आरएसएस-भाजपा द्वारा पोषित और प्रायोजित उपद्रवी तत्वों ने जिन्नाह की तस्वीर को मुद्दा बना कर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (अमुवि) पर बीते दिनों जो हमले किए, उनके बाद दो-क़ौम सिद्धांत या दो-राष्ट्र सिद्धांत (इस के अनुसार हिन्दू धर्म और इस्लाम के अनुयायी दो अलग राष्ट्र या क़ौमें हैं) एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। विश्वविद्यालय छात्र संघ कार्यालय में मुहम्मद अली जिन्नाह की यह फोटो बीते 80 सालों से लगी है, जिस पर आपत्ति कर हिंदुत्व ब्रिगेड अपनी कुटिल परंपरानुसार मुसलमानों की देशभक्ति पर सवाल खड़े कर रही है।
हैरान करने वाली बात यह है कि यह काम बीएस मुंजे, भाई परमानंद, विनायक दामोदर सावरकर, एमएस गोलवलकर और अन्य हिंदू राष्ट्रवादियों की परंपरा के वारिस कर रहे हैं, जिन्होंने न केवल दो क़ौमी सिद्धांत की अवधारणा प्रस्तुत की बल्कि उन्होंने आक्रामक रूप से मांग की कि मुसलमानों को भारत जो हमेशा से हिंदू राष्ट्र रहा है से निकाल दिया जाए। इस टोली का आज भी विश्वास है कि हिंदू व मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं। भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर जिन्नाह या मुस्लिम लीग का उद्भव होने से बहुत पहले आरएसएस के लोग, जो आज सत्तासीन हैं, सतत् यह मांग करते आए हैं कि मुसलमानों व ईसाइयों से नागरिक अधिकार छीन लिए जाने चाहिए।
दो क़ौमी सिद्धांत पर यह निबंध इस उद्देश्य से लिखा गया है कि इस सिद्धांत के जन्म, विकास, मौजूदा चलन और इस से जुड़े पूरे विमर्श को भली-भाँती समझा जा सके और किस तरह हिन्दुत्वादी शासक टोली इस कुत्सित सिद्धांत को देश बाँटने के लिए लागू कर रही है, उस साज़िश को जाना जा सके।
झूट बोलने और साज़िश रचने में माहिर आरएसएस
इस समय दुनिया का कोई भी फासीवादी संगठन दोग़ली बातें करने, उत्तेजना फैलाने और षड्यंत्र रचने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को मात नहीं दे सकता। सन् 2002 में गुजरात में किए गए मुसलमानों के जनसंहार पर टिप्पणी करते हुवे भारत के एक मशहूर अंगरेजी दैनिक ने आरएसएस के बारे में प्रख्यात लेखक जॉर्ज ऑरवेल द्वारा दिए गए शब्द 'दो मुंहा' को इस विघटनकारी संगठन के लिए कमतर बताया था, यानि आरएसएस दो मुंहा नहीं बल्कि इस से भी बढ़ कर है। जहां तक इस संगठन के षड्यंत्रकारी मानस का संबंध है, उसे सबसे पहले किसी और ने नहीं बल्कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भांप लिया था। उन्होंने देश के प्रथम गृह मंत्री सरदार पटेल का ध्यान इस ओर आकर्षित भी कराया,
"मुझे बताया गया है कि आरएसएस के लोग अशांति फैलाने के लिए कोई हरकत करने की योजना बना रहे हैं। उन्होंने अपने लोगों को मुसलमानों जैसा भेस बना कर तैयार किया है, जो हिंदुओं पर हमला करेंगे, जिससे हिंदू भड़क जाएं। इसी तरह उन्होंने कुछ हिंदुओं को तैयार किया है, जो मुसलमानों पर हमला कर के उन्हें भड़काएंगे। इस तरह हिंदू व मुसलमानों के बीच एक बड़ा झगड़ा पैदा जाएगा।"
पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्नाह के माध्यम से हिंदुत्ववादी उपद्रवी तत्वों द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पर हालिया हमलों में आरएसएस का यही दुष्चरित्र सामने आता है। यहां इस हमले का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत हैः 2 मई 2018 को अमुवि छात्र संघ द्वारा भारत के पूर्व उप-राष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी को छात्र संघ की आजीवन सदस्यता प्रदान करने के लिए समारोह आयोजित किया गया था। इस मौके पर पूर्व उप-राष्ट्रपति विद्यार्थियों को संबोधित भी करने वाले थे। देश के पूर्व उप-राष्ट्रपति के इस कार्यक्रम को प्रोटोकॉल के तहत इंटेलिजेंस एजेंसियों व स्थानीय प्रशासन ने हरी झंडी दे दी थी।
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अंसारी के मुताबिक उनके इस कार्यक्रम की जानकारी सबको थी और संबंधित अधिकारियों को आधिकारिक रूप से उनके कार्यक्रम के बारे में बता दिया गया था, ताकि समारोह के लिए सुरक्षा सहित अन्य व्यवसथाएं भी विधिवत की जाएं। इसके बावजूद "विश्वविद्यालय के उस गेस्ट हाउस के पास तक उपद्रवी तत्वों का पहुंच जाना, जहां मैं ठहरा हुआ था समझ से परे है।"
हिंदूवादी उग्र तत्व इस हमले को यह कह कर जायज ठहरा रहे हैं कि छात्र संघ कार्यालय में पाकिस्तान के संस्थापक जिन्नाह का फोटो क्यों लगा है। हालांकि जिन्नाह का फोटो वहां सन् 1938 से लगा है, जब उन्हें छात्र संघ की आजीवन सदस्यता प्रदान की गई थी। हिंदुत्ववादी ब्रिगेड को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस बात को 80 बरस होने आए और वे अब इस मुद्दे को उठा रहे हैं। ऐसे समय जबकि उत्तरप्रदेश में उनकी सरकार हिंदुओं का समर्थन खोती जा रही है, जिसके बल पर वे सत्ता में आए थे। जिन्नाह की तस्वीर को मुद्दा बनाने का एक तात्कालिक कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही कैराना संसदीय क्षेत्र में उपचुनाव (मई 28, 2018) का होना भी है जहाँ एक मुस्लमान महिला प्रत्याशी विपक्षी दलों की साझा उमीदवार हैं।
अंसारी ठीक ही कहते हैं कि अमुवि पर इस हमले का तयशुदा समय और "उसे उचित ठहराने का बहाना खोजना" गंभीर प्रश्न खड़े करता है। हथियारबंद हिंदू उग्र तत्व वहां से जिन्नाह का फोटो हटाने की मांग कर हंगामा खड़ा कर देते हैं, यह सोच कर कि देश की जनता को शायद पता न हो कि पाकिस्तान के संस्थापक जिन्नाह सन् 1942-43 में हिंदू महासभा के साथ मिल कर गठबंधन सरकार चला रहे थे। इसकी बात हम आगे करेंगे।
जिन्नाह के बारे में कुछ तथ्य, जिन्हें जानना जरूरी है
बहतर होगा कि मुस्लिम अलगाववाद का ध्वज वाहक बनने से पहले हम जिन्नाह के भूतकाल के बारे में भी कुछ तथ्य जान लें। कांग्रेस नेता के रूप में जिन्नाह एक प्रतिबद्ध सेक्युलरिस्ट थे और दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, एनी बेसेंट, एमके गांधी, नेहरू (मोतीलाल नेहरू व जवाहरलाल नेहरू), मौलाना आजाद, सरदार पटेल और उन्हीं की तरह के बड़े कांग्रेसी नेताओं के साथ जिन्नाह ने अंगरेज शासकों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई।
अंगरेज शासकों के विरुद्ध वे आतंकवादी कार्रवाइयों के समर्थक नहीं थे, लेकिन जब भगतसिंह जेल में थे और उन्हें फांसी की सजा सुनाने की न्यायिक प्रक्रिया उनकी अनुपस्थिति में शुरू कर दी गई तो तात्कालीन संसद, सेंट्रल असेंबली में 12 सितंबर 1929 को जिन्नाह ने इस सुनवाई के विरुद्ध एक प्रभावशाली वक्तव्य दिया। जिन्नाह ने कहाः
"जो व्यक्ति भूख हड़ताल करता है, उसकी आत्मा होती है। वह उसी आत्मा से प्रेरणा लेता है और वह अपने कर्तव्य के लिए न्याय में विश्वास रखता है। वह सामान्य अपराधी नहीं है, जो निर्ममता से किए गए हिंसक अपराध का जिम्मेदार हो... मैं भगतसिंह द्वारा की गई कार्रवाई का समर्थन नहीं कर रहा... मैं इसे स्वीकार करता हूं कि सही या गलत आज का युवक उद्वेलित है... चाहे आपने उन्हें हद से ज्यादा दुखी कर दिया हो या चाहे आप यह कहें कि उन्हें बहकाया जा रहा है, यह व्यवस्था है, यही शासक वर्ग की निंदनीय व्यवस्था, जिसका लोग प्रतिकार कर रहे हैं।"
इससे पहले सन् 1916 में वे बाल गंगाधर तिलक (हिंदुत्ववादियों को अति प्रिय) के खिलाफ चल रहे राजद्रोह के मुकदमे में तिलक की ओर से वकील थे। इसमें तिलक को मौत की सजा भी हो सकती थी, लेकिन जिन्नाह ने इस केस में अंगरेज शासन के खिलाफ ऐतिहासिक जीत हासिल की, जो विदेशी शासकों के लिए बेहद शर्मनाक था।
1935 के आसपास लाहौर में एक धर्मस्थल को ले कर सिखों व मुसलमानों के बीच एक गंभीर विवाद खड़ा हो गया। सिखों के मुताबिक यह शहीदी गुरुद्वारा था, जबकि मुसलमान उसे मस्जिद करार दे रहे थे। इस मामले में मुस्लिम पक्ष अपनी ओर से मुकदमा लड़ने के लिए जिन्नाह के पास पहुंचा, लेकिन जिन्नाह ने उनका आग्रह अस्वीकार कर दिया और उस मामले से दूरी बनाए रखी।
1920-21 में वे गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस से अलग हो गए, क्योंकि गांधी आमजन की राजनीति, खासतौर से धार्मिक नेतृत्वकर्ताओं को राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में शामिल करने के खिलाफ थे। कांग्रेस ने जिन्नाह को अलग-थलग करने की कोशिश की। उस कोशिश के खिलाफ खड़े होने के बजाय जिन्नाह ने मुस्लिम लीग का रुख कर लिया, उसी मुस्लिम लीग का, जिसे वे मुस्लिम समुदाय के धनाढ्य सामंतवादी और ऐश्वर्यशाली तबके का प्रतिनिधित्व करने वाली करार दे चुके थे। धार्मिक आस्था व निजी क्रियाकलापों के आधार पर उन्हें एक धार्मिक मुस्लिम की पंक्ति में नहीं रखा जा सकता। उन्हें सुअर का मांस पसंद था और उनकी शामें शराब के साथ गुजरती थीं। इत्तिफाक से वे उर्दू पढ़ना-लिखना भी नहीं जानते थे, इसके बजाय अंगरेजी व गुजराती में उन्हें महारत हासिल थी।
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जिन्नाह जब हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे और संयुक्त भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय भागीदारी निभा रहे थे तब हिंदुत्ववादियों ने उनका तिरस्कार किया। गांधी, मोतीलाल नेहरू, अबुल कलाम आजाद, हिंदुत्ववादियों के अगले निशानाथे।
दो-राष्ट्र सिद्धांत सिद्धांत को हिंदू राष्ट्रवादियों ने स्थापित किया, न कि जिन्नाह ने
मुसलमानों के एक वर्ग द्वारा दो-राष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किए जाने से बहुत पहले हिंदू राष्ट्रवादी इस सिद्धांत को स्थापित कर चुके थे। इसका समर्थन करने वाले मुस्लिम लीगी मुसलमान असल में तो इन हिंदू राष्ट्रवादियों के पदचिन्हों पर चल रहे थे। उन्होंने यह नजरिया हिंदुत्ववादी विचारकों से ही ग्रहण किया था।
सबसे पहले बंगाली उच्च-जाति हिन्दुओं ने की थी हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना
बंगाल के हिंदू राष्ट्रवादियों ने उन्नीसवीं सदी के अंत में यह विचार प्रस्तुत किया। वास्तव में तो ऑरबिंदो घोष के नाना राजनारायण बसु (1826-1899) और उनके करीबी साथी नभा गोपाल मित्रा (1840-94) को भारत में दो-राष्ट्र सिद्धांत और हिंदू राष्ट्रवाद का जनक कहा जा सकता है। राजनारायण बसु ने हिन्दू राष्ट्रीय भावना पैदा करने के लि एक सोसायटी बनाई थी, जो स्थानीय हिन्दू प्रबुद्ध वर्गों में हिंदू श्रेष्ठता का प्रचार करती थी। वे बैठकें आयोजित करके दावा करते थे कि अपनी जातिवादी व्यवस्था के बावजूद सनातन हिन्दू धर्म एक उच्च स्तरीय आदर्श सामाजिक व्यवस्था प्रस्तुत करता है, जिस तक ईसाई व इस्लामी सभ्यताएं कभी नहीं पहुंच पाईं।
बसु दीगर धर्मों की तुलना में न केवल सनातन हिन्दू धर्म को श्रेष्ठ मानते थे बल्कि वह जाति प्रथा के भी प्रबल समर्थक थे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने महा-हिंदू समिति की परिकल्पना की और भारत धर्म महामंडल स्थापित करने में मदद की, जो बाद में हिंदू महासभा बन गई। उनका विश्वास था कि इस संस्था के माध्यम से हिंदू भारत में आर्य राष्ट्र की स्थापना करने में समर्थ हो जाएंगे।1 उन्होंने यह कल्पना भी कर ली थी कि एक शक्तिशाली हिंदू राष्ट्र का उदय हो रहा है, जिसका आधिपत्य न सिर्फ पूरे भारत पर बल्कि पूरे विश्व पर होगा। उन्होंने तो यह तक देख लिया कि,
"सर्वश्रेष्ठ व पराक्रमी हिंदू राष्ट्र नींद से जाग गया है और आध्यात्मिक बल के साथ विकास की ओर बढ़ रहा है। मैं देखता हूं कि फिर से जागृत यह राष्ट्र अपने ज्ञान, आध्यात्मिकता और संस्कृति के आलोक से संसार को दोबारा प्रकाशमान कर रहा है। हिंदू राष्ट्र की प्रभुता एक बार फिर सारे संसार में स्थापित हो रही है।"
नभा गोपाल मित्रा एक वार्षिक हिंदू मेले का आयोजन करने लगे। अमूमन बंगाली वर्ष के अंतिम दिन यह मेला लगाया जाता, जिसमें बंगाल की उच्च जातीय हिंदू जीवन शैली से जुड़े समस्त पहलुओं को प्रस्तुत किया जाता था। 1867 से 1880 तक यह मेला लगातार लगता रहा। हिंदुओं की एकता व उनमें राष्ट्रीयता की भावना के प्रचार-प्रसार के लिए मित्रा ने एक राष्ट्रीय हिंदू सोसायटी बनाई और एक अखबार की शुरुआत की। अपने अखबार में मित्रा का कहना था कि हिंदू अपने आप में एक भिन्न राष्ट्र हैं। उनके अनुसार,
"भारत में राष्ट्रीय एकता की बुनियाद ही हिंदू धर्म है। यह हिंदू राष्ट्रवाद स्थानीय स्तर पर व भाषा में अंतर होने के बावजूद भारत के प्रत्येक हिंदू को अपने में समाहित कर लेता है।"
बंगाल में हिंदू राष्ट्रवाद के उत्थान पर गहरी नजर रखने वाले, आरसी मजुमदार, जिन्हें आरएसएस सच्चा हिन्दू इतिहासकार मानता है, को इस सच्चाई तक पहुंचने में समय नहीं लगा कि "नभा गोपाल ने जिन्नाह के दो कौमी नजरिये को आधी सदी से भी पहले प्रस्तुत कर दिया था।" तभी से "जाने-अनजाने में पूरे भारतवर्ष के राष्ट्रवाद पर हिंदू मत की छाप नजर आती थी।"
आर्य समाज की भूमिका
