लोकसभा चुनाव 2019: देश के राजनीतिक कर्णधारों के नाम JNU के पूर्व प्रोफेसर का खुला खत

Written by sabrang india | Published on: March 22, 2019
देश एक और लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुट गया है. अप्रैल-मई में सात चरणों में मतदान होगा और 23 मई तक नई लोकसभा चुन ली जाएगी. इसके लिए दलों के सकारात्मक और नकारात्मक गठबंधन बन रहे हैं. चुनावी वायदे का मौसम आ गया है. दलों और मोर्चों के घोषणापत्रों की तैयारी हो रही है. कुछ अर्थशास्त्रियों ने एक 13-सूत्रीय सुझाव पत्र प्रकाशित किया है. सहभागी लोकतंत्र के लिए वैकल्पिक राजनीति से जुड़े सक्रिय विशेषज्ञों ने 19 सूत्रीय दिशा-दस्तावेज सभी गैरसरकारी दलों के नेताओं को प्रेषित किया है. लेकिन भारतीय संविधान और लोकतंत्र के वर्तमान और भविष्य को लेकर सरोकारी नागरिकों की चिंताएं हमारे राजनीतिक कर्णधारों की जानकारी में लाने के लिए एक खुली चिट्ठी भी जरुरी है. क्योंकि जानकार लोगों का मानना है कि हमारा देश उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की दिशा में 1991-92 से चल रहे तीन दशकों के सफ़र के बाद एक विचित्र दोराहे पर आ गया है. अब या तो 2019 के चुनाव के जरिये हम लोकतंत्र की राह पर बढ़ने के लिए विविधता में एकता से पैदा लोकशक्ति से ऊर्जा लेंगे या राजभक्ति को देशभक्ति मानने वाली संगठित जमात के दबाव और धनशक्ति की चमक-धमक के बूते राजकाज चलाने की साजिश के शिकार हो जायेंगे. भारतीय मतदाता के लिए इस मौके पर मतदान का पवित्र नागरिक कर्तव्य पूरा करने की तैयारी में सरकारी गठबंधन और सरकार-विरोधी दलों के गठबन्धनों से जुडे दलों के नेताओं से कुछ दो-टूक बाते कहने की जिम्मेदारी पूरी करनी होगी....
 
सभी नेताओं में ‘न भूतो, न भविष्यति’ होने की अदम्य इच्छा होती है. अधिकाँश के मन में यह कामना होती है कि उनके बारे में चारों तरफ नारे लगाने वाले बढ़ते रहें कि ‘नेताजी तुम आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं’. लेकिन 2019 के चुनाव में अपने अनुयायियों के साथ वोट माँगने वाले सभी नेताओं को यह याद रखना चाहिए कि तमाम सीमाओं के बावजूद अबसे पहले के समाजसेवकों से हमें विरासत में 4 बहुमूल्य उपलब्धियां मिली हैं जिन्हें सहेजना और अगली पीढ़ी को सौंपना आज के नेतृत्व की जिम्मेदारी है: 

1. विदेशी गुलामी से स्वतंत्रता के लिए चले लम्बे संघर्ष के जरिये पैदा स्वराज, राष्ट्रीय एकता और देशप्रेम की भावना; 
2. राष्ट्रीय स्वतंत्रता को सुरक्षित रखते हुए संवर्धित करने के लिए सभी भारतीयों में धर्म-भाषा-जाती-वर्ग-लिंगभेद-क्षेत्र के भेड़ों से ऊपर उठकर एकता व बंधुत्व पर आधारित राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक न्यायपूर्ण समाज की रचना के लिए प्रतिबद्ध एक लोकतांत्रिक संविधान की रचना और पालन; 
3. एक बहुदलीय संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली, और 
4. ऐतिहासिक कारणों से वंचित वर्गों, समुदायों और क्षेत्रों की जरूरतों के प्रति विशेष संवेदनशीलता और उपाय. यह हमारी बहुमूल्य पूंजी है. इसे बचाए रखना सबका साझा कर्त्तव्य है. क्या इन चारो विरासतों के प्रति आपके मन में और आपके दल में कथन-करनी की एकता है? अगर जाने-अनजाने में दोषपूर्ण आचरण रहा है तो सुधार के लिए क्या करने जा रहे हैं?

