दिल्ली में चुनाव की घोषणा और दैनिक जागरण का राजनीतिक घमासान

Written by Sanjay Kumar Singh | Published on: January 7, 2020
हिन्दी अखबारों को दिल्ली चुनाव का नया मुद्दा मिल गया है। जेएनयू में नकाब पहन कर कौन आया छात्रों शिक्षकों पर हमला कर चला गया। पुलिस कैम्पस के बाहर अंदर घुसने की अनुमति का इंतजार करती रही, बिना अनुमति ना झगड़ा छुड़ाया और ना हमला कर वापस जाते बदमाशों को पकड़ा। भारी सुरक्षा के बावजूद यह सब हो गया। ना पुलिस ना जेएनयू प्रशासन और ना मीडिया में किसी हमलावर के इस तरह चले जाने पर कोई चिन्ता जताई गई है। ना ऐसी कोई मांग है और ना इसे चूक माना जा रहा है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने हमलावरों को वामपंथी बताया है। इस दावे में कितना दम है इस पर चर्चा किए बगैर यह दावा अखबारों में जरूर है। कल हमले की खबर को लीड नहीं बनाने वाले अखबार, दैनिक जागरण ने आज इस खबर के फॉलोअप को सात कॉलम में लीड बनाया है। इसका शीर्षक है, जेएनयू हिन्सा पर सियासी दलों के बीच मचा घमासान। दिलचस्प यह है कि इस घमासान की सूचना किसी अन्य अखबार को नहीं लगी।



दैनिक भास्कर में दिल्ली चुनाव की खबर बैनर शीर्षक से नहीं पर आठ कॉलम में छपी है और राजनीतिक दलों में घमासान की कोई खबर पहले पन्ने पर तो नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि जेएनयू की खबर का फॉलोअप नहीं है। जेएनयू हिन्सा : दंगा-सरकारी प्रोपर्टी को नुकसान पहुंचाने का केस दर्ज - शीर्षक से एक खबर पहले पन्ने पर है। हालांकि हमलावरों की पहचान ही नहीं हुई है तो इस केस का क्या मतलब। यह वर्षों से होता आया है और अभी भी मामला अज्ञात के खिलाफ दर्ज हुआ है। पर माहौल बनाए रखने के लिए ऐसी खबरें जरूरी हैं ताकि यह आरोप नहीं लगे कि वसूली की कार्रवाई सिर्फ उत्तर प्रदेश पुलिस कर रही है। इसके अलावा, भास्कर की आज की खबर यह भी बताती लग रही है कि दिल्ली पुलिस ने विश्वविद्यालय में 'काम' किया था। किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी नहीं थी जैसा मैं अभी तक समझ रहा था।

इस लिहाज से दैनिक हिन्दुस्तान के इरादे साफ हैं। आज पहले पन्ने पर विज्ञापननुमा खबर या सूचना है, दिल्ली में लोकतंत्र का महापर्व। इसमें बताया गया है कि राजधानी दिल्ली में 'सियासी दंगल' का आगाज हो चुका है। लोकतंत्र का महापर्व शुरू होने के साथ सियासी पारा भी चढ़ने लगा है। पर जेएनयू में सियासी दलों के बीच घमासान की कोई खबर यहां भी पहले पन्ने पर नहीं है। पहले पन्ने पर सूचना रूपी अपने विज्ञापन के बावजूद अखबार ने जिस तीसरे पन्ने को पहला पन्ना बनाया है उसपर आधा विज्ञापन है और बाकी आधे में चुनाव की खबर लीड है, पांच कॉलम में। जेएनयू की फॉलोअप खबर हिन्दुस्तान में, "आक्रोश : जेएनयू हिंसा के खिलाफ एएमयू से ऑक्सफोर्ड तक प्रदर्शन" शीर्षक से है। अखबार ने लिखा है, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंसा के खिलाफ सोमवार को विरोध तेज हो गया।

नवभारत टाइम्स में लीड है, दिल्ली का काउंटडाउन शुरू, 8 फरवरी को वोट। यहां भी आधे पन्ने का विज्ञापन है लेकिन दिल्ली में चुनाव हो तो खबर लीड कैसे नहीं बनेगी। ये पत्रकारिता की कुछ पुरानी पत्थर की लकीरें हैं जिनपर चलना मजबूरी है। भले पहला पन्ना पूरा या आधा विज्ञापन से रंग दिया जाए। यहां जेएनयू की खबर का कोई फॉलोअप पहले पन्ने पर नहीं है। अगर दिल्ली चुनाव की खबर के शीर्षक में ही खेल या प्रतिभा देखनी हो तो नवोदय टाइम्स का शीर्षक, "अगली 8 को दिल्ली 20-20" दिलचस्प है। यहां जेएनयू की खबर सेकेंड लीड है और शीर्षक है, जेएनयू हिन्सा में बाहरी लोग भी, पुलिस को मिले सुराग। कल के अखबारों में पुलिस को सुराग मिलने के अलावा बाकी खबर तो थी ही। नवोदय टाइम्स ने ही जेएनयू को जंग का मैदान बनाया था और आज की खबर कल वाले का सुधार है।

