र में तेजस्वी की सभाओं की मांग करने लगे कि लोग उनको देखना-सुनना चाहते हैं। और फिर 2015 में वो परंपरागत सीट राघोपुर से जनता का विश्वास जीतने मैदान में उतरे, और 91236 मत लाकर बीजेपी के सतीश कुमार (68503 वोट) को हरा कर पथ निर्माण विभाग के मंत्री बने।
जब तेजस्वी उपमुख्यमंत्री और पीडब्लयुडी मिनिस्टर बने, और 20 महीने में बिना ख़ुद पर आंच आने दिए रिकॉर्ड काम किया, तो ख़ुद नीतीश कुमार घबरा उठे। और सत्ता के गलियारे में यह भी चर्चा हुई कि लालू परिवार व तेजस्वी के ख़िलाफ़ ख़ुद नीतीश कुमार ने बहुत-सा मसाला उपलब्ध कराया। महज एफआईआर होने पर इस्तीफ़े के लिए मीडिया के ज़रिए दबाव बनवाना और यह कहना कि पब्लिक के बीच एक्सप्लेन करिए; निहायत ही ओछी राजनीति लगी। लालू-विरोध नीतीश कुमार की सियासत की एकमात्र युएसपी रही। येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहने के लिए अपनी अगली ईगो व अटैंशन सीकिंग सिंड्रोम के चलते किसी भी विचारधारा से हाथ मिलाने को तैयार रहते हैं औऱ मौक़ापरस्ती का अश्लील मुज़ाहिरा पेश करते हुए विधानसभा के अंदर धर्मनिरपेक्षता शब्द की खिल्ली उड़ाते हैं। आरएसएस द्वारा सीमा-सुरक्षा का ज़िम्मा लेने को राष्ट्रसेवा हेतु तत्परता बताते हैं।
किसी पार्टी विशेष का प्रवक्ता किसी उपमुख्यमंत्री से किसी मामले में सफाई कैसे मांग सकता है? नीतीश कुमार द्वारा जनादेश के अपहरण, बलात्कार व क़त्ल के बाद विधानसभा के अंदर तेजस्वी ने अपने 41 मिनट के भाषण के दौरान यह भी कहा कि क्या नीतीश कुमार कोई ऐसा क़ानून बनाएंगे जिसमें एफआईआर के बाद ही त्यागपत्र देना पड़े? अगर ऐसा हुआ तो सबसे पहले तो हत्या के प्रयास के मामले में नीतीश कुमार को ही इस्तीफ़ा देना पड़ेगा, और जिस छवि की दुहाई देकर वो हाई मोरल ग्राउंड लेते हैं, उस पर तो उन्हें कोई क़ानून बनने का इंतज़ार किए बगैर ख़ुद ही फौरन इस्तीफ़ा दे देना चाहिए। छविप्रधान सुशासन बाबू सुनील पांडेय, मुन्ना शुक्ला और अनंत सिंह के आगे हाथ जोड़े खड़े रहें, तो वो नैतिक आचरण के दायरे में कैसे आ जाता है?
