लोकसभा चुनाव के नतीजों से उत्तर प्रदेश की जो तस्वीर निकलकर सामने आई थी उसने सभी को चौंका दिया था। बीजेपी को इस लोकसभा चुनाव 33 सीटें मिलने के बावजूद झटका लगा था क्योंकि समाजवादी पार्टी को 37 सीटों के साथ काफी बढ़त मिली थी।
"लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी और योगी आदित्यनाथ दोनों यूपी में खोई जमीन वापस पाने को बेताब है ताकि संकेत दिया जा सके कि हिंदी पट्टी में लोकसभा में मिली हार, महज एक अपवाद थी। इसी से यूपी की नौ विधानसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव में बीजेपी की जीत-हार, योगी के भविष्य के लिहाज से भी काफी अहम माने जा रहे हैं। हालांकि उप चुनाव में सपा का भी काफी कुछ दांव पर लगा है।"
लोकसभा चुनाव के नतीजों से उत्तर प्रदेश की जो तस्वीर निकलकर सामने आई थी उसने सभी को चौंका दिया था। बीजेपी को इस लोकसभा चुनाव 33 सीटें मिलने के बावजूद झटका लगा था क्योंकि समाजवादी पार्टी को 37 सीटों के साथ काफी बढ़त मिली थी। अब उत्तर प्रदेश की जिन 9 सीटों पर उपचुनाव होना है, ये सीटें पूरे राज्य में फैली हुई हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में तीन, पश्चिमी भाग में चार और मध्य तथा ब्रज क्षेत्र में एक-एक सीट हैं। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित एक सीट है और कुछ निर्वाचन क्षेत्र हैं जहां मुस्लिम वोट भी निर्णायक हो सकते हैं। ऐसे में अगर भाजपा उपचुनाव में हार जाती है तो योगी के भविष्य पर बड़ा सवालिया निशान लगना तय है। हालांकि महज यूपी ही नहीं पार्टी ने हरियाणा और राजस्थान में भी अपनी जमीन खो दी है लेकिन हरियाणा विधानसभा चुनावों में भाजपा की वापसी ने यूपी में सीएम योगी आदित्यनाथ पर और दबाव बढ़ा दिया है। अगर नतीजे भाजपा के लिए बुरे रहे तो पार्टी में दरार और बढ़ सकती है। वहीं दिल्ली भी इस पर गहरी नजर रखे हुए हैं।
दूसरी ओर सपा को यह साबित करना होगा कि लोकसभा चुनावों में उसका प्रदर्शन कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी और 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले राज्य में धीरे-धीरे राजनीतिक बदलाव हो रहा है। उसने सहयोगी कांग्रेस को दरकिनार कर दिया है और सभी नौ उपचुनाव लड़ने का जिम्मा खुद उठाया है। और सीएम योगी के विवादित नारे ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जिसे आरएसएस और पीएम मोदी का समर्थन प्राप्त है, पर सपा ने जवाब में नारा दिया है, ‘जुड़ेंगे तो जीतेंगे’। ऐसे में मुकाबला कड़ा होगा। बहरहाल 20 नवंबर को वोटिंग है। इन सीटों पर चुनावी तस्वीर हर दिन बदल रही है। भाजपा-सपा दोनों ने पूरी ताकत झोंक रखी है। उपचुनाव को 2027 विधानसभा चुनाव का टेस्ट माना जा रहा है। लोकसभा के रिजल्ट के बाद सपा अपना मोमेंटम बनाए रखने की पूरी कोशिश कर रही है। यही नहीं, बसपा पहली बार उपचुनाव लड़ रही है तो चुनावी मैदान में असदुद्दीन ओवैसी और चंद्रशेखर की पार्टी के प्रत्याशी भी हैं। कुछ सीटें ऐसी हैं, जहां बसपा-आजाद सामाज पार्टी और एआईएमआईएम भाजपा-सपा का गणित बिगाड़ते हुए दिख रही हैं तो रालोद आदि कई छोटी पार्टियां भाजपा को तथा कांग्रेस व कम्युनिस्ट पार्टी सपा को मजबूती प्रदान कर रही है। फिलहाल मीडिया रिपोर्ट्स में हवा का रुख मिला जुला नजर आ रहा है।
प्रयागराज की फूलपुर सीट