अमर उजाला ने भी दिल्ली में चुनाव की खबर को लीड बनाया है। पर जेएनयू में सियासी दलों के घमासान जैसी कोई खबर पहले पन्ने पर नहीं है। यहां भी फॉलो अप खबर में यही बताया गया है कि जेएनयू हिन्सा के विरोध में देश भर में कल प्रदर्शन, पश्चिम बंगाल में लाठी चार्ज। उपशीर्षक है, जेएनयू प्रशासन ने मानव संसाधन मंत्रालय को सौंपी घटना की रिपोर्ट।

आइए, अब दैनिक जागरण की खबर देखें। इसका उपशीर्षक है, सख्त रुख : विपक्ष के हमले के बीच सरकार ने कहा, विश्वविद्यालयों को नहीं बनने देंगे राजनीति का अड्डा। अगर वाकई ऐसा है तो यह काम में भी नजर आना चाहिए। विश्वविद्यालय के कुलपति से पूछा जाना चाहिए कि संस्थान की सुरक्षा के लिए तैनात निजी गार्डों ने क्या किया, पुलिस को अनुमति देने में देर क्यों की गई और किस आधार पर उन्हें यकीन था कि पुलिस बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने हमले में अपने लोगों की पिटाई का आरोप लगाया है पर कुलपति के खिलाफ कार्रवाई की मांग नहीं की है, क्यों? जो दिल्ली पुलिस जामिया में बिना अनुमति घुस गई वही दिल्ली पुलिस जेएनयू में क्यों नहीं घुसी अनुमति का इंतजार क्यों करती रही और अनुमति क्यों नहीं दी गई - इसके लिए कोई तो दोषी, जिम्मेदार होगा। उसके खिलाफ कार्रवाई के बिना कैसा सख्त रुख। ऐसे में अगर "सोनिया, ममता ने हिन्सा के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराया" तो घमासान मच गया?

हिन्दी अखबारों की यह हालत तब है जब द टेलीग्राफ का पूरा पहला पन्ना जेएनयू के फॉलोअप से भरा हुआ है। दिल्ली चुनाव की खबर तीन लाइन के शीर्षक और सात लाइन की सूचना से दी गई है। जो लोग चुनाव नहीं लड़ रहे हैं उन्हें फिलहाल इससे ज्यादा जानकारी की जरूरत नहीं है पर हिन्दी अखबारों की अलग दुनिया है। जेएनयू की घटना को लेकर अगर राजनीति हो रही है तो उसकी खबर भी टेलीग्राफ में ही पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम के एक कोट से लग जाती है। यह कोट केंद्रीय गृहमंत्री और सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष अमित शाह का है जो जेएनयू की 2016 की घटनाओं से संबंधित है। उन्होंने कहा, "उन छात्रों ने भारत विरोधी नारे लगाए थे। भारत के हजार टुकड़े होंगे। मित्रों क्या उन्हें जेल में नहीं भेज दिया जाना चाहिए? जोर से कहिए क्या उन्हें जेल भेजा जाना चाहिए या जेल नहीं भेजा जाना चाहिए? इस कोट के साथ अखबार ने फ्लैग शीर्षक के जरिए पूछा है, यहां कौन टुकड़े टुकड़े गैंग लगता है? मुख्य शीर्षक है, फौलादी इच्छा शक्ति बनाम लोहे का सरिया।

अखबार ने हमले में घायल जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय छात्रसंघ की अध्यक्ष आइशी घोष की तस्वीर के साथ उसका कोट भी छापा है जो इस प्रकार है, "लोहे के जिन सरियों से आपने हमें पीटा है उसे हमारे लोकतांत्रिक बहस और चर्चा के जरिए आपको वापस दिया जाएगा।" अखबार में पूरा फॉलोअप है और नहीं लगता कि यह कोई घमासान है। एकतरफा कोशिश जरूर है पर इससे यह भी पता चलता है कि सत्तारूढ़ दल के पास मुद्दों की भारी कमी है। केंद्र में सरकार रहते हुए अगर भाजपा ने टुकड़े टुकड़े गैंग के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की या कर पाई तो यह उसकी कमजोरी का ही परिचायक है। हालांकि, भाजपा इस मामले में दिल्ली की अरविन्द केजरीवाल सरकार को घेरने की कोशिश में है क्योंकि कथित टुकड़े टुकड़े गैंग के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति उसने नहीं दी है। इस मामले में सच्चाई यह है कि 2016 में ही पाया गया था कि संबंधित वीडियो से छेड़छाड़ की गई है और इस तरह पूरा मामला हवा-हवाई ही है। हालांकि, यह अलग मुद्दा है।

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