बालश्रम उन्मूलन के लिए नया कानून: क्या यह हमारी स्थापित जाती व्यवस्था को बढाने का औजार नहीं है?

Written by किशोर | Published on: July 24, 2016

 
इस सप्ताह बाल श्रम (प्रतिबंधन एवं विनियमन) अधिनियम,2012 राज्य सभा में पास हो गया. लोकसभा में पास होने के बाद इस कानून को अमली जामा पहनाने के लिए इसके नियम बनाये जायेंगे और यह एक कानून बन जाएगा. इस कानून में कुछ बदलाव सकारात्मक हैं जैसे इसके अंतर्गत बालश्रम रखने को एक संज्ञेय अपराध बनाया गया है तथा इसके लिए अधिक सजा और जुर्माने और सजा का प्रावधान किया गया है जो सराहनीय  है.




 

संवैधानिक विरोधभास

इस संशोधन से पहले १४ साल तक के बच्चों से केवल खतनाक व्यवसायों में मजदूरी कराने पर प्रतिबन्ध था. खतरनाक और गैर खतरनाक व्यवसायों का ये फर्क काफी विवादित था. बाल अधिकार संगठनो का मानना है कि किसी भी तरह की मजदूरी बच्चों के विकास में बाधक है इसलिए हर व्यवसाय बच्चों के लिए खतरनाक और हानिकारक है . पर भारत सरकार की सोच कुछ अलग थी और इसी सोच ने एक सवंधानिक संकट खड़ा कर दिया था . एक तरफ तो शिक्षा के मौलिक अधिकार के अनुसार १४ साल से कम के सभी बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार है और हर बच्चे को स्कूल में होना चाहिए. दूसरी बाल श्रम से सम्बंधित पूर्व कानून इसी आयु वर्ग के बच्चों से कुछ व्यवसायों में काम कराने की इजाज़त देता था . अब यह कैसे संभव है कि बच्चा स्कूल में भी दाखिल हो और काम पर भी जाये ? इसी तरह के अंतरद्वंद जे जे एक्ट और बाल श्रम कानून में भी थे. इस संशोधन में  इस तरह के कुछ विरोधाभासों को ख़त्म करने की कोशिश की गयी है पर कई अभी भी बाकी है.

आर्थिक प्रगति और बाल श्रम

यह संशोधन भारत को कुछ अन्य शर्मनाक स्थितियों से  बचाने में भी मदद करेगा. पिछले कई सालो से भारत एक तरफ तो अपनी आर्थिक प्रगति और ८% विकास दर का ढिंढोरा पीटता आ रहा है और दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय मंचो पर यह रोना रो रहा है कि हम एक गरीब देश है. हमारे पास बाल श्रम ख़त्म करने के लिए प्रयाप्त साधन नहीं है और हमारी अर्थव्यवस्था बच्चों की मजदूरी के बिना नहीं चल सकती. आज तक भारत ने  संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझोते की धारा ३२ पर सहमती नहीं दी है,   जिसमे वादा किया गया है कि सभी देश बाल मजदूरी को जड़ से ख़त्म करेंगे. अपने देश के बच्चों के प्रति भारत जैसे अग्रणी राष्ट्र का यह रवैया शर्मनाक था. इस सशोधन के बाद हम कहने को तो कह ही सकते हैं कि हम  बच्चों के अधिकारों को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

अपवाद

इस अधिनियम में संशोधन के बाद १४ वर्ष से कम के बच्चों से किसी भी व्यवसाय में मजदूरी करवाने पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगाने का दावा किया जा रहा है. बहुत अच्छी बात है कि बच्चो से कोई काम नहीं कराया जाएगा. परन्तु इसमें एक पेंच है. इसमें एक अपवाद रखा गया है कि अगर वह  अपने ही घर पर काम करती या करता  है और वह उसके स्कूल जाने में बाधक नहीं बनता तो इसकी अनुमति है. प्रश्न यह उठता है कि क्या ऐसा संभव है. अगर बच्चा घर पर काम करेगी/गा और काम स्कूल में बाधक नहीं बनेगा. क्या यह व्यवाहरिक है? बच्चों की घर पर काम में व्यस्तता उनके स्कूल के छुटने/ड्राप आउट  का एक सबसे बड़ा कारण है.
कानून बनाने वालो का कहना है कि घर में बाल क्ष्रम की इज़ाज़त  तो अपवाद है और इसमें  मात्र छोटी सी संख्या आती है. वास्तविकता कुछ और है. वैश्वीकरण के इस दौर में अधिकतर उत्पादन अनौपचारिक क्षेत्र में होता है. इस अनौपचारिक  क्षेत्र में होने वाले उत्पादन  का एक बड़ा भाग घरो में होने वाले काम से होता है. और आने वाले समय में इसके अनुपात के घटने की कोई संभावना नहीं है बल्कि उदारवाद के इस दौर में घरो पर होने वालो कामो का प्रतिशत बढ़ने ही वाला है. सच्चाई तो यह है कि यह अपवाद एक बड़ी संख्या में बाल क्ष्रम को कानूनी मान्यता है.