आर्य समाज ने उत्तरी भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के आख़री बीस सालों से ही यह उग्र प्रचार जारी रखा हुवा था कि भारत में हिंदू और मुसलमान, वास्तव में दो अलग-अलग कौमें हैं। भाई परमानंद (1874-1947) उत्तर भारत में आर्य समाज के महत्वपूर्ण विचारक होने के साथ-साथ कांग्रेस और हिंदू महासभा के नेता भी थे। उन्होंने बड़ी मात्रा में मुस्लिम विरोधी साहित्य उर्दू में रचा, जिनमें इस तथ्य को पुरजोर तरीके से रेखांकित किया गया था कि भारत हिंदुओं की भूमि है, जहां से मुसलमानों को बाहर किया जाना चाहिए।
वीडी सावरकर (1883-1966) और एमएस गोलवलकर (1906-73) जिन्होंने विस्तृत रूप से ऐसे हिंदू राष्ट्र के विचार प्रतिपादित किए, जिनमें अल्पसंख्यक समुदाय के लिए कोई स्थान नहीं था, उनसे से अरसा पहले यह भाई परमानंद थे, जिन्होंने बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही कहा कि हिंदू धर्म को मानने वाले और इस्लाम भारत में दो अलग-अलग जन-समुदाय हैं, क्योंकि मुसलमान जिस मजहब को मानते हैं, वह अरब देश से निकला है। भाई परमानंद ने विशेष रूप से उर्दू में ऐसा लोकप्रिय साहित्य लिखा जिसमें मुख्य रूप से कहा जाता था कि हिंदू ही भारत की सच्ची संतान हैं और मुसलमान बाहरी लोग हैं। सन् 1908 के प्रारंभ में ही उन्होंने विशिष्ठ क्षेत्रों में संपूर्ण हिंदू व मुस्लिम आबादी के आदान-प्रदान की योजना प्रस्तुत कर दी थी। अपनी आत्मकथा में उन्होंने यह योजना प्रस्तुत की, जिसके मुताबिकः "सिंध के बाद की सरहद को अफगानिस्तान से मिला दिया जाए, जिसमें उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती इलाकों को शामिल कर एक महान मुस्लिम राज्य स्थापित कर लें। उस इलाके के हिंदुओं को वहां से निकल जाना चाहिए। इसी तरह देश के अन्य भागों में बसे मुसलमानों को वहां से निकल कर इस नई जगह बस जाना चाहिए।"
लाजपतराय (1865-1928) एक साथ हिंदू महासभा, कांग्रेस और आर्य समाज के जानेमाने नेता थे। "जिन्नाह द्वारा विषैले दो-कौमी नजरिये की 1939 में प्रस्तुति तथा भारत के विनाशकारी विभाजन की 1940 में मांग से बहुत पहले लाला लाजपत राय और सावरकर जैसे हिंदू महासभा के नेताओं ने स्पष्ट रूप से दो-राष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया था..." 1899 में लाजपत राय ने इंडियन नेशनल कांग्रेस की विचारधारा पर हिंदुस्तान रिव्यू नामक पत्रिका में एक आलेख लिखा। इसमें उन्होंने घोषणा की कि "हिंदू अपने-आप में एक राष्ट्र हैं कियोंकि उन के पास अपना सब कुछ है "
1924 में उन्होंने दो कौमी नजरिये की बात बहुत सुस्पष्ट रूप से कही थी। उन्होंने लिखाः
"मेरी योजना के अनुसार मुसलमानों को चार राज्यः पठानों का उत्तर-पश्चिमी भाग, पश्चिमी पंजाब, सिंध और पूर्वी बंगाल मिलेंगे। अगर किसी दीगर हिस्से में मुसलमान इतने अधिक हों कि एक राज्य का गठन किया जा सके तो, उसे भी यही शक्ल दी जाए, लेकिन इतना बहुत अच्छे से समझ लिया जाना चाहिए कि यह एक संयुक्त भारत यानी यूनाइटेड इंडिया नहीं होगा। इसका अर्थ भारत का हिंदू इंडिया और मुस्लिम इंडिया में स्पष्ट विभाजन है।"
लाला लाजपतराय ने पंजाब के बंटवारे का प्रस्ताव इन साफ़ शब्दों में रखा,
"मैं एक ऐसे हल का सुझाव दूंगा, जिससे हिंदुओं व सिखों की भावनाएं आहत किए बगैर मुसलमान एक प्रभावी बहुमत पा सकते हैं। मेरा सुझाव है कि पंजाब को दो सूबों में विभाजित कर देना चाहिए। मुसलमानों की बहुसंख्या वाले पश्चिमी पंजाब में मुसलमानों का शासन हो तथा पूर्वी पंजाब जिसमें हिंदू-सिख अधिक संख्या में हैं, उसे गैर- मुसलमानों द्वारा शासित प्रदेश होना चाहिए।"
इसका ध्यान रखा जाना चाहिए कि दो-राष्ट्र सिद्धांत के समर्थक मुसलमानों को लाजपतराय और उन्हीं की विचारधारा से जुड़े अन्य लोगों के इस विषय में प्रस्तुत किए गए विचारों की जानकारी थी। उन्होंने इन राष्ट्र और मुस्लिम विरोधी विचारों को चुनौती देने के बजाय इन्हें स्वीकार कर लिया।
दो-राष्ट्र सिद्धांत के हिंदू राष्ट्रवादी पैरोकार: मुंजे, हरदयाल, सावरकर और गोलवलकर
कांग्रेस के एक और प्रभावशाली नेता डॉक्टर बीएस मुंजे थे, जिन्होंने हिंदू महासभा के फलने-फूलने तथा उसके बाद आरएसएस को स्थापित करने में मदद की। उन्होंने तो 1940 में मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान का आह्वान किए जाने से बहुत पहले हिंदू अलगाववाद की वकालत कर दी थी। मुंजे ने 1923 में अवध हिंदू महासभा के तीसरे अधिवेशन को संबोधित करते हुए घोषणा की थी किः
"जैसे इंग्लैंड अंगरेजों का, फ्रांस फ्रांसीसियों का तथा जर्मनी, जर्मन नागरिकों का है, वैसे ही भारत हिंदुओं का है। अगर हिंदू संगठित हो जाते हैं तो वे अंगरजों और उनके पिट्ठुओं, मुसलमानों को वश में कर सकते हैं। अब के बाद हिन्दू अपना संसार बनाएंगे और शुद्धि तथा संगठन के दुवारा फले-फूलेंगे।"
यह मुंजे की अज्ञानता ही थी, जो वह इंग्लैंड, फ्रांस व जर्मनी का उदाहरण दे कर कह रहे थे कि भारत हिंदुओं का है। इंग्लिश, फ्रेंच और जर्मन पहचान का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं था। इन देशों के निवासियों की यह पहचान सेक्युलर नागरिकों के रूप में थी।
मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग से बहुत पहले, गदर पार्टी से जुड़े लाला हरदयाल (1884-1938) ने सन् 1925 में ही भारत में न केवल एक अलग हिंदू राष्ट्र की बात कही थी, बल्कि अफगानिस्तान के मुसलमानों को हिन्दू बनाये जाने की भी सलाह दे डाली थी । उनका एक महत्वपूर्ण राजनीतिक वक्तव्य कानपुर से प्रकाशित 'प्रताप' में 1925 में छपा था। जिसमें उन्होंने अपने हिन्दू राष्ट्रवादी मंसूबे का खुलासा करते हुवे कहा:
"मैं यह घोषणा करता हूं कि हिंदुस्तान और पंजाब की हिंदू नस्ल का भविष्य इन चार स्तंभों पर आधारित हैः
1. हिंदू संगठन
2. हिंदू राज
3. मुसलमानों की शुद्धि तथा
4. अफगानिस्तान व सीमांत क्षेत्रों की विजय और शुद्धि।
हिंदू राष्ट्र जब तक यह चारों काम नहीं करता तो हमारे बच्चों और उनकी बाद की नस्लों तथा हिंदू नस्ल सदैव खतरे में रहेंगे, इनकी सुरक्षा असंभव होगी। हिंदू नस्ल का इतिहास एक ही है और इनकी संस्थाएं एकरूपी हैं। जबकि मुसलमान और ईसाई हिंदुस्तान के प्रभाव से अछूते हैं। वे अपने धर्मों तथा फारसी, अरब व यूरोपियन समाज को प्राथमिकता देते हैं, इसलिए यह बाहरी लोग हैं, इनकी शुद्धि की जाए। अफगानिस्तान और पहाड़ी इलाके पहले भारत के हिस्से थे, जो आज इस्लाम के प्रभाव में हैं। इसलिए अफगानिस्तान और आसपास के पहाड़ी इलाकों में भी हिंदू राज होना चाहिए, जैसा नेपाल में है। इसके बगैर स्वराज की बात बेकार है।"
भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने और यहां से मुसलमानों व ईसाइयों को बाहर निकाल देने के तमाम तरीके 1923 के प्रारंभ में विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी विवादित किताब 'हिंदुत्व' में अधिक विस्तार से प्रस्तुत किए। हिंदुओं व अन्य धर्मावलंबियों के बीच घृणा फैलाने व उनका ध्रुवीकरण करने वाली इस पुस्तक को लिखने की अनुमति उन्हें आश्चर्यजनक रूप से अंगरेजों की कैद में रहते दे दी गई। हिंदू राष्ट्र की उनकी परिभाषा में मुसलमान व ईसाई शामिल नहीं थे, क्योंकि वे हिंदू सांस्कृतिक विरासत से जुड़ते नहीं थे, न ही हिंदू धर्म अंगीकार करते थे। उन्होंने लिखाः
"ईसाई और मुहम्मडन, जो कुछ समय पहले तक हिंदू ही थे और ज्यादातर मामलों में जो अपनी पहली ही पीढ़ी में नए धर्म के अनुयायी बने हैं, भले ही हम से साझा पितृभूमि का दावा करें और लगभग शुद्ध हिन्दू खून और मूल का दवा करें । लेकिन इन्होंने एक नई संस्कृति अपनाई है इस वजह से यह हिंदू नहीं कहे जा सकते हैं। नए धर्म अपनाने के बाद उन्होंने हिंदू संस्कृति को पूरी तरह छोड़ दिया है। वे सोचते हैं कि अब वे हिंदू संस्कृति से अलग हो गए हैं। इनके त्यौहार और मेले (उर्स वगैरा) अलग हैं और इनके हीरो भी अलग हैं। उनके आदर्श तथा जीवन को देखने का उनका नजरिया बदल गया है। वे अब हम से मेल नहीं खाते इसलिए इन्हें हिंदू नहीं कहा जा सकता।"
हिंदुत्ववादी राजनीति के जनक सावरकर ने बाद में दो- राष्ट्र सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की। इस वास्तविकता को भूलना नहीं चाहिए कि मुस्लिम लीग ने तो पाकिस्तान का प्रस्ताव सन् 1940 में पारित किया था, लेकिन आरएसएस के महान विचारक व मार्गदर्शक सावरकर ने इससे बहुत पहले दो-राष्ट्र सिद्धांत प्रस्तुत कर दिया था। सन् 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने स्पष्ट रूप से यही बात दोहराई कि,
''फिलहाल हिंदुस्तान में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र पास-पास रह रहे हैं. कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मानकर गंभीर गलती कर बैठते हैं कि हिंदुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रुप में ढल गया है या सिर्फ हमारी इच्छा होने से ही इस रूप में ढल जाएगा. इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर लापरवाह दोस्त मात्र सपनों को सच्चाईयों में बदलना चाहते हैं. दृढ़ सच्चाई यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक सवाल औऱ कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंदिता के नतीजे में हम पहुंचे हैं. आज यह कतई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एक एकता में पिरोया हुआ और मिलाजुला राष्ट्र है. बल्कि इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतौर पर दो राष्ट्र हैं- हिंदू और मुसलमान''
हिंदुत्ववादी विचारकों द्वारा प्रचारित दो-राष्ट्र की इस राजनीति को 1939 में प्रकाशित गोलवलकर की पुस्तक 'वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड' से और बल मिला। भारत में अल्पसंख्यकों की समस्या से निपटने के लिए गोलवलकर ने इस किताब में नस्लीय सफाया करने का मंत्र दिया, उसके मुताबिक प्राचीन राष्ट्रों ने अपनी अल्पसंख्यक समस्या हल करने के लिए राजनीति में उन्हें (अल्पसंख्यकों को) कोई अलग स्थान नहीं दिया। मुस्लिम और ईसाई, जो 'आप्रवासी' थे, उन्हें स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यक आबादी अर्थात 'राष्ट्रीय नस्ल ' में मिल जाना चाहिए था। गोलवलकर भारत से अल्पसंख्यकों के सफाये के लिए वही संकल्प प्रकट कर रहे थे कि जिस प्रकार नाजी जर्मनी और फाशिस्ट इटली ने यहूदियों का सफाया किया है। वे मुसलमानों और ईसाइयों को चेतावनी देते हुवे कहते हैं,
"अगर वह ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हें बाहरी लोगों की तरह रहना होगा, वे राष्ट्र द्वारा निर्धारित तमाम नियमों से बंधे रहेंगे। उन्हें कोई विशेष सुरक्षा प्रदान नहीं की जाएगी, न ही उनके कोई विशेष अधिकार होंगे। इन विदेशी तत्वों के सामने केवल दो रास्ते होंगे, या तो वे राष्ट्रीय नस्ल में अपने-आपको समाहित कर लें या जब तक यह राष्ट्रीय नस्ल चाहे तब तक वे उसकी दया पर निर्भर रहें अथवा राष्ट्रीय नस्ल के कल्याण के लिए देश छोड़ जाएं। अल्पसंख्यक समस्या का यही एकमात्र उचित और तर्कपूर्ण हल है। इसी से राष्ट्र का जीवन स्वस्थ व विघ्न विहीन होगा। राज्य के भीतर राज्य बनाने जैसे विकसित किए जा रहे केंसर से राष्ट्र को सुरक्षित रखने का केवल यही उपाय है। प्राचीन चतुर राष्ट्रों से मिली सीख के आधार पर यही एक दृष्टिकोण है जिसके अनुसार हिंदुस्थान में मौजूद विदेशी नस्लें अनिवार्यतः हिंदू संस्कृति व भाषा को अंगीकार कर लें, हिंदू धर्म का सम्मान करना सीख लें तथा हिंदू वंश, संस्कृति अर्थात् हिंदू राष्ट्र का गौरव गान करें। वे अपने अलग अस्तित्व की इच्छा छोड़ दें और हिंदू नस्ल में शामिल हो जाएं, या वे देश में रहें, संपूर्ण रूप से राष्ट्र के आधीन। किसी वस्तु पर उनका दावा नहीं होगा, न ही वे किसी सुविधा के अधिकारी होंगे। उन्हें किसी मामले में प्राथमिकता नहीं दी जाएगी यहां तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं दिए जाएंगे। कम-से-कम इतना तो होना ही चाहिए, इसके अलावा उन्हें (अल्पसंख्यकों को) स्वीकारने का कोई रास्ता नहीं है। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं। आइए एक सौदा करते हैं, जैसा कि प्राचीन देशों को विदेशियों के साथ करना चाहिए, उऩके साथ जिन्होंने रहने के लिए हमारे देश को चुना है।"
सावरकर के पदचिन्हों पर चलते हुए आरएसएस ने इस विचार को पूरी तरह नकार दिया कि हिंदू और मुसलमान मिल कर एक राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। स्वतंत्रता दिवस (14 अगस्त 1947) की संध्या को आरएसएस के अंगरेजी मुखपत्र 'ऑर्गनाइजर' के संपादकीय में राष्ट्र की उनकी परिकल्पना को इन शब्दों में प्रस्तुत किया गयाः
''राष्ट्रत्व की छद्म धारणाओँ से गुमराह होने से हमें बचना चाहिए. बहुत सारे दिमागी भ्रम और वर्तमान एवं भविष्य की परेशानियों को दूर किया जा सकता है अगर हम इस आसान तथ्य को स्वीकारें कि हिंदुस्थान में सिर्फ हिंदू राष्ट्र का निर्माण करते हैं और राष्ट्र का ढांचा उसी सुरक्षित और उपयुक्त बुनियाद पर खड़ा किया जाना चाहिए. राष्ट्र को हिंदुओं द्वारा हिंदू परंपराओँ, संस्कृति, विचारों और आकांक्षाओं के आधार पर ही गठित किया जाना चाहिए.''