फूलपुर सीट पर जातीय फैक्टर हावी है। सपा ने लोकसभा चुनाव में अमरनाथ मौर्य को उतारा था। तब उसे फूलपुर विधानसभा में लीड मिली थी लेकिन, अब मुस्लिम कैंडिडेट उतारने के बाद स्थिति थोड़ी बदल गई है। पटेल-मौर्य बिरादरी के लोग यहां ज्यादा हैं। भाजपा ने दीपक पटेल को प्रत्याशी बनाया है। बसपा ने जितेंद्र सिंह को अपना प्रत्याशी बनाया है। यहां के बारे में कहा जाता है कि फूलपुर में एससी-ओबीसी वोट बैंक जिसके फेवर में होता है, यहां जीत उसी की होती है। ओबीसी वोटर्स में सबसे ज्यादा यादव और दूसरे नंबर पर पटेल-मौर्य हैं। सपा यादव-मुस्लिम वोट बैंक को अपना मानती है। वहीं, भाजपा पटेल वोटर्स को साधने की कोशिश करती है। यहीं से जीत-हार का अंतर बनता है। सपा की तरफ से अमरनाथ मौर्य का नाम पहले रेस में था। लेकिन, पार्टी ने मुस्तफा सिद्दीकी को टिकट दे दिया। भाजपा ने यहां पूर्व सांसद केशरी देवी पटेल के बेटे दीपक पटेल को टिकट दिया है तो केशव मौर्य को यहां का प्रभारी बनाया है। कांग्रेस का फूलपुर में अच्छा वोट बैंक है। यही वजह थी कि इस पर पार्टी अपना दावा पेश कर रही थी। सीट खाली होने के बाद से लगातार सम्मेलन किए गए। चुनाव प्रभारी नियुक्त किए गए। राहुल गांधी भी प्रयागराज आए। लेकिन, सीट सपा के खाते में चली गई। इसलिए कांग्रेसियों में नाराजगी है लेकिन अंत समय सब ठीक होने की उम्मीद है। फूलपुर की राजनीति को करीब से जानने वाले कहते हैं कि यहां लड़ाई भाजपा और सपा के बीच है। यहां यादव और मुस्लिम अगर सपा को वोट देते हैं, तब भी भाजपा का पलड़ा भारी दिख रहा है। वजह उनका प्रत्याशी है। यहां मुख्यमंत्री का 'बंटोगे तो कटोगे' वाला बयान चर्चा में है।
कानपुर की सीसामऊ सीट
मौजूदा सियासी समीकरण के मुताबिक, कानपुर की सीसामऊ में संवेदना और जातीय समीकरण के बीच मुकाबला दिख रहा है। यहां संवेदनाओं के सहारे नसीम सोलंकी मजबूत दिख रही हैं। इस मुस्लिम बहुल सीट पर उनके आंसू वोटर को कनेक्ट कर रहे हैं। हालांकि, भाजपा ने अगर अपना भितरघात रोक लिया। तो जातीय समीकरण पार्टी के पक्ष में माहौल बना सकते हैं। दरअसल, भाजपा में टिकट के लिए कई दावेदार थे। इसके चलते भाजपा ने सबसे इस सीट पर प्रत्याशी के ऐलान के लिए सबसे ज्यादा टाइम लिया। जबकि सीसामऊ में सपा-कांग्रेस गठबंधन मजबूती से एकजुट है। नसीम सोलंकी को टिकट दिए जाने पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं दर्ज कराई। दोनों ही पार्टी नसीम के लिए कैंपेनिंग कर रहे हैं। इस सीट पर 22 साल से सोलंकी परिवार का कब्जा है। नसीम सोलंकी खुद को हिम्मती बताते हुए सहानुभूति बटोर रही हैं। वह लोगों को यही मैसेज दे रही हैं कि यह चुनाव आखिरी सीढ़ी है। आप मेरा परिवार हैं। इसके उलट भाजपा में कुछ भितरघात दिख रहा है। पूर्व विधायक राकेश सोनकर ने दावेदारी पेश की और नामांकन पत्र भी खरीदा। वह सीएम योगी से भी मिले। लेकिन भाजपा ने सुरेश अवस्थी को टिकट दिया। ऐसे में भाजपा के अंदर मनमुटाव यानी भितरघात की संभावना दिखाई दे रही है। हालांकि अंत समय यहां भी सबके मान जाने की ही बात कही जा रही है। सीसामऊ को करीब से जानने वाले राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि राकेश सोनकर को टिकट न देने से दलितों में नाराजगी हो सकती है। लेकिन यहां आखिर में चुनाव हिंदू- मुस्लिम ही हो जाता है। ऐसे में हिन्दू मुस्लिम इलाकों में वोटिंग प्रतिशत भी अहम है।
मुरादाबाद की कुंदरकी सीट
कुंदरकी में भाजपा ने रामवीर सिंह को प्रत्याशी बनाया है, जबकि सपा ने तीन बार के विधायक रह चुके हाजी रिजवान को। लेकिन, यहां बसपा और एआईएमआईएम प्रत्याशी सपा का समीकरण बिगाड़ते दिख रहे हैं। कुछ हो टक्कर सपा-भाजपा में है। लोगों का कहना है कि यहां लड़ाई रिजवान और रामवीर की नहीं, बल्कि योगी और अखिलेश की है। लोगों का मानना है कि कुंदरकी सीट पर 60% मुस्लिम और 40% हिंदू वोटर हैं। रामवीर जब चुनाव हारे, तब सत्ता सपा-बसपा की थी। पहला मौका है, जब भाजपा सरकार के रहते, वो चुनावी मैदान में हैं। यहां असदुद्दीन ओवैसी और चंद्रशेखर की पार्टी भी मजबूती से मैदान में है। ओवैसी का इस बेल्ट में ठीक-ठाक असर है। 2022 में उनके कैंडिडेट को 14 हजार से अधिक वोट मिले थे। नगर पंचायत का चुनाव भी ओवैसी की पार्टी ने जीता था। ऐसे में ये दोनों नेता इस सीट के नतीजों में उलट-फेर कर सकते हैं। ओवैसी ने यहां तुर्क प्रत्याशी हाफिज मोहम्मद वारिस को मैदान में उतारा है। बसपा से भी तुर्क प्रत्याशी रफतउल्ला उर्फ नेता छिद्दा मैदान में हैं। चंद्रशेखर ने भी मुस्लिम प्रत्याशी हाजी चांद बाबू को मैदान में उतारा है। 80 हजार तुर्क वोट वाली सीट पर तुर्कों का बंटवारा निर्णायक हो सकता है।
