बनारस में ‘श्मशान की लकड़ियां’, बनारस में पड़ती कड़ाके की सर्दी में बेघरों की ज़िंदगियां बचाने का काम कर रही हैं। उनका चूल्हा जला रही हैं। उन्हें गर्म रख रही हैं। श्मशान की लकड़ियों को लेकर बेशक कई लोगों में हिचकिचाहट, सामाजिक व अन्य धार्मिक भ्रांतियां होंगी, लेकिन यह बेघरों को सर्दी और भूख से नहीं बचातीं।
बनारस का हरिश्चंद्र घाट। गंगा की बहती धारा के किनारे एक ऐसा स्थान, जहां जिंदगी और मौत एक-दूसरे से संवाद करती नज़र आती हैं। लेकिन इस बार यह घाट किसी और वजह से चर्चा में है। यहां की जली-अधजली लकड़ियां इन दिनों उन लोगों का सहारा बन गई हैं, जो सर्द रातों में खुले आसमान के नीचे अपनी ज़िंदगी काट रहे हैं।
घरों में मेहनत-मजूरी करके आजीविका चलाने वाली मंजू कहती हैं, "सर्दियों में खुद को बचाने के लिए हम श्मशान की लकड़ियों का इस्तेमाल करते हैं। इसी को जलाकर हम खुद को सर्दियों में गर्म रखते हैं। इसके आलावा चाय-खाना बनाने में इसका इस्तेमाल करते हैं। लकड़ियां उठाने के लिए उन्हें कोई मना नहीं करता। उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि वह श्मशान से लकड़ियां ला रहे हैं, क्योंकि उनके सामने उनकी ज़रूरत सबसे ज़्यादा बड़ी है।"
बनारस में ‘श्मशान की लकड़ियां’, बनारस में पड़ती कड़ाके की सर्दी में बेघरों की ज़िंदगियां बचाने का काम कर रही हैं। उनका चूल्हा जला रही हैं। उन्हें गर्म रख रही हैं। श्मशान की लकड़ियों को लेकर बेशक कई लोगों में हिचकिचाहट, सामाजिक व अन्य धार्मिक भ्रांतियां होंगी, लेकिन यह बेघरों को सर्दी और भूख से नहीं बचातीं।
हर कोई जानता है कि सर्दी की मार आम आदमी ही झेलता है। जैसे-जैसे बदलताहै मौसम का मिजाज, अपने आप धीमी होने लगती है गरीबों की धड़कन। केवल धड़कन ही नहीं, धंधा भी जाम होने लगता है। तब काम आती हैं श्मशान घाटों की लकड़ियां। जली-अधजली वो लकड़ियां जो मुर्दों के जलाने के बाद बच जाया करती हैं।
बनारस के चर्चित हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिका घाट के समाने गंगा बहती है। आसपास गलियों और गंगा घाटों पर तमाम बेघर और साधु रहते हैं। ये सभी सभी लोग श्मशान की लकड़ियों का इस्तेमाल करते हैं। इनमें महिलाएं, युवा और कुछ छोटे बच्चे होते हैं। हरिश्चंद्र घाट पर श्मशान घाट की लकड़ियां इस सर्दी में जीवनदायनी बना हुआ है।
हरिश्चंद्र घाट पर डोम समुदाय से जुड़े मंगल बताते हैं, "बची हुई लकड़ियां बेसहारा लोगों को दे देते हैं। अलाव जलाते हैं और खाना भी बनाते हैं इन लकड़ियों से। ढेर सारी लकड़ियां बाबा कीनाराम के आश्रम में जाती हैं। वहां भक्तों के लिए उन्हीं लकड़ियों से खाना बनाया जाता है। साथ ही वहां पूरे साल अनवरत जलने वाली धुनी में भी इन लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है।"
मंगल कहते हैं, "डोम हरिश्चंद्र और मणिकर्णिका घाट पर डोम समुदाय के ज्यादातर लोगों के घरों में चिता की लकड़ियों से भोजन बनाया जाता है। हमारा समुदाय गरीबों और बेसहारा लोगों की हर संभव मदद करता है। हरिश्चंद्र घाट पर हफ्ते में दो दिन हमारे समुदाय के लोग गरीबों को मुफ्त में खाना भी खिलाते हैं। अगर किसी बेसहारा इंसान की मौत हो जाती है तो उसका विधिवत अंतिम संस्कार भी डोम समुदाय के लोग मिलकर करते हैं। इसके लिए हम सरकार और प्रशासन का मुंह नहीं देखते।"
40 वर्षीया विपासी पिछले दस साल से हरिश्चंद्र घाट के श्मशान से लकड़ियां ला रही हैं। वह कहती हैं, "सर्दी की वजह से हमें श्मशान घाट से लकड़ियां लानी पड़ती है। उसी पर खाना बनाते हैं, उसी पर हाथ सेंकते हैं। हरिश्चंद्र घाट पर जितने बेघर लोग पहुंचते हैं अथवा आसपास रहते हैं, सभी खुद को सर्दी से बचाने के लिए श्मशान की लकड़ियों का इस्तेमाल करते हैं।"
ईंट-गारा और सीमेंट की ढुलाई करने वाले 49 वर्षीय नखड़ू हरिश्चंद्र घाट पर श्मशान घाट की लकड़ियों से जलाई गई आग तापते मिले। वह कहते हैं, "श्मशान घाट की लकड़ियां ही सहारा है। इन्हीं लकड़ियों से हम अलाव की व्यवस्था करते हैं और दोनों वक्त खाना भी बना लेते हैं।"
नखड़ू के पास रात गुजारने का कोई ठिकाना नहीं है। रात भर अलाव तापते हैं। देर रात वहीं चादर ओढ़कर सो जाते हैं। सुबह श्मशान की लड़कियों पर खाना बनाते हैं और फिर काम धंधे पर निकल जाते हैं। वह कहते हैं, "मैं लगभग आठ बरस से श्मशान से लकड़ियां लेकर आ रहा हूं। सर्दियों में वह इन्हीं लकड़ियों का इस्तेमाल कर, उन्हें जलाकर खुद को सर्दी से बचाव करता हूं।"
नखड़ू की बात को जोड़ते हुए अलाव ताप रहे सुनील ने कहा कि मैं कबाड़ बीनने का काम करता हूं। एक दुर्घटना के कारण सुनील अपनी रीढ़ की हड्डी में चोट खा चुके हैं। वह कहते हैं कि मेरे पास कोई काम नहीं है, क्योंकि एक दुर्घटना में मेरे रीढ़ की हड्डी में चोट आ गई है, तभी से वजन का काम मुझसे नहीं होता है। सर्दियों में खुद को बचाने के लिए हम श्मशान की लकड़ियों का इस्तेमाल करते हैं। इसी को जलाकर हम खुद को सर्दियों में गर्म रखते हैं। इसके आलावा चाय-खाना बनाने में इसका इस्तेमाल करते हैं। लकड़ियां उठाने के लिए उन्हें कोई मना नहीं करता। उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि वह श्मशान से लकड़ियां ला रहे हैं, क्योंकि उनके सामने उनकी ज़रूरत सबसे ज़्यादा बड़ी है।"
48 वर्षीय शहाबुद्दीन मकानों में ईंटों की चिनाई का काम करते हैं। वह हमें हरिश्चंद्र घाट पर श्मशान की लकड़ियों से अलाव तापते हुए मिले। वह कहते हैं, "इन लकड़ियों ने हमारी जिंदगी आसान कर दी है। जब पेट की आग बुझाने की बात हो, तो यह सवाल नहीं रहता कि लकड़ी श्मशान की है।"
हरिश्चंद्र घाट पर कालू डोम सेवा ट्रस्ट से जुड़े बहादुर चौधरी बताते हैं कि हर दिन हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिका घाट पर शवों के अंतिम संस्कार के बाद करीब 15,000 से 20,000 किलो तक लकड़ियां बच जाती हैं। ये लकड़ियां 300 से 400 रुपये मन (एक मन 40 किलो के बराबर होता है) बिक जाती हैं। बहादुर बताते हैं कि छोटे होटल और ढाबे चलाने वाले भी कुछ अधजली लकड़ियां ले जाते हैं। कुछ लकड़ियां गरीबों को मुफ्त में दे दी जाती हैं। कुछ संस्थाएं बांस की टकठियों को यहां से ले जाती हैं और परफ्यूम मिलाकर अगरबत्ती बनाती हैं।
