क्या भारतीय समाज हक़ीक़त में ‘बेटी बचाओ’ में विश्वास करता है?

Written by Newsclick | Published on: August 19, 2024
आरजी कर अस्पताल में बलात्कार और हत्याकांड ने आम जनता के भीतर व्यापक आक्रोश पैदा कर दिया है। हालांकि, हक़ीक़त यह है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों से निपटने में हर संस्थान विफल रहा है। 


कोलकाता और दूसरे शहरों की सड़कों पर गुस्सा है। एक युवा डॉक्टर की जघन्य बलात्कार और हत्या के बाद महिला कर्मचारियों की सुरक्षा की मांग को लेकर कई जगहों पर डॉक्टर, नर्स और अस्पताल कर्मचारी हड़ताल पर हैं। सरकारी आर.जी. कर अस्पताल में हुए इस अत्याचार पर प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी कि अक्सर होती है – यानी इसे छिपाने की कोशिश की गई। लड़की के माता-पिता को शुरू में बताया गया कि लड़की ने आत्महत्या की है।

दुख की बात यह है कि देश के लगभग हर संस्थान की यही कहानी है। यौन हिंसा की हर घटना पर अधिकारियों की पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि वे ऐसा दिखावा करते हैं कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं, अगर संभव हो तो घटना की सूचना पुलिस को नहीं दी जाती है, अगर मीडिया को खबर मिल जाए तो उसे गलत बता दिया जाता है, संभावित गवाहों को धमकाया जाता है आदि-आदि। स्कूलों, स्कूल बसों, कॉलेज परिसरों और काम करने की जगहों पर घटने वाली घटनाओं का भी यही सच है। इससे भी बदतर बात है कि झूठ फैलाना, पीड़ित को बदनाम करना और उनकी प्रतिष्ठा को तार-तार करना। हमने ऐसे कई मामले देखे हैं, और बार-बार देखें हैं और देखे जा रहे हैं। उनमें से बहुत से ऐसे मामले हैं जिन्हें यहां सूचीबद्ध करना और याद रखना मुश्किल है।

संस्थाओं की गरिमा या ‘प्रतिष्ठा’ को बनाए रखना, उन्हें चलाने वालों के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों हो जाता है? इस मानसिकता को बदलना होगा। सवाल उठता है कि, क्या किसी संस्था की गरिमा/प्रतिष्ठा वास्तव में तब नहीं बढ़ेगी, यदि ऐसे मामलों को पारदर्शी तरीके से निपटाया जाए, तत्काल जांच की जाए और जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए, दोषियों को निलंबित किया जाए और उन्हें दंडित किया जाए?
यह बेहद अफसोस की बात है कि ममता बनर्जी जैसी महिला मुख्यमंत्री, बलात्कार-हत्या के खिलाफ विरोध प्रदर्शन को दबाने के लिए कॉलेज के संदिग्ध प्रिंसिपल को दूसरे कॉलेज का प्रमुख बना देती हैं! यह भी उतना ही अफसोस की बात है कि महुआ मोइत्रा जैसी प्रतिष्ठित महिला सांसद इस भयानक अपराध पर तत्काल बयान जारी करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती हैं और यहां तक कि सोशल मीडिया पर उनसे इस बारे में सवाल पूछने वालों को ब्लॉक भी कर देती हैं। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के अन्य सांसदों की बात करें तो उनसे बहुत कम या कुछ भी सुनने को नहीं मिला है।

पूरे मामले को न्याय के बजाय दलीय राजनीति के चश्मे से देखा जा रहा है। वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों ही दल, खास तौर पर उनके महिला संगठन, हमलावर हैं और ऐसा होना सही भी है। पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ टीएमसी पर लंबे समय से अपने आधार को बचाने के लिए गुंडों का इस्तेमाल करने का आरोप लगता रहा है और देर रात (14 अगस्त) प्रदर्शनकारियों और आरजी कर अस्पताल के परिसर और उपकरणों पर भीड़ द्वारा किया गया हमला और भी संदेह पैदा करता है। हत्या के बाद पुलिस की भूमिका और वेतन पाने वाले और पुलिस बैरक में सोने वाले 'सिविल डिफेंस' स्वयंसेवक की गिरफ्तारी बेहद संदिग्ध हो जाती है। युवती के घावों की प्रकृति, सामूहिक बलात्कार का संकेत देती है। अगर ऐसा है, तो इसमें और कौन शामिल है?