स्वतंत्रता पूर्व के भारत की सांप्रदायिक राजनीति के गहन शोधकर्ता डॉ. बीआर आंबेडकर दो-राष्ट्र सिद्धांत के बारे में हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की समान विचारधारा और आपसी समझ को रेखांकित करते हुए लिखते हैं:
"यह बात भले विचित्र लगे लेकिन एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रशन पर मि. सावरकर व मि. जिन्नाह के विचार परस्पर विरोधी होने के बजाय एक-दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं। दोनों ही इसे स्वीकार करते हैं, और न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं- एक मुस्लिम राष्ट्र और दूसरा हिंदू राष्ट्र।"
सावरकर के शैतानियत से भरे दो-राष्ट्र सिद्धांत और हिंदुत्व राजनीती की लफ़्फ़ाज़ी से दुखी डॉ आंबेडकर ने 1940 में लिखा कि,
"इस तरह की व्याख्या से तो हिंदू कौम प्रभुत्व जमा कर ही रहेगी और मुस्लिम राष्ट्र को उनके अधीनस्थ रहकर सहयोग करना होगा।"
सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदू महासभा द्वारा मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकारें चलाना
हिंदू राष्ट्रवादी सावरकर के वंशज, जो आज भारत में सत्ता संभाले हुए हैं, इस इस शर्मनाक सच से अनजान बने हुवे हैं कि देश के साझा स्वतंत्रता संग्राम खासतौर से अंगरेज हुक्मरानों के खिलाफ 1942 के अंगरेजों भारत छोड़ो आंदोलन को निष्प्रभावी करने के लिए सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग को साथ मिल कर सरकारें चलायी थीं । कानपुर में आयोजित हिंदू महासभा के 24वें अधिवेशन में अधियक्षय भाषण देते हुए सावरकर ने मुस्लिम लीग को इस तरह साथ लेने का यूं बचाव कियाः
"हिंदू महासभा जानती है कि व्यावहारिक राजनीति में हमें तर्कसंगत समझौतों के साथ आगे बढ़ना चाहिए। हाल ही सिंध की सच्चाई को समझें, जहां निमंत्रण मिलने पर सिंध हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर साझा सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सब के सामने है। उद्दंड (मुस्लिम) लीगी जिन्हें कांग्रेस अपने तमाम आत्म समर्पणों के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के संपर्क में आने के बाद तर्कसंगत समझौतों और परस्पर सामाजिक व्यवहार को तैयार हो गए। श्री फजलुलहक की प्रीमियरशिप (मुख्यमंत्रित्व) तथा महासभा के निपुण सम्माननीय नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदायों के हित साधते हुए एक साल तक सफलतापूर्वक चली। इसके अलावा हमारे कामकाज से यह भी सिद्ध हो गया कि हिंदू महासभा ने राजनीतिक सत्ता केवल आमजन के हितार्थ प्राप्त की थी, न कि सत्ता के सुख पाने व लाभ बटोरने के लिए।"
हिंदू महासभा व मुस्लिम लीग ने उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में भी गठबंधन सरकार बनाई थी।
विभाजन विरोधी मुसलमान
भारत विभाजन को ले कर हिंदुत्व ब्रिगेड द्वारा जो सबसे बड़ा झूठ लगातार फैलाया जाता है, वह यह है कि तमाम मुसलमानों ने एकमत हो कर पाकिस्तान की मांग की और उन्होंने देश का विभाजन करा दिया। हिंदुत्ववादियों द्वारा इस झूठ को सच मान कर चलना भारत में मुसलमानों के उत्पीड़न का बहुत बड़ा कारण है। यह सच है कि सन् 1947 में हुए भारत विभाजन का कारण मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग थी। और इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि मुस्लिम लीग द्वारा अपनी मांग के समर्थन में मुसलमानों की एक बड़ी संख्या को भड़काने में कामयाब हो गया था।
इसके साथ ही यह भी सत्य है कि भारतीय मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा और मुसलमान संगठन पाकिस्तान की मांग के विरोध में खड़े थे। विभाजन विरोधी इन मुसलमानों ने मुस्लिम लीग के दावे को सैद्धांतिक रूप से चुनौती दी और बाद में पाकिस्तान की मांग के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष किया। यह मुसलमान बहादुरी से लड़े और इनमें से कई ने भारत की एकता व अखंडता के लिए अपनी जानें भी कुर्बान कर दीं। इसके बावजूद भारत विभाजन के लिए समस्त मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराने का झूठ लगातार बोला जाता है। विभाजन के लिए तमाम भारतीय मुसलमानों को मुजरिम ठराये जाने वाला झूट सिर्फ इस वजह से ही नहीं फैलता की यह दो-राष्ट्र सिद्धांत के जनक हिन्दुत्वादी गिरोह के मुसलमान विरोधी प्रोजेक्ट का हिस्सा है। इस का बड़ा कारण यह है की भारतीय मुसलमान अपने नज़दीकी पूर्वजों की दो-राष्ट्र और पाकिस्तान विरोधी विरासत से अनिभिज्ञ हैं। वे नहीं जानते कि किस तरह मुसलमानोँ ने राजनैतिक, धार्मिक और शारीरिक रूप से मुस्लिम लीग की देश को बाँटने वाली कुत्सित निति का सामना किया था।
मुस्लिम लीग द्वारा लाहौर में पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित कर लिए जाने के कुछ सप्ताह में ही भारतीय मुसलमानों ने दिल्ली (क्वींस पार्क, चांदनी चौक, दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने, अब यह म्युनिसिपल पार्क कहलाता है) में 27-30 अप्रैल 1940 को मुस्लिम आजाद कॉन्फ्रेंस का का महा आयोजन कर डाला। (तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार 29 अप्रैल 1940 को इसका समापन होना था मगर कॉन्फ्रेंस में शामिल होने वालों की बड़ी तादाद, पाकिस्तान के मंसूबे के ख़िलाफ़ बोलने वालों का उत्साह और काम की अधिकता देखते हुए इसका एक दिन और बढ़ाया गया था)। भारत के लगभग हर भाग से कोई 1400 प्रतिनिधियों ने इसमें शिरकत की। कॉन्फ्रेंस का मुख्य आकर्षण सिंध के पूर्व प्रीमियर (मुख्यमंत्री समान पद) अल्लाह बख्श थे, जिन्होंने इसकी अध्यक्षता भी की थी । इस काम के लिए उन्हें अपनी जान की क़ुरबानी भी देनी पड़ी थी।
इस कॉन्फ्रेंस में कई बड़े व प्रतिष्ठित मुस्लिम संगठनों ने शिरकत की। इनमें ऑल इंडिया जमीअतुल उलमा, ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस, ऑल इंडिया मजलिसे-अहरार, ऑल इंडिया शिया पॉलीटिकल कॉन्फ्रेंस, खुदाई खिदमतगार, बंगाल कृषक प्रजा पार्टी, ऑल इंडिया मुल्सिम पार्लिमेंट्री बोर्ड, द अंजुमन-ए-वतन बलुचिस्तान, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस और जमीअत अहल-ए-हदीस आदि शामिल थे। आजाद मुस्लिम कॉन्फ्रेंस में संयुक्त प्रांत, बिहार, मध्य प्रांत, पंजाब, सिंध, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत, मद्रास, उड़ीसा, बंगाल, मलाबार, बलूचिस्तान, देहली, असम, राजस्थान, कश्मीर, हैदराबाद के अलावा कई देसी रियासतों के प्रतिनिधियों की शिरकत ने इसे संपूर्ण भारत के मुसलमानों की कॉन्फ्रेंस बना दिया था। इसमें कोई शक नहीं था कि यह प्रतिनिधि "भारत के बहुसंख्यक मुस्लिमों की नुमाइंदगी" कर रहे थे।
इन प्रतिष्ठित मुस्लिम संगठनों के अलावा भारतीय मुस्लिम बुध्दिजीवियों की दीप्त श्रंखला जैसे डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी (जिन्होंने मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक सियासत के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था, मृत्यु 1936), शौकतुल्लाह अंसारी, खान अब्दुल गफ्फार खान, सैयद अब्दुल्लाह बरेलवी, शेख मुहम्मद अब्दुल्लाह, एएम ख्वाजा और मौलाना आजाद पाकिस्तान के खिलाफ इस आंदोलन के साथ थे। जमीअत व अन्य संगठनों ने दो राष्ट्र सिद्धांत के खिलाफ तथा भारत में हिंदू व मुसलमानों की साझा विरासत पर बड़ी तादाद में उर्दू साहित्य छपवाया था।
अपने अधियक्षीय उद्बोधन में अल्लाह बख्श ने घोषणा की कि पाकिस्तान का प्रस्ताव मुसलमानों के साथ भारत के लिए भी आत्मघाती सिद्ध होगा। भारतीय समाज व राजतंत्र की सबको समाहित कर लेने वाली प्रकृति पर बल देते हुए उन्होंने कहाः
"एक भारतीय नागरिक होने के नाते मुसलमान, हिंदू व अन्य भारतीय नागरिकों का अपनी मातृभूमि और इसकी तमाम चीजों पर, इसकी सांस्कृतिक विरासत पर समानाधिकार है और उन्हें इस पर गर्व होना चाहिए। साहित्य को ही देखें तो इसे सबने मिलजुल समृद्ध किया है। जैसे मुस्लिम रचनाकारों द्वारा रचित हीर-रांझा और ससी-पन्नू की कहानियों को हिंदुओं व सिखों ने पंजाब व सिंध में दूर-दूर तक फैला दिया। इस तरह के बहुत से उदाहरण मौजूद हैं। यह हिंदू, मुसलमान या भारत के अन्य नागरिकों के बीच दुष्ट भ्रांति है कि उनका पूरे भारत या उसके किसी भाग पर विशेष मालिकाना अधिकार है। देश अविभाज्य रूप से उन सभी का है जो इसमें रहते-बसते हैं। ठीक इसी तरह यह भारतीय मुसलमानों की विरासत का भी अपरिहार्य अंग है। कोई अलग या विशेष इलाका नहीं, बल्कि पूरा भारत देश भारतीय मुसलमानों की मातृभूमि है। किसी भी हिंदू या मुसलमान को इसका अधिकार नहीं है कि वह इस मदर-ए-वतन की एक इंच धरती से भी उन्हें अलग कर सके।
"जो लोग भी भारतीय मुसलमानों के कुछ वर्गों के लिए अलग और सीमित मातृभूमि की बात करते हैं, वे स्वतंत्र हैं कि अपने-आप को भारतीय नागरिकता के अधिकार से वंचित कर लें। भारतीय मुसलमानों की बड़ी तादाद जो मुल्क के किसी भी हिस्से में निवास करती है और उसे अधिकार है इस देश के किसी भी भाग में रहने-बसने का, वह निश्चित ही सकारात्मक व निर्णायक रूप से ऐसे निरर्थक व आत्मघाती प्रस्ताव को रद्द कर देगी। किसी भी बहुमत, हिन्दुओं का या किसी और का, को यह अधिकार नहीं है कि वे क्षेत्र जिन में केवल एक ही मुसलमान रहता है, रहना चाहता है या कारोबार करना चाहता है को इस सम्पूर्ण अधिकार से जो सब हिन्दुस्तानियों को मिले हुवे हैं, रत्ती भर भी वंचित करदे। और ज़ाहिर है इसी तरह हर हिन्दू या अन्य देश वासीयों को सामान नागरिकता का अधिकार होगा चाहे उनमें से एक भी देश के किसी भी भाग में दसियों लाख मुसलमानों के बीच में रहता हो। हम अपने देश के हिंदुओं या अन्य भारतीय नागरिकों के साथ देश के हर मामले में समान रूप से साझेदार हैं और अपनी हर जायज जरूरत पूरी कर सकते हैं। कोई भी दुष्प्रचार या भावनाओं को भड़काने वाला बनावटी प्रदर्शन इन स्थितियों को नहीं बदल सकता है। इस धरती की कोई ताकत किसी को उसकी आस्था और दृढ़ विश्वास से डिगा नहीं सकती और दुनिया की किसी ताकत को इसकी इजाजत नहीं दी जाएगी कि वह भारतीय मुसलमानों को बतौर भारतीय नागरिक उनके अधिकारों पर डाका डाल सके । एक भारतीय होने के नाते अन्य नागरिकों की तरह ही हमारे अधिकार व जिम्मेदारियों समान हैं और न हम अपने अधिकारों में जरा सी कमी होने देंगे, न ही देश के प्रति अपने कर्तव्य से एक पल के लिए भी हम नजरें चुराएंगे। मुझे पूरा विश्वास है , जनाब, कि हम जो यहां जमा हुए हैं, सब इससे सहमत हैं कि हमें अपने देश को एक स्वतंत्र व सम्माजनक देश के रूप में स्थापित करने में पूरा-पूरा सहयोग देना है तथा हम संकल्प-बध हैं कि देश इस उद्देश्य को जल्दी से जल्दी हासिल कर ले।"
मुस्लिम लीग द्वारा भाड़े के हत्यारों से अल्लाह बख्श की हत्या कराना
हम में से कितने लोग जानते हैं कि हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा महात्मा गांधी की हत्या किए जाने से बहुत पहले मुस्लिम राष्ट्रवादियों (मुस्लिम लीग) ने भाड़े के हत्यारों की मदद से अल्लाह बख्श की हत्या कर दी थी। 14 मई 1943 को सिंध के शिकारपुर कस्बे में यह हत्या की गई, क्योंकि अल्लाह बख्श मुस्लिम लीग और उसके द्वारा की जा रही पाकिस्तान की मांग के विरुद्ध हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक रूप में एक स्तम्भ बनकर खड़े थे । अल्लाह बख्श की हत्या को भी गांधी की हत्या तरह ही देखा जाना चाहिए, जो भारत को हिंदू राष्ट्र में परिवर्तित करने की इच्छा रखने वाले हिंदुत्ववादियों के सामने चट्टान बन कर खड़े हो गए थे।
मुस्लिम लीग का आतंक