मीरघाट निवासी अनिल चौधरी, मणिकर्णिका घाट पर काम करते हैं। वह बताते हैं कि रोजाना सैकड़ों किलो लकड़ियां बचती हैं, जो गरीबों को बांट दी जाती हैं। वह कहते हैं, "हरिश्चंद्र घाट पर रहने वाले सभी बेसहारा शाम और सुबह छब बजे के करीब लकड़ियां लेने के लिए श्मशान घाट जाते हैं। लोग लकड़ियां लेने के लिए श्मशान घाट के पीछे का रास्ता अपनाते हैं। श्मशान घाट पर काम करने वाले पवन कहते हैं वह चिता जलाने का काम करते हैं। किसी का मन हुआ तो कोई 100-50 रूपये ज़्यादा दे देता है चाय-पानी के लिए। इसी से उनकी आजीविका चलती है।"
दिन-रात जलती हैं अर्थियां
मणिकर्णिका घाट पर चिता की आग कभी नहीं बुझती, दिन हो या रात 24 घंटे यहां अर्थियां जलती रहती हैं और आसमान की तरफ उड़ता धुआं आत्मा के परमात्मा में विलीन होने जैसा लगता है। यहां मृत्यु मातम, नहीं उत्सव है। यहां रहने वाले लोगों की मानें तो मणिकर्णिका पर औसतन रोज 100 दाह-संस्कार होते हैं। कुछ लोग तो इन शवों की संख्या 250 तक बताते हैं।
मणिकर्णिका घाट पर दाहिनी ओर एक मंदिर है जिसमें राजा हरिश्चंद्र, तारामती और रोहित की मूर्तियां हैं। मणिकर्णिका घाट पर मौजूद एक साधु सदानंद महाराज बताते हैं कि राजा हरिश्चंद्र का जब राजपाट चला गया तो वे कालू डोम के यहां नौकरी करने लगे, जिन्होंने कहा था कि मणिकर्णिका घाट पर आने वाले हर शव का दाह-संस्कार तभी होगा, जब ‘टैक्स’ चुकाया जाएगा। जब उनके बेटे रोहित की मृत्यु हुई तो उनकी पत्नी तारामती शव लेकर उसी श्मशान पहुंचीं, जहां राजा हरिश्चंद्र नौकरी कर रहे थे। उन्होंने भी अपने बेटे के अंतिम संस्कार करने के लिए पत्नी से टैक्स यानी दान-दक्षिणा मांगा। तभी से मणिकर्णिका घाट पर शवों का अंतिम संस्कार बिना दान के पूरा नहीं होता।
नमामि गंगे परियोजना में सफाईकर्मी 32 साल के किसना चौधरी ने बताया कि श्मशान घाट की लकड़ियां बेकार नहीं होतीं। ये लकड़ियां गरीबों के लिए बहुत मददगार साबित होती हैं। बहुत से लोग इन्हीं लकड़ियों पर खाना बनारते हैं और सर्दी से अपना बचाव भी करते हैं।
बनारस के मणिकर्णिका घाट पर सफाईकर्मी 24 साल की कृतिका बताती हैं कि चिता पर सजी कुछ लकड़ियां राख हो जाती हैं तो कुछ अधजली रह जाती हैं। इन लकड़ियों का भी बड़ा बिजनेस है। इनसे अगरबत्ती भी बनाई जाती है। बिजनेस करने वाले लोग इसे दूसरे शहरों में भी सप्लाई करते हैं।
मीर घाट के पास रहने वाले रमेश चौधरी (नाम बदला हुआ) बताते हैं कि लोग चिता जलाने के लिए कई बार अधिक लकड़ी ले लेते हैं। अगर कम लकड़ी में ही चिता जल जाती है तो बची लकड़ियां हम लोगों के घर पहुंच जाती हैं। कई बार जो लकड़ियां नहीं जलती हैं वो भी घरों में यूज हो जाती है। सर्दी के दिनों में यह आग सेंकने के काम आती है। यही नहीं, होटलों में भी इन अधजली लकड़ियों को बेचा जाता है।
संत कीनाराम आश्रम में अघोरी इन अधजली लकड़ियों का इस्तेमाल करते हैं। पंडित इंद्रजीत वली मिश्रा कहते हैं मणिकर्णिका घाट की अधजली लकड़ियां चेतगंज स्थित पिशाच कुंड भी भेजी जाती हैं। इस कुंड के आसपास रहने वाले अघोरी इन्हीं अधजली लकड़ियों पर मछलियां पकाते और खाते हैं, जिसे ‘प्रसाद’ कहा जाता है।
एक्टिविस्ट अमन कबीर कहते हैं, "जो व्यक्ति सड़क पर है, आखिर में है उन्हें मौसम की मार सबसे ज़्यादा होती है, चाहें वह सर्दी हो, गर्मी हो या बरसात हो। यह देखा जाता है कि सर्दियों और गर्मियों में मौतों की संख्या हमेशा बढ़ जाती है। बनारस में बेघरों की तादाद हजारों में है लेकिन इन्हें सुनने वाला और इनका दर्द समझने वाला कोई नहीं है।” आगे कहा, सरकार के पास कभी कभी अंतिम व्यक्ति के लिए पैसे नहीं होते, लेकिन कमर्शियल के होते हैं। सरकार इन तक पहुंच जाए, वही बड़ी बात है।"
हरिश्चंद्र घाट पर जब हम कड़ाके की सर्दी में जहां तहां अलाव ताप रहे लोगों को देखते हैं तो सरकार की कथनी और कार्रवाई, दोनों का पता लग जाता है। यहां रह रहे लोग सालों से श्मशान की लकड़ियां ला रहे हैं ताकि वे खुद को सर्दी और भूख से बचा सकें। श्मशान घाट को लेकर लोगों की अपनी भ्रांतियां होंगी लेकिन यहां ये लकड़ियां यहां रह रहे बेघर लोगों का सहारा हैं।
यह कड़ाके की सर्दी सिर्फ तापमान नहीं गिराती, यह गरीबों की उम्मीदों और सपनों को भी बर्फ सा जमा देती है। हर साल सैकड़ों जानें इस सर्दी की मार झेलते-झेलते दम तोड़ देती हैं। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, जनवरी 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दशक में सर्दी के संपर्क में आने से देश भर में हर साल औसतन 800 से ज़्यादा लोगों की मौतें होती हैं। बनारस में लगातार तीन दिनों से पड़ रही कड़ाके की सर्दी ने लोगों को कंपा दिया है। मौसम खराब होने के चलते सड़क पर वाहनों की बत्ती जलाकर जाते लोग दिखे।
रैन बसेरे हैं, मगर बेसहारा फुटपाथ पर
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में सर्दी की रात में गरीबों के ठहरने के लिए बनाए गए रैन बसेरे में तारांकित होटलों जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं। इसके लिए रैन बसेरे में गीजर, ब्लोअर और टीवी की व्यवस्था की गई है। कुछ रैन बसेरे को तो पूरी तरह से महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग बनाया गया है। इसके अलावा रैन बसेरे में फैमिली के रुकने के लिए अलग से भी व्यवस्था की गई है।
शीतलहर के मद्देनजर वाराणसी में 23 रैन बसेरे संचालित किए जा रहे हैं। अचरज की बात यह है कि ये रैन बसेरे सिर्फ दिखाने के लिए हैं। पांडेयपुर में पुलिस लाइन के पास फ्लाइ ओवर के नीचे बनाए गए रैन बसेरे के पास दर्जनों निराश्रित महिलाएं, बच्चे और पुरुष कड़ाके की सर्दी में रात गुजारते हैं, लेकिन ठेकेदार किसी को अंदर घुसने नहीं देता। इन महिलाओं के पास आधार कार्ड भी है, लेकिन इनकी इंट्री पर प्रतिबंध है।
अपर नगर आयुक्त दुष्यंत कुमार दावा करते हैं कि 23 रैन बसेरों में 889 बिस्तर लगाए गए हैं। स्थायी रैन बसेरे में गर्म पानी के लिए गीजर की व्यवस्था की गई है और गर्म पानी के लिए गीजर की व्यवस्था की गई है। इसमें 12 स्थायी और 11 अस्थायी रैन बसेरे शामिल हैं। इनमें भी विशेष रूप से 2 पुरुष और 2 महिलाओं के लिए पूरी तरह से आरक्षित हैं। वहीं, दो रैन बसेरों में सिर्फ फैमिली के रुकने के लिए अलग से केबिन बनाए गए हैं। तीन शेल्टर होम में टेलीविज़न की भी व्यवस्था की गई है।
अपर नगर आयुक्त ने बताया कि रैन बसेरे में टॉयलेट, गर्म पानी की मशीन और सर्दी से बचाव के लिए ब्लोअर भी लगाया गया है। सभी शेल्टर होम में कोविड प्रोटोकॉल का पालन अनिवार्य किया गया है। इसके साथ ही सैनिटाइजर के साथ रजाई-गद्दा और कंबल सभी को मुहैया कराया जा रहा है। सभी रैन बसेरे में मच्छरों से बचाव और रोजाना साफ-सफाई के लिए भी विशेष व्यवस्था की गई है।
"हमें मर ही जाना चाहिए..."
वाराणसी के पांडेयपुर फ्लाईओवर के नीचे कड़ाके की सर्दी में बेसहारा और गरीब लोग जिंदगी काटने को मजबूर हैं। सरकार ने उनके लिए यहां एक रैन बसेरा बनाया है, लेकिन यह रैन बसेरा उनकी उम्मीदों का सहारा बनने के बजाय उपेक्षा की मिसाल बन गया है। 15 दिसंबर को शुरू हुए इस रैन बसेरे में अब तक केवल 14 लोगों को पनाह दी गई है, जबकि बगल में 20-25 लोग ठंड से लड़ते हुए प्लास्टिक बिछाकर और फटी हुई कथरियों में रात काट रहे हैं।
इन्हीं में से एक हैं अरुण कुमार, जिनका परिवार अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई में बेघर हो गया। अरुण बताते हैं, "हम राजघाट में रहते थे। वहां से हमारा घर तोड़ दिया गया। अब हमारे पास कोई छत नहीं है। आधार कार्ड होने के बावजूद हमें रैन बसेरे में घुसने नहीं दिया जाता। ठेकेदार कहता है कि तुम लोग बिस्तर गंदा कर दोगे। अब हम सरकार से कह रहे हैं कि कुछ ऐसा करो कि हमें मार ही दो। हमें कोई शिकायत नहीं होगी। अगर सरकार नहीं मारेगी, तो ठंड हमें मार देगी।"
अरुण की बात सुनकर वहां खड़े रविंद्र और रवि भी सहमति में सिर हिलाते हैं। उनका दर्द भी कुछ अलग नहीं है। खुले आसमान के नीचे बिताई हर रात उनके लिए मौत से कम नहीं है।
रैन बसेरा किसके लिए ?
निर्मला देवी और मंगरा देवी भी इन्हीं लोगों के बीच अपना दिन-रात काट रही हैं। वो कहती हैं, "आप खुद आकर देख सकते हैं कि हम किस हालत में हैं। ठंड में सिकुड़कर जी रहे हैं। मोदी सरकार बड़ी-बड़ी बातें करती है, लेकिन हम यहां पुल के नीचे जिंदगी काटने को मजबूर हैं। रैन बसेरा आखिर किसके लिए है? हमारा तो सब कुछ चला गया—घर, सामान, और अब तो उम्मीद भी। अगर सरकार हमें बस जीने लायक जमीन ही दे दे, तो हम अपनी झोपड़ी दोबारा बना लेंगे। लेकिन ये भी नहीं किया जा रहा।"
फ्लाईओवर के नीचे ठिठुरते इन लोगों का दिन भी आसान नहीं है। दिनभर छोटे-मोटे काम कर जो कुछ कमाते हैं, वह दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने में ही खत्म हो जाता है। जब रात होती है, तो ये लोग प्लास्टिक और कथरी के सहारे ठंड से लड़ते हैं। सरकार द्वारा बनाए गए रैन बसेरे के दरवाजे उनके लिए बंद हैं, और उनकी ज़िंदगी धीरे-धीरे सर्द हवाओं के थपेड़ों में खत्म हो रही है।
स्थानीय लोगों और इन बेसहारा परिवारों का आरोप है कि रैन बसेरे का संचालन करने वाला ठेकेदार अपनी मनमानी करता है। वहां जाने वाले लोगों से दुर्व्यवहार किया जाता है और कई बार तो बिना किसी वजह के उन्हें लौटा दिया जाता है। सरकारी योजनाओं का लाभ आखिरकार उन्हीं तक सीमित रह जाता है, जो पहले से ही सुविधाओं से संपन्न हैं।
यह रिपोर्ट सवाल उठाती है कि आखिर सरकार और प्रशासन इन बेसहारा लोगों की ओर कब ध्यान देगा। क्या रैन बसेरे सिर्फ दिखावे के लिए हैं? क्या गरीब और हासिये पर खड़े समुदाय के लोग इस सर्दी में अपनी जान गंवा देंगे?
सर्दी से गरीबों में कोहराम
पश्चिमी विक्षोभ के सक्रिय होने के कारण पछुआ हवा में नमी बढ़ गई है। दिन में भले ही धूप हो रही है, लेकिन लोगों को सर्दी से राहत नहीं मिल पा रही है। ऐसे में कोरामनगर, कज्जाकपुरा, आदमपुर, शिवपुर, लहरतारा, सामनेघाट, भगवानपुर के साथ ही ग्रामीण इलाकों में आराजीलाइन, राजातालाब, रोहनिया, पिंडरा सहित ग्रामीण इलाकों में अन्य दिनों की तुलना में गलन महसूस की जा रही है।
सर्दी से बचाव के इंतजाम का जायजा लेने के लिए सबरंग इंडिया ने पांडेयपुर, सारनाथ, आशापुर, अंधरापुल के पास रोड किनारे फुटपाथ पर सो रहे लोगों से बात की। उनका कहना है कि प्रशासन की तरफ से मदद मिली होती तो शायद हम मजबूरी में यहाँ नहीं सो रहे होते। फुटपाथ पर महिला और पुरुष के साथ ही छोटे-छोटे बच्चे भी खुले आसमान में सो रहे हैं। कड़ाके की सर्दी से बचने के लिए लोग आग का सहारा ले रहे हैं।
एक्टिविस्ट डा.लेनिन रघुवंशी कहते हैं, "गंगा घाटों पर मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट की अधजली लकड़ियां बड़ी सहारा है। ये लकड़ियां नहीं रहें तो बहुत से बेसहारा और गरीब लोग जहां तहां सर्दी से मर जाएंगे। गंगा घाटों पर तमाम साधु और भिखारी कड़ाके की सर्दी में इन्हीं लकड़ियों के सहारा रात गुजार लेते हैं। जहां तक रैन बसेरे की बात है तो वह सिर्फ कमीशन का धंधा साबित हो रहा है।"
30 वर्षीय गीता सिंधौरा के एक गांव की रहने वाली हैं। पति अर्जुन क्षेत्र में ही दूसरे के खेतों में मजदूरी करते थे। पहले महंगाई उसके बाद बेरोज़गारी से ये लोग आज़िज हो गए। वहां काम की किल्लत देख अर्जुन परिवार के साथ बनारस आ गए और परिचितों के जुगाड़ से लेबर मंडी में खड़े होने लगे। वहां कभी-कभार बमुश्किल काम मिल जाता है।
कुछ ऐसी ही कहानी है सारनाथ में फुटपाथ पर रहने वाली अनीता की। हवेलिया चौराहे पर अनीता अपने पति और बच्चों के साथ खुले आसमान के नीचे जीवन बसर कर रही हैं। उनके पति सीवर सफाई का काम करते हैं। वह बताती हैं कि ‘भीषण सर्दी में बड़ी मुश्किल में ज़िंदगी गुजारनी पड़ती है। कोई हमारी समस्या पूछने वाला नहीं है।’
वह कहती हैं कि हवेलिया चौराहे के पास हमारी झोपड़ी प्रशासन ने उजाड़ दी। हम विरोध भी नहीं सकें। फुटपाथ पर हमें भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। तिरपाल डालकर दोबारा रहना शुरू किया तो फिर हटा दिया गया। तीसरी मर्तबा जी20 के समय हमें खदेड़ दिया गया। तब से अब तक हम सड़क के किनारे ही किसी तरह से समय काट रहे हैं।
सरकार के चमचमाते रैन बसेरों में चमक तो है, लेकिन वहां गरीबों के लिए जगह नहीं। फुटपाथ पर ठिठुरते लोग एक अदद सहारे के इंतजार में अपनी रातें गुजार देते हैं। सरकार के चमचमाते रैन बसेरों में चमक तो है, लेकिन वहाँ गरीबों के लिए जगह नहीं। फुटपाथ पर ठिठुरते लोग एक अदद सहारे के इंतजार में अपनी रातें गुजार देते हैं।
शर्मीली कहती है, "हमारे पिता जब जिंदा थे तक दिक्कत नहीं थी। साल 2021 में कोरोना के वक्त उनकी मौत हो गई। कुछ ही दिनों बाद हवेलिया चौराहे के पास हमारी झुग्गी-झोपड़ी सरकार ने उजाड़ दी। हमें भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। दोबारा पालिथीन डालकर रहना शुरू किया तो फिर बुल्डोजर चल गया। तीसरी मर्तबा जी-20 के समय हमें खदेड़ा गया। तब से अब तक हम सड़क के किनारे ही किसी तरह से वक्त काट रहे हैं।"
कुछ ऐसी ही कहानी 17 वर्षीय करन की है। इसके पिता सिकंदर की मौत उस समय हो गई थी जब उसकी उम्र पांच साल की थी। बाद में मां हमें छोड़कर चली गई। उसने किसी और से शादी रचा ली। करन सीवर की सफाई का काम करता है। रहने के लिए जगह नहीं है तो वह भी सड़क के किनारे गुदड़ी-चादर लपेटकर खुले आसमान के नीचे सो जाता है। वह कहता है, "इस दुनिया में हमारा कोई अपना नहीं है। पहले हर साल रात में लोग कंबल दे दिया करते थे और इस साल तो कोई आया ही नहीं।"
सर्दी से नकाब सरीखी हो गई धुंध
पूर्वांचल में पिछले तीन-चार दिनों से कड़ाके की सर्दी के बीच धुंध नकाब सरीखी हो गई है। कोहरे ने सूरज को भी अपने आगोश में छिपा लिया है। नतीजा, सड़कों पर जिंदगी सिमट-सी गई है। सर्द हवाओं ने गरीबों और वंचित तबके के लोगों की ख्वाहिशों को कुल्फी जैसा जमा दिया है। बेहद सर्द मौसम उन लोगों के अरमानों को झुलसा रहा है जो सालों से सड़कों पर जीवन बसर कर रहे हैं। खासतौर पर वो लोग जो हर रोज कमाते हैं और रोज खाते हैं। उनके जीने का और कोई दूसरा साधन नहीं है। पिछले तीन दिनों से धुंध और कोहरा कहर बरपा रहा है। सर्दी का सितम ऐसा है कि बनारस ही नहीं, पूर्वांचल के सभी जिलों में जिंदगी सिमटकर रह गई है। कुछ लोग नर्म-नर्म रजाइयों और गद्दों में दुबक रहे तो आम आदमी सड़कों पर सर्दीी हवाओं के झोंको से ठिठुरता नजर आ रहा है।
30 वर्षीय मधु भी खुले आसमान के नीचे जिंदगी गुजारने पर विवश है। सारनाथ में पहले इसकी भी झोपड़ी हुआ करती थी जिसे बुल्डोकर लगाकर सरकार ने ढहा दिया। मधु का पति राकेश किराये पर ई-रिक्शा चलता है। रहने को घर नहीं। बारिश और सर्दी से बचने के लिए कभी-कभी वह एक सरकारी इमारत के बारजे के नीचे रात गुजारने के लिए चादर लपेटकर सो जाते हैं।
60 वर्षीय राजू सारनाथ स्थित म्युजियम परिसर में पिछले 18 सालों से झाड़ू लगाने का काम करते थे। उम्र ढलने लगी तो अफसरों ने यह कहकर उन्हें काम से हटा दिया कि अब उससे सफाई का काम नहीं हो पाता। वह कहते हैं, "हमारी जगह किसी नौजवान को नौकरी दे दी गई। हमें हमेशा के लिए हटा दिया गया। मेरी पत्नी का नाम डीजल बत्ती था वह भी कोरोना के समय चल बसी। 17 वर्षीय बेटा बादल झाड़ू लगाता है जिससे मुश्किल से दो वक्त भोजन मिल पाता है। कई बार तो सिर्फ पानी पीकर रात गुजारनी पड़ती है।"
62 वर्षीय हीरालाल बनारस के विश्वेश्वरगंज में ट्राली पर सामान ढोने का काम करते हैं। रहने के लिए कोई घर नहीं है। लाचारी में वो भी सड़क के किनारे ट्राली खड़ी कर सो जाते हैं। पूरी रात ठिठुरते हैं लेकिन कोई दूसरा चारा नहीं है। इन्हें यह पता नहीं है कि सरकार ने बेसहारा लोगों के लिए रैन-बसेरा बनवा रखा है। 30 वर्षीया हिना अपनी बहन रेशमा के साथ रहती है। झाड़ू-पोछा लगाती है। संजय मजूरी करते हैं। शाम को सड़क के किनारे ईंट का चूल्हा बनाकर लकड़ी पर भोजन पकाते हैं। सर्दी हो या गर्मी, रात में सड़क के किनारे ही सो जाते हैं।
सारनाथ स्टेशन रोड के किनारे 42 लोगों का परिवार झोपड़ी डालकर रहता था। विकास के नाम पर इनकी झोपड़ियां उजाड़ दी गईं तो इनका पता भी छिन गया। इन्हीं में एक हैं गोविंद और शांति जो एक नाले के ऊपर पालिथीन डालकर कड़ाके की सर्दी में रात गुजारने को विवश हैं। सारंगनाथ मंदिर पर भीख मांगने वाली मुच्चन कहती हैं, "जब तक आंखें थी, लोगों के घरों में काम करते रहे। रोशनी चली गई तो काम छूट गया। दान के पैसे से जिंदगी कट रही है। कड़ाके की सर्दी ने हमारी दुश्वारियां बढ़ा दी है। गीता, मंगरू और फूलकली की जिंदगी सर्द रातों में सड़क के किनारे गुजर रही है।"
कड़ाके की सर्द रात में पारा लुढ़कते हुए छह डिग्री सेंटीग्रेट तक पहुंच गया है। सिर पर प्लास्टिक और एक पतला सा कंबल ओढ़े 65 वर्षीय मंगरू रेलवे स्टेशन के बाहर सोया नजर आया। बात करने पर उसकी पीड़ा भी खुलकर सामने आ गई। रोडवेज बस स्टैंड और बनारस के गंगा घाटों के किनारे सर्द रात में ठिठुरते हुए तमाम लोग पड़े रहते हैं। ऐसे लोग प्रशासन के उस दावे की पोल खोल रहे हैं जिसमें जरूरतमंद लोगों को सर्दी से बचाने के लिए सारे उपाए किए जाने की दलील दी जाती है।
बनारस में रिक्शा चालकों का हाल अभी अजीब है। 55 वर्षीय कल्लू कहते हैं, "हजूर पेट की आग और परिवार की जरूरतों को पूरी करने की मजबूरी है। इस वजह से घने कोहरे के बीच सड़कों पर रिक्शा वाले निकल आए हैं। पूरे दिन रिक्शा चलाने के बाद किराए के पैसे अदा करने के बाद जो पैसे बचते हैं उसी से दो वक्त की रोटी और अन्य जरूरी सामानों की खरीदारी करता हूं। अगर मैं किसी दिन रिक्शा नहीं चलाऊंगा तो उसका किराया भी नहीं भर पाऊंगा। ऐसे में रोटी का इंतजाम मुश्किल हो जाएगा। हमारे पास सिर छुपाने के लिए छत नहीं है। जब थककर अपने ठिकाने (फुटपाथ) पर पहुंचते हैं तो बनारस की सर्दी में रात में ठिठुरते हुए किसी तरह रात काटकर सुबह का इंतजार करते है"
बेसहारों को कौन देगा सहारा
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में काम-धंधे की तलाश में बड़ी तादाद में आकर लोग रहते है। किसी के पास कोई स्थायी रोजगार नहीं होता। कभी भीख मांगकर तो कभी मेहनत मजदूरी कर जीवनयापन करने वाले ऐसे बेसहारा और आवासहीन लोगों के सामने सर्द रात गुजारना सबसे बड़ी चुनौती होती है। दिन तो किसी तरह गुजर जाता है लेकिन रात इनके लिए बेहद कष्टकारी होती है। बहुत से लोग सरकारी भवनों के बरामदों और शेड के नीचे रात गुजारते नजर आते हैं। कभी किसी की नजर पड़ी तो फटा पुराना एकाध कंबल मिल जाता है।
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार पवन मौर्य कहते हैं, "सर्दी का मौसम सरकारी नुमाइंदों के लिए सौगात लेकर आता है। राहत के नाम पर नगर निगम लाखों की लकड़ियां हर साल खरीदता है फिर भी आम आदमी सर्दी से ठिठुरता हुआ दिखता है। गरीबों को सर्दी से बचाने के लिए कागजों में आदेश जारी होते हैं लेकिन धरातल पर ठिठुरते हुए जरूरतमंद लोगों को राहत देने के लिए कोई सार्थक पहल नहीं सालों से नहीं हुई। कहने को तो शहर में कई स्वयंसेवी संस्थाएं हैं लेकिन जरूरतमंद लोगों के लिए ये संस्थाएं कभी आगे नहीं आतीं। साधन संपन्न कुछ लोग कंबल बांटने का दिखावा करते हैं। कुछ संस्थाएं भी ऐसा ही करती हैं जिससे उनका नाम अफसरों और नेताओं तक पहुंच जाए। उनका निजी स्वार्थ पूरा होता रहे।"
"विश्व गुरु बनने का ख्वाब दिखाने वालों ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि इस महंगाई में रोज़ कमाने वाले परिवार की थाली में क्या परोसा जाता होगा और कड़ाके की सर्दी में उनकी रातें कैसे गुजरती होंगी? देश की 40 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है। 9.3 करोड़ लोग आज भी झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं। 12.8 करोड़ लोगों साफ़ पानी नहीं मिलता और 70 लाख बच्चे शिक्षा से कोसों दूर हैं। फिर भी दावा किया जा रहा है कि सरकार ने सभी को छत दे दिया है और भोजन भी।"
वाराणसी में वंचितों को खदेड़ने का यह पहला मामला नहीं हैं, बल्कि यहां विकास के नाम पर विस्थापन की त्रासदकथा का इतिहास नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद शुरू हो जाती है। कभी पुलिस लाइंस, राजातालब, मिर्जामुराद, चंदापुर, बड़ा लालपुर, मवइया, लहरतारा, कैंट, नमो घाट, खिड़किया घाट, लहरतारा-चौकाघाट फ्लाईओवर, काशी-विश्वनाथ कारीडोर, सारनाथ स्टेशन आदि के लोग विकास के नाम पर उजाड़े गए हैं।
पिछले दो हफ्ते से सर्दी और शीतलहरी का प्रकोप यूपी में काफी बढ़ गया है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में हजारों लोग सड़क पर ही अपनी ज़िंदगी गुज़ारने को विवश हैं। उन्हें न सरकारी योजनाएँ मिलती हैं न अन्य कोई लाभ। प्रतिदिन मजदूरी करके जो कमाई होती है, उससे दो वक्त की रोटी मिल जाती है। बच्चों की शिक्षा से लेकर दवाइयों के खर्च का जुगाड़ नहीं हो पाता। इसलिए शिक्षा उनके लिए ‘सपना’ ही हो गई है।
वंचित और गरीब तबके के यह लोग सर्दी के सितम को अपने कलेजे पर झेलते हैं। सर्दी ज़्यादा होने पर आसपास के कूड़ा-करकट, प्लास्टिक को इकट्ठा करते हैं और उसे जलाकर सर्दी के साथ अपने दुखों को भी राहत पहुँचाते हैं। लेकिन यह सहूलियत रोज़ नहीं मिल पाती और सर्दी में ही खुद को सिकुड़कर इन्हें रात गुज़ारनी पड़ती है।
अंधरापुल के फुटपाथ पर बच्चों के साथ रहने वाले राजू और उनकी पत्नी मधु के साथ ही अन्य लोगों से जब बात की गई, तो उनका कहना है कि प्रशासन अगर मदद करता तो, हम यहाँ क्यों सोते? हम बच्चों और अपना पेट पालने के लिए इधर-उधर कमा कर फुटपाथ पर सोते हैं। इन लोगों का यह भी कहना है कि अगर सोने की बेहतर जगह मिल जाए तो वह खुले आसमान के नीचे इस कड़ाके की सर्दी में क्यों सोना पसंद करेंगे? आज कोई व्यवस्था उनके पास नहीं है। फुटपाथ पर बच्चों के साथ मजबूरी में सो रहे हैं।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में काम-धंधे की तलाश में बड़ी तादाद में आकर लोग रहते है। किसी के पास कोई स्थाई रोजगार नहीं होता। कभी भीख माँग कर तो कभी मेहनत-मजदूरी कर जीवनयापन करने वाले ऐसे बेसहारा और आवासहीन लोगों के सामने सर्द रात गुज़ारना सबसे बड़ी चुनौती होती है।
इन्हीं में से एक हैं गोविंद, जो किराए की ट्रॉली चलाते हैं, जिसका एक दिन का किराया सौ रुपये है। जब काम मिलता है तब ही गोविंद ट्रॉली लेते हैं। सारनाथ चौराहे के फुटपाथ पर रहने वाले गोविंद बमुश्किल अपनी बेटी की शादी कर चुके हैं। बेटा किराए के एक कमरे में रहता है, लेकिन गोविंद बेटे पर बोझ नहीं बना चाहते हैं। इसलिए खुद कमाकर ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं।
सुबह चाय-ब्रेड और रात में निजी संस्थाओं द्वारा दिए जाने वाला खाना खाकर गोविंद सर्द रातों में ज़मीन पर एक कथरी बिछाकर सोते हैं। एक सवाल के जवाब में वह कहते हैं कि ‘…ज़मीन रहेगी तभी पीएम आवास मिलेगा। ‘आवास’ का सपना देखना अब मैंने छोड़ दिया। 60 बरस उम्र हो गई है। अब तो बस दुनिया से रुखसत होने का इंतज़ार है। बाकि ज़िंदगी तो सड़क पर कट ही गई है।’
आम आदमी झेलता है सर्दी की मार
सोशल एक्टिविस्ट सौरभ सिंह कहते हैं, "धन कुबेरों के लिए सर्दी मन बहलाव का मौसम क्यों न हो लेकिन बनारस के हजारों रिक्शा चालक और सड़कों पर जीवनयापन करने वाले करीब पांच लाख लोग इन दिनों मुश्किल में हैं। इन्हें प्रकृति की मार झेलनी पड़ रही है। जाड़े में इनकी जिंदगी और भी ज्यादा कष्टकर हो गई है। विकास के नाम पर बनारस में घाटों के आसपास की कई मलिन बस्तियां तोड़ी गईं। आजादी के बाद ऐसा पहली बार हो रहा है कि गरीबों को यहां लावारिश हाल में छोड़ दिया गया है।''
सौरभ कहते हैं, "पिछले एक हफ्ते से शीतलहर चल रही है। सर्दीी हवाओं के झोकों से आम आदमी जमता हुआ नजर आ रहा है। खुले आसमान के नीचे गुदड़ी लपेटकर लोग गुजारा कर ही रहे हैं। रैन बसेरों में बदइंतजामी गरीबों का सिर्फ इम्तिहान ही नहीं, जान भी ले रही है। कड़ाके की सर्दी से ठिठुर कर मरने वाले लोगों की गिनती सरकार भी नहीं करती है। वाराणसी कैंट, सिटी, काशी और मंडुआडीह (बनारस) रेलवे स्टेशनों के बाहर रात में चले जाइए। खुले आसमान के नीचे ठिठुरते हुए रात गुजार रहे सैकड़ों लोग मिल जाएंगे। तमाम लोगों की मजबूरी यह होती है कि उन्हें गंतव्य तक जाने के लिए वाहन नहीं मिलते। सुबह वाहन जाते है। इसलिए रातें भी कांपते हुए गुजारनी पड़ती है। किसी को पता नहीं होता कि रैन बसेरे कहां बने हैं? "
सौरभ बताते हैं, "बनारस जिले में प्रशासन द्वारा बहुत ही सुनियोजित तरीके से वंचित तबकों को हटाया जा रहा है। राजघाट में फुटपाथ पर रहने वाले लोग डुमरी चले गए। महमूरगंज में फुटपाथ पर रहने वाले लोग रोहनिया चले गए। आशापुर, सारनाथ में फुटपाथ पर रहने वाले लोग चिरईगाँव चले गए। पांडेयपुर में फुटपाथ पर रहने वाले लोग शिवपुर, कादीपुर, सिंधोरा चले गए। वंचित तबके को शहर से गाँव की ओर धकेल दिया जा रहा है, जहाँ वह नए सिरे से अपनी ज़िंदगी शुरू करेंगे। अब वह नई परेशानियों का सामना करेंगे।"
"सड़क और विकास से जुड़े अन्य योजनाओं के नाम पर फुटपाथ पर रहने वाले लोगों को ही खदेड़ा गया। शहर का विकास हर तबके का आदमी चाहता है, लेकिन उसके लिए समाज के एकदम निचले वर्ग की उपेक्षा कर देना सही नहीं लगता। एक्टिविस्ट सौरभ इन दिनों फुटपाथ पर रहने वाले लोगों में गर्म कपड़े-कम्बल वगैरह बांट रहे हैं। ताकि शीतलहरी से होने वाली कोई जनहानि न हो सके।"
सामाजिक कार्यकर्ता मुनीजा खान कहती हैं, "योगी सरकार ने वंचित समाज को मेन स्ट्रीम से जोड़ने के लिए कई योजनाएं तो बनाई हैं, लेकिन इन लोगों को लाभ उन्हें क्यों नहीं मिल पा रहा है, यह शोचनीय है और बड़ा सवाल भी। बीना कहती हैं कि पिछले एक हफ्ते से शीतलहर चल रही है। बारिश से जनजीवन बेहाल है। सर्दीी हवाओं के झोकों से आम आदमी जमता हुआ नजर आ रहा है। ऐसे में फुटपाथ पर रहने वाले लोग खुले आसमान के नीचे फटे-पुराने कपड़े लपेटकर गुज़र-बसर कर रहे हैं। रैन बसेरों की बदइंतजामी इन गरीबों का एक और इम्तिहान ले रही है।"
(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं। बनारस से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)
बनारस का हरिश्चंद्र घाट। गंगा की बहती धारा के किनारे एक ऐसा स्थान, जहां जिंदगी और मौत एक-दूसरे से संवाद करती नज़र आती हैं। लेकिन इस बार यह घाट किसी और वजह से चर्चा में है। यहां की जली-अधजली लकड़ियां इन दिनों उन लोगों का सहारा बन गई हैं, जो सर्द रातों में खुले आसमान के नीचे अपनी ज़िंदगी काट रहे हैं।
घरों में मेहनत-मजूरी करके आजीविका चलाने वाली मंजू कहती हैं, "सर्दियों में खुद को बचाने के लिए हम श्मशान की लकड़ियों का इस्तेमाल करते हैं। इसी को जलाकर हम खुद को सर्दियों में गर्म रखते हैं। इसके आलावा चाय-खाना बनाने में इसका इस्तेमाल करते हैं। लकड़ियां उठाने के लिए उन्हें कोई मना नहीं करता। उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि वह श्मशान से लकड़ियां ला रहे हैं, क्योंकि उनके सामने उनकी ज़रूरत सबसे ज़्यादा बड़ी है।"
बनारस में ‘श्मशान की लकड़ियां’, बनारस में पड़ती कड़ाके की सर्दी में बेघरों की ज़िंदगियां बचाने का काम कर रही हैं। उनका चूल्हा जला रही हैं। उन्हें गर्म रख रही हैं। श्मशान की लकड़ियों को लेकर बेशक कई लोगों में हिचकिचाहट, सामाजिक व अन्य धार्मिक भ्रांतियां होंगी, लेकिन यह बेघरों को सर्दी और भूख से नहीं बचातीं।
हर कोई जानता है कि सर्दी की मार आम आदमी ही झेलता है। जैसे-जैसे बदलताहै मौसम का मिजाज, अपने आप धीमी होने लगती है गरीबों की धड़कन। केवल धड़कन ही नहीं, धंधा भी जाम होने लगता है। तब काम आती हैं श्मशान घाटों की लकड़ियां। जली-अधजली वो लकड़ियां जो मुर्दों के जलाने के बाद बच जाया करती हैं।
बनारस के चर्चित हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिका घाट के समाने गंगा बहती है। आसपास गलियों और गंगा घाटों पर तमाम बेघर और साधु रहते हैं। ये सभी सभी लोग श्मशान की लकड़ियों का इस्तेमाल करते हैं। इनमें महिलाएं, युवा और कुछ छोटे बच्चे होते हैं। हरिश्चंद्र घाट पर श्मशान घाट की लकड़ियां इस सर्दी में जीवनदायनी बना हुआ है।
हरिश्चंद्र घाट पर डोम समुदाय से जुड़े मंगल बताते हैं, "बची हुई लकड़ियां बेसहारा लोगों को दे देते हैं। अलाव जलाते हैं और खाना भी बनाते हैं इन लकड़ियों से। ढेर सारी लकड़ियां बाबा कीनाराम के आश्रम में जाती हैं। वहां भक्तों के लिए उन्हीं लकड़ियों से खाना बनाया जाता है। साथ ही वहां पूरे साल अनवरत जलने वाली धुनी में भी इन लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है।"
मंगल कहते हैं, "डोम हरिश्चंद्र और मणिकर्णिका घाट पर डोम समुदाय के ज्यादातर लोगों के घरों में चिता की लकड़ियों से भोजन बनाया जाता है। हमारा समुदाय गरीबों और बेसहारा लोगों की हर संभव मदद करता है। हरिश्चंद्र घाट पर हफ्ते में दो दिन हमारे समुदाय के लोग गरीबों को मुफ्त में खाना भी खिलाते हैं। अगर किसी बेसहारा इंसान की मौत हो जाती है तो उसका विधिवत अंतिम संस्कार भी डोम समुदाय के लोग मिलकर करते हैं। इसके लिए हम सरकार और प्रशासन का मुंह नहीं देखते।"
40 वर्षीया विपासी पिछले दस साल से हरिश्चंद्र घाट के श्मशान से लकड़ियां ला रही हैं। वह कहती हैं, "सर्दी की वजह से हमें श्मशान घाट से लकड़ियां लानी पड़ती है। उसी पर खाना बनाते हैं, उसी पर हाथ सेंकते हैं। हरिश्चंद्र घाट पर जितने बेघर लोग पहुंचते हैं अथवा आसपास रहते हैं, सभी खुद को सर्दी से बचाने के लिए श्मशान की लकड़ियों का इस्तेमाल करते हैं।"
ईंट-गारा और सीमेंट की ढुलाई करने वाले 49 वर्षीय नखड़ू हरिश्चंद्र घाट पर श्मशान घाट की लकड़ियों से जलाई गई आग तापते मिले। वह कहते हैं, "श्मशान घाट की लकड़ियां ही सहारा है। इन्हीं लकड़ियों से हम अलाव की व्यवस्था करते हैं और दोनों वक्त खाना भी बना लेते हैं।"
नखड़ू के पास रात गुजारने का कोई ठिकाना नहीं है। रात भर अलाव तापते हैं। देर रात वहीं चादर ओढ़कर सो जाते हैं। सुबह श्मशान की लड़कियों पर खाना बनाते हैं और फिर काम धंधे पर निकल जाते हैं। वह कहते हैं, "मैं लगभग आठ बरस से श्मशान से लकड़ियां लेकर आ रहा हूं। सर्दियों में वह इन्हीं लकड़ियों का इस्तेमाल कर, उन्हें जलाकर खुद को सर्दी से बचाव करता हूं।"
नखड़ू की बात को जोड़ते हुए अलाव ताप रहे सुनील ने कहा कि मैं कबाड़ बीनने का काम करता हूं। एक दुर्घटना के कारण सुनील अपनी रीढ़ की हड्डी में चोट खा चुके हैं। वह कहते हैं कि मेरे पास कोई काम नहीं है, क्योंकि एक दुर्घटना में मेरे रीढ़ की हड्डी में चोट आ गई है, तभी से वजन का काम मुझसे नहीं होता है। सर्दियों में खुद को बचाने के लिए हम श्मशान की लकड़ियों का इस्तेमाल करते हैं। इसी को जलाकर हम खुद को सर्दियों में गर्म रखते हैं। इसके आलावा चाय-खाना बनाने में इसका इस्तेमाल करते हैं। लकड़ियां उठाने के लिए उन्हें कोई मना नहीं करता। उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि वह श्मशान से लकड़ियां ला रहे हैं, क्योंकि उनके सामने उनकी ज़रूरत सबसे ज़्यादा बड़ी है।"
48 वर्षीय शहाबुद्दीन मकानों में ईंटों की चिनाई का काम करते हैं। वह हमें हरिश्चंद्र घाट पर श्मशान की लकड़ियों से अलाव तापते हुए मिले। वह कहते हैं, "इन लकड़ियों ने हमारी जिंदगी आसान कर दी है। जब पेट की आग बुझाने की बात हो, तो यह सवाल नहीं रहता कि लकड़ी श्मशान की है।"
हरिश्चंद्र घाट पर कालू डोम सेवा ट्रस्ट से जुड़े बहादुर चौधरी बताते हैं कि हर दिन हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिका घाट पर शवों के अंतिम संस्कार के बाद करीब 15,000 से 20,000 किलो तक लकड़ियां बच जाती हैं। ये लकड़ियां 300 से 400 रुपये मन (एक मन 40 किलो के बराबर होता है) बिक जाती हैं। बहादुर बताते हैं कि छोटे होटल और ढाबे चलाने वाले भी कुछ अधजली लकड़ियां ले जाते हैं। कुछ लकड़ियां गरीबों को मुफ्त में दे दी जाती हैं। कुछ संस्थाएं बांस की टकठियों को यहां से ले जाती हैं और परफ्यूम मिलाकर अगरबत्ती बनाती हैं।
मीरघाट निवासी अनिल चौधरी, मणिकर्णिका घाट पर काम करते हैं। वह बताते हैं कि रोजाना सैकड़ों किलो लकड़ियां बचती हैं, जो गरीबों को बांट दी जाती हैं। वह कहते हैं, "हरिश्चंद्र घाट पर रहने वाले सभी बेसहारा शाम और सुबह छब बजे के करीब लकड़ियां लेने के लिए श्मशान घाट जाते हैं। लोग लकड़ियां लेने के लिए श्मशान घाट के पीछे का रास्ता अपनाते हैं। श्मशान घाट पर काम करने वाले पवन कहते हैं वह चिता जलाने का काम करते हैं। किसी का मन हुआ तो कोई 100-50 रूपये ज़्यादा दे देता है चाय-पानी के लिए। इसी से उनकी आजीविका चलती है।"
दिन-रात जलती हैं अर्थियां
मणिकर्णिका घाट पर चिता की आग कभी नहीं बुझती, दिन हो या रात 24 घंटे यहां अर्थियां जलती रहती हैं और आसमान की तरफ उड़ता धुआं आत्मा के परमात्मा में विलीन होने जैसा लगता है। यहां मृत्यु मातम, नहीं उत्सव है। यहां रहने वाले लोगों की मानें तो मणिकर्णिका पर औसतन रोज 100 दाह-संस्कार होते हैं। कुछ लोग तो इन शवों की संख्या 250 तक बताते हैं।