मुजफ्फरनगर की मीरापुर सीट
मीरापुर में भाजपा और सपा दोनों से महिला कैंडिडेट चुनावी मैदान में हैं। रालोद ने मिथिलेश पाल तथा सपा ने पूर्व सांसद कादिर राणा के परिवार से सुम्बुल राणा को टिकट दिया है। यहां बसपा एआईएमआईएम के अलावा चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी भी चुनावी मैदान में है। इन तीनों ने मुस्लिम कैंडिडेट उतारकर सपा का गणित बिगाड़ा है। लोगों का कहना है कि आज के माहौल के हिसाब से मिथलेश पाल मजबूत दिख रही हैं। कहा यहां जिसकी सरकार होती है, उपचुनाव वही जीतता है। जयंत चौधरी खुद इस सीट की मॉनिटरिंग कर रहे हैं। मीरापुर में मिथलेश पाल एक्टिव लीडर हैं। 2009 के बाद वह 2012 में भी चुनावी मैदान में उतरीं और दूसरे नंबर पर रहीं थी। बसपा ने 2012 में मुस्लिम कैंडिडेट उतार चुनाव जीता। बसपा का कोर वोटर अभी भी उसके साथ दिखाई दे रहा है। पॉलिटिकल एक्सपर्ट का कहना है कि चुनाव काफी दिलचस्प होगा। कहा चुनाव की शुरुआत भले कई मुद्दों से हुई है लेकिन, अंत सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से ही होगा। ध्रुवीकरण हुआ तो रालोद को लाभ मिलेगा। क्योंकि प्रमुख राजनीतिक दलों से केवल एक हिंदू प्रत्याशी मैदान में है।
अंबेडकरनगर की कटेहरी सीट
कटेहरी में भाजपा ने बड़ा दांव खेलते हुए धर्मराज निषाद को टिकट दिया, जबकि सपा ने सांसद लालजी वर्मा की पत्नी शोभावती वर्मा को चुनावी मैदान में उतारा है। 2022 व 2017 का विधानसभा चुनाव ओबीसी बनाम ब्राह्मण हो गया था। अबकी बार ओबीसी बनाम ओबीसी है। ऐसे में स्थिति बदली हुई है। भाजपा ने खुद के सिंबल पर धर्मराज निषाद को टिकट दिया है। लोग मानते हैं, जो प्रत्याशी को नहीं पसंद कर रहे, वह योगी-मोदी के नाम पर वोट देंगे। सपा ने सांसद लालजी वर्मा की पत्नी को टिकट दिया। ऐसे में उनके ऊपर परिवारवाद का आरोप लग रहा है।यहां पीडीए फॉर्मूला भी ज्यादा प्रभावी नहीं दिख रहा है। बसपा ने यहां अमित वर्मा को प्रत्याशी बनाया है। ऐसे में वर्मा वोट सपा और बसपा में बंट सकता है। इसका फायदा भाजपा को हो सकता है। पिछले दो चुनाव में ब्राह्मण-ठाकुर के बीच वोट बंट गया था। अंबेडकरनगर के राजनीतिक जानकार कहते हैं कि अगर सवर्ण जातियां एकजुट होकर किसी पाले में जाती हैं, तो इस चुनाव में बहुत महत्वपूर्ण फैक्टर होगा। बाकी सपा में जो नाराजगी टिकट घोषित होने के बाद थी, उसे काफी हद तक मैनेज कर लिया गया है।
मिर्जापुर की मझवां सीट
मझवां में भाजपा और सपा दोनों ने महिला कैंडिडेट उतारे हैं। सुचिस्मिता मौर्य पूर्व विधायक रामचंद्र मौर्या की बहू हैं, जबकि डॉ. ज्योति बिंद पूर्व विधायक डॉ. रमेश बिंद की बेटी हैं। यहां हवा भाजपा के पक्ष में लग रही है लेकिन संजय निषाद पर टिकट के लिए पैसे लेने की कंट्रोवर्सी भाजपा को नुकसान पहुंचा सकती है। सपा इसे मुद्दा बनाती है तो लाभ हो सकता है। सुचिस्मिता मौर्य 2017 में मझवां से भाजपा के टिकट पर चुनाव जीती थीं। कालीन के कारोबार से जुड़ी सुचिस्मिता मौर्य टिकट कटने के बाद भी लगातार भाजपा नेता के रूप में एक्टिव रहीं। बसपा ने ब्राह्मण चेहरे दीपक तिवारी को उतारा है। वह पार्टी के पारंपरिक वोटों को मजबूत करने में जुटे हैं। सवर्ण वोटर पर अभी इस बात का ज्यादा प्रभाव नहीं दिख रहा है। मझवां की राजनीति को करीब से जानने वाले कहते हैं कि अभी चुनाव की हवा भाजपा की तरफ दिखाई दे रही है। लड़ाई सिर्फ भाजपा-सपा के बीच है। बसपा के ब्राह्मण प्रत्याशी की चर्चा नहीं है। लेकिन मायावती का कोर वोटर, उन्हीं को वोट करेगा।
मैनपुरी की करहल सीट