पाकिस्तान विरोधी आंदोलन के तमाम नेताओं, कार्यकर्ताओं को मुस्लिम लीग के हमले झेलने पड़े। उनके घर लूटे गए, परिजनों पर हमले हुए, जिन मस्जिदों में ये नेतागण ठहरते या मुसलमानों को संबोधित करते थे, उन्हें नुकसान पहुंचाया गया। शैख़-उल-इस्लाम मौलाना हुसैन अहमद मदनी पर उत्तरप्रदेश व बिहार में घातक हमले हुए। मौलाना आजाद, अहरार लीडर हबीबुर्रहमान, मौलाना इस्हाक़ संभली, हाफिज इब्राहीम, मौलाना एम कासिम शाहजहांपुरी और अन्य कई महत्वपूर्ण उलमा को प्राणघातक हमलों का सामना करना पड़ा। कई स्थानों पर इन उलमा को धारदार हथियारों का निशाना बनाया गया, जिनसे इनके अंग बेकार हो गए या काटने पड़े। इन पर गोलियां चलाई गईं और दिल्ली स्थित जमीअत उलमा-ए-हिंद के दफ्तर में आग लगा दी गई। मोमिन कॉन्फ्रेंस के जलसे इन हमलों का विशेष निशाना हुआ करते थे। इसके कार्यकर्ताओं की हत्याएं की गईं जिस पर कॉन्फ्रेंस द्वारा मुस्लिम लीग को चेतावनी देनी पड़ी। पाकिस्तान विरोधी मुसलमानों और संगठनों पर हिंसक हमलों के लिए मुस्लिम लीग ने बाक़ायदा एक सेना भी खड़ी की थी जिस का नाम 'मुस्लिम नेशनल गार्ड' (एमएनजी) था। अंग्रेजी सरकार की ख़ुफ़िया संस्थाओं के आंकलन के अनुसार इस सेना में 150000-200000 लोग थे।
एक तात्कालीन दस्तावेज के अनुसार, "इस बात का जिक्र काफी दर्द के साथ करना पड़ रहा है कि सम्मानित देश प्रेमी उलमा और नेताओं से मुस्लिम लीग ने किस तरह का बरताव किया। यह दर्दनाक, दिल तोड़ने वाला और अमानवीय था। गांवों, शहरों व कस्बों में इन देश प्रेमियों शख्सियतों की सभाओं पर पथराव किए गए और बेहद आपराधिक तरीके से बार-बार हमले किए गए। मुस्लिम लीग का अग्रणी संगठन, एमएनजी अब देश प्रेमी मुसलमानों के खिलाफ ऐसी हिंसा पर उतर आया जिसे बयान नहीं किया जा सकता। देश प्रेमी मुसलमानों के लिए कहीं यात्रा करना भी कठिन हो गया था क्योंकि उन पर आवाजाही के दौरान हमले किए जाने लगे। लीग का विरोध करने वाले अब भयभीत होने लगे थे और यदि कोई भी विरोध करने की हिम्मत करता तो उसका हश्र बहुत बुरा होता।"
दो राष्ट्र सिद्धांत में विश्वास रखने वाले हिंदू राष्ट्रवादी, जिन्हें भारतीय राष्ट्रवादी बना दिया गया
इन तमाम तथ्यों के बावजूद सिर्फ मुसलमानों को विभाजन का गुनाहगार बना दिया गया। उन्हें ही दो राष्ट्र सिद्धांत को जन्म देने का अपराधी मान लिया गया। बाल गंगाधर तिलक, लाजपत राय, मदनमोहन मालवीय, एमएस एनी, बीएस मूंजे, एमआर जयकर, एनसी केलकर, स्वामी श्रद्धानंद आदि (जिनमें से कई तो कांग्रेसी नेता थे) जैसे महत्वपूर्ण हिंदू राष्ट्रवादी नेता एक समावेशी भारत को स्वीकार नहीं करते, बल्कि वे एक विशिष्ट हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए प्रतिबद्ध थे। उनका विश्वास था कि भारत आदिकाल से हिंदू राष्ट्र था और इसे उसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। इस सब के बावजूद इन सब का गुणगान महान राष्ट्रवादियों के रूप में किया जाता रहा और किया जाता है।
वास्तव में देश के बहुसंख्यक समुदाय को अपनी घोर सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद के आवरण में छुपा लेने की सुविधा प्राप्त थी। इसका जीवंत उदाहरण मदनमोहन मालवीय हैं। सन् 1909, 1918 एवं 1933 में वे उस इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, जो एक एक साझे और समावेशी भारत के लिए कटिबद्ध थी। इसके साथ ही उन्होंने 1923, 1924 और 1936 में हिंदू महासभा के वे अधियक्ष भी रहे जो देश को खालिस हिन्दू राष्ट्र बनाने के काम में रात-दिन-जुटी थी। वे 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' जैसे विभाजनकारी नारे के जनक भी थे। आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है की वे उर्दू और अंग्रेजी में लिखते थे और उन्हें हिंदी की वर्णमाला नहीं आती थी। सांप्रदायिक घृणा फैलाने की उनकी करतूतों के बावजूद उन्हें महान भारतीय राष्ट्रवादी नेता माना जाता है।
मुस्लमान राष्ट्रवादियों और हिन्दू राष्ट्रवादियों के लिए भिन्न मापदंड
अगर मुस्लमान नेताओं में इस आधार पर भेद किया जा सकता है कि वे बहुधर्मी भारत में विश्वास करते हैं या मुसलमानों के वतन के तौर पर पाकिस्तान निर्माण का, तो हिंदू नेताओं के लिए भी यही मापदंड होना चाहिए। जब हम भारतीय राष्ट्रवाद का अध्ययन करते हैं तो सामान्यतः हमें यह बताया जाता है कि सारे हिंदू राष्ट्रभक्त थे, जबकि बहुत थोड़े मुसलमान देशभक्त थे। अधिकांश मुसलमान राष्ट्र विरोधी मुस्लिम लीग के साथ थे। इस भ्रम को दूर करने के लिए हमें भारतीय संदर्भ में यह तय करने की जरूरत है कि राष्ट्रवाद का अर्थ क्या है। अगर भारतीय राष्ट्रवाद से यह अर्थ लिया जा रहा था कि यह एक बहुधर्मी, सेक्युलर राष्ट्र निर्माण के लिए था तौ केवल वे, जो इस संकल्प को पूरा करने में विश्वास रखते थे वे ही राष्ट्रवादी या देशभक्त कहे जाएंगे। लेकिन यह कम ही होता है कि हम सांप्रदायिक हिंदू या राष्ट्रवादी हिंदू नेताओं को इस मापदंड पर तोलें । बावजूद इसके कि वे बहुधर्मी, समावेशी भारत के विरोधी थे, वे राष्ट्रवाद के प्रतीक बने हुए हैं। वास्तविकता यह है कि हिंदू राष्ट्रवादी नेता यक़ीनन गद्दार या राष्ट्र विरोधी थे, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मुस्लिम लीग और उसके नेता थे।
ठीक इसी तरह जैसे कि समस्त हिंदू नेता देश प्रेमी नहीं थे, उसी तरह सारे मुसलमान भी देशद्रोही नहीं थे। मुसलमानों की एक बड़ी संख्या और लोकप्रिय मुस्लिम संगठनों ने दो राष्ट्र सिद्धांत और पाकिस्तान निर्माण का हरसंभव विरोध किया, यहां तक कि इसके लिए उन्होंने अपनी जानें तक कुर्बान कर दीं।
इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि हिंदू राष्ट्रवादियों की संतानें, जिन्होंने दो राष्ट्र सिद्धांत की राजनीति को विरासत में पाया, आज देश की सत्ता पर काबिज हैं। इन सत्ताभोगी संतानों के राजनीतिक पूर्वजों जैसे मुंजे, सावरकर और गोलवलकर का स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं था । वे मुस्लिम लीग व अंगरेज शासकों के सहयोगी रहे और उनकी संतानें आज भारतीय मुसलमानों की हुब्बुलवतनी (देश प्रेम) पर सवाल उठा रही हैं।
भारतीय मुसलमानों के सामने चुनौती
राष्ट्र विरोधी हिंदू देशभक्तों द्वारा किए जा रहे इन हमलों के खिलाफ भारतीय मुसलमानों को रक्षात्मक रुख अपनाने के बजाय, उन पर लगाए जा रहे आरोपों का आक्रामक तरीके से जवाब देना चाहिए। इतिहास और सच्चाई उनके साथ हैं । भारतीय मुसलमान उन निडर मुसलमानों की औलादें हैं, जिन्होंने मुस्लिम लीग और उसके द्वारा की जाने वाली पाकिस्तान की मांग के खिलाफ शानदार युद्ध लड़ा । उन्हें पाकिस्तान नहीं चाहिए था, लेकिन वे अंगरेज शासकों, मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच भारत विभाजन के लिए किए गए करार के असहाय शिकार बनगए। देश विभाजन के लिए कांग्रेस के राज़ी हो जाने पर सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान ने गांधी को जून 1947 में जो पत्र लिखा उस के यह शब्द पाकिस्तान विरोधी मुसलमानों के साथ जो धोका हुआ उसका बहुत सही वर्णन करता है । उन्होंने लिखा था:
"हम पख्तून आप के साथ खड़े रहे और आजादी के लिए बड़ी-से-बड़ी कुर्बानियां दीं, लेकिन आप ने अब हमें भेड़ियों के बीच अकेला छोड़ दिया।"
सावरकर और गोलवलकर की संतानें, जिनका आज भारत पर शासन चल रहा है, उनकी विरासत में दो राष्ट्र सिद्धांत और जिन्नाह के साथ खड़े होना शामिल है। जबकि धर्म के आधार पर भारत विभाजन के विरोधी मुसलमानों के पास देश विभाजित होने से बचाने के प्रयासों का का लम्बा गौरवशाली इतिहास है। एक संयुक्त, लोकतांत्रिक और धर्म निरपेक्श भारत के लिए उनके संकल्प और प्रतिबद्धता पूरी तरह स्पष्ट हैं। सुविख्यात शायर शमीम करहानी की, 1940 में रचित, पाकिस्तान विरोधी नज्म 'पाकिस्तान चाहने वालों से', जो मुस्लिम लीग के खिलाफ भारतीय मुसलमानों का जन गीत बन गई थी, इस संकल्प और प्रतिबद्धता को भरपूर तरीक़े से ब्यान करती है । पाकिस्तान की अपनी मांग को मुस्लिम लीग ने कियोंकी मजहब से जोड़ा था तो शमीम करहानी साहेब ने इसी लबो-लहजे में उसका जवाब दिया था। हर भारतीय मुसलमान को इस पर फख्र होना चाहिए।
पाकिस्तान चाहने वालों से
- शमीम करहानी
हमको बतलाओ तो क्या मतलब है पाकिस्तान का
जिस जगह इस वक्त मुस्लिम हैं, नजिस1 है क्या वह जा2।
नेशे-तोहमत3 से तेरे, चिश्ती का सीना चाक4 है
जल्द बतला क्या जमीं अजमेर की नापाक है।
कुफ़्र की वादी में ईमां का नगीना खो गया
है क्या ख़ाके-नजिस5 में शाहे-ए-मीना6 खो गया।
दीन का मख़्दूम7 जो कलियर की आबादी में है
आह! उसका आस्ताना क्या नजिस वादी में है।
हैं इमामों के जो रोज़े लखनऊ की ख़ाक पर
बन गए क्या तौबा-तौबा ख़ित्ता-ए-नापाक8 पर।
बात यह कैसे कही तूने कि दिल ने आह की
क्या ज़मीं ताहिर9 नहीं दरगाहे-नूरुल्लाह की।
आह! इस पाकीज़ा10 गंगा को नजिस कहता है तू
जिसके पानी से किया मुस्लिम शहीदों ने वुज़ू11।
नामे-पाकिस्तां न ले गर तुझको पासे-दीन12 है
यह गुज़िश्ता13 नस्ले-मुस्लिम की बड़ी तौहीन है।
टुकड़े-टुकड़े कर नहीं सकते वतन को अहले-दिल14
किस तरह ताराज15 देखेंगे चमन को अहले-दिल।
क्या यह मतलब है के हम महरूमे-आज़ादी16 रहें
मुन्क़सिम17 हो कर अरब की तरह फ़रियादी रहें।
टुकड़े-टुकड़े हो के मुस्लिम ख़स्ता-दिल18 हो जाएगा
नख़्ले-जमीअत19 सरासर मुज़महिल20 हो जाएगा।
1. अपवित्र 2. स्थान 3. आरोप का डंक 4. फटा हुआ 5. अपवित्र भूमि 6. क़ीमती नगीना 7. सूफ़ी मख़्दूम शाह कलियर साबिरी 8. अपवित्र भू-भाग 9. पवित्र 10. पवित्र 11. नमाज़ के लिए हाथ-मुंह धोना 12. धर्म का ख़याल 13. पिछली 14. विशाल ह्रदय वाले 15. बर्बाद 16. आज़ादी से वंचित 17. विभाजित 18. कमज़ोर 19. क़ौम का पेड़, क़ौम 20. मुरझाना
(अंग्रेजी से अनुवाद: जावेद आलम इंदौरी)
हैरान करने वाली बात यह है कि यह काम बीएस मुंजे, भाई परमानंद, विनायक दामोदर सावरकर, एमएस गोलवलकर और अन्य हिंदू राष्ट्रवादियों की परंपरा के वारिस कर रहे हैं, जिन्होंने न केवल दो क़ौमी सिद्धांत की अवधारणा प्रस्तुत की बल्कि उन्होंने आक्रामक रूप से मांग की कि मुसलमानों को भारत जो हमेशा से हिंदू राष्ट्र रहा है से निकाल दिया जाए। इस टोली का आज भी विश्वास है कि हिंदू व मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं। भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर जिन्नाह या मुस्लिम लीग का उद्भव होने से बहुत पहले आरएसएस के लोग, जो आज सत्तासीन हैं, सतत् यह मांग करते आए हैं कि मुसलमानों व ईसाइयों से नागरिक अधिकार छीन लिए जाने चाहिए।
दो क़ौमी सिद्धांत पर यह निबंध इस उद्देश्य से लिखा गया है कि इस सिद्धांत के जन्म, विकास, मौजूदा चलन और इस से जुड़े पूरे विमर्श को भली-भाँती समझा जा सके और किस तरह हिन्दुत्वादी शासक टोली इस कुत्सित सिद्धांत को देश बाँटने के लिए लागू कर रही है, उस साज़िश को जाना जा सके।
झूट बोलने और साज़िश रचने में माहिर आरएसएस
इस समय दुनिया का कोई भी फासीवादी संगठन दोग़ली बातें करने, उत्तेजना फैलाने और षड्यंत्र रचने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को मात नहीं दे सकता। सन् 2002 में गुजरात में किए गए मुसलमानों के जनसंहार पर टिप्पणी करते हुवे भारत के एक मशहूर अंगरेजी दैनिक ने आरएसएस के बारे में प्रख्यात लेखक जॉर्ज ऑरवेल द्वारा दिए गए शब्द 'दो मुंहा' को इस विघटनकारी संगठन के लिए कमतर बताया था, यानि आरएसएस दो मुंहा नहीं बल्कि इस से भी बढ़ कर है। जहां तक इस संगठन के षड्यंत्रकारी मानस का संबंध है, उसे सबसे पहले किसी और ने नहीं बल्कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भांप लिया था। उन्होंने देश के प्रथम गृह मंत्री सरदार पटेल का ध्यान इस ओर आकर्षित भी कराया,
