कोविड काल: दिल्ली के 73 प्रतिशत से ज्यादा कचरा बीनने वालों को करना पड़ा आय में भारी कमी का सामना, PC-PIC की रिपोर्ट में खुलासा

Written by Navnish Kumar | Published on: March 3, 2025
रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि 56.5 प्रतिशत कचरा बीनने वालों को नगर निगम अधिकारियों द्वारा उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, जबकि 52 प्रतिशत को बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल के लिए धन उधार लेना पड़ा है।


फोटो साभार : एचटी(फाइल फोटो)

"कोविड-19 के दौरान दिल्ली के 73 प्रतिशत से ज्यादा कचरा बीनने वालों को आय में भारी गिरावट का सामना करना पड़ा है। PC-PIC की रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है। रिपोर्ट में गरीबों पर निजीकरण के प्रभाव और कचरा बीनने वाले परिवारों के सामने आने वाली शैक्षिक बाधाओं पर भी प्रकाश डाला गया है।"

पीसीपीआईसी द्वारा इसी हफ्ते जारी की गई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली के 73 प्रतिशत से अधिक कचरा बीनने वालों को कोविड-19 महामारी के दौरान गंभीर आय का नुकसान हुआ, जिससे कई लोग कर्ज और अत्यधिक वित्तीय संकट में फंस गए हैं। 'ए गवर्नेस लैंडफिलः द ट्रैजिक स्टोरी ऑफ कैपिटल्स वेस्ट-पिकिंग कम्युनिटी ड्यूरिंग द पैंडेमिक' नामक रिपोर्ट पीपुल्स कमीशन एंड पब्लिक इंक्वायरी कमेटी (PC-PIC) द्वारा तैयार व प्रकाशित की गई है।

पीसी-पीआईसी के एक आधिकारिक बयान में कहा गया है कि रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि 56.5 प्रतिशत कचरा बीनने वालों को नगर निगम अधिकारियों द्वारा उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, जबकि 52 प्रतिशत को बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल के लिए धन उधार लेना पड़ा है। बयान के अनुसार, फील्ड इन्वेस्टिगेशन, पब्लिक हियरिंग (सुनवाई) और साक्ष्यों पर आधारित निष्कर्ष, साफ तौर से इंगित करते हैं कि किस तरह महामारी के आर्थिक प्रभाव, सरकारी उपेक्षा और अपशिष्ट प्रबंधन के बढ़ते निजीकरण ने कचरा बीनने वालों को और अधिक संकट में धकेल दिया है।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, रिपोर्ट के विमोचन समारोह में कचरा बीनने वालों ने भ्रष्टाचार और अपने संघर्षों के बारे में प्रत्यक्ष अनुभव साझा किए। पूर्वी दिल्ली के सीमापुरी की कूड़ा बीनने वाली कोहिनूर बीबी ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें किस तरह की व्यवस्थागत जबरन वसूली का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा, "हमें कचरा इकट्ठा करने के लिए रिश्वत देनी पड़ती थी और कभी-कभी हमें इसे फेंकने के लिए 10,000 रुपये तक देने पड़ते थे। सरकार गरीबी मिटाने की कोशिश नहीं कर रही है वो जैसे हमें यानी गरीबों को मिटाने की कोशिश कर रही है।" 

गाजियाबाद के कूड़ा बीनने वाले अयोध्या प्रसाद ने कचरा प्रबंधन में बढ़ते निजीकरण पर प्रकाश डाला। कहा "आप जो कचरा उठाने वाले ट्रक देखते हैं, वे अब नगरपालिका द्वारा नहीं चलाए जाते हैं वे निजी कंपनियों के स्वामित्व में हैं। सरकार ने लॉकडाउन का इस्तेमाल करके हमें कचरा अर्थव्यवस्था से बाहर कर दिया।" इस रिपोर्ट में कचरा बीनने वाले परिवारों के सामने आने वाली शैक्षिक असफलताओं और मजदूरों की पर भी प्रकाश डाला गया है।

रिपोर्ट पर सामाजिक न्याय एवं अनुसंधान एसोसिएशन (एएसओजे) की महासचिव कमला उपाध्याय ने बताया कि किस प्रकार इस संकट ने सामाजिक असमानताओं को और गहरा कर दिया है। उपाध्याय ने कहा, "कचरा बीनने वालों को अब लैंडफिल तक पहुँचने से मना कर दिया गया है, जिससे उनका काम और भी मुश्किल और महंगा हो गया है, क्योंकि प्रवेश शुल्क 50-100 रुपये है। इस बीच, समुदाय के ज़्यादातर बच्चे स्कूल छोड़ चुके हैं क्योंकि आय नहीं होने से उनके परिवार ऑनलाइन कक्षाओं के लिए स्मार्टफ़ोन नहीं खरीद सकते।"