बाल श्रम बनाम बाल विकास

कानून बनाने वालों की बात मान भी लें कि केवल स्कूल के बाद बच्चों को काम करने की इजाज़त होगी तो इसका आशय क्या है. बच्चा दिन के उपलब्ध सोलह घंटो में से आठ घंटे स्कूल जायेगा, दो तीन घंटे खाने और दिन के आवश्यक कामो में लगाएगा /लगाएगी और चार घंटे काम में लगाएगा/गी. ऐसे में क्या हम उस पर 8 घंटे के स्कूल और चार घंटे के काम  का दुगना बोझ नहीं डाल रहे. ऐसे में खेलने , स्कूल के काम और आराम का वक्त कहाँ है. क्या बच्चे के विकास के लिए खेलने और आराम करने की जरूरत नहीं है?

जातिप्रथा का सुदृढ़ीकरण

कानून बनाने वालो का इस अपवाद के पीछे एक  औचित्य यह है कि इससे उसे अपने पारंपरिक कामों को सीखने का मौका मिलेगा. यानी कुम्हार के बच्चे को केवल कुम्हार का काम सीखने का अवसर मिलेगा और लौहार के बच्चे को केवल लौहार का. क्या इसमें डॉक्टर या वकील के बच्चे के लिए कुम्हार या लौहार का काम सीखने  की सम्भावनाये है? वह तो डॉक्टर या वकील ही बनेगा/गी.

क्या यह हमारी स्थापित जाती व्यवस्था को बढाने का औजार नहीं है. क्या इससे समाज में व्याप्त असमानताओ को बढ़ावा नहीं मिलेगा?

खतरनाक व्यवसायों की सूची

नए कानून में १४ से १८ वर्ष तक के बच्चों से खतरनाक व्यवसायों में काम कराने पर रोक लगा दी गयी है. हालाँकि बाल अधिकार कार्यकर्ताओं एवं  संगठनो का मानना है कि १८ से कम हर व्यक्ति बच्चा है 
और इस तरह का प्रावधान बाल अधिकार विरोधी है. कुछ समय के लिए अगर यह तर्क को किनारे भी रख दें तो प्रश्न यह उठता है कि पूर्व कानून में खतरनाक व्यवसायों की जो व्यापक  सूची थी उसे नए कानून में क्यों हटा दिया गया. यह सूची पिछले तीन दशकों के जद्दोजहद के बाद बनी थी और इसे नए कानून में भी कायम रहना चाहिए.

कानून लागू करने में चुनौतियाँ

हम सभी जानते है कि कानून होना एक बात है और उसका क्रियान्वन दूसरी बात. माना कि बाल मजदूरी के खिलाफ पुराने कानून में कुछ खामियां थी पर ज्यादा समस्या उसके लागू करने में नज़र आती है. ये कानून सन १९८६ से लागू हुआ था और लगभग पिछले तीस सालों में पुरे देश में इसके अंतर्गत चालीस हज़ार केस दर्ज किये गए. इनमे से मात्र ४७०० को सजा हो सकी और उसमे भी अधिकतर सजाएँ १०० या २०० रूपये के मामूली जुर्माने की थी. बाल मजदूरी के सरकारी गैर सरकारी आंकड़े लाखों करोडो में हैं और उसके मुकाबले में कानून तोड़ने वालों को मिलने वाली सजा ना के बराबर रही है. कानून के क्रियान्वन का यही हाल रहा तो नया कानून भी बस किताबों में ही रह जायेगा.

क्षमतावर्धन और उन्मुखीकरण

कानून के पालन के लिए कानून को लागू करने वाली संस्थाओं सशक्त करना, उनका क्षमतावर्धन और उन्मुखीकरण बहुत जरूरी है. उदहारण के तौर पर कुछ समय पहले दिल्ली जैसे बड़े शहर में मात्र २२ लेबर इंस्पेक्टर थे  जिन पर बालमजदूरी के साथ साथ श्रम से सम्बंधित सात अन्य कानूनों के क्रियान्वन की जिम्मेदारी थी. स्थिति अगर ऐसी ही रही तो नए कानून के आने के बाद भी हालात में शायद ही कोई बदलाव आये. श्रम विभाग के साथ साथ पुलिस का उन्मुखीकरण और उन्हें सवेंदनशील बनाना भी जरूरी है ताकि बच्चों  को बालश्रम से छूटने के बाद थानों और न्यायालयों में फिर से पीड़ित न होना पड़े. अक्सर बाल मजदूरों को मुक्त कराने के अभियान कुछ इस तरह चलाये जाते हैं कि अपराधी बच्चों से काम कराने वाले न होकर खुद बच्चे ही हों.