"मुझे बताया गया है कि आरएसएस के लोग अशांति फैलाने के लिए कोई हरकत करने की योजना बना रहे हैं। उन्होंने अपने लोगों को मुसलमानों जैसा भेस बना कर तैयार किया है, जो हिंदुओं पर हमला करेंगे, जिससे हिंदू भड़क जाएं। इसी तरह उन्होंने कुछ हिंदुओं को तैयार किया है, जो मुसलमानों पर हमला कर के उन्हें भड़काएंगे। इस तरह हिंदू व मुसलमानों के बीच एक बड़ा झगड़ा पैदा जाएगा।"
पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्नाह के माध्यम से हिंदुत्ववादी उपद्रवी तत्वों द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पर हालिया हमलों में आरएसएस का यही दुष्चरित्र सामने आता है। यहां इस हमले का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत हैः 2 मई 2018 को अमुवि छात्र संघ द्वारा भारत के पूर्व उप-राष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी को छात्र संघ की आजीवन सदस्यता प्रदान करने के लिए समारोह आयोजित किया गया था। इस मौके पर पूर्व उप-राष्ट्रपति विद्यार्थियों को संबोधित भी करने वाले थे। देश के पूर्व उप-राष्ट्रपति के इस कार्यक्रम को प्रोटोकॉल के तहत इंटेलिजेंस एजेंसियों व स्थानीय प्रशासन ने हरी झंडी दे दी थी।
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अंसारी के मुताबिक उनके इस कार्यक्रम की जानकारी सबको थी और संबंधित अधिकारियों को आधिकारिक रूप से उनके कार्यक्रम के बारे में बता दिया गया था, ताकि समारोह के लिए सुरक्षा सहित अन्य व्यवसथाएं भी विधिवत की जाएं। इसके बावजूद "विश्वविद्यालय के उस गेस्ट हाउस के पास तक उपद्रवी तत्वों का पहुंच जाना, जहां मैं ठहरा हुआ था समझ से परे है।"
हिंदूवादी उग्र तत्व इस हमले को यह कह कर जायज ठहरा रहे हैं कि छात्र संघ कार्यालय में पाकिस्तान के संस्थापक जिन्नाह का फोटो क्यों लगा है। हालांकि जिन्नाह का फोटो वहां सन् 1938 से लगा है, जब उन्हें छात्र संघ की आजीवन सदस्यता प्रदान की गई थी। हिंदुत्ववादी ब्रिगेड को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस बात को 80 बरस होने आए और वे अब इस मुद्दे को उठा रहे हैं। ऐसे समय जबकि उत्तरप्रदेश में उनकी सरकार हिंदुओं का समर्थन खोती जा रही है, जिसके बल पर वे सत्ता में आए थे। जिन्नाह की तस्वीर को मुद्दा बनाने का एक तात्कालिक कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही कैराना संसदीय क्षेत्र में उपचुनाव (मई 28, 2018) का होना भी है जहाँ एक मुस्लमान महिला प्रत्याशी विपक्षी दलों की साझा उमीदवार हैं।
अंसारी ठीक ही कहते हैं कि अमुवि पर इस हमले का तयशुदा समय और "उसे उचित ठहराने का बहाना खोजना" गंभीर प्रश्न खड़े करता है। हथियारबंद हिंदू उग्र तत्व वहां से जिन्नाह का फोटो हटाने की मांग कर हंगामा खड़ा कर देते हैं, यह सोच कर कि देश की जनता को शायद पता न हो कि पाकिस्तान के संस्थापक जिन्नाह सन् 1942-43 में हिंदू महासभा के साथ मिल कर गठबंधन सरकार चला रहे थे। इसकी बात हम आगे करेंगे।
जिन्नाह के बारे में कुछ तथ्य, जिन्हें जानना जरूरी है
बहतर होगा कि मुस्लिम अलगाववाद का ध्वज वाहक बनने से पहले हम जिन्नाह के भूतकाल के बारे में भी कुछ तथ्य जान लें। कांग्रेस नेता के रूप में जिन्नाह एक प्रतिबद्ध सेक्युलरिस्ट थे और दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, एनी बेसेंट, एमके गांधी, नेहरू (मोतीलाल नेहरू व जवाहरलाल नेहरू), मौलाना आजाद, सरदार पटेल और उन्हीं की तरह के बड़े कांग्रेसी नेताओं के साथ जिन्नाह ने अंगरेज शासकों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई।
अंगरेज शासकों के विरुद्ध वे आतंकवादी कार्रवाइयों के समर्थक नहीं थे, लेकिन जब भगतसिंह जेल में थे और उन्हें फांसी की सजा सुनाने की न्यायिक प्रक्रिया उनकी अनुपस्थिति में शुरू कर दी गई तो तात्कालीन संसद, सेंट्रल असेंबली में 12 सितंबर 1929 को जिन्नाह ने इस सुनवाई के विरुद्ध एक प्रभावशाली वक्तव्य दिया। जिन्नाह ने कहाः
"जो व्यक्ति भूख हड़ताल करता है, उसकी आत्मा होती है। वह उसी आत्मा से प्रेरणा लेता है और वह अपने कर्तव्य के लिए न्याय में विश्वास रखता है। वह सामान्य अपराधी नहीं है, जो निर्ममता से किए गए हिंसक अपराध का जिम्मेदार हो... मैं भगतसिंह द्वारा की गई कार्रवाई का समर्थन नहीं कर रहा... मैं इसे स्वीकार करता हूं कि सही या गलत आज का युवक उद्वेलित है... चाहे आपने उन्हें हद से ज्यादा दुखी कर दिया हो या चाहे आप यह कहें कि उन्हें बहकाया जा रहा है, यह व्यवस्था है, यही शासक वर्ग की निंदनीय व्यवस्था, जिसका लोग प्रतिकार कर रहे हैं।"
इससे पहले सन् 1916 में वे बाल गंगाधर तिलक (हिंदुत्ववादियों को अति प्रिय) के खिलाफ चल रहे राजद्रोह के मुकदमे में तिलक की ओर से वकील थे। इसमें तिलक को मौत की सजा भी हो सकती थी, लेकिन जिन्नाह ने इस केस में अंगरेज शासन के खिलाफ ऐतिहासिक जीत हासिल की, जो विदेशी शासकों के लिए बेहद शर्मनाक था।
1935 के आसपास लाहौर में एक धर्मस्थल को ले कर सिखों व मुसलमानों के बीच एक गंभीर विवाद खड़ा हो गया। सिखों के मुताबिक यह शहीदी गुरुद्वारा था, जबकि मुसलमान उसे मस्जिद करार दे रहे थे। इस मामले में मुस्लिम पक्ष अपनी ओर से मुकदमा लड़ने के लिए जिन्नाह के पास पहुंचा, लेकिन जिन्नाह ने उनका आग्रह अस्वीकार कर दिया और उस मामले से दूरी बनाए रखी।
1920-21 में वे गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस से अलग हो गए, क्योंकि गांधी आमजन की राजनीति, खासतौर से धार्मिक नेतृत्वकर्ताओं को राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में शामिल करने के खिलाफ थे। कांग्रेस ने जिन्नाह को अलग-थलग करने की कोशिश की। उस कोशिश के खिलाफ खड़े होने के बजाय जिन्नाह ने मुस्लिम लीग का रुख कर लिया, उसी मुस्लिम लीग का, जिसे वे मुस्लिम समुदाय के धनाढ्य सामंतवादी और ऐश्वर्यशाली तबके का प्रतिनिधित्व करने वाली करार दे चुके थे। धार्मिक आस्था व निजी क्रियाकलापों के आधार पर उन्हें एक धार्मिक मुस्लिम की पंक्ति में नहीं रखा जा सकता। उन्हें सुअर का मांस पसंद था और उनकी शामें शराब के साथ गुजरती थीं। इत्तिफाक से वे उर्दू पढ़ना-लिखना भी नहीं जानते थे, इसके बजाय अंगरेजी व गुजराती में उन्हें महारत हासिल थी।
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जिन्नाह जब हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे और संयुक्त भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय भागीदारी निभा रहे थे तब हिंदुत्ववादियों ने उनका तिरस्कार किया। गांधी, मोतीलाल नेहरू, अबुल कलाम आजाद, हिंदुत्ववादियों के अगले निशानाथे।
दो-राष्ट्र सिद्धांत सिद्धांत को हिंदू राष्ट्रवादियों ने स्थापित किया, न कि जिन्नाह ने
मुसलमानों के एक वर्ग द्वारा दो-राष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किए जाने से बहुत पहले हिंदू राष्ट्रवादी इस सिद्धांत को स्थापित कर चुके थे। इसका समर्थन करने वाले मुस्लिम लीगी मुसलमान असल में तो इन हिंदू राष्ट्रवादियों के पदचिन्हों पर चल रहे थे। उन्होंने यह नजरिया हिंदुत्ववादी विचारकों से ही ग्रहण किया था।
सबसे पहले बंगाली उच्च-जाति हिन्दुओं ने की थी हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना
बंगाल के हिंदू राष्ट्रवादियों ने उन्नीसवीं सदी के अंत में यह विचार प्रस्तुत किया। वास्तव में तो ऑरबिंदो घोष के नाना राजनारायण बसु (1826-1899) और उनके करीबी साथी नभा गोपाल मित्रा (1840-94) को भारत में दो-राष्ट्र सिद्धांत और हिंदू राष्ट्रवाद का जनक कहा जा सकता है। राजनारायण बसु ने हिन्दू राष्ट्रीय भावना पैदा करने के लि एक सोसायटी बनाई थी, जो स्थानीय हिन्दू प्रबुद्ध वर्गों में हिंदू श्रेष्ठता का प्रचार करती थी। वे बैठकें आयोजित करके दावा करते थे कि अपनी जातिवादी व्यवस्था के बावजूद सनातन हिन्दू धर्म एक उच्च स्तरीय आदर्श सामाजिक व्यवस्था प्रस्तुत करता है, जिस तक ईसाई व इस्लामी सभ्यताएं कभी नहीं पहुंच पाईं।
बसु दीगर धर्मों की तुलना में न केवल सनातन हिन्दू धर्म को श्रेष्ठ मानते थे बल्कि वह जाति प्रथा के भी प्रबल समर्थक थे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने महा-हिंदू समिति की परिकल्पना की और भारत धर्म महामंडल स्थापित करने में मदद की, जो बाद में हिंदू महासभा बन गई। उनका विश्वास था कि इस संस्था के माध्यम से हिंदू भारत में आर्य राष्ट्र की स्थापना करने में समर्थ हो जाएंगे।1 उन्होंने यह कल्पना भी कर ली थी कि एक शक्तिशाली हिंदू राष्ट्र का उदय हो रहा है, जिसका आधिपत्य न सिर्फ पूरे भारत पर बल्कि पूरे विश्व पर होगा। उन्होंने तो यह तक देख लिया कि,
"सर्वश्रेष्ठ व पराक्रमी हिंदू राष्ट्र नींद से जाग गया है और आध्यात्मिक बल के साथ विकास की ओर बढ़ रहा है। मैं देखता हूं कि फिर से जागृत यह राष्ट्र अपने ज्ञान, आध्यात्मिकता और संस्कृति के आलोक से संसार को दोबारा प्रकाशमान कर रहा है। हिंदू राष्ट्र की प्रभुता एक बार फिर सारे संसार में स्थापित हो रही है।"
नभा गोपाल मित्रा एक वार्षिक हिंदू मेले का आयोजन करने लगे। अमूमन बंगाली वर्ष के अंतिम दिन यह मेला लगाया जाता, जिसमें बंगाल की उच्च जातीय हिंदू जीवन शैली से जुड़े समस्त पहलुओं को प्रस्तुत किया जाता था। 1867 से 1880 तक यह मेला लगातार लगता रहा। हिंदुओं की एकता व उनमें राष्ट्रीयता की भावना के प्रचार-प्रसार के लिए मित्रा ने एक राष्ट्रीय हिंदू सोसायटी बनाई और एक अखबार की शुरुआत की। अपने अखबार में मित्रा का कहना था कि हिंदू अपने आप में एक भिन्न राष्ट्र हैं। उनके अनुसार,
"भारत में राष्ट्रीय एकता की बुनियाद ही हिंदू धर्म है। यह हिंदू राष्ट्रवाद स्थानीय स्तर पर व भाषा में अंतर होने के बावजूद भारत के प्रत्येक हिंदू को अपने में समाहित कर लेता है।"
बंगाल में हिंदू राष्ट्रवाद के उत्थान पर गहरी नजर रखने वाले, आरसी मजुमदार, जिन्हें आरएसएस सच्चा हिन्दू इतिहासकार मानता है, को इस सच्चाई तक पहुंचने में समय नहीं लगा कि "नभा गोपाल ने जिन्नाह के दो कौमी नजरिये को आधी सदी से भी पहले प्रस्तुत कर दिया था।" तभी से "जाने-अनजाने में पूरे भारतवर्ष के राष्ट्रवाद पर हिंदू मत की छाप नजर आती थी।"
आर्य समाज की भूमिका
आर्य समाज ने उत्तरी भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के आख़री बीस सालों से ही यह उग्र प्रचार जारी रखा हुवा था कि भारत में हिंदू और मुसलमान, वास्तव में दो अलग-अलग कौमें हैं। भाई परमानंद (1874-1947) उत्तर भारत में आर्य समाज के महत्वपूर्ण विचारक होने के साथ-साथ कांग्रेस और हिंदू महासभा के नेता भी थे। उन्होंने बड़ी मात्रा में मुस्लिम विरोधी साहित्य उर्दू में रचा, जिनमें इस तथ्य को पुरजोर तरीके से रेखांकित किया गया था कि भारत हिंदुओं की भूमि है, जहां से मुसलमानों को बाहर किया जाना चाहिए।
वीडी सावरकर (1883-1966) और एमएस गोलवलकर (1906-73) जिन्होंने विस्तृत रूप से ऐसे हिंदू राष्ट्र के विचार प्रतिपादित किए, जिनमें अल्पसंख्यक समुदाय के लिए कोई स्थान नहीं था, उनसे से अरसा पहले यह भाई परमानंद थे, जिन्होंने बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही कहा कि हिंदू धर्म को मानने वाले और इस्लाम भारत में दो अलग-अलग जन-समुदाय हैं, क्योंकि मुसलमान जिस मजहब को मानते हैं, वह अरब देश से निकला है। भाई परमानंद ने विशेष रूप से उर्दू में ऐसा लोकप्रिय साहित्य लिखा जिसमें मुख्य रूप से कहा जाता था कि हिंदू ही भारत की सच्ची संतान हैं और मुसलमान बाहरी लोग हैं। सन् 1908 के प्रारंभ में ही उन्होंने विशिष्ठ क्षेत्रों में संपूर्ण हिंदू व मुस्लिम आबादी के आदान-प्रदान की योजना प्रस्तुत कर दी थी। अपनी आत्मकथा में उन्होंने यह योजना प्रस्तुत की, जिसके मुताबिकः "सिंध के बाद की सरहद को अफगानिस्तान से मिला दिया जाए, जिसमें उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती इलाकों को शामिल कर एक महान मुस्लिम राज्य स्थापित कर लें। उस इलाके के हिंदुओं को वहां से निकल जाना चाहिए। इसी तरह देश के अन्य भागों में बसे मुसलमानों को वहां से निकल कर इस नई जगह बस जाना चाहिए।"