यह एक ऐसे तनाव व जनाक्रोश के माहौल में दिया गया संयत व असरदार भाषण था जिसमें हर तरह का रस, भाव व प्रभाव मौजूद था। कहते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति लिंकन द्वारा 19 नवंबर 1863 को दिये गये गेटिसबर्ग एड्रेस का मुक़ाबला करना आज भी किसी अमेरिकी प्रेज़िडेंट और ऑरेटर्स के लिए एक चुनौती है। हर राजनीतिज्ञ अपने जीवन-काल में कभी-न-कभी कोई-न-कोई शानदार व ज़ोरदार संबोधन करता है, और ख़ुद उसकी ऊंचाई को दुबारा छूना मुश्किल होता है। तेजस्वी बाद के दिनों में और भी प्रखरता से बातें रखते रहे हैं। मगर विधानसभा का वह 41 मिनट का अविस्मरणीय भाषण तेजस्वी के मौजूदा शक्ल में ढलने का प्रस्थान-बिंदु कहा जा सकता है।
तेजस्वी यादव का वह भाषण दिखाता है कि कितनी तेज़ी से उन्होंने सूबे की सबसे बड़ी पंचायत के साथ-साथ जनता से भी कनेक्ट करने के लिए लोकशैली अपना ली है। अपने पिता के पदचिह्नों पर चलते हुए, कई बार उनसे मुख्तलिफ़ स्टाइल बरतते हुए आम जन की ज़बान में लोगों से गुफ्तगू करते हुए वो नज़र आते हैं। संस्कृत में कहते हैं –
सर्वत्र विजयमेच्छयेत्
पुत्रात्-शिष्यात् पराजयं।
अर्थात् व्यक्ति सारी दुनिया से जीतने की इच्छा रखता है, मगर पुत्र और शिष्य से हमेशा हारना पसंद करता है। तेजस्वी यादव ने अब तक ख़ुद को एक सुयोग्य पिता के सर्वथा कुशल पुत्र के रूप में हर मोर्चे पर सफल साबित किया है, और आगे भी समाजवादी परंपरा को ज़िंदा रखने की उनसे सहज-स्वाभाविक अपेक्षाएं लोगों की जुड़ गई हैं। संविधान बचाओ यात्रा समेत तेजस्वी की कई रैलियों में साफ़ देखने को मिला कि वो लालू प्रसाद की क्राउड पुलिंग एबिलिटी, जिसका अटल जी समेत उनके धुर विरोधी भी लोहा मानते आए हैं; को भी पीछे छोड़ते दिखे।
यह हिन्दुस्तानी सियासत का अंतरात्मा युग है। जबसे नीतीश कुमार ने हुलुकडिब्बाई चंपकगिरी की है, तबसे किसी पर यक़ीन करना मुश्किल है। मौजूदा रीढ़विहीनता के परिप्रेक्ष्य में बस एक बात कहा जा सकता है कि लालू प्रसाद और तेजस्वी जी कभी आरएसएस के आगे घुटने नहीं टेकेंगे। लालू का रिकॉर्ड और तेजस्वी का स्पिरिट इस बात को पुख़्ता करते हैं। पहली बार पटना की सड़कों पर गोडसे ज़िंदाबाद के नारे लगे, 2 लाख ऑनलाइन तलवारों की बिक्री हुई, केंद्रीय मंत्री के बेटे को गिरफ़्तार करने में नीतीश कुमार के पाँव फूल रहे थे। तब तेजस्वी यादव ने कहा, “मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चार सिपाही के साथ केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के दंगा आरोपी फ़रार बेटे को पकड़ने की मुझे प्रशासनिक अनुमति दें। एक घंटे में घसीटकर नीतीश कुमार के नकारा प्रशासन को सौंप दूँगा। मेरा दावा है। लटर-पटर से शासन नहीं चलता। दंगा रोकने के लिए कलेजा होना चाहिए”।
