जाति विमर्श: दलित, ओबीसी, माइनॉरिटी की संजीदगी की वजह से खुद के जाल में फंसती बीजेपी

Written by Bhavendra Prakash | Published on: December 3, 2018
यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ द्वारा चुनावी रैली में हनुमान को दलित वंचित बताए जाने के बाद सोशल मीडिया पर जाति विमर्श शुरू हो गया है. योगी आदित्यनाथ ने राजस्थान में एक रैली को संबोधित करते हुए हनुमान को दलित आदिवासी बताया था. इसके बाद बीजेपी के ही एक नेता ने उन्हें आदिवासी करार दिया. इसके बाद योग गुरू और कारोबारी बाबा रामदेव ने हनुमान की जाति ब्राह्मण बताई है. 



हनुमान की जाति को लेकर शुरू हुआ विमर्श यहीं नहीं रुका बल्कि बढ़ता ही जा रहा है. केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह ने तो यह दावा कर दिया कि रामायण के काल में यानि त्रेता युग में जाति अस्तित्व में ही नहीं थी. उन्होंने कहा कि उस वक्त दलित या पिछड़ा कोई था ही नहीं ऐसे में हनुमान आर्य थे. इस सबके विमर्श में सभी तथ्यों को तोड़ा जा रहा है. 

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सत्यपाल सिंह का जाति विहीन समाज का दावा राजा हरिश्चंद्र के कार्यकाल की घटना से झूठा साबित हो रहा है. राजा हरिश्चंद्र जब राजपाट छोड़कर खुद को, पत्नी को और बेटे रोहिताश को बेच देते हैं और बेटा मर जाता है तो पानी के लिए उनका डोम से वास्ता पड़ता है. डोम शब्द आज भी अनुसूचित जाति में आने वाले वाल्मीकि समुदाय के लिए प्रयोग किया जाता है. ऐसे में केंद्रीय मंत्री का त्रेता में जातिविहीन समाज का दावा झूठा नजर आता है. 

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योगी आदित्यनाथ के बयान के बाद दलितों ने हनुमान मंदिरों पर कब्जा करना शुरू कर दिया है. आगरा का बड़ा मंदिर दलितों ने कब्जा लिया है. ऐसे में वोटों की खातिर देवताओं की जाति खोजना बीजेपी को भारी पड़ता नजर आ रहा है. मंदिर और भगवान एक तरह से ब्राह्मणों के कॉपीराइट के अधीन हैं. ब्राह्मणों को श्रेष्ठ बताकर बहुत सारी चीजों को उनके हक में मैनुप्लेट किया गया है. लगभग सभी मंदिरों में ब्राह्मण पुजारी हैं. 

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बीजेपी राम मंदिर के नाम पर राजनीति करती आई है. यह मुद्दा उसे हर बार बढ़त दिलाता नजर आता है. खुद पीएम नरेंद्र मोदी जाति के नाम पर राजनीति चमकाते नजर आते हैं. मुद्दों में फंसते ही पीएम नरेंद्र मोदी अपनी जाति बताने लगते हैं. वे खुद को पिछड़ा होने का दावा करते हैं यह दावा सही भी है क्योंकि गुजरात के सीएम रहते उन्होंने अपनी जाति को ओबीसी में शामिल कर लिया था ताकि राजनीतिक लाभ लिया जा सके. इस सबके बीच अगर कोई विपक्षी नेता उनकी जाति के बारे में बोल दे तो वे इमोशनल होकर महफिल लूटने में कामयाब नजर आते हैं. 

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इस सबके बीच हाल के दौर में यह बात निकलकर सामने आ रही है कि इस बार जाति और धर्म के नाम पर बंटवारा ज्यादा कारगर नहीं होने वाला. दलित ओबीसी युवाओं में बढ़ती साक्षरता दर की बदौलत आरएसएस के मंसूबे भी नाकाम नजर आ रहे हैं. हाल में अयोध्या में बुलाई आरएसएस और वीएचपी की धर्म संसद इसका उदाहरण है. इस धर्मसंसद में भीड़ का टोटा रहा. वहीं, मुस्लिम समुदाय ने संघ की मंशा जान उग्र होने के बजाय शांति से काम लेना मुनासिब समझा और इस पर किसी भी तरह का विरोध नहीं जताया. दलित ओबीसी के अलग होने, माइनॉरिटी के चुप्पी साधने का नतीजा यह रहा कि संघ और भाजपा इसकी विफलता पर तिलमिला कर बैठने के सिवाय कुछ नहीं कर पाए. बीजेपी को चुनावी रैलियों में बोलने के लिए भी यह मुद्दा कोई प्वाइंट नहीं दे पाया. 

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अयोध्या की नाकामी के बाद संघ ने दिल्ली में 'विशाल संकल्प यात्रा' निकाली. 1992 में बाबरी पर चढ़ाई की तर्ज पर एक मोटरगाड़ी को बहुत अच्छी तरह से सजाया गया लेकिन लोगों ने यहां भी धोखा दे दिया और संघ भीड़ जुटाने में नाकामयाब रहा. हालांकि, न्यूज चैनल धर्म के नाम पर लगातार डिबेट कराकर बीजेपी आरएसएस के पक्ष में माहौल बनाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं लेकिन जमीनी स्तर पर इसका लाभ मिलता नजर नहीं आ रहा. 25 नवंबर को अयोध्या में समर्थन बटोरने के नाम पर संघ के कार्यक्रम की विफलता को लेकर अधिकांश न्यूज चैनलों को भी मसाला नहीं मिलने का मलाल रहा और वे चंद लोगों से उन्मादी नारेबाजी कराकर शो करते नजर आए. अगर आगामी समय में यही हाल रहा तो बीजेपी आरएसएस के लिए मुश्किलों की घड़ी होगी और उन्हें मुद्दों पर बात करनी होगी.

 

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