दूसरे, पूरा देश चुनाव-प्रणाली में धनशक्ति की बढ़ती भूमिका के प्रति 1973-74 में लोकनायक जयप्रकाश की दी चेतावनी के कारण पांच दशकों से चुनाव-सुधार की प्रतीक्षा कर रहा है. 1992 के बाद से तो कालेधन की ताकतों ने अपराधियों के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय गिरोहों से सांठ-गाँठ का भी दुस्साहस किया है. क्या आपके चुनाव घोषणापत्र में चुनावसुधार के बारे में प्राथमिकता होगी? या आपका दल चुनाव को और प्रदूषित करने की हिमाकत करनेवाला है? दूसरे शब्दों में, क्या इस चुनाव में हमारे नेता अपने दल की ओर से लोकप्रिय समाजसेवकों को उम्मीदवार बनाकर देश की जनता के विवेक के भरोसे चुनाव जीतना चाहते हैं या अधिक से अधिक धनपशुओं और अपराधियों द्वारा पोषित लोकतंत्र-विरोधी आचरण वालों को टिकट देकर कालेधन की कालिख से भारतीय लोकसभा को बदरंग करने जा रहे हैं?  
  
तीसरे, क्या हमारे नेताओं और दलों की दृष्टि में हमारी लोकसभा के पुरुष-प्रधान स्वरुप को सुधारने के लिए ‘बहु-बेटी-बीबी ब्रिगेड’ से बाहर की योग्य स्त्री-उम्मीदवारों को प्रत्याशी बनाने को प्राथमिकता मिलेगी? निर्भया कांड के शर्मनाक हादसे के बाद की जांचसमिति ने बेलाग सुझाव दिया था कि स्त्री-हिंसा का समाधान स्त्री-सशक्तिकरण है. पंचायत से लेकर पार्लियामेंट के चुनावों में उम्मीदवारी और राजनीतिक नेतृत्व में कम से कम 30 प्रतिशत जगहों की हिस्सेदारी इसका सीधा रास्ता है. 65 से जादा उम्र के पुरुषों को उम्मीदवार न बनाने से सक्षम महिलाओं को आगे आने में सुविधा होगी.  

हमारी चिट्ठी में चौथा मुद्दा देश की युवाशक्ति के प्रति दलों के दृष्टिकोण को लेकर है. शिक्षा-रोजगार-राष्टनिर्माण में सहकार भारतीय युवजन की तीन आशाएं हैं और मनमोहन सिह से लेकर नरेन्द्र मोदी तक ने पिछले 15 बरसों में एक पूरी पीढ़ी को हताश किया है. चुनाव में आकर्षक नारे और चुनाव के बाद पूरी उपेक्षा ने युवाओं में असंतोष को गहरा किया है. अब तो असंतोष जाहिर करने का साहस दिखाने वाले विद्यार्थियों को प्रताड़ित करना और विद्याकेंद्रों को दल की दबंगई से कब्जे में लेना पुरे देश के विद्यार्थियों और अध्यापकों को स्तंभित कर चुका है. मोदी सरकार ने विश्वविद्यालयों में फ़ैल चुके असंतोष को दबाने के लिए हर हद तोड़ दी. शिक्षामंत्री के चयन से लेकर कुलपतियों के मनोनयन तक कोई मर्यादा नहीं बची. पहले श्री सुब्रमण्यम फिर श्री कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में दो राष्ट्रीय शिक्षा सुधार आयोग बनाये. फिर दोनों को बिना लिहाज किये दफ्तर की दीवारों में दफ़न कर दिया. क्या आप शिक्षा का बेलगाम हो चुका व्यवसायीकरण और राजनीतिकरण जारी रखेंगे या शिक्षा की स्वायत्तता की आवश्यकता स्वीकारते हुए इसके लिए राष्ट्रीय आय का कम से कम 6 प्रतिशत अंश विद्याप्रसार के लिए आवंटित करके 5 वर्ष से 25 वर्ष तक के भारतीयों की शिक्षित होने की जरुरत पूरी करने का काम शिक्षाशास्त्रियों को सौपेंगे?