मैनपुरी की करहल सीट को सपा अपना मजबूत गढ़ मानती है। पहले इस सीट पर एकतरफा चुनाव दिखाई दे रहा था, लेकिन भाजपा ने यहां 'यादव कार्ड' खेलकर खुद को मजबूत मुकाबले में खड़ा कर दिया है। भाजपा प्रत्याशी अनुजेश यादव सपा सांसद धर्मेंद्र यादव के बहनोई हैं। जिससे करहल में अब सपा बनाम भाजपा नहीं, बल्कि यादव बनाम यादव की लड़ाई होगी। लेकिन, वोटर्स का इमोशनल कनेक्शन अभी भी सपा के साथ है। भाजपा ने यहां पूरी ताकत झोंक रखी है। अखिलेश यादव ने खुद कमान संभाल रखी है। भतीजे तेज प्रताप यादव के नामांकन के दौरान वह मौजूद रहे। इसके बाद चुनावी जनसभा करने पहुंचे। मैनपुरी सांसद डिंपल यादव भी तेज प्रताप यादव के लिए लगातार कैंपेनिंग कर रही हैं। साफ मैसेज दिया जा रहा है- हमारी सीट थी, हमारा परिवार है, और हमें ही जीतना है। यह सीट मुलायम सिंह यादव की कर्मभूमि रही है। भाजपा ने 2002 का फॉर्मूला चला है। अगर यह हिट हुआ तो रिजल्ट बदल सकते हैं। दरअसल, 22 साल पहले विधानसभा चुनाव भी 'यादव बनाम यादव' में हुआ। तब सपा के टिकट पर अनिल यादव और भाजपा के टिकट पर सोबरन सिंह यादव चुनावी मैदान में थे। सोबरन सिंह यादव सपा छोड़कर भाजपा में आए थे। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भाजपा ने यादव बेल्ट में अनुजेश को टिकट देकर मास्टर स्ट्रोक खेला है। पहले ये माना जा रहा था कि सपा एक तरफा लीड ले लेगी, लेकिन अब मुकाबला रोचक होगा।
अलीगढ़ की खैर सीट
जाट लैंड कही जाने वाली खैर सीट पर 6 प्रत्याशी चुनावी मैदान में हैं। यहां भाजपा ने पूर्व सांसद राजवीर सिंह दिलेर के बेटे सुरेंद्र दिलेर को प्रत्याशी बनाया है। सपा ने बसपा और कांग्रेस में रह चुकीं डॉक्टर चारू कैन को टिकट दिया है। बसपा से पहल सिंह और आजाद समाज पार्टी से नितिन कुमार चोटेल मैदान में हैं। खैर विधानसभा सीट से सपा कभी नहीं जीती है, जबकि बसपा ने एक बार ही जीत दर्ज की है। खैर में जनरल कैटेगरी में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य समाज के वोट 29% हैं। जिन्हें भाजपा अपना वोटर मानती है। खैर में दलित वोटर 27% है। बसपा इन्हें अपना कोर वोटर मानती है। दलित वोटर में चंद्रशेखर का भी प्रभाव है। ऐसे में इसका सीधा नुकसान सपा को पहुंच सकता है। खैर में ओबीसी वर्ग में जाट, लोधी राजपूत और यादव आते हैं, जो 36% हैं, जबकि 27% एससी में जाटव और वाल्मीकि हैं। ओबीसी वोट- भाजपा-बसपा और आजाद समाज पार्टी में बंट रहा है। यही सपा के लिए चुनौती है। राजनीतिक जानकार कहते हैं कि अभी खैर में भाजपा मजबूत स्थिति में दिखाई दे रही है। उपचुनाव सरकार का चुनाव होता है। इस बार तो उसे रालोद का भी साथ मिल रहा है। यह भाजपा के लिए प्लस पॉइंट है।
गाजियाबाद की सदर सीट
गाजियाबाद सदर सीट पर भाजपा ने संजीव शर्मा को कैंडिडेट बनाया है। सपा की ओर से सिंहराज चुनावी मैदान में है। बसपा-आजाद समाज पार्टी और एआईएमआईएम ने भी अपने प्रत्याशी उतारे हैं। संजीव शर्मा ब्राह्मण हैं, संगठन में रहते हुए उन्होंने कई चुनाव लड़ाए हैं। इसलिए अच्छा अनुभव है। संगठन अध्यक्ष होने की वजह से संजीव शर्मा, सांसद और सभी विधायकों के खास हैं। भाजपा यहां सिर्फ योगी-मोदी के फेस पर इलेक्शन लड़ रही है। इस सीट पर प्रमुख रूप से दो दलित प्रत्याशी सपा और एआईएमआईएम के हैं। भाजपा मान रही है कि सामान्य वोटर तो मिलेगा ही। इसके अलावा दलित वोटर आपस में बंट सकते हैं। इसका फायदा भाजपा को हो सकता है। सदर सीट पर 2022 चुनाव में सपा को दलित-मुस्लिम वोटर का पूरा समर्थन मिला। पार्टी दूसरे नंबर पर रही। इस बार अगर बसपा जनरल वोट काटती है, तब सपा को फायदा पहुंच सकता है। लोगों का कहना है कि गाजियाबाद शहर विधानसभा सीट पर 14 प्रत्याशी मैदान में हैं। जो वर्तमान के हालात हैं, उसे देखकर ऐसा लगता है कि भाजपा के संजीव शर्मा, बसपा के पीएन गर्ग और सपा के सिंह राज जाटव के बीच मुकाबला होगा। हालांकि, आजाद समाज पार्टी के प्रत्याशी सत्यपाल चौधरी इस मुकाबले को चतुष्कोणीय बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
"लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी और योगी आदित्यनाथ दोनों यूपी में खोई जमीन वापस पाने को बेताब है ताकि संकेत दिया जा सके कि हिंदी पट्टी में लोकसभा में मिली हार, महज एक अपवाद थी। इसी से यूपी की नौ विधानसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव में बीजेपी की जीत-हार, योगी के भविष्य के लिहाज से भी काफी अहम माने जा रहे हैं। हालांकि उप चुनाव में सपा का भी काफी कुछ दांव पर लगा है।"
लोकसभा चुनाव के नतीजों से उत्तर प्रदेश की जो तस्वीर निकलकर सामने आई थी उसने सभी को चौंका दिया था। बीजेपी को इस लोकसभा चुनाव 33 सीटें मिलने के बावजूद झटका लगा था क्योंकि समाजवादी पार्टी को 37 सीटों के साथ काफी बढ़त मिली थी। अब उत्तर प्रदेश की जिन 9 सीटों पर उपचुनाव होना है, ये सीटें पूरे राज्य में फैली हुई हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में तीन, पश्चिमी भाग में चार और मध्य तथा ब्रज क्षेत्र में एक-एक सीट हैं। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित एक सीट है और कुछ निर्वाचन क्षेत्र हैं जहां मुस्लिम वोट भी निर्णायक हो सकते हैं। ऐसे में अगर भाजपा उपचुनाव में हार जाती है तो योगी के भविष्य पर बड़ा सवालिया निशान लगना तय है। हालांकि महज यूपी ही नहीं पार्टी ने हरियाणा और राजस्थान में भी अपनी जमीन खो दी है लेकिन हरियाणा विधानसभा चुनावों में भाजपा की वापसी ने यूपी में सीएम योगी आदित्यनाथ पर और दबाव बढ़ा दिया है। अगर नतीजे भाजपा के लिए बुरे रहे तो पार्टी में दरार और बढ़ सकती है। वहीं दिल्ली भी इस पर गहरी नजर रखे हुए हैं।
दूसरी ओर सपा को यह साबित करना होगा कि लोकसभा चुनावों में उसका प्रदर्शन कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी और 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले राज्य में धीरे-धीरे राजनीतिक बदलाव हो रहा है। उसने सहयोगी कांग्रेस को दरकिनार कर दिया है और सभी नौ उपचुनाव लड़ने का जिम्मा खुद उठाया है। और सीएम योगी के विवादित नारे ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जिसे आरएसएस और पीएम मोदी का समर्थन प्राप्त है, पर सपा ने जवाब में नारा दिया है, ‘जुड़ेंगे तो जीतेंगे’। ऐसे में मुकाबला कड़ा होगा। बहरहाल 20 नवंबर को वोटिंग है। इन सीटों पर चुनावी तस्वीर हर दिन बदल रही है। भाजपा-सपा दोनों ने पूरी ताकत झोंक रखी है। उपचुनाव को 2027 विधानसभा चुनाव का टेस्ट माना जा रहा है। लोकसभा के रिजल्ट के बाद सपा अपना मोमेंटम बनाए रखने की पूरी कोशिश कर रही है। यही नहीं, बसपा पहली बार उपचुनाव लड़ रही है तो चुनावी मैदान में असदुद्दीन ओवैसी और चंद्रशेखर की पार्टी के प्रत्याशी भी हैं। कुछ सीटें ऐसी हैं, जहां बसपा-आजाद सामाज पार्टी और एआईएमआईएम भाजपा-सपा का गणित बिगाड़ते हुए दिख रही हैं तो रालोद आदि कई छोटी पार्टियां भाजपा को तथा कांग्रेस व कम्युनिस्ट पार्टी सपा को मजबूती प्रदान कर रही है। फिलहाल मीडिया रिपोर्ट्स में हवा का रुख मिला जुला नजर आ रहा है।
प्रयागराज की फूलपुर सीट
फूलपुर सीट पर जातीय फैक्टर हावी है। सपा ने लोकसभा चुनाव में अमरनाथ मौर्य को उतारा था। तब उसे फूलपुर विधानसभा में लीड मिली थी लेकिन, अब मुस्लिम कैंडिडेट उतारने के बाद स्थिति थोड़ी बदल गई है। पटेल-मौर्य बिरादरी के लोग यहां ज्यादा हैं। भाजपा ने दीपक पटेल को प्रत्याशी बनाया है। बसपा ने जितेंद्र सिंह को अपना प्रत्याशी बनाया है। यहां के बारे में कहा जाता है कि फूलपुर में एससी-ओबीसी वोट बैंक जिसके फेवर में होता है, यहां जीत उसी की होती है। ओबीसी वोटर्स में सबसे ज्यादा यादव और दूसरे नंबर पर पटेल-मौर्य हैं। सपा यादव-मुस्लिम वोट बैंक को अपना