जब सीबीआई के अंदर की गंदगी बाहर आ गई, और उजागर करने वाले ख़ुद निदेशक वर्मा थे, तो भारतीय लोकतंत्र की जड़ें हिलती दिखाई पड़ीं। शीर्ष जांच एजेंसियां और शीर्ष अदालतें अगर भरोसेमंद नहीं रहेंगी, तो यह किसी के लिए भी ख़ुश होने वाली बात नहीं है। उनकी स्वायत्तता व पारदर्शिता बहाल होनी चाहिए। साथ ही, लालू समेत उन सभी मामलों की फिर से जाँच होनी चाहिए जो अस्थाना के जिम्मे थे। तेजस्वी ने तब गंभीर टिप्पणी की थी, “विपक्षी नेताओं के चरित्र-हनन और घर पर छापेमारी से मोदी जी का पेट नहीं भरा, तो अब सीबीआई से सीबीआई के मुख्यालय पर ही छापा डलवा दिया। सीबीआई को रॉ से और आईबी से सीबीआई को भिड़वा दिया। शर्मनाक तरीक़े से देश की जाँच एजेंसियां नंगा नाच कर रही हैं। पीएमओ डरा-धमका कर व ख़ौफ़ फैला कर वसूली करने का अड्डा बन गया है। लालू जी को फंसाने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल हुआ”।
यह भी खुलासा हुआ कि लालू प्रसाद को जेल भेजे जाने में पीएमओ, नीतीश कुमार, केंद्र सरकार के एक मंत्री, सुशील मोदी और सीबीआई अधिकारी ख़ासा दिलचस्पी ले रहे थे और दबाव बना रहे थे। सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग किये जाने पर तेजस्वी ने कहा, “बार-बार हमारे घर पर जाँच टीम भेजी जाती है, तलाशी ली जाती है और कुछ मिलता नहीं। मैं ऑफर देता हूँ सरकार को कि हमारे घर में ही सीबीआई, ईडी और इनकम टैक्स का ऑफिस खोल लें। उन्हें भी सहुलियत रहेगी”।
डॉ. लोहिया ने कहा था, “जो ज़्यादा बोलते हैं, वे क्रांति नहीं कर सकते हैं और न ही ज़्यादा कार्य कर सकते हैं। क्रांति के लिए तेजस्विता की ज़रूरत होती है”। तेजस्वी उसी तेजस्विता और ओजस्विता के साथ समाजवादी विचार व सिद्धांत को अपनाते हुए तेज़ी से जनता के बीच पैठ जमा रहे हैं। उनकी मंज़िल पटना नहीं, बल्कि दिल्ली होनी चाहिए, और उसके लिए जिस दूरदर्शिता, धैर्य, उदारहृदयता, संकल्पशक्ति व अध्यवसाय की ज़रूरत होती है, वो सब उनमें बहुत स्पष्टता और प्रखरता से नज़र आ रहे हैं।
15 मई 1993 को पटना के भारतीय नृत्य कला मंदिर में इंटेलेक्चुअल्स को संबोधित करते हुए बिहार के साबिक़ वजीरे-आला अब्दुल गफ़ूर ने कहा था “दुनिया के मुसलमान इस बात को मानते हैं कि अल्पसंख्यकों को पूर्ण सम्मान देकर लालूजी ने पूरे विश्व में बिहार के सिर को ऊंचा किया है”।
तेजस्वी ने भी उसी अंदाज़ में पिता के पदचिह्नों पर चलते हुए नफ़रतगर्दी की मुख़ालफ़त का रास्ता चुना है। उनकी राह है – फिरकापरस्ती के फ़न कुचलने की, क़ौमी एकता की, सामाजिक न्याय के लिए अनवरत संघर्ष की। यह वक़्त उनके लिए बेदाग़ रहने का है, मज़बूत इरादे व बुलंद हौसले के साथ लोहा लेने का है। जनता उनके साथ खड़ी दिखाई देती है, चाहे जनादेश अपमान के ख़िलाफ़ हुई उनकी यात्रा के दौरान अपार जनसमर्थन हो या सृजन घोटाले, शौचालय घोटाले, धान घोटाले, प्राक्कलन घोटाले, आदि को उजागर करने और जनता के बीच ले जाते हुए उनकी बढ़ती स्वीकार्यता हो। वो कतिपय प्रशासनिक ग़लतियाँ कतई न दुहराई जाएं जो अतीत में लालू प्रसाद से हुईं। नई रोशनी उनके नेतृत्व में समतामूलक समाज की स्थापना हेतु कुछ ठोस क़दम बढ़ाने को तत्पर दिखाई पड़ती है। फूंक-फूंक कर क़दम रखना होगा। चालें चली जा चुकी हैं। असली लड़ाई इसी 19 और 20 में है। तेजस्वी पूरे धैर्य व स्वाभाविक गरिमा के साथ जनता के मैदान में बने रहें, डटे रहें, जूझते रहें। जनता की अदालत कभी ग़लत फ़ैसले नहीं देती, संपूर्ण न्याय वहीं से मिलेगा।
