मनुवाद और पूंजीवाद को नई विपक्षी चुनौतियां देता मोर्चा

Written by उमर ख़ालिद | Published on: January 26, 2018

भारत में मौजूदा सरकार की नीतियां, मनुवाद और बाज़ार के दो तरफ़ा हमले का एक जीता जागता नमूना हैं. दलितों, अन्य पिछड़े वर्ग और मुसलमानों की सामूहिक गतिशीलता, जैसा कि पुणे में एल्गर परिषद में दिखाई दी, इन दोनों हमलों को चुनौती देती है.



1 जनवरी को भगवा झंडे लिए उच्च जाति समूह के वर्गों द्वारा भीमा कोरेगांव में दलितों पर हुए हमलों से, केवल एल्गार परिषद के इस संदेश की पुष्टि हुई जिसके लिए पुणे में एक दिन पहले महाराष्ट्र के 250 प्रगतिशील समूहों द्वारा एक विशाल सम्मेलन का आयोजन किया गया था. पेशवा, जो जातिवादी उत्पीड़न और अस्पृश्यता के सबसे क्रूर एवं तुच्छ स्तर का अभ्यास के लिए जाने जाते थे, उनपर भीमा कोरेगांव की लड़ाई में महार की जीत के दो सौवें वार्षिकोत्सव ने वर्तमान वर्ष में एक अलग ही संदेश की लहर दिखाई दी.

एल्गर परिषद, जो कि महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में एक हफ्ते भर की यात्रा करके आई थी, ने भाजपा / आरएसएस को आज के पेशवाओं के रूप में प्रस्तुत किया और लोगों को भीमा कोरेगांव की लड़ाई से प्रेरणा लेते हुए इन्हें पराजित करने के लिए कहा था. लेकिन यह नव-पेशवाही शब्द का इस्तेमाल करना, केवल अतीत की प्रतिकृति भर नहीं है.  

दो सौ साल से मनुवाद की विचारधारा ने बाज़ार की मांगों के साथ बड़े पैमाने पर सहयोग किया है. जाति का उन्मूलन करना तो दूर, बाज़ार के लिए इसने सस्ते श्रम, भूमि और अन्य संसाधनों की अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पुन: स्वरुप दिया है. इसने समाज में पुराने तंतुओं को बढ़ाया है जबकि एक ही समय में सीमांत, अमानवीकरण और उत्पीड़न की नई परतें भी शामिल की हैं.

उदाहरण के लिए, ग्रामीण इलाकों में दलितों के अधीनता और आक्रोश, उनके अस्थिर भूमि-धारणों, वर्तमान कृषि संकट में परिलक्षित होता है जो अब और भी जटिल हो गया है, या अगर हम अपने शहरों का रुख करें, तो दलित श्रमिकों को अमानवीय नौकरियों जैसे हाथ से मैला उठाने और सीवेज की सफाई के लिए मजबूर किया जाता है, जहां वे विषाक्त गैसों के बीच अनपेक्षित मौतें मरते हैं, यहां तक ​​की उनके पास अपनी 'नौकरियों' से बाहर निकलने का विकल्प भी नहीं होता है. आज हमारे देश में सम्मानित नौकरियों का शायद ही कोई निर्माण हो रहा है.

आज भारत में, कृषि संकट अपने चरम पर है, नौकरी-सृजन हाल के दिनों में सबसे कम है, रोज़गार सबसे अनौपचारिक और असुरक्षित है ऐसी दुर्दशा कभी भी नहीं थी, श्रम सुधारों ने नौकरियों को और कम कर दिया है तथा मोदी शासन के हर गुजरते साल शिक्षा और स्वास्थ्य के फंड की कटौती करती चली जा रही है. 'विकास' एवं 'अच्छे दिन' के वादे कड़वे और क्रूर झूठ बन गए हैं और बड़ी कंपनियों ने अपनी मुट्ठी को विशाल बहुमत की कीमत पर समृद्ध किया है. विमुद्रीकरण और जीएसटी जैसी नीतियों ने केवल लोगों के संकटों में बढ़ोतरी ही की है. दस लाख नौकरियों के वादे से दूर, अब तक बेरोजगारी की दर सिर्फ़ 5% बढ़ी है और जो नौकरियां हैं वहां काम करने वाले बहुमत (71.2%) मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा लाभ के दायरे से बाहर हैं.

दूसरी ओर, आरएसएस की सांस्कृतिक परियोजना हिंदुस्तान के हिंसक अभिव्यक्ति को नियमित रूप से अल्पसंख्यकों और दलितों पर हमले और लिन्चिंग में देखा जा सकता है - राजसमंद, अलवर, उना या सहारनपुर - सूची लंबी है. इन हमलों पर ज्यादातर के लिए प्रधान मंत्री की गहरी चुप्पी है, जबकि बीजेपी / आरएसएस द्वारा गाय-वध करने या लव-जिहाद जैसे दुष्प्रचार के नाम पर हिंसक अभियान चलाये जा रहे हैं और इन्ही के तहत अधिकांश हमलों को अंजाम दिया जा रहा है. यह सिद्ध करता है कि इन हमलों को सत्ता का राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है.