स्वतंत्र पत्रकार पामेला फिलिपोज़ ने बताया कि महामारी का प्रभाव आजीविका के नुकसान से कहीं अधिक है। उन्होंने कहा, "यह रिपोर्ट गलत सूचनाओं के दौर में चुप्पी तोड़ती है, जहां पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया, नौकरियां चली गईं और सरकार ने संकट से इनकार किया। खोई हुई आय से परे, यह शिक्षा की हानि और बढ़ते बाल विवाह जैसे स्थायी परिणामों का दस्तावेजीकरण करती है जो महामारी के कारण नहीं, बल्कि नीतिगत विफलताओं के कारण होता है।"

पर्यावरण वकील रित्विक दत्ता ने इस बात पर जोर दिया कि किस प्रकार कॉर्पोरेट हितों ने अपशिष्ट प्रबंधन की नीतियों को पीछे छोड़ दिया है। "कचरा प्रबंधन एक कॉर्पोरेट संचालित प्रणाली बन गई है, जिससे कचरा बीनने वालों की कमाई कम हो गई है। कार्पोरेट के हितों को साधने के लिए हर छह महीने में विस्तारित उत्पादक जिम्मेदारी (ईपीआर) जैसी नीतियों को बदल दिया गया। आज, भारत ईपीआर के तहत 93,000 टन कचरे का आयात कर रहा है, जिससे स्थानीय कचरा कर्मचारी हाशिए पर चले गए हैं।" शोधकर्ता अविनाश कुमार ने शासन की प्राथमिकताओं में बदलाव का आग्रह किया।

"समाज उन कहानियों से आकार लेता है जो हम बताते हैं- एक संस्करण दावा करता है कि 'सब ठीक है', जबकि दूसरा हाशिए पर पड़े लोगों की वास्तविकताओं को उजागर करता है। शहरी भारत व्यवस्थित रूप से अपने सबसे कमज़ोर लोगों को नागरिकता देने से इनकार करता है, जिससे सामाजिक सुरक्षा कमज़ोर हो जाती है। लेकिन पुणे और अंबिकापुर के उदाहरण बताते हैं कि न्यायसंगत नीतियाँ वास्तविक बदलाव ला सकती हैं।" बयान में कहा गया है कि जैसा कि भारत महामारी के बाद के हालात पर विचार करता है, हाशिए पर पड़े लोग सरकार की उदासीनता और खराब संकट प्रबंधन से पीड़ित हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि यह सरकार के मानव केंद्रित दृष्टिकोण और कचरा बीनने वाले समुदाय के सामने आने वाली कठोर वास्तविकता के बीच तीव्र अंतर को उजागर करती है।

सामाजिक न्याय का मसला, जन सुनवाई की देशव्यापी मुहिम चलाए जाने की जरूरत: रोमा

अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय महासचिव रोमा ने बतौर वक्ता दिल्ली जनसुनवाई में पीसी-पीआईसी रिपोर्ट पर विचार साझा किए और इसे सामाजिक न्याय का मसला बताते हुए जनसुनवाई की देशव्यापी मुहिम चलाए जाने की जरूरत बताई। 

रोमा ने कहा कि दिल्ली में हुई जन सुनवाई में उन्होंने देखा कि कोरोना काल में किस तरह गरीबों मजदूरों पर सरकार की ओर से बहुत बड़ा हमला किया गया है जिससे लाखों-लाख मजदूर रातों रात पैदल घर जाने को मजबूर हुए। सरकार ने सामाजिक न्याय की अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ लिया। यह सामाजिक न्याय का मसला तो है ही, संवैधानिक सवाल भी है कि किस तरह संविधान के आर्टिकल 21 व 19, नागरिकों के, सम्मानजनक जीवन जीने के लिए आवश्यक आजीविका के अधिकार पर हमला किया गया है। सरकार ने रोजी रोटी कमाने को नौकरियों (आजीविका) को रातों रात छीन लिया और लाखों लाख मजदूरों को भिखारी बना सड़क पर ला खड़ा किया। कोरोना में कितने मरे, कितनों को ट्रीटमेंट नहीं मिला। उनके लिए काम आदि की कोई व्यवस्था नहीं की गई। नाइंसाफी की गई, हजारों हजारों किमी. पैदल चलने को मजबूर किया। ट्रांसपोर्ट तक मुहैया नहीं कराई जा सकी। इसलिए यह सामाजिक न्याय का मसला है, इस पर बहुत गंभीरता से विचार की जरूरत है। देशव्यापी जन सुनवाई की जरूरत है ताकि लोगों का दबा हुआ दर्द व उसका गुबार निकल सकें, निकलना चाहिए।

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