लालू प्रसाद की बात को अगर कोई बिसराएगा तो हिस्टोरिकल ब्लंडर करेगा। जैसे राष्ट्रपति को भी कभी किसी बिंदु पर दुविधा होती है तो वो संविधान की प्रस्तावना उलट लेते हैं, वैसे ही पार्टी के किसी नेता को किसी मुद्दे पर स्टैंड लेना हो तो अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू जी का दिया सामाजिक न्याय और सांप्रदायिक सौहार्द का सूत्र याद कर लें। किंकर्त्तव्यविमूढ़ता समाप्त हो जाएगी। सामाजिक न्याय की लड़ाई कौन लड़ रहा है? ज़रा अपने इर्द-गिर्द देखिए। नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, सुशील मोदी, उनकी पार्टियां और उनके लोग कहाँ हैं इस लड़ाई में? बहुजन-विरोधी विभागवार रोस्टर के सवाल पर तेजस्वी यादव कोई आज मुखर नहीं हुए हैं, बल्कि गत वर्ष से ही डे 1st से इस लड़ाई में बहुजन युवाओं के साथ शामिल हैं। पिछले साल इस इशु पर डीयु में हुए सामाजिक न्याय युवा सम्मेलन में वो अपरिहार्य कारणों से शरीक नहीं हो सके तो अपने राजनैतिक सलाहकार संजय यादव के ज़रिए बेहद संजीदा संदेश उन्होंने भेजा था। विश्वविद्यालय की विसंगतियों पर वो कितनी पैनी दृष्टि रखते हैं, इससे साफ़ ज़ाहिर होता है।
तेजस्वी यादव ने जिस मुखरता, प्रखरता व प्रबलता से इसे जनता का मुद्दा बनाया है, अपनी सभाओं मे लोगों को समझाया है, वह बेहद काबिले-तारीफ़ है। अपने स्टैंड की वजह से आज वो देश के सबसे प्रखर विपक्षी नेताओं की अग्रिम पंक्ति में शुमार हैं। प्रधानमंत्री के नाम तेजस्वी यादव ने कड़े शब्दों में खुला पत्र लिख कर अपील की कि मनुवादी नागपुरी सरकार द्वारा बहुजनों का गला काटकर विश्वविद्यालयों में साज़िशन विभागवार 13 प्वाइंट रोस्टर लागू करने के विरोध में मंडी हाउस से संसद मार्ग तक के विशाल पैदल मार्च में शामिल होकर इनकी ईंट से ईंट बजायें। जंतर-मंतर पर वो ख़ुद, राजद के कई सांसद, विधायक, छात्र राजद, जेएनयू और युवा राजद के लोग पहुंचे। वो बिहार में लगातार “बेरोज़गारी हटाओ, आरक्षण बढ़ाओ” यात्रा कर रहे हैं।
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक भी ओबीसी एसोशिएट प्रफेसर और प्रफेसर नहीं होने एवं 496 कुलपतियों में बहुजन समाज के मात्र 48 कुलपति होने पर चिंता जाहिर करते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी। जातिवार जनगणना कराने की मांग, लाखों आदिवासियों की बेदखली पर आक्रोश व संख्या के मुताबिक़ हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की मांग को लेकर उन्होंने 5 मार्च के भारत बंद को समर्थन दिया है। असंवैधानिक ढंग से संविधान संशोधन कर बिना किसी कमीशन की किसी रिपोर्ट के रेकमेंडेशन के आनन-फानन में ओवररेप्रज़ेटेड 8 लखिया दरिद्र विप्रों व अन्य तथाकथित उच्च जातियों को आर्थिक आधार पर दिए गए 10% आरक्षण की पुरज़ोर मुख़ालफ़त करने वाली उत्तर भारत की इकलौती पार्टी राजद थी। तेजस्वी यादव ने तो यहाँ तक कहा, “भले ही हमारी पार्टी को एक भी सीट न आए, हम सामाजिक न्याय के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे”।