वर्तमान शासन को मनुवाद और बाज़ार के इन जुड़वां हमले के उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है. हमारे प्रधान मंत्री मैनुअल स्केवेंजिंग (हाथों से मल/गटर की सफाई) को खत्म करने में शायद ही कोई दिलचस्पी रखते हैं, क्योंकि यह केवल सस्ती श्रम और लागत में कटौती का स्रोत नहीं है, बल्कि वे इसे 'आध्यात्मिक अभ्यास' के रूप में भी देखते हैं जो ब्राह्मणवाद के सिद्धांतों के अनुसार किया जा रहा है और जिस विचारधारा का आरएसएस समर्थन करता है.

युवा हुंकार रैली, जिसने छात्रों, युवाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों को जोड़ा और एक विविध-वर्गीय-गठबंधन बनकर उभरा, वहां भी संघ परियोजना के भीतर आंतरिक विरोधाभास की भरपूर भत्सना दिख रही थी. फासीवाद के शिकार दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए इन्साफ की मांग, सभी पीड़ितों के लिए आर्थिक और सामाजिक न्याय की बड़ी मांग बन कर उभरी.

जब तक अल्पसंख्यकों और दलितों पर हमले की प्रतिक्रियाएं अत्याचार एक बंद दायरे में थीं और प्रत्येक समुदाय को अपनी लड़ाई खुद लड़ने के लिए मजबूर था तब तक आरएसएस / भाजपा की बड़ी योजनाओं में ज्यादा गड़बड़ी होने कि गुंजाईश कम थी.

मगर अब, ऐतिहासिक रूप से वंचित लोग केवल संघ परिवार के फासीवाद का विरोध करने में अपने महासभा के अस्तित्व से बाहर नहीं आ रहे हैं, बल्कि नए गठजोड़ों को बनाने की कोशिश में भी अनुकरणीय कल्पना दिखा रहे हैं. ऐसा करने में, वे अम्बेडकर के इस संदेश को पारित करते हैं कि ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों हमारे देश में दमनकारी दुश्मन हैं.



उदाहरण के लिए, भीमा कोरेगांव में दलितों पर हमले और बाद में महाराष्ट्र में उसके विरोध पर बड़े पैमाने पर दलित और मराठों के बीच हुई झड़प, जाति के संघर्ष के रूप में चित्रित हुई. लेकिन इन अभ्यावेदनों के विपरीत, दलित और मराठा संगठन दोनों पुणे में एल्गर परिषद में उपस्थित थे, जो अन्य बातों के अलावा, कृषि-संकट, बेरोजगारी और महाराष्ट्र में अकाल जैसे हालात पर केंद्रित थे - जिनसे महाराष्ट्र में दलित और मराठा दोनों पीड़ित हैं, यहाँ देश की सबसे ज्यादा संख्या में किसानों ने आत्महत्याएं की हैं. इससे पहले उना में भी, दलितों पर हुए अत्याचार के खिलाफ संघर्ष में केवल मुसलमानों ने अपने साझा उत्पीड़न पर आवाज़ उठाने के अलावा भूमिहीन दलितों के लिए जमीन की मांग के सवाल भी उठाए.

यही अनुभागीय गठबंधन, संघ के आंतरिक विरोधाभास पर टकराने वाले युवा हुंकार रैली में भी दिखाई दे रहा था, जिसमें अल्पसंख्यक और दलित संगठनों के साथ छात्रों और युवाओं के एक विविध वर्ग को एकजुट करने की मांग की गई थी. सताए हुए अल्पसंख्यकों और दलितों के लिए न्याय की मांग को सभी पीड़ितों द्वारा आर्थिक और सामाजिक न्याय की एक बड़ी मांग उठाई गयी.

एक नया संरेखण जमीन पर उभर रहा है - जहां छात्रों और युवाओं के साथ ऐतिहासिक रूप से पीड़ित, हाशिये पर ढकेले गए लोग और उत्पीड़ित लोगों ने संघ से मोर्चा लेने के लिए एक साथ आने की ठानी है. यह संरेखण अभी भी अपने नवजात चरणों में है, और भारी चुनौतियों का सामना कर रहा है लेकिन अगर यह लोगों को अधिकारों के लिए विभिन्न आंदोलनों को स्थापित करने में सफल हो जाता है, तो ये संघ परिवार के लिए खतरे की घंटी है.

(लेखक भगत सिंह अम्बेडकर छात्र संगठन के सदस्य जेएनयू में एक अनुसंधान विद्वान हैं और भीमा कोरेगांव की लड़ाई के दो सौवें वार्षिकोत्सव समारोह की पूर्व संध्या पर पुणे में एलगर परिषद में आमंत्रित वक्ताओं में से एक हैं)

छवियाँ सौजन्य: मिड-डे और हिंदुस्तान टाइम्स

अनुवाद सौजन्य – सदफ़ जाफ़र
 

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