हमने देखा है कि पिछले दशकों में, महिलाओं के खिलाफ हिंसा लगातार बढ़ी है, जो उनकी बढ़ती आज़ादी के खिलाफ़ एक प्रतिक्रिया लगती है। 1980 के दशक के महिला आंदोलन के बाद, ज़्यादातर मध्यम वर्ग की लड़कियां शिक्षित हो रही हैं, उच्च शिक्षा और पेशे अपना रही हैं, ज़रूरत पड़ने पर विषम घंटों की शिफ़्ट में काम कर रही हैं। सॉफ़्टवेयर उद्योग में आईटी अधिकारियों से लेकर मॉल में सुरक्षा गार्ड, दफ़्तरों में कॉल सेंटर ऑपरेटर के रूप में काम करने से लेकर कपड़ों की फ़ैक्टरियों में अलग-अलग काम करने तक, उनके लिए कई तरह की नौकरियों में नए अवसर पैदा हुए हैं। शिफ्ट ड्यूटी, रात की ड्यूटी इन महिलाओं के लिए व्यावसायिक जोखिम हैं। तमिलनाडु के तिरुपुर जैसे फ़ैक्टरी शहर, जो युवा महिलाओं के श्रम पर बहुत ज़्यादा निर्भर हैं, माता-पिता को यह संतुष्टि दिलाने के लिए कि वे सुरक्षित हैं उनके लिए छात्रावास बनाए जाते हैं और एहसास कराया जाता है कि घर से दूर काम करते समय उनकी बेटियां सुरक्षित रहेंगी।

बेशक, मजदूर/कामकाजी वर्ग की महिलाएं हमेशा खेतों और खलिहानों में मेहनत करती रही हैं। सामंती ग्रामीण समाजों में उच्च जातियों के वर्चस्व के चलते दलित और आदिवासी महिलाओं को यौन शोषण, ज़्यादती और यहां तक कि बलात्कार और हत्या का खतरा मंडराता रहता है वे इसके प्रति सबसे अधिक संवेदनशील होती हैं। 

हाल के दशकों में, ग्रामीण इलाकों में स्कूल जाने वाली युवा लड़कियों की संख्या बढ़ी है। इसका मतलब है कि अधिक लड़कियां सार्वजनिक जगहों में प्रवेश कर रही हैं, स्कूल जाने के लिए पैदल जा रही हैं या बस ले रही हैं। घर से बाहर निकलने के बाद, लड़कियां और महिलाएं अक्सर असुरक्षित हो जाती हैं। देश के अधिकांश हिस्सों में सदियों से प्रचलित ‘पर्दा’ संस्कृति में, सार्वजनिक स्थान पारंपरिक रूप से पुरुषों के लिए आरक्षित रहे हैं। पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले पुरुष महिलाओं द्वारा इन सार्वजनिक जगहों में ‘प्रवेश’ करने वाली लड़कियों और महिलाओं को एक बेहतरीन शिकार के रूप में देखते हैं। महिलाओं के उत्पीड़न में स्त्री-द्वेष, पितृसत्ता और जाति एक क्रूर भूमिका निभाते हैं।

अस्पताल जैसे खुले सार्वजनिक इदारों में काम करने वाली महिलाएं बहुत ज़्यादा असुरक्षित होती हैं, क्योंकि इन इदारों में बड़ी संख्या में मरीज़ और उनके अटेंडेंट आते हैं। नर्स और महिला अटेंडेंट लंबे समय से यौन उत्पीड़न, दुर्व्यवहार और हमलों की शिकार रही हैं, कई मामलों में वे चुपचाप इसे सहती रही हैं। इस काम की सार्वजनिक प्रकृति, साथ ही जातिगत बाधाएं जो इसे 'अशुद्ध' काम मानती हैं, कई महिलाओं को इस पेशे में शामिल होने से रोकती हैं। जो ऐसा करती हैं, वे काम से जाते समय या कामकाजी महिलाओं के छात्रावासों में रहते हुए सुरक्षित रहने के लिए एक साथ समूह में बंध कर चलने की कोशिश करती हैं। कुछ बड़े अस्पतालों ने नर्सों के लिए छात्रावास बनाए हैं।