लाजपतराय (1865-1928) एक साथ हिंदू महासभा, कांग्रेस और आर्य समाज के जानेमाने नेता थे। "जिन्नाह द्वारा विषैले दो-कौमी नजरिये की 1939 में प्रस्तुति तथा भारत के विनाशकारी विभाजन की 1940 में मांग से बहुत पहले लाला लाजपत राय और सावरकर जैसे हिंदू महासभा के नेताओं ने स्पष्ट रूप से दो-राष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया था..." 1899 में लाजपत राय ने इंडियन नेशनल कांग्रेस की विचारधारा पर हिंदुस्तान रिव्यू नामक पत्रिका में एक आलेख लिखा। इसमें उन्होंने घोषणा की कि "हिंदू अपने-आप में एक राष्ट्र हैं कियोंकि उन के पास अपना सब कुछ है "
1924 में उन्होंने दो कौमी नजरिये की बात बहुत सुस्पष्ट रूप से कही थी। उन्होंने लिखाः
"मेरी योजना के अनुसार मुसलमानों को चार राज्यः पठानों का उत्तर-पश्चिमी भाग, पश्चिमी पंजाब, सिंध और पूर्वी बंगाल मिलेंगे। अगर किसी दीगर हिस्से में मुसलमान इतने अधिक हों कि एक राज्य का गठन किया जा सके तो, उसे भी यही शक्ल दी जाए, लेकिन इतना बहुत अच्छे से समझ लिया जाना चाहिए कि यह एक संयुक्त भारत यानी यूनाइटेड इंडिया नहीं होगा। इसका अर्थ भारत का हिंदू इंडिया और मुस्लिम इंडिया में स्पष्ट विभाजन है।"
लाला लाजपतराय ने पंजाब के बंटवारे का प्रस्ताव इन साफ़ शब्दों में रखा,
"मैं एक ऐसे हल का सुझाव दूंगा, जिससे हिंदुओं व सिखों की भावनाएं आहत किए बगैर मुसलमान एक प्रभावी बहुमत पा सकते हैं। मेरा सुझाव है कि पंजाब को दो सूबों में विभाजित कर देना चाहिए। मुसलमानों की बहुसंख्या वाले पश्चिमी पंजाब में मुसलमानों का शासन हो तथा पूर्वी पंजाब जिसमें हिंदू-सिख अधिक संख्या में हैं, उसे गैर- मुसलमानों द्वारा शासित प्रदेश होना चाहिए।"
इसका ध्यान रखा जाना चाहिए कि दो-राष्ट्र सिद्धांत के समर्थक मुसलमानों को लाजपतराय और उन्हीं की विचारधारा से जुड़े अन्य लोगों के इस विषय में प्रस्तुत किए गए विचारों की जानकारी थी। उन्होंने इन राष्ट्र और मुस्लिम विरोधी विचारों को चुनौती देने के बजाय इन्हें स्वीकार कर लिया।
दो-राष्ट्र सिद्धांत के हिंदू राष्ट्रवादी पैरोकार: मुंजे, हरदयाल, सावरकर और गोलवलकर
कांग्रेस के एक और प्रभावशाली नेता डॉक्टर बीएस मुंजे थे, जिन्होंने हिंदू महासभा के फलने-फूलने तथा उसके बाद आरएसएस को स्थापित करने में मदद की। उन्होंने तो 1940 में मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान का आह्वान किए जाने से बहुत पहले हिंदू अलगाववाद की वकालत कर दी थी। मुंजे ने 1923 में अवध हिंदू महासभा के तीसरे अधिवेशन को संबोधित करते हुए घोषणा की थी किः
"जैसे इंग्लैंड अंगरेजों का, फ्रांस फ्रांसीसियों का तथा जर्मनी, जर्मन नागरिकों का है, वैसे ही भारत हिंदुओं का है। अगर हिंदू संगठित हो जाते हैं तो वे अंगरजों और उनके पिट्ठुओं, मुसलमानों को वश में कर सकते हैं। अब के बाद हिन्दू अपना संसार बनाएंगे और शुद्धि तथा संगठन के दुवारा फले-फूलेंगे।"
यह मुंजे की अज्ञानता ही थी, जो वह इंग्लैंड, फ्रांस व जर्मनी का उदाहरण दे कर कह रहे थे कि भारत हिंदुओं का है। इंग्लिश, फ्रेंच और जर्मन पहचान का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं था। इन देशों के निवासियों की यह पहचान सेक्युलर नागरिकों के रूप में थी।
मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग से बहुत पहले, गदर पार्टी से जुड़े लाला हरदयाल (1884-1938) ने सन् 1925 में ही भारत में न केवल एक अलग हिंदू राष्ट्र की बात कही थी, बल्कि अफगानिस्तान के मुसलमानों को हिन्दू बनाये जाने की भी सलाह दे डाली थी । उनका एक महत्वपूर्ण राजनीतिक वक्तव्य कानपुर से प्रकाशित 'प्रताप' में 1925 में छपा था। जिसमें उन्होंने अपने हिन्दू राष्ट्रवादी मंसूबे का खुलासा करते हुवे कहा:
"मैं यह घोषणा करता हूं कि हिंदुस्तान और पंजाब की हिंदू नस्ल का भविष्य इन चार स्तंभों पर आधारित हैः
1. हिंदू संगठन
2. हिंदू राज
3. मुसलमानों की शुद्धि तथा
4. अफगानिस्तान व सीमांत क्षेत्रों की विजय और शुद्धि।
हिंदू राष्ट्र जब तक यह चारों काम नहीं करता तो हमारे बच्चों और उनकी बाद की नस्लों तथा हिंदू नस्ल सदैव खतरे में रहेंगे, इनकी सुरक्षा असंभव होगी। हिंदू नस्ल का इतिहास एक ही है और इनकी संस्थाएं एकरूपी हैं। जबकि मुसलमान और ईसाई हिंदुस्तान के प्रभाव से अछूते हैं। वे अपने धर्मों तथा फारसी, अरब व यूरोपियन समाज को प्राथमिकता देते हैं, इसलिए यह बाहरी लोग हैं, इनकी शुद्धि की जाए। अफगानिस्तान और पहाड़ी इलाके पहले भारत के हिस्से थे, जो आज इस्लाम के प्रभाव में हैं। इसलिए अफगानिस्तान और आसपास के पहाड़ी इलाकों में भी हिंदू राज होना चाहिए, जैसा नेपाल में है। इसके बगैर स्वराज की बात बेकार है।"
भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने और यहां से मुसलमानों व ईसाइयों को बाहर निकाल देने के तमाम तरीके 1923 के प्रारंभ में विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी विवादित किताब 'हिंदुत्व' में अधिक विस्तार से प्रस्तुत किए। हिंदुओं व अन्य धर्मावलंबियों के बीच घृणा फैलाने व उनका ध्रुवीकरण करने वाली इस पुस्तक को लिखने की अनुमति उन्हें आश्चर्यजनक रूप से अंगरेजों की कैद में रहते दे दी गई। हिंदू राष्ट्र की उनकी परिभाषा में मुसलमान व ईसाई शामिल नहीं थे, क्योंकि वे हिंदू सांस्कृतिक विरासत से जुड़ते नहीं थे, न ही हिंदू धर्म अंगीकार करते थे। उन्होंने लिखाः
"ईसाई और मुहम्मडन, जो कुछ समय पहले तक हिंदू ही थे और ज्यादातर मामलों में जो अपनी पहली ही पीढ़ी में नए धर्म के अनुयायी बने हैं, भले ही हम से साझा पितृभूमि का दावा करें और लगभग शुद्ध हिन्दू खून और मूल का दवा करें । लेकिन इन्होंने एक नई संस्कृति अपनाई है इस वजह से यह हिंदू नहीं कहे जा सकते हैं। नए धर्म अपनाने के बाद उन्होंने हिंदू संस्कृति को पूरी तरह छोड़ दिया है। वे सोचते हैं कि अब वे हिंदू संस्कृति से अलग हो गए हैं। इनके त्यौहार और मेले (उर्स वगैरा) अलग हैं और इनके हीरो भी अलग हैं। उनके आदर्श तथा जीवन को देखने का उनका नजरिया बदल गया है। वे अब हम से मेल नहीं खाते इसलिए इन्हें हिंदू नहीं कहा जा सकता।"
हिंदुत्ववादी राजनीति के जनक सावरकर ने बाद में दो- राष्ट्र सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की। इस वास्तविकता को भूलना नहीं चाहिए कि मुस्लिम लीग ने तो पाकिस्तान का प्रस्ताव सन् 1940 में पारित किया था, लेकिन आरएसएस के महान विचारक व मार्गदर्शक सावरकर ने इससे बहुत पहले दो-राष्ट्र सिद्धांत प्रस्तुत कर दिया था। सन् 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने स्पष्ट रूप से यही बात दोहराई कि,
''फिलहाल हिंदुस्तान में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र पास-पास रह रहे हैं. कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मानकर गंभीर गलती कर बैठते हैं कि हिंदुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रुप में ढल गया है या सिर्फ हमारी इच्छा होने से ही इस रूप में ढल जाएगा. इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर लापरवाह दोस्त मात्र सपनों को सच्चाईयों में बदलना चाहते हैं. दृढ़ सच्चाई यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक सवाल औऱ कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंदिता के नतीजे में हम पहुंचे हैं. आज यह कतई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एक एकता में पिरोया हुआ और मिलाजुला राष्ट्र है. बल्कि इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतौर पर दो राष्ट्र हैं- हिंदू और मुसलमान''
हिंदुत्ववादी विचारकों द्वारा प्रचारित दो-राष्ट्र की इस राजनीति को 1939 में प्रकाशित गोलवलकर की पुस्तक 'वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड' से और बल मिला। भारत में अल्पसंख्यकों की समस्या से निपटने के लिए गोलवलकर ने इस किताब में नस्लीय सफाया करने का मंत्र दिया, उसके मुताबिक प्राचीन राष्ट्रों ने अपनी अल्पसंख्यक समस्या हल करने के लिए राजनीति में उन्हें (अल्पसंख्यकों को) कोई अलग स्थान नहीं दिया। मुस्लिम और ईसाई, जो 'आप्रवासी' थे, उन्हें स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यक आबादी अर्थात 'राष्ट्रीय नस्ल ' में मिल जाना चाहिए था। गोलवलकर भारत से अल्पसंख्यकों के सफाये के लिए वही संकल्प प्रकट कर रहे थे कि जिस प्रकार नाजी जर्मनी और फाशिस्ट इटली ने यहूदियों का सफाया किया है। वे मुसलमानों और ईसाइयों को चेतावनी देते हुवे कहते हैं,
"अगर वह ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हें बाहरी लोगों की तरह रहना होगा, वे राष्ट्र द्वारा निर्धारित तमाम नियमों से बंधे रहेंगे। उन्हें कोई विशेष सुरक्षा प्रदान नहीं की जाएगी, न ही उनके कोई विशेष अधिकार होंगे। इन विदेशी तत्वों के सामने केवल दो रास्ते होंगे, या तो वे राष्ट्रीय नस्ल में अपने-आपको समाहित कर लें या जब तक यह राष्ट्रीय नस्ल चाहे तब तक वे उसकी दया पर निर्भर रहें अथवा राष्ट्रीय नस्ल के कल्याण के लिए देश छोड़ जाएं। अल्पसंख्यक समस्या का यही एकमात्र उचित और तर्कपूर्ण हल है। इसी से राष्ट्र का जीवन स्वस्थ व विघ्न विहीन होगा। राज्य के भीतर राज्य बनाने जैसे विकसित किए जा रहे केंसर से राष्ट्र को सुरक्षित रखने का केवल यही उपाय है। प्राचीन चतुर राष्ट्रों से मिली सीख के आधार पर यही एक दृष्टिकोण है जिसके अनुसार हिंदुस्थान में मौजूद विदेशी नस्लें अनिवार्यतः हिंदू संस्कृति व भाषा को अंगीकार कर लें, हिंदू धर्म का सम्मान करना सीख लें तथा हिंदू वंश, संस्कृति अर्थात् हिंदू राष्ट्र का गौरव गान करें। वे अपने अलग अस्तित्व की इच्छा छोड़ दें और हिंदू नस्ल में शामिल हो जाएं, या वे देश में रहें, संपूर्ण रूप से राष्ट्र के आधीन। किसी वस्तु पर उनका दावा नहीं होगा, न ही वे किसी सुविधा के अधिकारी होंगे। उन्हें किसी मामले में प्राथमिकता नहीं दी जाएगी यहां तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं दिए जाएंगे। कम-से-कम इतना तो होना ही चाहिए, इसके अलावा उन्हें (अल्पसंख्यकों को) स्वीकारने का कोई रास्ता नहीं है। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं। आइए एक सौदा करते हैं, जैसा कि प्राचीन देशों को विदेशियों के साथ करना चाहिए, उऩके साथ जिन्होंने रहने के लिए हमारे देश को चुना है।"
सावरकर के पदचिन्हों पर चलते हुए आरएसएस ने इस विचार को पूरी तरह नकार दिया कि हिंदू और मुसलमान मिल कर एक राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। स्वतंत्रता दिवस (14 अगस्त 1947) की संध्या को आरएसएस के अंगरेजी मुखपत्र 'ऑर्गनाइजर' के संपादकीय में राष्ट्र की उनकी परिकल्पना को इन शब्दों में प्रस्तुत किया गयाः
''राष्ट्रत्व की छद्म धारणाओँ से गुमराह होने से हमें बचना चाहिए. बहुत सारे दिमागी भ्रम और वर्तमान एवं भविष्य की परेशानियों को दूर किया जा सकता है अगर हम इस आसान तथ्य को स्वीकारें कि हिंदुस्थान में सिर्फ हिंदू राष्ट्र का निर्माण करते हैं और राष्ट्र का ढांचा उसी सुरक्षित और उपयुक्त बुनियाद पर खड़ा किया जाना चाहिए. राष्ट्र को हिंदुओं द्वारा हिंदू परंपराओँ, संस्कृति, विचारों और आकांक्षाओं के आधार पर ही गठित किया जाना चाहिए.''