अपने कार्यकर्ताओं के साथ तेजस्वी के रिश्ते प्रेम के रिश्ते हैं, भरोसे के रिश्ते हैं, ऐतमाद के रिश्ते हैं, परस्पर विश्वास के रिश्ते हैं, वैचारिक रिश्ते हैं, उत्तरदायित्त्व-बोध के रिश्ते हैं। एक बार मैंने उनसे कहा कि जब पार्टी का चरित्र राष्ट्रीय है, इसकी फ़िलॉसफ़ी युनिवर्सल है, तो क्यूं नहीं इसका प्रसार राष्ट्रीय फलक पर किया जाए! अपने सलाहकार संजय यादव की मौजूदगी में उन्होंने कहा कि मैं तो कब से चाह रहा हूँ कि विस्तार हो। दिल्ली में, मणिपुर में हमारे विधायक जीतते रहे हैं। जेएनयु छात्रसंघ चुनाव में पार्टी की छात्र इकाई के शिरकत करने का फ़ैसला लेने में उन्होंने देर नहीं लगाई। जब आज तक के पत्रकार विकास कुमार ने उनसे एक इंटरव्यू में पूछा कि जेएनयु में अलग क़िस्म की पॉलिटिक्स होती है, आपके प्रेज़िडेंशियल कैंडिडेट को डिबेट के बाद पूछा गया कि आप समाजवाद की बात करते हैं, पर आपकी पार्टी में परिवारवाद है। क्या कहना चाहेंगे? तो तेजस्वी यादव का उत्तर था, “उन्होंने जवाब बहुत अच्छे ढंग से दिया होगा”। यह बतलाता है कि वो जिनके विवेक पर भरोसा करते हैं, तो फिर टूट कर करते हैं।
जिन्हें परिवारवाद का राग अलापना है, वो भूल जाते हैं कि वैश्विक परिदृश्य में कम्युनिस्ट नेता फिदेल कास्त्रो (1959-1976 तक क्यूबा के प्रधानमंत्री & 1976- 2008 तक राष्ट्रपति) के भाई रऊल कास्त्रो (मौजूदा राष्ट्रपति), पाकिस्तान के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री रहे जुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी बेनजीर भुट्टो (किसी मुस्लिम मुल्क की पहली प्रधानमंत्री), श्रीलंका की प्रधानमंत्री रही दम्पती श्रीमती सिरिमावो भंडारनायके (दुनिया के किसी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री) व श्री भंडारनायके की पुत्री चंद्रिका कुमार तुंग (श्रीलंका की एकमात्र महिला राष्ट्रपति), दूसरे अमेरीकी राष्ट्रपति जॉन ऐडम्स के बेटे जॉन क्विंज़ी ऐडम्स (6ठे अमेरिकी राष्ट्रपति), ज़ियाउर्रहमान की पत्नी बेगम खालिदा ज़िया, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति सीनियर बुश के बेटे जुनियर बुश (राष्ट्रपति रहे), बांग्लादेश के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री रहे शेख़ मुजीबुर्रहमान की बिटिया शेख़ हसीना वाज़ेद (बांग्लादेश की सबसे ज्यादा दिनों तक प्रधानमंत्री रहने वाली नेता), बांग्लादेश के राष्ट्रपति रहे जियाउर्रहमान की बीवी बेगम खालिदा जिया (बांग्लादेश की पहली महिला प्रधानमंत्री व किसी मुस्लिम देश की वजीरे-आज़म बनने वाली दूसरी महिला), पूर्व अमेरिकी प्रेजिडेंट बिल क्लिंटन की बीवी हिलेरी क्लिंटन (विदेश मंत्री रहीं), कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री पियरे त्रुदो के बेटे वर्तमान प्रधानमंत्री जस्टिन त्रुदो, सीपीएम नेता प्रकाश करात की बीवी बृंदा करात, सीपीआई नेता डी राजा की पत्नी एनी राजा, दर्जनों मिसाल हैं। यहीं पर यह सवाल पैदा हैता है कि अगर राजनीति में रुचि है, समर्पण, लगन व क्षमता है, तो जनता सराहती है, वरना खारिज़ कर देती है। जैसे एनी और बृंदा शादी से पहले से सक्रिय हैं, तो क्या एक ही परिवार में दो-तीन व्यक्ति के राजनीति में होने के चलते उन्हें घर बैठ जाना चाहिए?