मानती है। वहीं, भाजपा पटेल वोटर्स को साधने की कोशिश करती है। यहीं से जीत-हार का अंतर बनता है। सपा की तरफ से अमरनाथ मौर्य का नाम पहले रेस में था। लेकिन, पार्टी ने मुस्तफा सिद्दीकी को टिकट दे दिया। भाजपा ने यहां पूर्व सांसद केशरी देवी पटेल के बेटे दीपक पटेल को टिकट दिया है तो केशव मौर्य को यहां का प्रभारी बनाया है। कांग्रेस का फूलपुर में अच्छा वोट बैंक है। यही वजह थी कि इस पर पार्टी अपना दावा पेश कर रही थी। सीट खाली होने के बाद से लगातार सम्मेलन किए गए। चुनाव प्रभारी नियुक्त किए गए। राहुल गांधी भी प्रयागराज आए। लेकिन, सीट सपा के खाते में चली गई। इसलिए कांग्रेसियों में नाराजगी है लेकिन अंत समय सब ठीक होने की उम्मीद है। फूलपुर की राजनीति को करीब से जानने वाले कहते हैं कि यहां लड़ाई भाजपा और सपा के बीच है। यहां यादव और मुस्लिम अगर सपा को वोट देते हैं, तब भी भाजपा का पलड़ा भारी दिख रहा है। वजह उनका प्रत्याशी है। यहां मुख्यमंत्री का 'बंटोगे तो कटोगे' वाला बयान चर्चा में है।
कानपुर की सीसामऊ सीट
मौजूदा सियासी समीकरण के मुताबिक, कानपुर की सीसामऊ में संवेदना और जातीय समीकरण के बीच मुकाबला दिख रहा है। यहां संवेदनाओं के सहारे नसीम सोलंकी मजबूत दिख रही हैं। इस मुस्लिम बहुल सीट पर उनके आंसू वोटर को कनेक्ट कर रहे हैं। हालांकि, भाजपा ने अगर अपना भितरघात रोक लिया। तो जातीय समीकरण पार्टी के पक्ष में माहौल बना सकते हैं। दरअसल, भाजपा में टिकट के लिए कई दावेदार थे। इसके चलते भाजपा ने सबसे इस सीट पर प्रत्याशी के ऐलान के लिए सबसे ज्यादा टाइम लिया। जबकि सीसामऊ में सपा-कांग्रेस गठबंधन मजबूती से एकजुट है। नसीम सोलंकी को टिकट दिए जाने पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं दर्ज कराई। दोनों ही पार्टी नसीम के लिए कैंपेनिंग कर रहे हैं। इस सीट पर 22 साल से सोलंकी परिवार का कब्जा है। नसीम सोलंकी खुद को हिम्मती बताते हुए सहानुभूति बटोर रही हैं। वह लोगों को यही मैसेज दे रही हैं कि यह चुनाव आखिरी सीढ़ी है। आप मेरा परिवार हैं। इसके उलट भाजपा में कुछ भितरघात दिख रहा है। पूर्व विधायक राकेश सोनकर ने दावेदारी पेश की और नामांकन पत्र भी खरीदा। वह सीएम योगी से भी मिले। लेकिन भाजपा ने सुरेश अवस्थी को टिकट दिया। ऐसे में भाजपा के अंदर मनमुटाव यानी भितरघात की संभावना दिखाई दे रही है। हालांकि अंत समय यहां भी सबके मान जाने की ही बात कही जा रही है। सीसामऊ को करीब से जानने वाले राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि राकेश सोनकर को टिकट न देने से दलितों में नाराजगी हो सकती है। लेकिन यहां आखिर में चुनाव हिंदू- मुस्लिम ही हो जाता है। ऐसे में हिन्दू मुस्लिम इलाकों में वोटिंग प्रतिशत भी अहम है।
मुरादाबाद की कुंदरकी सीट
कुंदरकी में भाजपा ने रामवीर सिंह को प्रत्याशी बनाया है, जबकि सपा ने तीन बार के विधायक रह चुके हाजी रिजवान को। लेकिन, यहां बसपा और एआईएमआईएम प्रत्याशी सपा का समीकरण बिगाड़ते दिख रहे हैं। कुछ हो टक्कर सपा-भाजपा में है। लोगों का कहना है कि यहां लड़ाई रिजवान और रामवीर की नहीं, बल्कि योगी और अखिलेश की है। लोगों का मानना है कि कुंदरकी सीट पर 60% मुस्लिम और 40% हिंदू वोटर हैं। रामवीर जब चुनाव हारे, तब सत्ता सपा-बसपा की थी। पहला मौका है, जब भाजपा सरकार के रहते, वो चुनावी मैदान में हैं। यहां असदुद्दीन ओवैसी और चंद्रशेखर की पार्टी भी मजबूती से मैदान में है। ओवैसी का इस बेल्ट में ठीक-ठाक असर है। 2022 में उनके कैंडिडेट को 14 हजार से अधिक वोट मिले थे। नगर पंचायत का चुनाव भी ओवैसी की पार्टी ने जीता था। ऐसे में ये दोनों नेता इस सीट के नतीजों में उलट-फेर कर सकते हैं। ओवैसी ने यहां तुर्क प्रत्याशी हाफिज मोहम्मद वारिस को मैदान में उतारा है। बसपा से भी तुर्क प्रत्याशी रफतउल्ला उर्फ नेता छिद्दा मैदान में हैं। चंद्रशेखर ने भी मुस्लिम प्रत्याशी हाजी चांद बाबू को मैदान में उतारा है। 80 हजार तुर्क वोट वाली सीट पर तुर्कों का बंटवारा निर्णायक हो सकता है।