नेतामंडल! अलग अलग गठबन्धनों की आड़ में देश की अर्थनीति के साथ बहुत खिलवाड़ हो चुका है. बिचौलिया पूंजीपतियों और बहुदेशीय कार्पोरेशनों को प्रोत्साहन देने की तीन दशकों की नीतियों ने खेती से लेकर कारखानों तक की प्रगति को अवरुद्ध कर दिया है. देश के आयत – निर्यात का पलड़ा चीन के पक्ष में झुकता गया है और चीन अपना वजन पकिस्तान में अड्डा जमाये आतंकवादियों के साथ जोड़े हुए है. बैंकों से लाखों-करोड़ का कर्जा नेताओं की सिफारिश पर बेईमान उद्योगपतियों को देकर हमने अपनी बैंक-व्यवस्था की नींव में भ्रष्टाचार का दीमक फैला दिया है. नए दौर के उद्योगीकरण से प्रदूषण की समस्या बेकाबू हो गयी है. दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली समेत 13 महानगर भारत में हैं! किसान आत्महत्या से लेकर संसद के सामने लामबंदी को मजबूर किया जा चुका है. बाजार में विदेशी माल की बाढ़ देशी उद्योगपति हतप्रभ है. फिर भी नेतामंडल की निगाह में सिवाय निजीकरण- उदारीकरण- भूमंडलीकरण के और क्या राह है? दुनिया में स्थानीयता की कीमत फिर से बढ़ रही है. खेती के लिए लाभकारी दामनीति की महत्ता समझ में आ रही है. आप नेतागण भी अर्थशास्त्र और प्रकृति संवर्धन सम्बन्धी अपना अज्ञान स्वीकार कर टिकाऊ आर्थिकी के लिए उपाय जानिए. अन्यथा 2019 के आगे की राजनीति अशांति और आन्दोलन के दशक की ओर देश के दुखी किसानों– कामगारों, बेकारी ग्रस्त युवजनों, और घाटे में फंस रहे उद्यमियों की साझी समस्याओं के समाधान के लिए मुड़ती पाई जाएगी. 
 
हमारा छठा सरोकार लोकतंत्र में सरकार और विरोधी दलों, न्याय पालिका, पूलिस-सेना, मीडिया, नागरिक समाज, और नागरिक अधिकारों की लक्ष्मण रेखा को लेकर है. कांग्रेस ने सत्ता पर पकड़ बनाये रखने के लिए 1975 में 19 महीने तक लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर तानाशाही चलायी. प्रधानमंत्री इंदिरा थीं. उनकी नीतियों की आलोचना देशविरोध और फासिस्ट राजनीति कहलाया. उनके भक्तों ने ‘इंदिरा ही इण्डिया है’ का नारा चलवाया. शुरू में प्रतिपक्षी यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा प्रताड़ित किये गए. फिर पुलिस राज ही हो गया. इधर कई महीनों से हमारे सार्वजनिक जीवन में फिर से सत्ताधीशों द्वारा लोकतंत्र के प्रति उपेक्षा और सरकार के आलोचकों की अवमानना के प्रसंगों में बढ़ोतरी की घटनाएँ सामने हैं. क्या एक नव-स्वाधीन लोकतांत्रिक  देश सिर्फ 40 साल में शासकों के दुर्व्यवहार को भूल जाता है? क्या लोकतंत्र बचाने के लिए जवानी के दिनों में जेल की यातना सहनेवाले बुढ़ापे में सत्ता की सनक में संविधान और लोकतंत्र की शर्तों को भूल जायेंगे? यह कैसे याद दिलाया जाये कि एक लोकतांत्रिक सरकार की सफलता की बुनियादी जरुरत मजबूत और मुखर प्रतिपक्ष से निरंतर संवाद ही होती है. ‘भक्तों’ और चापलूसों ने बड़ों बड़ों का बेडा गर्क किया है. हमारे बुजुर्गों की सीख है कि ‘निंदक नियरे राखिये....’.