मगर, हमले बस लालू प्रसाद व तेजस्वी यादव पर होंगे। यह मेनस्ट्रीम नहीं, मनुस्ट्रीम मीडिया है।
बिहार विधानसभा के ओजस्वी नेता, प्रतिपक्ष, पूर्व उपमुख्यमंत्री व युवाओं-छात्रों-किसानों-मज़दूरों-महिलाओं-बुजुर्गों, सबके बीच बेहद मक़बूल तेजस्वी कई मायने में अनूठे नज़र आते हैं और बाकी समकालीन युवा नेताओं से कहीं ज्यादा आश्वस्त करते हैं। जिस उम्र में लोग शरारत करते हैं, गुस्ताखियां अंजाम देते हैं, कुछ बेबाकियां कर लेते हैं, उस नाजुक उम्र में उन पर एक बडी जिम्मेदारी आन पड़ी, जिसे अब तक उन्होंने बहुत करीने व सलीके से निभाया है। कई बार उनके नीतीश चाचा बहुत इरिटेटेड नज़र आते हैं, इसलिए नहीं कि उन्हें दांवपेंच नहीं आता, बल्कि इसलिए कि तेजस्वी के आगे नीतीश कुमार का हर दांव विफल हो जा रहा है। कई उपचुनाव के नतीजे उन्हें इसलिए कचोट रहे हैं कि इस बार उन्हें बडे भाई नहीं, बल्कि भतीजे के आगे करारी शिक़स्त खानी पडी है।
उनकी धार को देख कर ऐसा आभास होता है कि वो इस देश की राजनीति के निर्णायक किरदार बन अगले 40 साल की सियासत तय करने जा रहे हैं। उन्हें कोई हड़बडी नहीं है। जनता खुद 1 अणे मार्ग के दरवाजे उनके लिए खोलने को तैयार है। मगर लडाई देश की है। बिहार के दायरे से बाहर भी वो संविधान बचाओ संघर्ष समिति द्वारा कॉन्स्टिट्युशन क्लब, दिल्ली में आयोजित सामाजिक न्याय केंद्रित सेमिनार में शिरकत से लेकर, बंगाल में ममता बनर्जी के यहां सीबीआई की ज़्यादती के ख़िलाफ़ पहलक़दमी करते नज़र आते हैं।
तेजस्वी आज इस देश के स्वप्नदर्शी युवाओं की सहज स्वाभाविक उम्मीदों-अपेक्षाओं-आकांक्षाओं के प्रतीक बन गए हैं। उनकी ओर यह मुल्क टकटकी लगाए है। देश के ढहते विश्वविद्यालयों में रोस्टर सिस्टम में मनुवादी तरीक़े से बदलाव लाकर सामाजिक न्याय को तहसनहस कर देने पर आमादा सिस्टम, रेज़र्वेशन की धज्जियां उड़ाये जाने, रिसर्च प्रोग्रैम में मैसिव सीट कट, फंड कट किये जाने, ऑटोनोमी के बखेड़े, बिहार में डबल इंजन की दंगाई सरकार की नाकामी और देश भर में हो रही किसानों-युवाओं की सांस्थानिक हत्या पर पिछले साल जून में उनसे बेहद सकारात्मक, प्रभावी व यादगार मुलाक़ात रही। संवाद में इतनी स्पष्टता व प्रखरता एक निश्छल नौजवान सियासतदां में ही संभव है। गुफ़्तगू के दौरान उन्होंने कितना सही फरमाया, “हम इन सारे मुद्दों को मुखरता से उठाएंगे, चौतरफा हमला है, पर निर्भीकता से लड़ना है हमें, संविधान को बचा लेंगे तो सब बच जाएगा”।