मुजफ्फरनगर की मीरापुर सीट
मीरापुर में भाजपा और सपा दोनों से महिला कैंडिडेट चुनावी मैदान में हैं। रालोद ने मिथिलेश पाल तथा सपा ने पूर्व सांसद कादिर राणा के परिवार से सुम्बुल राणा को टिकट दिया है। यहां बसपा एआईएमआईएम के अलावा चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी भी चुनावी मैदान में है। इन तीनों ने मुस्लिम कैंडिडेट उतारकर सपा का गणित बिगाड़ा है। लोगों का कहना है कि आज के माहौल के हिसाब से मिथलेश पाल मजबूत दिख रही हैं। कहा यहां जिसकी सरकार होती है, उपचुनाव वही जीतता है। जयंत चौधरी खुद इस सीट की मॉनिटरिंग कर रहे हैं। मीरापुर में मिथलेश पाल एक्टिव लीडर हैं। 2009 के बाद वह 2012 में भी चुनावी मैदान में उतरीं और दूसरे नंबर पर रहीं थी। बसपा ने 2012 में मुस्लिम कैंडिडेट उतार चुनाव जीता। बसपा का कोर वोटर अभी भी उसके साथ दिखाई दे रहा है। पॉलिटिकल एक्सपर्ट का कहना है कि चुनाव काफी दिलचस्प होगा। कहा चुनाव की शुरुआत भले कई मुद्दों से हुई है लेकिन, अंत सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से ही होगा। ध्रुवीकरण हुआ तो रालोद को लाभ मिलेगा। क्योंकि प्रमुख राजनीतिक दलों से केवल एक हिंदू प्रत्याशी मैदान में है।
अंबेडकरनगर की कटेहरी सीट
कटेहरी में भाजपा ने बड़ा दांव खेलते हुए धर्मराज निषाद को टिकट दिया, जबकि सपा ने सांसद लालजी वर्मा की पत्नी शोभावती वर्मा को चुनावी मैदान में उतारा है। 2022 व 2017 का विधानसभा चुनाव ओबीसी बनाम ब्राह्मण हो गया था। अबकी बार ओबीसी बनाम ओबीसी है। ऐसे में स्थिति बदली हुई है। भाजपा ने खुद के सिंबल पर धर्मराज निषाद को टिकट दिया है। लोग मानते हैं, जो प्रत्याशी को नहीं पसंद कर रहे, वह योगी-मोदी के नाम पर वोट देंगे। सपा ने सांसद लालजी वर्मा की पत्नी को टिकट दिया। ऐसे में उनके ऊपर परिवारवाद का आरोप लग रहा है।यहां पीडीए फॉर्मूला भी ज्यादा प्रभावी नहीं दिख रहा है। बसपा ने यहां अमित वर्मा को प्रत्याशी बनाया है। ऐसे में वर्मा वोट सपा और बसपा में बंट सकता है। इसका फायदा भाजपा को हो सकता है। पिछले दो चुनाव में ब्राह्मण-ठाकुर के बीच वोट बंट गया था। अंबेडकरनगर के राजनीतिक जानकार कहते हैं कि अगर सवर्ण जातियां एकजुट होकर किसी पाले में जाती हैं, तो इस चुनाव में बहुत महत्वपूर्ण फैक्टर होगा। बाकी सपा में जो नाराजगी टिकट घोषित होने के बाद थी, उसे काफी हद तक मैनेज कर लिया गया है।
मिर्जापुर की मझवां सीट
मझवां में भाजपा और सपा दोनों ने महिला कैंडिडेट उतारे हैं। सुचिस्मिता मौर्य पूर्व विधायक रामचंद्र मौर्या की बहू हैं, जबकि डॉ. ज्योति बिंद पूर्व विधायक डॉ. रमेश बिंद की बेटी हैं। यहां हवा भाजपा के पक्ष में लग रही है लेकिन संजय निषाद पर टिकट के लिए पैसे लेने की कंट्रोवर्सी भाजपा को नुकसान पहुंचा सकती है। सपा इसे मुद्दा बनाती है तो लाभ हो सकता है। सुचिस्मिता मौर्य 2017 में मझवां से भाजपा के टिकट पर चुनाव जीती थीं। कालीन के कारोबार से जुड़ी सुचिस्मिता मौर्य टिकट कटने के बाद भी लगातार भाजपा नेता के रूप में एक्टिव रहीं। बसपा ने ब्राह्मण चेहरे दीपक तिवारी को उतारा है। वह पार्टी के पारंपरिक वोटों को मजबूत करने में जुटे हैं। सवर्ण वोटर पर अभी इस बात का ज्यादा प्रभाव नहीं दिख रहा है। मझवां की राजनीति को करीब से जानने वाले कहते हैं कि अभी चुनाव की हवा भाजपा की तरफ दिखाई दे रही है। लड़ाई सिर्फ भाजपा-सपा के बीच है। बसपा के ब्राह्मण प्रत्याशी की चर्चा नहीं है। लेकिन मायावती का कोर वोटर, उन्हीं को वोट करेगा।
मैनपुरी की करहल सीट