स्वतंत्रता पूर्व के भारत की सांप्रदायिक राजनीति के गहन शोधकर्ता डॉ. बीआर आंबेडकर दो-राष्ट्र सिद्धांत के बारे में हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की समान विचारधारा और आपसी समझ को रेखांकित करते हुए लिखते हैं:
"यह बात भले विचित्र लगे लेकिन एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रशन पर मि. सावरकर व मि. जिन्नाह के विचार परस्पर विरोधी होने के बजाय एक-दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं। दोनों ही इसे स्वीकार करते हैं, और न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं- एक मुस्लिम राष्ट्र और दूसरा हिंदू राष्ट्र।"
सावरकर के शैतानियत से भरे दो-राष्ट्र सिद्धांत और हिंदुत्व राजनीती की लफ़्फ़ाज़ी से दुखी डॉ आंबेडकर ने 1940 में लिखा कि,
"इस तरह की व्याख्या से तो हिंदू कौम प्रभुत्व जमा कर ही रहेगी और मुस्लिम राष्ट्र को उनके अधीनस्थ रहकर सहयोग करना होगा।"
सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदू महासभा द्वारा मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकारें चलाना
हिंदू राष्ट्रवादी सावरकर के वंशज, जो आज भारत में सत्ता संभाले हुए हैं, इस इस शर्मनाक सच से अनजान बने हुवे हैं कि देश के साझा स्वतंत्रता संग्राम खासतौर से अंगरेज हुक्मरानों के खिलाफ 1942 के अंगरेजों भारत छोड़ो आंदोलन को निष्प्रभावी करने के लिए सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग को साथ मिल कर सरकारें चलायी थीं । कानपुर में आयोजित हिंदू महासभा के 24वें अधिवेशन में अधियक्षय भाषण देते हुए सावरकर ने मुस्लिम लीग को इस तरह साथ लेने का यूं बचाव कियाः
"हिंदू महासभा जानती है कि व्यावहारिक राजनीति में हमें तर्कसंगत समझौतों के साथ आगे बढ़ना चाहिए। हाल ही सिंध की सच्चाई को समझें, जहां निमंत्रण मिलने पर सिंध हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर साझा सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सब के सामने है। उद्दंड (मुस्लिम) लीगी जिन्हें कांग्रेस अपने तमाम आत्म समर्पणों के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के संपर्क में आने के बाद तर्कसंगत समझौतों और परस्पर सामाजिक व्यवहार को तैयार हो गए। श्री फजलुलहक की प्रीमियरशिप (मुख्यमंत्रित्व) तथा महासभा के निपुण सम्माननीय नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदायों के हित साधते हुए एक साल तक सफलतापूर्वक चली। इसके अलावा हमारे कामकाज से यह भी सिद्ध हो गया कि हिंदू महासभा ने राजनीतिक सत्ता केवल आमजन के हितार्थ प्राप्त की थी, न कि सत्ता के सुख पाने व लाभ बटोरने के लिए।"
हिंदू महासभा व मुस्लिम लीग ने उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में भी गठबंधन सरकार बनाई थी।
विभाजन विरोधी मुसलमान
भारत विभाजन को ले कर हिंदुत्व ब्रिगेड द्वारा जो सबसे बड़ा झूठ लगातार फैलाया जाता है, वह यह है कि तमाम मुसलमानों ने एकमत हो कर पाकिस्तान की मांग की और उन्होंने देश का विभाजन करा दिया। हिंदुत्ववादियों द्वारा इस झूठ को सच मान कर चलना भारत में मुसलमानों के उत्पीड़न का बहुत बड़ा कारण है। यह सच है कि सन् 1947 में हुए भारत विभाजन का कारण मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग थी। और इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि मुस्लिम लीग द्वारा अपनी मांग के समर्थन में मुसलमानों की एक बड़ी संख्या को भड़काने में कामयाब हो गया था।
इसके साथ ही यह भी सत्य है कि भारतीय मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा और मुसलमान संगठन पाकिस्तान की मांग के विरोध में खड़े थे। विभाजन विरोधी इन मुसलमानों ने मुस्लिम लीग के दावे को सैद्धांतिक रूप से चुनौती दी और बाद में पाकिस्तान की मांग के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष किया। यह मुसलमान बहादुरी से लड़े और इनमें से कई ने भारत की एकता व अखंडता के लिए अपनी जानें भी कुर्बान कर दीं। इसके बावजूद भारत विभाजन के लिए समस्त मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराने का झूठ लगातार बोला जाता है। विभाजन के लिए तमाम भारतीय मुसलमानों को मुजरिम ठराये जाने वाला झूट सिर्फ इस वजह से ही नहीं फैलता की यह दो-राष्ट्र सिद्धांत के जनक हिन्दुत्वादी गिरोह के मुसलमान विरोधी प्रोजेक्ट का हिस्सा है। इस का बड़ा कारण यह है की भारतीय मुसलमान अपने नज़दीकी पूर्वजों की दो-राष्ट्र और पाकिस्तान विरोधी विरासत से अनिभिज्ञ हैं। वे नहीं जानते कि किस तरह मुसलमानोँ ने राजनैतिक, धार्मिक और शारीरिक रूप से मुस्लिम लीग की देश को बाँटने वाली कुत्सित निति का सामना किया था।
मुस्लिम लीग द्वारा लाहौर में पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित कर लिए जाने के कुछ सप्ताह में ही भारतीय मुसलमानों ने दिल्ली (क्वींस पार्क, चांदनी चौक, दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने, अब यह म्युनिसिपल पार्क कहलाता है) में 27-30 अप्रैल 1940 को मुस्लिम आजाद कॉन्फ्रेंस का का महा आयोजन कर डाला। (तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार 29 अप्रैल 1940 को इसका समापन होना था मगर कॉन्फ्रेंस में शामिल होने वालों की बड़ी तादाद, पाकिस्तान के मंसूबे के ख़िलाफ़ बोलने वालों का उत्साह और काम की अधिकता देखते हुए इसका एक दिन और बढ़ाया गया था)। भारत के लगभग हर भाग से कोई 1400 प्रतिनिधियों ने इसमें शिरकत की। कॉन्फ्रेंस का मुख्य आकर्षण सिंध के पूर्व प्रीमियर (मुख्यमंत्री समान पद) अल्लाह बख्श थे, जिन्होंने इसकी अध्यक्षता भी की थी । इस काम के लिए उन्हें अपनी जान की क़ुरबानी भी देनी पड़ी थी।
इस कॉन्फ्रेंस में कई बड़े व प्रतिष्ठित मुस्लिम संगठनों ने शिरकत की। इनमें ऑल इंडिया जमीअतुल उलमा, ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस, ऑल इंडिया मजलिसे-अहरार, ऑल इंडिया शिया पॉलीटिकल कॉन्फ्रेंस, खुदाई खिदमतगार, बंगाल कृषक प्रजा पार्टी, ऑल इंडिया मुल्सिम पार्लिमेंट्री बोर्ड, द अंजुमन-ए-वतन बलुचिस्तान, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस और जमीअत अहल-ए-हदीस आदि शामिल थे। आजाद मुस्लिम कॉन्फ्रेंस में संयुक्त प्रांत, बिहार, मध्य प्रांत, पंजाब, सिंध, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत, मद्रास, उड़ीसा, बंगाल, मलाबार, बलूचिस्तान, देहली, असम, राजस्थान, कश्मीर, हैदराबाद के अलावा कई देसी रियासतों के प्रतिनिधियों की शिरकत ने इसे संपूर्ण भारत के मुसलमानों की कॉन्फ्रेंस बना दिया था। इसमें कोई शक नहीं था कि यह प्रतिनिधि "भारत के बहुसंख्यक मुस्लिमों की नुमाइंदगी" कर रहे थे।
इन प्रतिष्ठित मुस्लिम संगठनों के अलावा भारतीय मुस्लिम बुध्दिजीवियों की दीप्त श्रंखला जैसे डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी (जिन्होंने मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक सियासत के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था, मृत्यु 1936), शौकतुल्लाह अंसारी, खान अब्दुल गफ्फार खान, सैयद अब्दुल्लाह बरेलवी, शेख मुहम्मद अब्दुल्लाह, एएम ख्वाजा और मौलाना आजाद पाकिस्तान के खिलाफ इस आंदोलन के साथ थे। जमीअत व अन्य संगठनों ने दो राष्ट्र सिद्धांत के खिलाफ तथा भारत में हिंदू व मुसलमानों की साझा विरासत पर बड़ी तादाद में उर्दू साहित्य छपवाया था।
अपने अधियक्षीय उद्बोधन में अल्लाह बख्श ने घोषणा की कि पाकिस्तान का प्रस्ताव मुसलमानों के साथ भारत के लिए भी आत्मघाती सिद्ध होगा। भारतीय समाज व राजतंत्र की सबको समाहित कर लेने वाली प्रकृति पर बल देते हुए उन्होंने कहाः
"एक भारतीय नागरिक होने के नाते मुसलमान, हिंदू व अन्य भारतीय नागरिकों का अपनी मातृभूमि और इसकी तमाम चीजों पर, इसकी सांस्कृतिक विरासत पर समानाधिकार है और उन्हें इस पर गर्व होना चाहिए। साहित्य को ही देखें तो इसे सबने मिलजुल समृद्ध किया है। जैसे मुस्लिम रचनाकारों द्वारा रचित हीर-रांझा और ससी-पन्नू की कहानियों को हिंदुओं व सिखों ने पंजाब व सिंध में दूर-दूर तक फैला दिया। इस तरह के बहुत से उदाहरण मौजूद हैं। यह हिंदू, मुसलमान या भारत के अन्य नागरिकों के बीच दुष्ट भ्रांति है कि उनका पूरे भारत या उसके किसी भाग पर विशेष मालिकाना अधिकार है। देश अविभाज्य रूप से उन सभी का है जो इसमें रहते-बसते हैं। ठीक इसी तरह यह भारतीय मुसलमानों की विरासत का भी अपरिहार्य अंग है। कोई अलग या विशेष इलाका नहीं, बल्कि पूरा भारत देश भारतीय मुसलमानों की मातृभूमि है। किसी भी हिंदू या मुसलमान को इसका अधिकार नहीं है कि वह इस मदर-ए-वतन की एक इंच धरती से भी उन्हें अलग कर सके।
"जो लोग भी भारतीय मुसलमानों के कुछ वर्गों के लिए अलग और सीमित मातृभूमि की बात करते हैं, वे स्वतंत्र हैं कि अपने-आप को भारतीय नागरिकता के अधिकार से वंचित कर लें। भारतीय मुसलमानों की बड़ी तादाद जो मुल्क के किसी भी हिस्से में निवास करती है और उसे अधिकार है इस देश के किसी भी भाग में रहने-बसने का, वह निश्चित ही सकारात्मक व निर्णायक रूप से ऐसे निरर्थक व आत्मघाती प्रस्ताव को रद्द कर देगी। किसी भी बहुमत, हिन्दुओं का या किसी और का, को यह अधिकार नहीं है कि वे क्षेत्र जिन में केवल एक ही मुसलमान रहता है, रहना चाहता है या कारोबार करना चाहता है को इस सम्पूर्ण अधिकार से जो सब हिन्दुस्तानियों को मिले हुवे हैं, रत्ती भर भी वंचित करदे। और ज़ाहिर है इसी तरह हर हिन्दू या अन्य देश वासीयों को सामान नागरिकता का अधिकार होगा चाहे उनमें से एक भी देश के किसी भी भाग में दसियों लाख मुसलमानों के बीच में रहता हो। हम अपने देश के हिंदुओं या अन्य भारतीय नागरिकों के साथ देश के हर मामले में समान रूप से साझेदार हैं और अपनी हर जायज जरूरत पूरी कर सकते हैं। कोई भी दुष्प्रचार या भावनाओं को भड़काने वाला बनावटी प्रदर्शन इन स्थितियों को नहीं बदल सकता है। इस धरती की कोई ताकत किसी को उसकी आस्था और दृढ़ विश्वास से डिगा नहीं सकती और दुनिया की किसी ताकत को इसकी इजाजत नहीं दी जाएगी कि वह भारतीय मुसलमानों को बतौर भारतीय नागरिक उनके अधिकारों पर डाका डाल सके । एक भारतीय होने के नाते अन्य नागरिकों की तरह ही हमारे अधिकार व जिम्मेदारियों समान हैं और न हम अपने अधिकारों में जरा सी कमी होने देंगे, न ही देश के प्रति अपने कर्तव्य से एक पल के लिए भी हम नजरें चुराएंगे। मुझे पूरा विश्वास है , जनाब, कि हम जो यहां जमा हुए हैं, सब इससे सहमत हैं कि हमें अपने देश को एक स्वतंत्र व सम्माजनक देश के रूप में स्थापित करने में पूरा-पूरा सहयोग देना है तथा हम संकल्प-बध हैं कि देश इस उद्देश्य को जल्दी से जल्दी हासिल कर ले।"
