अहमदिया समुदाय के ख़िलाफ़ कैंपेन जारी, अब भारत में भी विवाद

Written by NEW AGE ISLAM STAFF WRITER | Published on: July 31, 2023
आंध्र प्रदेश वक़्फ़ बोर्ड के बाद अब जमीअत-उलमा-ए-हिंद ने भी अहमदी समुदाय को काफ़िर घोषित कर दिया है. 
 

मुख्य बिंदु- 

1.    पाकिस्तान उन्हें पहले ही ग़ैर मुसलमान घोषित कर चुका है.
2.    1953 और 1974 में अहमदी-विरोधी लहर में पनपे दंगों में हज़ारों लोगों की मौत के साथ क़रीब 50 मस्जिदें तबाह कर दी गई थीं. 
3.    मौलाना अरशद मदनी ने अहमदियों के ख़िलाफ़ आंध्र वक़्फ़ बोर्ड के फ़ैसले का समर्थन किया था.
4.    सबसे पहले अल्लामा इक़बाल ने अहमदियों को ग़ैर मुस्लिम क़रार देने की मांग रखी थी. 
5.    मौलाना मौदूदी ने भी क़ादियानी मामले पर किताब लिखकर अहमदी समुदाय को बेदख़ल करने की पैरवी की थी.
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अहमदी तबक़ा मुसलमान होने के तमाम दावों के बावजूद शुरू से ही उपमहाद्वीप का सबसे ज़्यादा प्रताड़ित मुसलमान समुदाय रहा है. 1974 में पाकिस्तानी सरकार ने उन्हें ग़ैर मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय घोषित कर दिया था. बाद में पाकिस्तान में ऐसे क़ानून भी लागू किए गए जिसके बाद इस समुदाय पर ख़ुद को मुसलमान कहने पर रोक लगा दी गई. इसके साथ ही उनकी इबादत की जगहों को मस्जिद और इबादत को नमाज़ कहने पर पाबंदी लगी दी गई. उनके इमाम ग़ुलाम अहमद कादियानी ने मसीहा और पैग़म्बर होने का दावा किया था जबकि क़ुरान के मुताबिक हज़रत मुहम्म्द आख़िरी पैग़म्बर हैं और मुसलमानों की अक़ीदत है कि उनके बाद कोई भी दूसरा पैग़म्बर नहीं आएगा, इसलिए अहमदिया समुदाय का अहमद कादियानी को पैग़म्बर मानने का यक़ीन मुसलमानों द्वारा झूठा क़रार दिया जाता है.

हालांकि 1935 तक अहमदी वर्ग को इस्लाम के दायरे से बाहर नहीं रखा जाता था. उसे अन्य संप्रदायों की तरह एक संप्रदाय माना जाता था. पटना, मद्रास और पंजाब हाईकोर्ट के निर्णयों के अनुसार अहमदिया वर्ग इस्लाम धर्म का ही संप्रदाय था. 

24 जुलाई 1926 में अहमदपुर शरक़िया कोर्ट में एक याचिका दायर कर ग़ुलाम आयशा बीबी और अब्दुर्रज़्ज़ाक़ कादियानी के निकाह को रद्द करने की मांग की गई थी.  अब्दुर्रज़्ज़ाक़ ने आयशा बीबी की रूख़सती से पहले ही अहमदी मत को क़बूल किया था, इसलिए उनके पिता ने उन्हें ससुराल विदा करने से मना कर दिया था, जिसपर फ़ैसला सुनाते हुए कोर्ट ने पटना, पंजाब, मद्रास, बहावलपुर कोर्ट के फ़ैसलों के मद्देनज़र कहा कि अहमदिया तबक़ा इस्लाम से बाहर नहीं बल्कि इस्लाम का ही एक संप्रदाय है. 

उलेमाओं की अगुवाई में 9 साल की क़ानूनी जंग के नतीजे में बहावलपुर की ज़िला कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया कि जो भी क़ादिनियत क़बूल करता है वो शरीयत के मुताबिक़ इस्लाम के दायरे से बाहर हो जाता है. इस लड़ाई के दौरान उनका निकाह अमान्य ही रहा. 

इसी दौर में कवि और दार्शनिक अल्लामा इक़बाल ने भी शायरी और लेख के ज़रिए अहमदिया तबक़े के ख़िलाफ़ एक अभियान शुरू कर दिया था. 14 मई, 1935 को ‘द स्टेट्समैन’ के एक लेख में उन्होंने कहा कि-

‘मुसलमान क़ौमी एकता के लिए ख़तरा पैदा करने वाले आंदोलनों को लेकर कहीं अधिक संवेदनशील हैं. इसलिए एक ऐसे मज़हबी संगठन को इस्लामी एकता के लिए ख़तरा माना जाएगा जो तारीख़ी तौर पर तो इस्लाम से जुड़े होने के बाद भी अपनी बुनियाद नए पैग़म्बर के दावे पर रखता है और फिर इस दावे पर यक़ीन न करने वाले मुसलमानों को काफ़िर क़रार देता है. क्योंकि इस्लामी एकता सिर्फ़ आख़िरी पैग़म्बर में अक़ीदत के साथ ही मज़बूत हो सकती है.’

जून 1936 को उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू को लिखा:
 
"मेरे मन में इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि अहमदी, मुसलमानों और भारत के ख़िलाफ़ गद्दार हैं।"

अपनी कोशिशों के चलते अल्लामा इक़बाल ने 1936 में मुस्लिम लीग काउंसिल से बिल भी पारित करा लिया था जिसमें अहमदियों को ग़ैर मुस्लिम घोषित किया गया था. मुस्लिम लीग के सदस्यों ने उन्हें लिखित तौर पर दावा सौंपा था कि चुनाव के बाद वो अहमदियों को ग़ैर मुस्लिम अल्पसंख्यक घोषित कर देंगे. 

अहमदी वर्ग को ग़ैर मुस्लिम घोषित करने के इस अभियान ने आज़ादी के बाद रफ़्तार पकड़ ली. जनवरी 1953 में अहमदी वर्ग को ग़ैर मुस्लिम और काफ़िर क़रार देने की मांग को लेकर पूरे पाकिस्तान में आंदोलन हुआ. फ़रवरी में मौलाना मौदूदी ने ‘क़ादियानी मसअला’ नाम से एक किताब भी लिखी जिसमें इस समुदाय के ख़िलाफ़ दलीलें पेश की गई थीं.  इस किताब ने आंदोलन को और भी मज़बूत बनाया और उस वक़्त के 33 बड़े उलेमाओं ने सरकार से इस समुदाय पर रोक लगाने की मांग रखते हुए धमकी दी कि अगर ये मांगें पूरी नहीं होती हैं तो आंदोलन की लहर और भी तेज़ हो जाएगी. 

फ़रवरी 1953 में इस मांग पर कार्रवाई नहीं हुई और लाहौर में पनपा अहमदिया विरोधी आंदोलन पूरे देश में फैल गया. इस बीच क़रीब 3 महीने की अवधि में 200 से 2000 के बीच अहमदिया तबक़े के लोगों की हत्या की गई और पाकिस्तान में सैनिक शासन लागू किया गया. 1974 में अहमदिया विरोधी दंगों ने दोबारा रफ़्तार पकड़ ली. मौलानाओं के दबाव के चलते संविधान में संशोधन कर अहमदी वर्ग को ग़ैर मुस्लिम घोषित कर दिया गया. उन्हें बक़रीद पर क़ुर्बानी देने पर रोक लगा दी गई और उनके इबादतख़ानों को नगरपालिका अधिकारियों ने तोड़ दिया. 

हालांकि भारत और दूसरे ग़ैर मुस्लिम देशों में अहमदियों को इस्लाम का ही एक पंथ क़रार दिया जाता है लेकिन फिर भी मज़हबी संगठनों द्वारा उनपर रोक लगाने की मांग उठती रहती है. इस साल फ़रवरी में आंध्र प्रदेश वक़्फ़ बोर्ड ने भी एक मसौदा पारित कर अहमदी समुदाय को ग़ैर मुस्लिम और काफ़िर क़रार दिया है. उन्होंने इसे लागू करने के लिए हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था लेकिन आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने इसपर अंतरिम स्थगन (interim suspension) का आदेश जारी किया है. फिर भी भारत के सारे महत्वपूर्ण इस्लामी संगठन आंध्र प्रदेश वक़्फ़ बोर्ड के फ़ैसले का समर्थन कर रहे हैं. जमीयत ने अपने बयान में कहा कि- 

‘इस मुद्दे पर सारे मुसलमान एकमत हैं.’

21 जुलाई को अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने आंध्र प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर वक्फ़ बोर्ड को आड़े हाथों लिया और इस मसौदे को नफ़रती कैंपेन क़रार दिया है जिसका नतीजा देश के बाहर वैश्विक स्तर पर सामने आ सकता है.’ 

20 जुलाई, 2023 को अहमदिया मुसलमान समुदाय के प्रतिनिधियों ने बयान जारी किया कि कुछ वक़्फ़ बोर्ड अहमदिया समुदाय को इस्लाम की परिधि से बाहर रखने के लिए ग़ैरक़ानूनी मसौदे पारित कर रहे हैं. 

मंत्रालय ने कहा कि वक़्फ़ बोर्ड का ये क़दम अहमदिया समुदाय के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर नफ़रती अभियान को तूल दे रहा है, जबकि बोर्ड को अहमदिया या किसी भी समुदाय की मज़हबी पहचान तय करने का कोई अधिकार नहीं है. 

2012 में भी आंध्र प्रदेश राज्य वक़्फ़ बोर्ड ने नियम पारित करके अहमदिया समुदाय को ग़ैर मुस्लिम घोषित किया था, बाद में इस मसौदे को आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी.

हाईकोर्ट के आदेश के बाद भी वक़्फ़ बोर्ड ने दोबारा फ़रवरी, 2023 में अहमदिया समुदाय पर घोषणा करते हुए कहा कि ये मसौदा 26 मई, 2009 के आंध्र प्रदेश के जमीअत उल उलेमा के फ़तवे के नतीजे में जारी किया गया है. 

शायर इक़बाल और मौलाना मौदूदी की मज़हबी दलीलों की बुनियाद पर शुरू हुआ ये कैंपेन आज भारत में भी पैठ बना रहा है जहां अब तक अहमदी समुदाय के लोग अपने लोकतांत्रिक मज़हबी अधिकारों के साथ ख़ुशहाल जीवन बिता रहे थे. ‘जमीअत उलेमा ए हिंद’ के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी का बयान अहमदी समुदाय के विरोधी समूहों का हौसला बढ़ाने के अलावा दूसरे किसी मुक़ाम तक नहीं ले जा सकता है.  

newageislam.com में प्रकाशित लेख; टीम सबरंग द्वारा हिंदी में अनुवादित

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