समेकित बाल सरंक्षण कार्यक्रम ( ICPS) के अंतर्गत हर जिले मे  बाल सुरक्षा समितियां और हर थाने में किशोर कल्याण पदाधिकारी की नियुक्ति अनिवार्य है पर देश के अधिकतर जिलों और थानों में या तो ये समितियां बनी ही नहीं है या उनका अस्तित्व सिर्फ कागजों तक ही सीमित है. जिले स्तर पर बाल कल्याण समितियां और राज्य स्तर पर बाल सरंक्षण आयोगों कि भी इस कानून को लागू करने के और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में एक अहम् भूमिका है. पर देश के कई जिलों और राज्यों में ये संस्थाएं गठित ही नहीं की गयी हैं. आज भी देश के चौदह राज्यों में बाल सुरक्षा आयोग का गठन नहीं हुआ है ओर लगभग २५० जिलों में बाल कल्याण समिति का गठन नहीं हुआ है. बहुत से जिलो में बाल कल्याण समितियां ओर जे जे बोर्ड केवल कागजों पर है ओर ऐसे लोगों से भरी पड़ी है जिन्हें बाल अधिकारों से कोई वास्ता नहीं है. ऐसी ख़बरें अक्सर आती है कि जे जे बोर्ड, बाल विकास समिति या किसी सरकारी अफसर  के घर पर बाल मजदूर रखने और उसके साथ यौन शोषण की घटना सामने आई है. है. आये दिन सरकारी मुलाज़िमों और पढ़े लिखे तबके के लोगों के यहाँ बाल मजदूरी और उनके साथ होने वाले दुराचारों की घटनाएँ सामने आती रहती है . अगर बाल मजदूरी पर बने इस नए कानून को सही मायनों में लागू करना है तो बाल सुरक्षा के लिए बने संवेधानिक संस्थाओं को कारगर ढंग से काम करना होगा.

समस्या का सही सही आकलन

इस कानून को प्रभावी बनाने में दूसरी बड़ी चुनौती इस समस्या के आकार को ठीक ठीक नापने की है अर्थात ये पता लगाने की है कि आखिर बाल मजदूरों की संख्या कितनी है. जब तक समस्या के आकार  का पता नहीं होगा उसके हल के लिए योजना बनाना संभव नहीं है . २००१ की जनगणना के अनुसार बाल  मजदूरों की संख्या १२ करोड़ ६० लाख (केवल प्रतिबंधित व्यवसायों में) थी जो २०११ की जनगणना में भी लगभग उतनी ही है. यह बात सर्वविदित है कि लाखों ऐसे बच्चे है जिनका नाम स्कूल में दर्ज़ है (और वह बाल श्रमिकों की गणना में नहीं आते ) पर वो स्कूल न जाकर विभिन्न किस्म के व्यवसायों में लगे है . कृषि क्षेत्र में बड़ी संख्या में बच्चे लगे है पर उनकी कोई गिनती नहीं है. सरकारी आंकडो को गैर सरकारी आंकड़े लगातार चुनौती देते रहेते है और उनके हिसाब से बाल मजदूरों की संख्या तीन से छह करोड़ तक की है. यह ज़रूरी है कि सरकार बाल मजदूरों की संख्या का सही सही पता लगाये और उसके अनुसार योजना बनाये. बाल  मजदूरी पुनर्वास के लिए एन.सी.एल.पी (NCLP) जैसे कुछ आधे अधूरे   कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं वह भी बहुत छोटे स्तर पर. अगर सरकारी आंकड़ो को भी माने तो बाल मजदूरों की संख्या १.२ करोड़ है और उनके पुनर्वास के लिए चल रहा कार्यक्रम मात्र छह लाख बच्चों के लिए है. ज़ाहिर है इस तरह के कार्यक्रमों के बूते इस समस्या को दूर नहीं किया जा सकता.

राजनैतिक इच्छाशक्ति और संसाधन

बाल श्रम को जड़ से दूर करने के लिए जरूरी है इनके पुनर्वास के लिए पर्याप्त कार्यक्रम हो और हर बच्चे के लिए गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के अवसर उपलब्ध हो ताकि उसे बाल मजदूर बनने से रोका जा सके. साथ ही परिवार के बड़े सदस्यों के लिए उचित मजदूरी वाले रोज़गार उपलब्ध हो जिससे वो अपने परिवार  के भरण पोषण की जिम्मेदारी निभा सके और परिवार चलाने के लिए बच्चों की मजदूरी पर निर्भर न रहे. इसके लिए जरूरी है कि एक तरफ तो कानून को लागू करने के लिए आवश्यक आधारभूत ढांचा उपलब्ध हो और दूसरी तरफ शिक्षा और रोज़गार के प्रयाप्त अवसर मौजूद हो. इन दोनों ही के लिए जरूरी है की सरकार बजट में प्रयाप्त प्रावधान करे. कानून में बदलाव करके सरकार ने बाल मजदूरी को खत्म करने की मंशा तो दिखाई है पर अब और जरूरी है कि सरकार इस कानून को लागू करने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति दिखाए और बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को पूरा करे.   

(लेखक डेवलेपमेंट प्रोफेश्नल के रूप में कार्यरत हैं और पिछले कई सालों से बाल अधिकारों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।)

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