मुस्लिम लीग द्वारा भाड़े के हत्यारों से अल्लाह बख्श की हत्या कराना
हम में से कितने लोग जानते हैं कि हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा महात्मा गांधी की हत्या किए जाने से बहुत पहले मुस्लिम राष्ट्रवादियों (मुस्लिम लीग) ने भाड़े के हत्यारों की मदद से अल्लाह बख्श की हत्या कर दी थी। 14 मई 1943 को सिंध के शिकारपुर कस्बे में यह हत्या की गई, क्योंकि अल्लाह बख्श मुस्लिम लीग और उसके द्वारा की जा रही पाकिस्तान की मांग के विरुद्ध हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक रूप में एक स्तम्भ बनकर खड़े थे । अल्लाह बख्श की हत्या को भी गांधी की हत्या तरह ही देखा जाना चाहिए, जो भारत को हिंदू राष्ट्र में परिवर्तित करने की इच्छा रखने वाले हिंदुत्ववादियों के सामने चट्टान बन कर खड़े हो गए थे।
मुस्लिम लीग का आतंक
पाकिस्तान विरोधी आंदोलन के तमाम नेताओं, कार्यकर्ताओं को मुस्लिम लीग के हमले झेलने पड़े। उनके घर लूटे गए, परिजनों पर हमले हुए, जिन मस्जिदों में ये नेतागण ठहरते या मुसलमानों को संबोधित करते थे, उन्हें नुकसान पहुंचाया गया। शैख़-उल-इस्लाम मौलाना हुसैन अहमद मदनी पर उत्तरप्रदेश व बिहार में घातक हमले हुए। मौलाना आजाद, अहरार लीडर हबीबुर्रहमान, मौलाना इस्हाक़ संभली, हाफिज इब्राहीम, मौलाना एम कासिम शाहजहांपुरी और अन्य कई महत्वपूर्ण उलमा को प्राणघातक हमलों का सामना करना पड़ा। कई स्थानों पर इन उलमा को धारदार हथियारों का निशाना बनाया गया, जिनसे इनके अंग बेकार हो गए या काटने पड़े। इन पर गोलियां चलाई गईं और दिल्ली स्थित जमीअत उलमा-ए-हिंद के दफ्तर में आग लगा दी गई। मोमिन कॉन्फ्रेंस के जलसे इन हमलों का विशेष निशाना हुआ करते थे। इसके कार्यकर्ताओं की हत्याएं की गईं जिस पर कॉन्फ्रेंस द्वारा मुस्लिम लीग को चेतावनी देनी पड़ी। पाकिस्तान विरोधी मुसलमानों और संगठनों पर हिंसक हमलों के लिए मुस्लिम लीग ने बाक़ायदा एक सेना भी खड़ी की थी जिस का नाम 'मुस्लिम नेशनल गार्ड' (एमएनजी) था। अंग्रेजी सरकार की ख़ुफ़िया संस्थाओं के आंकलन के अनुसार इस सेना में 150000-200000 लोग थे।
एक तात्कालीन दस्तावेज के अनुसार, "इस बात का जिक्र काफी दर्द के साथ करना पड़ रहा है कि सम्मानित देश प्रेमी उलमा और नेताओं से मुस्लिम लीग ने किस तरह का बरताव किया। यह दर्दनाक, दिल तोड़ने वाला और अमानवीय था। गांवों, शहरों व कस्बों में इन देश प्रेमियों शख्सियतों की सभाओं पर पथराव किए गए और बेहद आपराधिक तरीके से बार-बार हमले किए गए। मुस्लिम लीग का अग्रणी संगठन, एमएनजी अब देश प्रेमी मुसलमानों के खिलाफ ऐसी हिंसा पर उतर आया जिसे बयान नहीं किया जा सकता। देश प्रेमी मुसलमानों के लिए कहीं यात्रा करना भी कठिन हो गया था क्योंकि उन पर आवाजाही के दौरान हमले किए जाने लगे। लीग का विरोध करने वाले अब भयभीत होने लगे थे और यदि कोई भी विरोध करने की हिम्मत करता तो उसका हश्र बहुत बुरा होता।"
दो राष्ट्र सिद्धांत में विश्वास रखने वाले हिंदू राष्ट्रवादी, जिन्हें भारतीय राष्ट्रवादी बना दिया गया
इन तमाम तथ्यों के बावजूद सिर्फ मुसलमानों को विभाजन का गुनाहगार बना दिया गया। उन्हें ही दो राष्ट्र सिद्धांत को जन्म देने का अपराधी मान लिया गया। बाल गंगाधर तिलक, लाजपत राय, मदनमोहन मालवीय, एमएस एनी, बीएस मूंजे, एमआर जयकर, एनसी केलकर, स्वामी श्रद्धानंद आदि (जिनमें से कई तो कांग्रेसी नेता थे) जैसे महत्वपूर्ण हिंदू राष्ट्रवादी नेता एक समावेशी भारत को स्वीकार नहीं करते, बल्कि वे एक विशिष्ट हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए प्रतिबद्ध थे। उनका विश्वास था कि भारत आदिकाल से हिंदू राष्ट्र था और इसे उसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। इस सब के बावजूद इन सब का गुणगान महान राष्ट्रवादियों के रूप में किया जाता रहा और किया जाता है।
वास्तव में देश के बहुसंख्यक समुदाय को अपनी घोर सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद के आवरण में छुपा लेने की सुविधा प्राप्त थी। इसका जीवंत उदाहरण मदनमोहन मालवीय हैं। सन् 1909, 1918 एवं 1933 में वे उस इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, जो एक एक साझे और समावेशी भारत के लिए कटिबद्ध थी। इसके साथ ही उन्होंने 1923, 1924 और 1936 में हिंदू महासभा के वे अधियक्ष भी रहे जो देश को खालिस हिन्दू राष्ट्र बनाने के काम में रात-दिन-जुटी थी। वे 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' जैसे विभाजनकारी नारे के जनक भी थे। आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है की वे उर्दू और अंग्रेजी में लिखते थे और उन्हें हिंदी की वर्णमाला नहीं आती थी। सांप्रदायिक घृणा फैलाने की उनकी करतूतों के बावजूद उन्हें महान भारतीय राष्ट्रवादी नेता माना जाता है।
मुस्लमान राष्ट्रवादियों और हिन्दू राष्ट्रवादियों के लिए भिन्न मापदंड
अगर मुस्लमान नेताओं में इस आधार पर भेद किया जा सकता है कि वे बहुधर्मी भारत में विश्वास करते हैं या मुसलमानों के वतन के तौर पर पाकिस्तान निर्माण का, तो हिंदू नेताओं के लिए भी यही मापदंड होना चाहिए। जब हम भारतीय राष्ट्रवाद का अध्ययन करते हैं तो सामान्यतः हमें यह बताया जाता है कि सारे हिंदू राष्ट्रभक्त थे, जबकि बहुत थोड़े मुसलमान देशभक्त थे। अधिकांश मुसलमान राष्ट्र विरोधी मुस्लिम लीग के साथ थे। इस भ्रम को दूर करने के लिए हमें भारतीय संदर्भ में यह तय करने की जरूरत है कि राष्ट्रवाद का अर्थ क्या है। अगर भारतीय राष्ट्रवाद से यह अर्थ लिया जा रहा था कि यह एक बहुधर्मी, सेक्युलर राष्ट्र निर्माण के लिए था तौ केवल वे, जो इस संकल्प को पूरा करने में विश्वास रखते थे वे ही राष्ट्रवादी या देशभक्त कहे जाएंगे। लेकिन यह कम ही होता है कि हम सांप्रदायिक हिंदू या राष्ट्रवादी हिंदू नेताओं को इस मापदंड पर तोलें । बावजूद इसके कि वे बहुधर्मी, समावेशी भारत के विरोधी थे, वे राष्ट्रवाद के प्रतीक बने हुए हैं। वास्तविकता यह है कि हिंदू राष्ट्रवादी नेता यक़ीनन गद्दार या राष्ट्र विरोधी थे, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मुस्लिम लीग और उसके नेता थे।
ठीक इसी तरह जैसे कि समस्त हिंदू नेता देश प्रेमी नहीं थे, उसी तरह सारे मुसलमान भी देशद्रोही नहीं थे। मुसलमानों की एक बड़ी संख्या और लोकप्रिय मुस्लिम संगठनों ने दो राष्ट्र सिद्धांत और पाकिस्तान निर्माण का हरसंभव विरोध किया, यहां तक कि इसके लिए उन्होंने अपनी जानें तक कुर्बान कर दीं।
इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि हिंदू राष्ट्रवादियों की संतानें, जिन्होंने दो राष्ट्र सिद्धांत की राजनीति को विरासत में पाया, आज देश की सत्ता पर काबिज हैं। इन सत्ताभोगी संतानों के राजनीतिक पूर्वजों जैसे मुंजे, सावरकर और गोलवलकर का स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं था । वे मुस्लिम लीग व अंगरेज शासकों के सहयोगी रहे और उनकी संतानें आज भारतीय मुसलमानों की हुब्बुलवतनी (देश प्रेम) पर सवाल उठा रही हैं।
भारतीय मुसलमानों के सामने चुनौती
राष्ट्र विरोधी हिंदू देशभक्तों द्वारा किए जा रहे इन हमलों के खिलाफ भारतीय मुसलमानों को रक्षात्मक रुख अपनाने के बजाय, उन पर लगाए जा रहे आरोपों का आक्रामक तरीके से जवाब देना चाहिए। इतिहास और सच्चाई उनके साथ हैं । भारतीय मुसलमान उन निडर मुसलमानों की औलादें हैं, जिन्होंने मुस्लिम लीग और उसके द्वारा की जाने वाली पाकिस्तान की मांग के खिलाफ शानदार युद्ध लड़ा । उन्हें पाकिस्तान नहीं चाहिए था, लेकिन वे अंगरेज शासकों, मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच भारत विभाजन के लिए किए गए करार के असहाय शिकार बनगए। देश विभाजन के लिए कांग्रेस के राज़ी हो जाने पर सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान ने गांधी को जून 1947 में जो पत्र लिखा उस के यह शब्द पाकिस्तान विरोधी मुसलमानों के साथ जो धोका हुआ उसका बहुत सही वर्णन करता है । उन्होंने लिखा था:
"हम पख्तून आप के साथ खड़े रहे और आजादी के लिए बड़ी-से-बड़ी कुर्बानियां दीं, लेकिन आप ने अब हमें भेड़ियों के बीच अकेला छोड़ दिया।"
सावरकर और गोलवलकर की संतानें, जिनका आज भारत पर शासन चल रहा है, उनकी विरासत में दो राष्ट्र सिद्धांत और जिन्नाह के साथ खड़े होना शामिल है। जबकि धर्म के आधार पर भारत विभाजन के विरोधी मुसलमानों के पास देश विभाजित होने से बचाने के प्रयासों का का लम्बा गौरवशाली इतिहास है। एक संयुक्त, लोकतांत्रिक और धर्म निरपेक्श भारत के लिए उनके संकल्प और प्रतिबद्धता पूरी तरह स्पष्ट हैं। सुविख्यात शायर शमीम करहानी की, 1940 में रचित, पाकिस्तान विरोधी नज्म 'पाकिस्तान चाहने वालों से', जो मुस्लिम लीग के खिलाफ भारतीय मुसलमानों का जन गीत बन गई थी, इस संकल्प और प्रतिबद्धता को भरपूर तरीक़े से ब्यान करती है । पाकिस्तान की अपनी मांग को मुस्लिम लीग ने कियोंकी मजहब से जोड़ा था तो शमीम करहानी साहेब ने इसी लबो-लहजे में उसका जवाब दिया था। हर भारतीय मुसलमान को इस पर फख्र होना चाहिए।
पाकिस्तान चाहने वालों से
- शमीम करहानी
हमको बतलाओ तो क्या मतलब है पाकिस्तान का
जिस जगह इस वक्त मुस्लिम हैं, नजिस1 है क्या वह जा2।
नेशे-तोहमत3 से तेरे, चिश्ती का सीना चाक4 है
जल्द बतला क्या जमीं अजमेर की नापाक है।
कुफ़्र की वादी में ईमां का नगीना खो गया
है क्या ख़ाके-नजिस5 में शाहे-ए-मीना6 खो गया।
दीन का मख़्दूम7 जो कलियर की आबादी में है
आह! उसका आस्ताना क्या नजिस वादी में है।
हैं इमामों के जो रोज़े लखनऊ की ख़ाक पर
बन गए क्या तौबा-तौबा ख़ित्ता-ए-नापाक8 पर।
बात यह कैसे कही तूने कि दिल ने आह की
क्या ज़मीं ताहिर9 नहीं दरगाहे-नूरुल्लाह की।
आह! इस पाकीज़ा10 गंगा को नजिस कहता है तू
जिसके पानी से किया मुस्लिम शहीदों ने वुज़ू11।
नामे-पाकिस्तां न ले गर तुझको पासे-दीन12 है
यह गुज़िश्ता13 नस्ले-मुस्लिम की बड़ी तौहीन है।
टुकड़े-टुकड़े कर नहीं सकते वतन को अहले-दिल14
किस तरह ताराज15 देखेंगे चमन को अहले-दिल।
क्या यह मतलब है के हम महरूमे-आज़ादी16 रहें
मुन्क़सिम17 हो कर अरब की तरह फ़रियादी रहें।
टुकड़े-टुकड़े हो के मुस्लिम ख़स्ता-दिल18 हो जाएगा
नख़्ले-जमीअत19 सरासर मुज़महिल20 हो जाएगा।
1. अपवित्र 2. स्थान 3. आरोप का डंक 4. फटा हुआ 5. अपवित्र भूमि 6. क़ीमती नगीना 7. सूफ़ी मख़्दूम शाह कलियर साबिरी 8. अपवित्र भू-भाग 9. पवित्र 10. पवित्र 11. नमाज़ के लिए हाथ-मुंह धोना 12. धर्म का ख़याल 13. पिछली 14. विशाल ह्रदय वाले 15. बर्बाद 16. आज़ादी से वंचित 17. विभाजित 18. कमज़ोर 19. क़ौम का पेड़, क़ौम 20. मुरझाना
(अंग्रेजी से अनुवाद: जावेद आलम इंदौरी)