तेजस्वी यादव के बतौर नेता, विपक्ष, बिहार विधानसभा, पिछले तक़रीबन डेढ़ साल के सफ़र में एक सीधी सरल रेखा खींची जा सकती है, उसमें कहीं कोई भटकाव, वक्रता, विचलन या व्यतिक्रम देखने को नहीं मिला। मुज़फ्फरपुर शेल्टर होम में मासूम बच्चियों के साथ हैवानियत व क्रूरता से दुष्कर्म व जघन्य अपराध करने वालों को बचाने वाली डबल इंजन की सरकार को एक्सपोज़ कर दिल्ली में विपक्षी नेताओं का जमावडा कर उन्होंने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। रोहित वेमुला के आत्मबलिदान पर सड़क पर वही उतरे थे। 2 अप्रैल को भारत बंद पर अपने सभी 80 विधायकों के साथ सड़क पर उतर कर देश भर में नायाब मिसाल पेश करने वाले भी वो ही थे।
तेजस्वी यादव ने बारहा कहा है, “अगला चुनाव अंबेडकर-मंडल-गांधी बनाम गोडसे-गोलवलकर का चुनाव है”। वो समझते हैं कि लोकशाही लोकलाज से चला करती है। एक क्रिकेटर होने के नाते टीमभावना के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों व संवैधानिक नैतिकता की हिफ़ाज़त करना वो जानते हैं। साथ ही उनके लिए मंत्र ही रहा है – The best defense is a good offense. वे लालू प्रसाद की उस सीख को भलीभाँति याद रखना चाहेंगे, “लाठी, लालटेन और कलम सहोदर भाई-बहन हैं। लाठी ऊर्जा का स्रोत है, लालटेन रोशनी का प्रतीक और कलम ज्ञान का द्योतक। तीनों को मिलाकर चलना, कभी साथ मत छोड़ना”। लोग चाहते हैं कि उनका यश और फैले व वो जनहित के सवालों को यूं ही बुलंदी से उठाते रहें! तेजस्वी यादव को कभी विचलित होने की ज़रूरत नहीं है, न ही तेवर बदलने पाए! नया ज़माना उनके साथ है।
आंधियां ही अब करेंगी रोशनी का फ़ैसला
जिस दीये में जान होगी वो दीया रह जाएगा।
एक ऐसे दौर में जबकि हर हाल में किसी भी क़ीमत पर चुनाव जीतने का भूत मौजूदा निजाम पर सवार है, तेजस्वी यादव ने स्टेट्समैनशिप की एक मिसाल पेश की है। उनकी पार्टी का ताज़ा बयान व फ़ैसला है, “मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा की परिस्थितियों के मद्देनज़र पूरा देश अपने जांबाज़ पायलट की सुरक्षित वापसी के लिए प्रार्थना कर रहा है। कल विपक्षी दलों की बैठक में तय किया गया कि इस माहौल में कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं हो। अतः जहानाबाद में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के कार्यक्रम को अगली सूचना तक स्थगित किया जाता है और NDA से आग्रह है कि देशहित में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की 3 मार्च की पटना रैली को स्थगित करते हुए संवेदनशीलता का परिचय दें”।
इस तरह लगातार संज़ीदे क़िस्म की राजनीति का उदाहरण प्रस्तुत कर तेजस्वी यादव ने एक बड़ी लकीर तो खींच ही दी है। वसीम बरेलवी के शब्दों में,
जहाँ रहेगा वहीं रोशनी लुटाएगा
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता।
(लेखक
जयन्त जिज्ञासु,
शोधार्थी, मीडिया अध्ययन केन्द्र,
सामाजिक विज्ञान संस्थान,|
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली)