हाथरस में रात के अंधेरे में उप्र सरकार के अफसरों के कारनामे लोग भूले भी नहीं कि मुख्यमंत्री के गृह नगर 'बाबा धाम' गोरखपुर के डीएम-एसएसपी का वायरल वीडियो योगी सरकार के अपराध के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीतियों की धज्जियां उड़ाता दिखा। अब भले मुख्यमंत्री, रात-दिन कानून के राज की दुहाई लाख देते फिरें, लेकिन वायरल वीडियो ने तमाम दावों को धता साबित कर दिया है। वैसे पुलिस कहीं की भी हो, उसके बारे में आम धारणा है कि थानों में मुकदमा आसानी से दर्ज नहीं होता। होता भी है तो धाराएं हल्की कर दी जाती हैं। थाने, अमूमन मुकदमा दर्ज करने में ना नुकुर करते हैं। अपना रिकॉर्ड साफ सुथरा रखने के चक्कर में थानाध्यक्ष अक्सर दबाव की स्थिति में ही मुकदमा काटते हैं। हालांकि होशियार थानाध्यक्ष जब यह जान-समझ लेता है कि मुकदमा दर्ज करना ही पड़ेगा तो वह तुरंत मुकदमा दर्ज कर कार्यवाही शुरू कर देता है। परंतु गोरखपुर में युवा व्यापारी मनीष गुप्ता की हत्या के मामले में अफसरों का नया 'ज़ीरो टॉलरेंस' देखने को मिला है। अजीब व पहली घटना है कि, वायरल वीडियो में डीएम व एसएसपी स्वयं, पीड़ित को मुकदमा दर्ज न कराने के लिए समझाते हुए दिख रहे हैं। डीएम एसएसपी, मृतक मनीष की पत्नी मीनाक्षी गुप्ता को मुकदमा दर्ज न कराने के फायदे समझाते दिख रहे हैं। हत्या जैसे गंभीर मामले में योगी सरकार के गवर्नेंस का ये नया अफसरी चेहरा (मॉडल) है, जिसने हर किसी को सोचने पर मजबूर कर दिया है।
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गोरखपुर मनीष गुप्ता हत्याकांड में मुकदमा दर्ज न कराने की सलाह देना एक अनुचित व दुस्साहस से भरा क्रूर मशविरा था जिसकी जितनी निंदा की जाए, कम है। अपराध का मुकदमा दर्ज न करना या अपराध को कम कर के दर्ज करना, किसी समय पुलिस थाने में मिलने वाली शिकायतों में सबसे गंभीर शिकायत मानी जाती थीं। इसी को चेक करने के लिए अधिकारियों द्वारा, थानों पर टेस्ट रिपोर्ट लिखाई जाती थी ताकि रिपोर्ट दर्ज न करने वालों के खिलाफ कार्यवाही हो सके। अपराध के पीड़ित को मुआवजा और सरकारी नौकरी देने से अपराध की गंभीरता कम नहीं हो जाती है। यह सरकार के लोककल्याणकारी राज्य के स्वरूप का एक अंग है। अपराध का मुकदमा दर्ज न करने की सलाह देना, अपराध को बढ़ावा देना है। जब अधिकारी खुद ही चाहते हैं कि केस न दर्ज हो तो, सवाल उठता है कि वे कार्यवाही क्या करेंगे? दरअसल कानून लागू करने का एक मूल सिद्धांत यह है कि, उसे कानूनी तरह से लागू किया जाय। पूर्व पुलिस अधिकारी विजय शंकर सिंह कहते हैं कि कानून, कानून लागू करने वाली एजेंसियों, चाहे वह पुलिस हो, या अन्य कोई भी एजेंसी, को जब उक्त कानून लागू करने का अधिकार और शक्ति देता है तो, उक्त एजेंसी को, उस कानून को कैसे लागू करना है, के विस्तृत दिशानिर्देश या रूल्स उसमें निहित रहते हैं। अदालतों में न केवल कानून के उल्लंघन और अपराध तथा दंड पर ही बहस और फैसले होते हैं, बल्कि, उक्त कानून को लागू करते समय, कानून की किताब में जो नियम दिए गए हैं, क्या उन सब का भी पालन किया गया है या नहीं, इस पर भी अदालतें अपना दृष्टिकोण रखती हैं और वे गंभीर उल्लंघन पर भर्त्सना भी प्रदान करती हैं। पुलिस पर अक्सर यह आरोप लगता है कि उसने अपने नियमित प्रोफेशनल कार्य में भी ज्यादती की जिससे न केवल उक्त कार्य का उद्देश्य समाप्त हो गया, बल्कि अन्य बड़े तथा जघन्य अपराध भी हो गए। कानून को जब भी कानूनी तरह से लागू नहीं किया जाएगा, ऐसी समस्याएं होती रहेंगी। मनीष गुप्ता मामले में भी यही सब हुआ। यहां तो पुलिस ने एफआईआर में भी खेल कर दिया। एफआईआर में दोषी पुलिस कर्मियों के खिलाफ जो मुकदमा पंजीकृत किया गया है उनमें पुलिस का कोई माई-बाप नहीं है। जब गए थे तो सभी 6 पुलिसवाले साथ थे, लेकिन मुकदमे में 3 अज्ञात दर्शाए हैं।
मामले पर गौर करें तो गुप्ता की पत्नी मीनाक्षी ने अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस को बताया, "मेरे पति किसी काम से गोरखपुर गए थे। उन्होंने दो अन्य लोगों के साथ एक होटल में एक कमरा बुक किया, जो मेरे पति से व्यापार के सिलसिले में मिलने आए थे। बाद में उन्होंने मुझे बताया कि मेरे पति को पुलिसकर्मियों ने बहुत बुरी तरह पीटा था। गुप्ता के दो अन्य दोस्त अलग-अलग शहरों के रहने वाले हैं। एक दोस्त जिसका नाम हरवीर सिंह है उसने मीडिया को बताया कि रात करीब साढ़े बारह बजे पांच से सात पुलिसकर्मी उनके कमरे में पहुंचे और पहचान पत्र मांगा। उनका कहना है कि गुप्ता ने सवाल किया कि इतनी रात को उन्हें क्यों परेशान किया जा रहा है तो पुलिस वालों ने धमकी दी। हरवीर का कहना है कि उसे पुलिस वालों ने बाहर कर दिया और कुछ देर बाद गुप्ता को पुलिस वाले घसीटते हुए बाहर लाए और वह खून से लथपथ था। उसके बाद पुलिस उसे अस्पताल ले गई जहां उसकी मौत हो गई।
गोरखपुर पुलिस इसे हादसा बता रही है। एसएसपी विपिन ताडा ने मीडिया को बताया, "अपराधियों की तलाशी के दौरान रामगढ़ताल थाने की पुलिस एक होटल में गई। एक कमरे में अलग-अलग शहरों के तीन संदिग्ध युवक ठहरे हुए थे। पुलिस टीम जब होटल मैनेजर के साथ वहां गई तो हड़बड़ी में कमरे में मौजूद एक व्यक्ति गिरकर घायल हो गया। इसके बाद हमारे लोगों ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया, जहां उसका इलाज किया गया। बीआरडी अस्पताल में इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। डॉक्टरों का एक पैनल पोस्टमार्टम करेगा। तीनों लोग यहां क्यों थे, इसका पता लगाने के लिए जांच की जाएगी।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह नगर की पुलिस ने इतना बड़ा कांड अंजाम दे दिया और एफआईआर तक ठीक तरह नहीं लिखी गई। योगी इस पर कड़ा एक्शन ले सकते थे, वो भी तत्काल। लेकिन साढ़े 4 साल के कार्यकाल के दौरान वह सिर्फ अपने नौकरशाहों के बताए रास्तों पर ही ज्यादा चलते दिखते है। मनीष गुप्ता भाजपा के सक्रिय सदस्य थे। वह कुछ समय पहले ही पार्टी से जुड़े थे। इसके बावजूद लोग यहां तक कह रहे कि अगर योगी से पहले सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव पीड़ित परिवार से ना मिलते तो सीएम का मुलाकाती कार्यक्रम भी अचानक से शायद ही बनता।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ट्वीट करते हुए लिखा कि, 'जनपद कानपुर तो अपराध व अपराधियों के खिलाफ हमारी 'जीरो टॉलरेंस नीति' का जीता जागता उदाहरण है। पीड़ित की पीड़ा के साथ जुड़ना हमारा दायित्व है। सरकार हर कदम पर परिवार के साथ है, हर कीमत पर उन्हें त्वरित न्याय मिलेगा। मेरी संवेदनाएं उनके साथ हैं। योगी के इस ट्वीट पर सवाल उठता है कि जीरो टॉलरेंस है कहां और उसके मायने क्या हैं? योगी आदित्यनाथ ने सत्ता में आते ही जीरो टॉलरेंस का नारा दिया था लेकिन उनके टॉलरेंस की धज्जियां तो खुद उनकी पुलिस उड़ा रही है। पहले हाथरस कांड, फिर बरेली में इज्जत की बोली और अब मनीष गुप्ता हत्याकांड। पोस्टमार्टम रिपोर्ट आदि से साफ है कि मनीष की मौत पिटाई से हुई। लेकिन शायद अफसरी पर्दा सीएम को यह देखने नहीं दे रहा है। मुख्यमंत्री योगी ने दूसरा ट्वीट भी कुछ सेकंडों के अंतराल में करते बताया कि, 'गोरखपुर में हुई दु:खद घटना का दोषी कोई भी हो, किसी भी पद पर हो, वह किसी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा। सबकी जवाबदेही तय की जाएगी। अपराधी सिर्फ अपराधी होता है। घटना के बाद अधिकारियों को निर्देशित कर तत्काल मुकदमा दर्ज कराया गया।
सवाल बख्शा नहीं जाएगा, का है तो एफआईआर में क्या दर्ज हुआ है, भी साफ दिख रहा है। यह भी तब है, जब पिटाई करने वाले वायरल हैं, लीपापोती कर रहे डीएम एसएसपी वायरल हैं, पोस्टमार्टम रिपोर्ट वायरल है, फिर योगीराज में कोई ठोस कदम क्यों वायरल नहीं हो पा रहा है। इससे तो यही जाहिर होता हैं कि सीएम चुनावी मजबूरी में हमदर्दी दिखा रहे। ऐसा नहीं है तो डीएम और एसएसपी पर कार्रवाई क्यों नहीं?
पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी सीएम के जीरो टॉलरेंस पर हमला बोला। लिखा, 'मनीष गुप्ता हत्याकांड' में पुलिसवालों की गिरफ़्तारी न होना ये दर्शाता है कि वो फ़रार नहीं हुए हैं उन्हें फ़रार कराया गया है। दरअसल कोई आरोपियों को नहीं बल्कि ख़ुद को बचा रहा है क्योंकि इसके तार 'वसूली तंत्र' से जुड़े होने की आशंका है। 'ज़ीरो टालरेंस' भी भाजपाई जुमला है।' गौरतलब है कि गोरखपुर हत्याकांड में मारे गए मनीष गुप्ता के परिवार से मुलाकात करने अखिलेश यादव घर गये थे। यहां अखिलेश ने कहा, 'गोरखपुर में भाजपा सरकार की हिंसक प्रवृति के शिकार हुए कानपुर के युवा व्यापारी हत्याकांड की उच्च स्तरीय न्यायिक जांच हो और परिवार को यथोचित न्याय मिले। इस हत्या के लिए उप्र का शासन-प्रशासन बराबर का दोषी है।
कुछ भी हो, लीपापोती की तमाम कोशिशों के बावजूद, होटल में पुलिस की जांच व मनीष गुप्ता की मौत का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। कानपुर के युवा व्यापारी मनीष गुप्ता, गोरखपुर के एक होटल में अपने कुछ मित्रों के साथ ठहरे थे, जहां सोमवार रात पुलिस उनके कमरे में तलाशी लेने पहुंची। परिजनों का आरोप है कि जांच के नाम पर पुलिस ने मनीष के साथ दुर्व्यवहार किया, मारा-पीटा, इलाज नहीं कराया जिससे उनकी मौत हो गई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी मनीष के शरीर पर जख्मों के निशान मिले हैं। इसके बावजूद मनीष की पत्नी एफआईआर दर्ज कराना चाहती थीं, तो उसमें भी अड़चनें डालने के आरोप पुलिस पर लगे। ये मामला भी बहुत से अन्य मामलों की तरह रफा दफा हो सकता था, क्योंकि इसमें एक पक्ष पुलिस था। लेकिन मनीष के परिजनों ने विरोध दर्ज कराया। सपा, बसपा, कांग्रेस आदि दलों ने सरकार पर दबाव बनाया। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पीड़ित परिवार को 20 लाख की सहायता का ऐलान किया। बसपा ने मामले की सीबीआई जांच की मांग की। प्रियंका गांधी ने परिजनों से बात की। लिहाजा सरकार को भी दखल देना पड़ा। मुख्यमंत्री योगी ने खुद मनीष की पत्नी से मुलाकात की, उन्हें सरकारी नौकरी व बेटे की पढ़ाई का खर्च उठाने का वादा किया। अब पुलिस ने केस भी दर्ज कर लिया है और 6 पुलिस कर्मियों को निलंबित कर दिया गया है। सरकार ने देर से ही सही, कदम उठाया है। मगर इस एक प्रकरण से उत्तरप्रदेश की कानून व्यवस्था और आम आदमी की सुरक्षा पर कई बड़े सवाल खड़े हो गए हैं। उत्तर प्रदेश में अगले कुछ महीनों में चुनाव हैं और इस बार भाजपा की सत्ता और साख दोनों पर दांव लगा है।
पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा का हिंदुत्व का कार्ड बाकी सारे दलों पर भारी पड़ गया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद कब्रिस्तान श्मशान का मुद्दा उठाया था। इसके अलावा लोक कल्याण संकल्प पत्र नाम से घोषणापत्र जारी करते हुए अमित शाह ने कहा था 'जनता हमें एक मौका दें, हम उप्र को बीमारु राज्य से बाहर निकालेंगे'। संकल्प पत्र में राम मंदिर, किसानों की आय दोगुनी करना, गन्ना भुगतान, ऋण माफी जैसे लुभावने वादे थे। रोजगार, विकास, निवेश की बड़ी-बड़ी बातें थीं। साथ ही भाजपा ने अपने घोषणापत्र में कहा था कि अगर वह सत्ता में आते है तो सभी नागरिकों की सुरक्षा बगैर किसी जाति-धर्म भेदभाव के होगी। उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार आने पर एफआईआर कराना आसान होगा। बेहतर निगरानी के लिए सभी पुलिस रेकॉर्ड डिजिटाइज किए जाएंगे। सरकार आने पर 100 हेल्पलाइन योजना में व्यापक सुधार और विस्तार करते हुए तय किया जाएगा कि सूबे में कहीं से भी कॉल पर 15 मिनट में पुलिस सहायता पहुंचाई जाए। भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार में पूर्व की सपा और बसपा सरकारों के कार्यकाल में हुए अपराधों की जनता को याद दिलाते हुए दावा किया था कि भाजपा के आने से अपराध कम हो जाएंगे।
भाजपा सत्ता में आई। राम मंदिर का निर्माण शुरु हो गया। लेकिन जिस राम राज्य का वादा भाजपा करती आई है, उसके दर्शन कहीं नहीं हो रहे। इस वक्त भाजपा अपने साढ़े 4 साल के कार्यकाल का लेखा-जोखा जनता के सामने रख रही है। मुख्यमंत्री योगी से लेकर उनके मंत्री अपने प्रचार क्षेत्र में जाकर ये बतला रहे हैं कि भाजपा के शासन में अपराधों में कमी आई है। योगी सरकार ने मुठभेड़ 'ठोको' नीति को भी खूब बढ़ावा दिया है। बिकरू कांड व विकास दुबे की मौत उदाहरण है। यही नहीं, 15 दिन पहले अलीगढ़ में पीएम नरेन्द्र मोदी ने योगीजी की पीठ थपथपाते हुए कहा था कि उत्तर प्रदेश में पहले गुंडों और माफिया का राज होता था लेकिन अब उत्तर प्रदेश में अपराधी, अपराध करने से पहले सौ बार सोचते हैं। इन बातों और दावों के बरक्स हकीकत क्या है, ये अब जनता देख रही है या कह सकते हैं भुगत रही है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े भी बताते हैं कि 2019 की तुलना में उप्र राज्य में 2020 में अपराध के ज्यादा मामले दर्ज किए गए थे। अपहरण के मामलों में देशभर में 2019 की तुलना में कमी दर्ज की गई है, लेकिन फिर भी 2020 में सबसे ज्यादा 12,913 मामले उप्र में दर्ज किए गए हैं। बलात्कार के मामलों में मामूली कमी है, लेकिन अपराधियों के भीतर खौफ पसरा हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता। पिछले साल सितंबर में हाथरस पीड़िता ने दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में दम तोड़ दिया था। उस दलित बच्ची के साथ अपराधियों ने नृशंसता की, मगर उसके बाद आधी रात को जिस तरीके से उसका शव जलाया गया, उसे प्रशासनिक बर्बरता के अलावा क्या कहा जाए। दुखद है कि साल भर बाद फिर से उप्र पुलिस के माथे पर बर्बरता का एक और दाग लगा है।
खैर, प्रकरण में चौतरफा आलोचनाओं से घिरी योगी सरकार ने मामले में जांच के आदेश दे दिए हैं। साथ ही दो कमेटी भी बनाई है जो मामले की जांच के साथ, राज्यभर के दागी पुलिसकर्मियों की भी जांच करेगी। एक टीवी डिबेट में पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह ने भी मामले में दोषियों के निलंबन व बर्खास्तगी होने व रासुका लगाने की बात कही। साथ ही उन्होंने कहा कि पुलिस में ये शर्म की इमारत एक दिन में नहीं बनी है। इसको बनाने में दसियों साल लगे हैं। जब हमने इस तरह के उद्दंड तत्वों का मनोबल बढ़ाया। जहां जीरो टोलेरेंस होनी थी वहां हमने ये संदेश दिया कि 'तुम कुछ भी करके आओ, तुम्हारा कुछ नहीं होगा'। उसके बाद ही इस प्रकार की घटनाएं घटित होती हैं। ऐसे में जहां 'मुकदमा दर्ज न कराने की सलाह' सवालों के घेरे में है तो वहीं 'तुम कुछ भी करके आओ, तुम्हारा कुछ नहीं होगा' की ठोको नीति और अफसरी कार्यसंस्कृति पर भी सवाल लाजिमी है?
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गोरखपुर मनीष गुप्ता हत्याकांड में मुकदमा दर्ज न कराने की सलाह देना एक अनुचित व दुस्साहस से भरा क्रूर मशविरा था जिसकी जितनी निंदा की जाए, कम है। अपराध का मुकदमा दर्ज न करना या अपराध को कम कर के दर्ज करना, किसी समय पुलिस थाने में मिलने वाली शिकायतों में सबसे गंभीर शिकायत मानी जाती थीं। इसी को चेक करने के लिए अधिकारियों द्वारा, थानों पर टेस्ट रिपोर्ट लिखाई जाती थी ताकि रिपोर्ट दर्ज न करने वालों के खिलाफ कार्यवाही हो सके। अपराध के पीड़ित को मुआवजा और सरकारी नौकरी देने से अपराध की गंभीरता कम नहीं हो जाती है। यह सरकार के लोककल्याणकारी राज्य के स्वरूप का एक अंग है। अपराध का मुकदमा दर्ज न करने की सलाह देना, अपराध को बढ़ावा देना है। जब अधिकारी खुद ही चाहते हैं कि केस न दर्ज हो तो, सवाल उठता है कि वे कार्यवाही क्या करेंगे? दरअसल कानून लागू करने का एक मूल सिद्धांत यह है कि, उसे कानूनी तरह से लागू किया जाय। पूर्व पुलिस अधिकारी विजय शंकर सिंह कहते हैं कि कानून, कानून लागू करने वाली एजेंसियों, चाहे वह पुलिस हो, या अन्य कोई भी एजेंसी, को जब उक्त कानून लागू करने का अधिकार और शक्ति देता है तो, उक्त एजेंसी को, उस कानून को कैसे लागू करना है, के विस्तृत दिशानिर्देश या रूल्स उसमें निहित रहते हैं। अदालतों में न केवल कानून के उल्लंघन और अपराध तथा दंड पर ही बहस और फैसले होते हैं, बल्कि, उक्त कानून को लागू करते समय, कानून की किताब में जो नियम दिए गए हैं, क्या उन सब का भी पालन किया गया है या नहीं, इस पर भी अदालतें अपना दृष्टिकोण रखती हैं और वे गंभीर उल्लंघन पर भर्त्सना भी प्रदान करती हैं। पुलिस पर अक्सर यह आरोप लगता है कि उसने अपने नियमित प्रोफेशनल कार्य में भी ज्यादती की जिससे न केवल उक्त कार्य का उद्देश्य समाप्त हो गया, बल्कि अन्य बड़े तथा जघन्य अपराध भी हो गए। कानून को जब भी कानूनी तरह से लागू नहीं किया जाएगा, ऐसी समस्याएं होती रहेंगी। मनीष गुप्ता मामले में भी यही सब हुआ। यहां तो पुलिस ने एफआईआर में भी खेल कर दिया। एफआईआर में दोषी पुलिस कर्मियों के खिलाफ जो मुकदमा पंजीकृत किया गया है उनमें पुलिस का कोई माई-बाप नहीं है। जब गए थे तो सभी 6 पुलिसवाले साथ थे, लेकिन मुकदमे में 3 अज्ञात दर्शाए हैं।
मामले पर गौर करें तो गुप्ता की पत्नी मीनाक्षी ने अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस को बताया, "मेरे पति किसी काम से गोरखपुर गए थे। उन्होंने दो अन्य लोगों के साथ एक होटल में एक कमरा बुक किया, जो मेरे पति से व्यापार के सिलसिले में मिलने आए थे। बाद में उन्होंने मुझे बताया कि मेरे पति को पुलिसकर्मियों ने बहुत बुरी तरह पीटा था। गुप्ता के दो अन्य दोस्त अलग-अलग शहरों के रहने वाले हैं। एक दोस्त जिसका नाम हरवीर सिंह है उसने मीडिया को बताया कि रात करीब साढ़े बारह बजे पांच से सात पुलिसकर्मी उनके कमरे में पहुंचे और पहचान पत्र मांगा। उनका कहना है कि गुप्ता ने सवाल किया कि इतनी रात को उन्हें क्यों परेशान किया जा रहा है तो पुलिस वालों ने धमकी दी। हरवीर का कहना है कि उसे पुलिस वालों ने बाहर कर दिया और कुछ देर बाद गुप्ता को पुलिस वाले घसीटते हुए बाहर लाए और वह खून से लथपथ था। उसके बाद पुलिस उसे अस्पताल ले गई जहां उसकी मौत हो गई।
