नई दिल्ली। फॉरेस्ट राइट्स एक्ट 2006 पर आए सुप्रीम कोर्ट के 13 फरवरी के फैसले से लाखों वनाश्रित आदिवासियों पर बेदखली के बादल मंडरा रहे हैं। इस फैसले के बाद एकसाथ विभिन्न संगठनों और लाखों आदिवासियों के विरोध के बाद सुप्रीम कोर्ट ने वन अधिकार अधिनियम से सम्बन्धित मामले को सुनना ज़रूरी समझा और उसपर बड़ी तत्परता के साथ उस आदेश पर रोक लगा दी इस मामले पर आदिवासी भारत महासभा ने वक्तव्य जारी किया है।
आदिवासी भारत महासभा ने वक्तव्य जारी कर कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के रोक का असर प्रशासन पर नहीं हो रहा है। ऐसे में इस आदेश का कोई महत्व नहीं रह जाता है क्योंकि वनाश्रित लोगों को लगातार बेदखली की धमकियां मिल रही हैं। जारी वक्तव्य में कहा गया है कि इससे तो यही साबित हो रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का कोई मतलब नहीं रह गया है। जब तक इस आदेश को रोककर रखा गया है तब तक इसी तरह से इसका दुरुपयोग होता रहेगा और लाखों आदिवासियों व वनों में निवास करने वालों पर सामूहिक बेदखली की तलवार लटकी रहेगी।
इसमें आगे कहा गया है कि वन में निवास करने वाले करोड़ों लोगों को उनके अधिकार के बजाय धन देकर समाधान निकालने का दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है, ताकि जब भी आवश्यकता हो उन्हें बेदखल किया जा सके। संवैधानिक वैधता को बड़े आराम से दरकिनार कर दिया गया है और उसका स्थान बेदखली के मुद्दे ने ले लिया है। जो कि एफआऱए के अनुचित और अपूर्ण कार्यान्वयन पर आधारित है। यह सुनिश्चित करना सरकारों का संवैधानिक दायित्व है- विशेषकर भाजपा नीत केंद्र सरकार का कि इस मामले को खारिज किया जाए। साल 2017-18 के दौरान केंद्र सरकार की चुप्पी ने ही इन हालात को उभरने की दिशा में काम किया है।
ऐसे में वन में निवास करने वाले लोगों को न्याय सुनिश्चित करवाने के लिए सरकार को न्यायालय के समक्ष सच्ची तस्वीर अविलंब पेश करनी चाहिए। साथ ही वनाश्रितों पर अत्याचार वाले भारतीय वन अधिनियम 2027 को सरकार को खत्म कर देना चाहिए। यह वैसे भी एफआरए 2006 के बाद निरर्थक हो गया है। साथ ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वन संसाधनों के संरक्षण के संदर्भ में समुदायों को अपनी ऐतिहासिक भूमिका का निर्वहन करने के लिए लामबंद और शिक्षित किया जाए।
आदिवासी भारत महासभा ने वक्तव्य जारी कर कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के रोक का असर प्रशासन पर नहीं हो रहा है। ऐसे में इस आदेश का कोई महत्व नहीं रह जाता है क्योंकि वनाश्रित लोगों को लगातार बेदखली की धमकियां मिल रही हैं। जारी वक्तव्य में कहा गया है कि इससे तो यही साबित हो रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का कोई मतलब नहीं रह गया है। जब तक इस आदेश को रोककर रखा गया है तब तक इसी तरह से इसका दुरुपयोग होता रहेगा और लाखों आदिवासियों व वनों में निवास करने वालों पर सामूहिक बेदखली की तलवार लटकी रहेगी।
इसमें आगे कहा गया है कि वन में निवास करने वाले करोड़ों लोगों को उनके अधिकार के बजाय धन देकर समाधान निकालने का दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है, ताकि जब भी आवश्यकता हो उन्हें बेदखल किया जा सके। संवैधानिक वैधता को बड़े आराम से दरकिनार कर दिया गया है और उसका स्थान बेदखली के मुद्दे ने ले लिया है। जो कि एफआऱए के अनुचित और अपूर्ण कार्यान्वयन पर आधारित है। यह सुनिश्चित करना सरकारों का संवैधानिक दायित्व है- विशेषकर भाजपा नीत केंद्र सरकार का कि इस मामले को खारिज किया जाए। साल 2017-18 के दौरान केंद्र सरकार की चुप्पी ने ही इन हालात को उभरने की दिशा में काम किया है।
ऐसे में वन में निवास करने वाले लोगों को न्याय सुनिश्चित करवाने के लिए सरकार को न्यायालय के समक्ष सच्ची तस्वीर अविलंब पेश करनी चाहिए। साथ ही वनाश्रितों पर अत्याचार वाले भारतीय वन अधिनियम 2027 को सरकार को खत्म कर देना चाहिए। यह वैसे भी एफआरए 2006 के बाद निरर्थक हो गया है। साथ ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वन संसाधनों के संरक्षण के संदर्भ में समुदायों को अपनी ऐतिहासिक भूमिका का निर्वहन करने के लिए लामबंद और शिक्षित किया जाए।