यहां तक कि रात की शिफ्ट में काम करने वाले पत्रकारों जैसे अधिक विशेषाधिकार प्राप्त कर्मचारियों को भी सड़कों पर हिंसा का सामना करना पड़ता है। टीवी पत्रकार सौम्या विश्वनाथन को याद करें, जिनकी दिल्ली में एक रात उनकी कार का पीछा कर रहे अपराधियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी।

भारत में महिलाओं की आधिकारिक कार्य सहभागिता दर अभी भी कम है, लेकिन सीमित सरकारी डेटा तेजी से संदिग्ध होता जा रहा है। कुछ अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि आधिकारिक आंकड़े महिलाओं की कार्य सहभागिता दरों को पर्याप्त रूप से नहीं दर्शाते हैं। जबकि महिलाओं की भूमिकाएं बदल रही हैं, समाज बड़े पैमाने पर उनकी नई-नई मिली आज़ादी को स्वीकार करने को तैयार नहीं है और इसलिए अक्सर उन्हें दंडित करता है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, भारत में औसतन प्रतिदिन बलात्कार के लगभग 90 मामले दर्ज किए जाते हैं। संभवतः इनमें से कई मामले अनसुलझे रह जाते हैं। दंगों के दौरान, बलात्कार और हत्या के मामले अक्सर रिपोर्ट नहीं किए जाते या उन्हें सज़ा नहीं मिलती, मणिपुर इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है। केवल कुछ ही मामले मीडिया में कवरेज पाते हैं और राष्ट्रीय मीडिया में ‘मुद्दे’ बनते हैं, जिससे कार्यकर्ताओं, महिला समूहों, राजनेताओं और यहां तक कि संस्थाओं, जैसे कि बड़े पैमाने पर समझौतावादी राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का भी ध्यान आकर्षित होता है।

पुलिस, जिसे औपनिवेशिक मानसिकता और जनविरोधी रवैया विरासत में मिला है, अपर्याप्त फॉरेंसिक ज्ञान और खराब फॉरेंसिक सुविधाओं के अलावा, महिलाओं के खिलाफ हिंसा के अपराधियों को शायद ही कभी पकड़ पाती है। कई मामलों में यह मुक़दमा दर्ज़ करने के लिए भी तैयार नहीं होती है। भ्रष्टाचार भी राजनीतिक प्रभाव और चालों की तरह ही एक भूमिका निभाता है।

हमारी उच्च जाति, उच्च वर्ग से उपजी नौकरशाही, न्याय के मुद्दों के प्रति काफी हद तक उदासीन है। न्यायपालिका और पूरी कानूनी व्यवस्था अपराध जांच सहित सभी जांचों में व्यवस्थित रूप से देरी करती है। पूरी व्यवस्था में सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी की लाइन पर चलने की बेचैनी है। महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए दोषी ठहराए गए आसाराम बापू और राम रहीम जैसे लोगों को उदारतापूर्वक पैरोल मिलती है, जैसा कि गुजरात 2002 के दंगों के दौरान बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार मामले में अपराधियों को मिली थी। दूसरी ओर, 80 वर्षीय स्टेन स्वामी (जिनकी जेल में मृत्यु हो गई) और भीमा कोरेगांव के अन्य आरोपी और सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) विरोधी प्रदर्शनकारियों जैसे राजनीतिक कैदी अनिश्चित काल तक जेल में सड़ते रहते हैं।

हाथरस बलात्कार पीड़िता के शव को उत्तर प्रदेश पुलिस ने चुपचाप जला दिया और सिद्दीकी कप्पन जैसे बदकिस्मत पत्रकारों को सिर्फ़ अपने पेशेवर काम के लिए हाथरस जाने की कोशिश करने पर आतंकवाद विरोधी कानून (गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम) UAPA के तहत जेल में डाल दिया गया। ऐसे माहौल में आम महिलाओं को न्याय मिलने का मौक़ा कहां है?

कोलकाता की पीड़िता के माता-पिता के सामने पुलिस, सीबीआई, सरकार और न्यायपालिका से निपटने के लिए एक लंबा दुःस्वप्न है, और उन्हें उम्मीद है कि किसी तरह किसी दिन उन्हें न्याय मिलेगा। यह हर उस परिवार का दुर्भाग्यपूर्ण अनुभव है जिसने यौन हिंसा में अपनी बेटी खोई है। सवाल यह है कि क्या हम एक समाज के रूप में ‘बेटी बचाओ’ में विश्वास करते हैं?

(लेखिका सुजाता मधोक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स की अध्यक्ष भी हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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