गोरखपुर पुलिस इसे हादसा बता रही है। एसएसपी विपिन ताडा ने मीडिया को बताया, "अपराधियों की तलाशी के दौरान रामगढ़ताल थाने की पुलिस एक होटल में गई। एक कमरे में अलग-अलग शहरों के तीन संदिग्ध युवक ठहरे हुए थे। पुलिस टीम जब होटल मैनेजर के साथ वहां गई तो हड़बड़ी में कमरे में मौजूद एक व्यक्ति गिरकर घायल हो गया। इसके बाद हमारे लोगों ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया, जहां उसका इलाज किया गया। बीआरडी अस्पताल में इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। डॉक्टरों का एक पैनल पोस्टमार्टम करेगा। तीनों लोग यहां क्यों थे, इसका पता लगाने के लिए जांच की जाएगी।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह नगर की पुलिस ने इतना बड़ा कांड अंजाम दे दिया और एफआईआर तक ठीक तरह नहीं लिखी गई। योगी इस पर कड़ा एक्शन ले सकते थे, वो भी तत्काल। लेकिन साढ़े 4 साल के कार्यकाल के दौरान वह सिर्फ अपने नौकरशाहों के बताए रास्तों पर ही ज्यादा चलते दिखते है। मनीष गुप्ता भाजपा के सक्रिय सदस्य थे। वह कुछ समय पहले ही पार्टी से जुड़े थे। इसके बावजूद लोग यहां तक कह रहे कि अगर योगी से पहले सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव पीड़ित परिवार से ना मिलते तो सीएम का मुलाकाती कार्यक्रम भी अचानक से शायद ही बनता।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ट्वीट करते हुए लिखा कि, 'जनपद कानपुर तो अपराध व अपराधियों के खिलाफ हमारी 'जीरो टॉलरेंस नीति' का जीता जागता उदाहरण है। पीड़ित की पीड़ा के साथ जुड़ना हमारा दायित्व है। सरकार हर कदम पर परिवार के साथ है, हर कीमत पर उन्हें त्वरित न्याय मिलेगा। मेरी संवेदनाएं उनके साथ हैं। योगी के इस ट्वीट पर सवाल उठता है कि जीरो टॉलरेंस है कहां और उसके मायने क्या हैं? योगी आदित्यनाथ ने सत्ता में आते ही जीरो टॉलरेंस का नारा दिया था लेकिन उनके टॉलरेंस की धज्जियां तो खुद उनकी पुलिस उड़ा रही है। पहले हाथरस कांड, फिर बरेली में इज्जत की बोली और अब मनीष गुप्ता हत्याकांड। पोस्टमार्टम रिपोर्ट आदि से साफ है कि मनीष की मौत पिटाई से हुई। लेकिन शायद अफसरी पर्दा सीएम को यह देखने नहीं दे रहा है। मुख्यमंत्री योगी ने दूसरा ट्वीट भी कुछ सेकंडों के अंतराल में करते बताया कि, 'गोरखपुर में हुई दु:खद घटना का दोषी कोई भी हो, किसी भी पद पर हो, वह किसी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा। सबकी जवाबदेही तय की जाएगी। अपराधी सिर्फ अपराधी होता है। घटना के बाद अधिकारियों को निर्देशित कर तत्काल मुकदमा दर्ज कराया गया।
सवाल बख्शा नहीं जाएगा, का है तो एफआईआर में क्या दर्ज हुआ है, भी साफ दिख रहा है। यह भी तब है, जब पिटाई करने वाले वायरल हैं, लीपापोती कर रहे डीएम एसएसपी वायरल हैं, पोस्टमार्टम रिपोर्ट वायरल है, फिर योगीराज में कोई ठोस कदम क्यों वायरल नहीं हो पा रहा है। इससे तो यही जाहिर होता हैं कि सीएम चुनावी मजबूरी में हमदर्दी दिखा रहे। ऐसा नहीं है तो डीएम और एसएसपी पर कार्रवाई क्यों नहीं?
पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी सीएम के जीरो टॉलरेंस पर हमला बोला। लिखा, 'मनीष गुप्ता हत्याकांड' में पुलिसवालों की गिरफ़्तारी न होना ये दर्शाता है कि वो फ़रार नहीं हुए हैं उन्हें फ़रार कराया गया है। दरअसल कोई आरोपियों को नहीं बल्कि ख़ुद को बचा रहा है क्योंकि इसके तार 'वसूली तंत्र' से जुड़े होने की आशंका है। 'ज़ीरो टालरेंस' भी भाजपाई जुमला है।' गौरतलब है कि गोरखपुर हत्याकांड में मारे गए मनीष गुप्ता के परिवार से मुलाकात करने अखिलेश यादव घर गये थे। यहां अखिलेश ने कहा, 'गोरखपुर में भाजपा सरकार की हिंसक प्रवृति के शिकार हुए कानपुर के युवा व्यापारी हत्याकांड की उच्च स्तरीय न्यायिक जांच हो और परिवार को यथोचित न्याय मिले। इस हत्या के लिए उप्र का शासन-प्रशासन बराबर का दोषी है।
कुछ भी हो, लीपापोती की तमाम कोशिशों के बावजूद, होटल में पुलिस की जांच व मनीष गुप्ता की मौत का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। कानपुर के युवा व्यापारी मनीष गुप्ता, गोरखपुर के एक होटल में अपने कुछ मित्रों के साथ ठहरे थे, जहां सोमवार रात पुलिस उनके कमरे में तलाशी लेने पहुंची। परिजनों का आरोप है कि जांच के नाम पर पुलिस ने मनीष के साथ दुर्व्यवहार किया, मारा-पीटा, इलाज नहीं कराया जिससे उनकी मौत हो गई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी मनीष के शरीर पर जख्मों के निशान मिले हैं। इसके बावजूद मनीष की पत्नी एफआईआर दर्ज कराना चाहती थीं, तो उसमें भी अड़चनें डालने के आरोप पुलिस पर लगे। ये मामला भी बहुत से अन्य मामलों की तरह रफा दफा हो सकता था, क्योंकि इसमें एक पक्ष पुलिस था। लेकिन मनीष के परिजनों ने विरोध दर्ज कराया। सपा, बसपा, कांग्रेस आदि दलों ने सरकार पर दबाव बनाया। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पीड़ित परिवार को 20 लाख की सहायता का ऐलान किया। बसपा ने मामले की सीबीआई जांच की मांग की। प्रियंका गांधी ने परिजनों से बात की। लिहाजा सरकार को भी दखल देना पड़ा। मुख्यमंत्री योगी ने खुद मनीष की पत्नी से मुलाकात की, उन्हें सरकारी नौकरी व बेटे की पढ़ाई का खर्च उठाने का वादा किया। अब पुलिस ने केस भी दर्ज कर लिया है और 6 पुलिस कर्मियों को निलंबित कर दिया गया है। सरकार ने देर से ही सही, कदम उठाया है। मगर इस एक प्रकरण से उत्तरप्रदेश की कानून व्यवस्था और आम आदमी की सुरक्षा पर कई बड़े सवाल खड़े हो गए हैं। उत्तर प्रदेश में अगले कुछ महीनों में चुनाव हैं और इस बार भाजपा की सत्ता और साख दोनों पर दांव लगा है।
पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा का हिंदुत्व का कार्ड बाकी सारे दलों पर भारी पड़ गया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद कब्रिस्तान श्मशान का मुद्दा उठाया था। इसके अलावा लोक कल्याण संकल्प पत्र नाम से घोषणापत्र जारी करते हुए अमित शाह ने कहा था 'जनता हमें एक मौका दें, हम उप्र को बीमारु राज्य से बाहर निकालेंगे'। संकल्प पत्र में राम मंदिर, किसानों की आय दोगुनी करना, गन्ना भुगतान, ऋण माफी जैसे लुभावने वादे थे। रोजगार, विकास, निवेश की बड़ी-बड़ी बातें थीं। साथ ही भाजपा ने अपने घोषणापत्र में कहा था कि अगर वह सत्ता में आते है तो सभी नागरिकों की सुरक्षा बगैर किसी जाति-धर्म भेदभाव के होगी। उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार आने पर एफआईआर कराना आसान होगा। बेहतर निगरानी के लिए सभी पुलिस रेकॉर्ड डिजिटाइज किए जाएंगे। सरकार आने पर 100 हेल्पलाइन योजना में व्यापक सुधार और विस्तार करते हुए तय किया जाएगा कि सूबे में कहीं से भी कॉल पर 15 मिनट में पुलिस सहायता पहुंचाई जाए। भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार में पूर्व की सपा और बसपा सरकारों के कार्यकाल में हुए अपराधों की जनता को याद दिलाते हुए दावा किया था कि भाजपा के आने से अपराध कम हो जाएंगे।
भाजपा सत्ता में आई। राम मंदिर का निर्माण शुरु हो गया। लेकिन जिस राम राज्य का वादा भाजपा करती आई है, उसके दर्शन कहीं नहीं हो रहे। इस वक्त भाजपा अपने साढ़े 4 साल के कार्यकाल का लेखा-जोखा जनता के सामने रख रही है। मुख्यमंत्री योगी से लेकर उनके मंत्री अपने प्रचार क्षेत्र में जाकर ये बतला रहे हैं कि भाजपा के शासन में अपराधों में कमी आई है। योगी सरकार ने मुठभेड़ 'ठोको' नीति को भी खूब बढ़ावा दिया है। बिकरू कांड व विकास दुबे की मौत उदाहरण है। यही नहीं, 15 दिन पहले अलीगढ़ में पीएम नरेन्द्र मोदी ने योगीजी की पीठ थपथपाते हुए कहा था कि उत्तर प्रदेश में पहले गुंडों और माफिया का राज होता था लेकिन अब उत्तर प्रदेश में अपराधी, अपराध करने से पहले सौ बार सोचते हैं। इन बातों और दावों के बरक्स हकीकत क्या है, ये अब जनता देख रही है या कह सकते हैं भुगत रही है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े भी बताते हैं कि 2019 की तुलना में उप्र राज्य में 2020 में अपराध के ज्यादा मामले दर्ज किए गए थे। अपहरण के मामलों में देशभर में 2019 की तुलना में कमी दर्ज की गई है, लेकिन फिर भी 2020 में सबसे ज्यादा 12,913 मामले उप्र में दर्ज किए गए हैं। बलात्कार के मामलों में मामूली कमी है, लेकिन अपराधियों के भीतर खौफ पसरा हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता। पिछले साल सितंबर में हाथरस पीड़िता ने दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में दम तोड़ दिया था। उस दलित बच्ची के साथ अपराधियों ने नृशंसता की, मगर उसके बाद आधी रात को जिस तरीके से उसका शव जलाया गया, उसे प्रशासनिक बर्बरता के अलावा क्या कहा जाए। दुखद है कि साल भर बाद फिर से उप्र पुलिस के माथे पर बर्बरता का एक और दाग लगा है।
खैर, प्रकरण में चौतरफा आलोचनाओं से घिरी योगी सरकार ने मामले में जांच के आदेश दे दिए हैं। साथ ही दो कमेटी भी बनाई है जो मामले की जांच के साथ, राज्यभर के दागी पुलिसकर्मियों की भी जांच करेगी। एक टीवी डिबेट में पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह ने भी मामले में दोषियों के निलंबन व बर्खास्तगी होने व रासुका लगाने की बात कही। साथ ही उन्होंने कहा कि पुलिस में ये शर्म की इमारत एक दिन में नहीं बनी है। इसको बनाने में दसियों साल लगे हैं। जब हमने इस तरह के उद्दंड तत्वों का मनोबल बढ़ाया। जहां जीरो टोलेरेंस होनी थी वहां हमने ये संदेश दिया कि 'तुम कुछ भी करके आओ, तुम्हारा कुछ नहीं होगा'। उसके बाद ही इस प्रकार की घटनाएं घटित होती हैं। ऐसे में जहां 'मुकदमा दर्ज न कराने की सलाह' सवालों के घेरे में है तो वहीं 'तुम कुछ भी करके आओ, तुम्हारा कुछ नहीं होगा' की ठोको नीति और अफसरी कार्यसंस्कृति पर भी सवाल लाजिमी है?
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