इस सरोकार-सप्तक का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न लोकतांतत्रिक राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियों को लेकर है. अगर देश के नागरिकों में ‘हम’ की भावना की बढती सघनता राष्ट्रनिर्माण की कसौटी है तो यह जांचने का समय है कि देश के किस हिस्से में और किन तबकों में यह भाव बढ़ या घट रहा है? विपक्षी दल राष्ट्रीय जीवन के हाशिये पर धकेले जा रहे समूहों में किसानों, महिलाओं, दलितों, अनुसूचित जन-जातियों, मुसलमनों और ईसाईयों को गिना रहे हैं. सरकारी गठबंधन की निगाह में ‘रेड कारीडोर’ क्षेत्र के लगभग 100 जिले, कश्मीर, ‘लिबरल्स’, धर्मनिरपेक्षता के बहाने मुसलमानों-ईसाईयों का तुष्टिकरण वाले, ‘अर्बन नक्सल’, पुरस्कार-वापसी ब्रिगेड, और ‘टुकडे-टुकड़े ब्रिगेड’ में राष्ट्रीयता की भावना नहीं है. समाजशास्त्रियों और राजनीतिविज्ञान की मान्यता है कि अधूरी नागरिकता के साथ जीने को विवश लोगों में राष्ट्रीयता की बजाय जातिवाद, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता और अलगाववाद की भावना को प्रोत्साहन मिलता है. 

इस प्रकार हर दृष्टिकोण से यह स्पष्ट है कि इस चुनाव के दौरान और इसके बाद राष्ट्रनिर्माण की चुनौतियों की सही समझ और राष्ट्रीयता को लोकतान्त्रिक मूल्यों के आधार पर पुष्ट करने का जिम्मा भी उठाना होगा. इस काम में शिक्षा, शासन तंत्र, मीडिया और राष्ट्रसेवक संगठनों से भी ज्यादा बड़ी भूमिका राजनीतिक दलों और उनके बड़े-छोटे नेताओं की होगी. नेताजी अपने गिरोह और सामाजिक आधार को ही देश मानने की भूल करते आये हैं. इससे देश का नेता चुने जाने पर भी परिवारवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, और क्षेत्रवाद के चश्मे से ही देश को देखने की मजबूरी बनी रहती है. देश के संविधान को पढ़ने – जानने का मौका निकलना तो बड़ी बात है. हमारी मौजूदा चुनाव-केन्द्रित राजनीतिक दिनचर्या में राष्ट्रीय इतिहास, राष्ट्रीय आन्दोलन, और राष्ट्र की विविधतामय समाजव्यवस्था की चेतना की गुंजाईश नहीं दीखती. देश के सभी प्रदेशों और उनकी राजधानी का नाम और पूरा राष्ट्रगान ही याद हो बड़ी बात मानी जानी चाहिए.
 
अभी यह संवाद-सप्तक पूरा करता हूँ. बाकी हिसाब-किताब के लिए चुनाव के बाद बात होगी. जय हिन्द!

(लेखक जेएनयू में प्रोफेसर रह चुके हैं, वर्तमान में सोसाइटी फॉर कम्युनल हारमनी संस्था के अध्यक्ष हैं.)

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