मैनपुरी की करहल सीट को सपा अपना मजबूत गढ़ मानती है। पहले इस सीट पर एकतरफा चुनाव दिखाई दे रहा था, लेकिन भाजपा ने यहां 'यादव कार्ड' खेलकर खुद को मजबूत मुकाबले में खड़ा कर दिया है। भाजपा प्रत्याशी अनुजेश यादव सपा सांसद धर्मेंद्र यादव के बहनोई हैं। जिससे करहल में अब सपा बनाम भाजपा नहीं, बल्कि यादव बनाम यादव की लड़ाई होगी। लेकिन, वोटर्स का इमोशनल कनेक्शन अभी भी सपा के साथ है। भाजपा ने यहां पूरी ताकत झोंक रखी है। अखिलेश यादव ने खुद कमान संभाल रखी है। भतीजे तेज प्रताप यादव के नामांकन के दौरान वह मौजूद रहे। इसके बाद चुनावी जनसभा करने पहुंचे। मैनपुरी सांसद डिंपल यादव भी तेज प्रताप यादव के लिए लगातार कैंपेनिंग कर रही हैं। साफ मैसेज दिया जा रहा है- हमारी सीट थी, हमारा परिवार है, और हमें ही जीतना है। यह सीट मुलायम सिंह यादव की कर्मभूमि रही है। भाजपा ने 2002 का फॉर्मूला चला है। अगर यह हिट हुआ तो रिजल्ट बदल सकते हैं। दरअसल, 22 साल पहले विधानसभा चुनाव भी 'यादव बनाम यादव' में हुआ। तब सपा के टिकट पर अनिल यादव और भाजपा के टिकट पर सोबरन सिंह यादव चुनावी मैदान में थे। सोबरन सिंह यादव सपा छोड़कर भाजपा में आए थे। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भाजपा ने यादव बेल्ट में अनुजेश को टिकट देकर मास्टर स्ट्रोक खेला है। पहले ये माना जा रहा था कि सपा एक तरफा लीड ले लेगी, लेकिन अब मुकाबला रोचक होगा।
अलीगढ़ की खैर सीट
जाट लैंड कही जाने वाली खैर सीट पर 6 प्रत्याशी चुनावी मैदान में हैं। यहां भाजपा ने पूर्व सांसद राजवीर सिंह दिलेर के बेटे सुरेंद्र दिलेर को प्रत्याशी बनाया है। सपा ने बसपा और कांग्रेस में रह चुकीं डॉक्टर चारू कैन को टिकट दिया है। बसपा से पहल सिंह और आजाद समाज पार्टी से नितिन कुमार चोटेल मैदान में हैं। खैर विधानसभा सीट से सपा कभी नहीं जीती है, जबकि बसपा ने एक बार ही जीत दर्ज की है। खैर में जनरल कैटेगरी में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य समाज के वोट 29% हैं। जिन्हें भाजपा अपना वोटर मानती है। खैर में दलित वोटर 27% है। बसपा इन्हें अपना कोर वोटर मानती है। दलित वोटर में चंद्रशेखर का भी प्रभाव है। ऐसे में इसका सीधा नुकसान सपा को पहुंच सकता है। खैर में ओबीसी वर्ग में जाट, लोधी राजपूत और यादव आते हैं, जो 36% हैं, जबकि 27% एससी में जाटव और वाल्मीकि हैं। ओबीसी वोट- भाजपा-बसपा और आजाद समाज पार्टी में बंट रहा है। यही सपा के लिए चुनौती है। राजनीतिक जानकार कहते हैं कि अभी खैर में भाजपा मजबूत स्थिति में दिखाई दे रही है। उपचुनाव सरकार का चुनाव होता है। इस बार तो उसे रालोद का भी साथ मिल रहा है। यह भाजपा के लिए प्लस पॉइंट है।
गाजियाबाद की सदर सीट
गाजियाबाद सदर सीट पर भाजपा ने संजीव शर्मा को कैंडिडेट बनाया है। सपा की ओर से सिंहराज चुनावी मैदान में है। बसपा-आजाद समाज पार्टी और एआईएमआईएम ने भी अपने प्रत्याशी उतारे हैं। संजीव शर्मा ब्राह्मण हैं, संगठन में रहते हुए उन्होंने कई चुनाव लड़ाए हैं। इसलिए अच्छा अनुभव है। संगठन अध्यक्ष होने की वजह से संजीव शर्मा, सांसद और सभी विधायकों के खास हैं। भाजपा यहां सिर्फ योगी-मोदी के फेस पर इलेक्शन लड़ रही है। इस सीट पर प्रमुख रूप से दो दलित प्रत्याशी सपा और एआईएमआईएम के हैं। भाजपा मान रही है कि सामान्य वोटर तो मिलेगा ही। इसके अलावा दलित वोटर आपस में बंट सकते हैं। इसका फायदा भाजपा को हो सकता है। सदर सीट पर 2022 चुनाव में सपा को दलित-मुस्लिम वोटर का पूरा समर्थन मिला। पार्टी दूसरे नंबर पर रही। इस बार अगर बसपा जनरल वोट काटती है, तब सपा को फायदा पहुंच सकता है। लोगों का कहना है कि गाजियाबाद शहर विधानसभा सीट पर 14 प्रत्याशी मैदान में हैं। जो वर्तमान के हालात हैं, उसे देखकर ऐसा लगता है कि भाजपा के संजीव शर्मा, बसपा के पीएन गर्ग और सपा के सिंह राज जाटव के बीच मुकाबला होगा। हालांकि, आजाद समाज पार्टी के प्रत्याशी सत्यपाल चौधरी इस मुकाबले को चतुष्कोणीय बनाने का प्रयास कर रहे हैं।