मणिकर्णिका घाट पर दाहिनी ओर एक मंदिर है जिसमें राजा हरिश्चंद्र, तारामती और रोहित की मूर्तियां हैं। मणिकर्णिका घाट पर मौजूद एक साधु सदानंद महाराज बताते हैं कि राजा हरिश्चंद्र का जब राजपाट चला गया तो वे कालू डोम के यहां नौकरी करने लगे, जिन्होंने कहा था कि मणिकर्णिका घाट पर आने वाले हर शव का दाह-संस्कार तभी होगा, जब ‘टैक्स’ चुकाया जाएगा। जब उनके बेटे रोहित की मृत्यु हुई तो उनकी पत्नी तारामती शव लेकर उसी श्मशान पहुंचीं, जहां राजा हरिश्चंद्र नौकरी कर रहे थे। उन्होंने भी अपने बेटे के अंतिम संस्कार करने के लिए पत्नी से टैक्स यानी दान-दक्षिणा मांगा। तभी से मणिकर्णिका घाट पर शवों का अंतिम संस्कार बिना दान के पूरा नहीं होता।
नमामि गंगे परियोजना में सफाईकर्मी 32 साल के किसना चौधरी ने बताया कि श्मशान घाट की लकड़ियां बेकार नहीं होतीं। ये लकड़ियां गरीबों के लिए बहुत मददगार साबित होती हैं। बहुत से लोग इन्हीं लकड़ियों पर खाना बनारते हैं और सर्दी से अपना बचाव भी करते हैं।
बनारस के मणिकर्णिका घाट पर सफाईकर्मी 24 साल की कृतिका बताती हैं कि चिता पर सजी कुछ लकड़ियां राख हो जाती हैं तो कुछ अधजली रह जाती हैं। इन लकड़ियों का भी बड़ा बिजनेस है। इनसे अगरबत्ती भी बनाई जाती है। बिजनेस करने वाले लोग इसे दूसरे शहरों में भी सप्लाई करते हैं।
मीर घाट के पास रहने वाले रमेश चौधरी (नाम बदला हुआ) बताते हैं कि लोग चिता जलाने के लिए कई बार अधिक लकड़ी ले लेते हैं। अगर कम लकड़ी में ही चिता जल जाती है तो बची लकड़ियां हम लोगों के घर पहुंच जाती हैं। कई बार जो लकड़ियां नहीं जलती हैं वो भी घरों में यूज हो जाती है। सर्दी के दिनों में यह आग सेंकने के काम आती है। यही नहीं, होटलों में भी इन अधजली लकड़ियों को बेचा जाता है।
संत कीनाराम आश्रम में अघोरी इन अधजली लकड़ियों का इस्तेमाल करते हैं। पंडित इंद्रजीत वली मिश्रा कहते हैं मणिकर्णिका घाट की अधजली लकड़ियां चेतगंज स्थित पिशाच कुंड भी भेजी जाती हैं। इस कुंड के आसपास रहने वाले अघोरी इन्हीं अधजली लकड़ियों पर मछलियां पकाते और खाते हैं, जिसे ‘प्रसाद’ कहा जाता है।
एक्टिविस्ट अमन कबीर कहते हैं, "जो व्यक्ति सड़क पर है, आखिर में है उन्हें मौसम की मार सबसे ज़्यादा होती है, चाहें वह सर्दी हो, गर्मी हो या बरसात हो। यह देखा जाता है कि सर्दियों और गर्मियों में मौतों की संख्या हमेशा बढ़ जाती है। बनारस में बेघरों की तादाद हजारों में है लेकिन इन्हें सुनने वाला और इनका दर्द समझने वाला कोई नहीं है।” आगे कहा, सरकार के पास कभी कभी अंतिम व्यक्ति के लिए पैसे नहीं होते, लेकिन कमर्शियल के होते हैं। सरकार इन तक पहुंच जाए, वही बड़ी बात है।"
हरिश्चंद्र घाट पर जब हम कड़ाके की सर्दी में जहां तहां अलाव ताप रहे लोगों को देखते हैं तो सरकार की कथनी और कार्रवाई, दोनों का पता लग जाता है। यहां रह रहे लोग सालों से श्मशान की लकड़ियां ला रहे हैं ताकि वे खुद को सर्दी और भूख से बचा सकें। श्मशान घाट को लेकर लोगों की अपनी भ्रांतियां होंगी लेकिन यहां ये लकड़ियां यहां रह रहे बेघर लोगों का सहारा हैं।
यह कड़ाके की सर्दी सिर्फ तापमान नहीं गिराती, यह गरीबों की उम्मीदों और सपनों को भी बर्फ सा जमा देती है। हर साल सैकड़ों जानें इस सर्दी की मार झेलते-झेलते दम तोड़ देती हैं। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, जनवरी 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दशक में सर्दी के संपर्क में आने से देश भर में हर साल औसतन 800 से ज़्यादा लोगों की मौतें होती हैं। बनारस में लगातार तीन दिनों से पड़ रही कड़ाके की सर्दी ने लोगों को कंपा दिया है। मौसम खराब होने के चलते सड़क पर वाहनों की बत्ती जलाकर जाते लोग दिखे।
रैन बसेरे हैं, मगर बेसहारा फुटपाथ पर
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में सर्दी की रात में गरीबों के ठहरने के लिए बनाए गए रैन बसेरे में तारांकित होटलों जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं। इसके लिए रैन बसेरे में गीजर, ब्लोअर और टीवी की व्यवस्था की गई है। कुछ रैन बसेरे को तो पूरी तरह से महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग बनाया गया है। इसके अलावा रैन बसेरे में फैमिली के रुकने के लिए अलग से भी व्यवस्था की गई है।
शीतलहर के मद्देनजर वाराणसी में 23 रैन बसेरे संचालित किए जा रहे हैं। अचरज की बात यह है कि ये रैन बसेरे सिर्फ दिखाने के लिए हैं। पांडेयपुर में पुलिस लाइन के पास फ्लाइ ओवर के नीचे बनाए गए रैन बसेरे के पास दर्जनों निराश्रित महिलाएं, बच्चे और पुरुष कड़ाके की सर्दी में रात गुजारते हैं, लेकिन ठेकेदार किसी को अंदर घुसने नहीं देता। इन महिलाओं के पास आधार कार्ड भी है, लेकिन इनकी इंट्री पर प्रतिबंध है।
अपर नगर आयुक्त दुष्यंत कुमार दावा करते हैं कि 23 रैन बसेरों में 889 बिस्तर लगाए गए हैं। स्थायी रैन बसेरे में गर्म पानी के लिए गीजर की व्यवस्था की गई है और गर्म पानी के लिए गीजर की व्यवस्था की गई है। इसमें 12 स्थायी और 11 अस्थायी रैन बसेरे शामिल हैं। इनमें भी विशेष रूप से 2 पुरुष और 2 महिलाओं के लिए पूरी तरह से आरक्षित हैं। वहीं, दो रैन बसेरों में सिर्फ फैमिली के रुकने के लिए अलग से केबिन बनाए गए हैं। तीन शेल्टर होम में टेलीविज़न की भी व्यवस्था की गई है।
अपर नगर आयुक्त ने बताया कि रैन बसेरे में टॉयलेट, गर्म पानी की मशीन और सर्दी से बचाव के लिए ब्लोअर भी लगाया गया है। सभी शेल्टर होम में कोविड प्रोटोकॉल का पालन अनिवार्य किया गया है। इसके साथ ही सैनिटाइजर के साथ रजाई-गद्दा और कंबल सभी को मुहैया कराया जा रहा है। सभी रैन बसेरे में मच्छरों से बचाव और रोजाना साफ-सफाई के लिए भी विशेष व्यवस्था की गई है।
"हमें मर ही जाना चाहिए..."
वाराणसी के पांडेयपुर फ्लाईओवर के नीचे कड़ाके की सर्दी में बेसहारा और गरीब लोग जिंदगी काटने को मजबूर हैं। सरकार ने उनके लिए यहां एक रैन बसेरा बनाया है, लेकिन यह रैन बसेरा उनकी उम्मीदों का सहारा बनने के बजाय उपेक्षा की मिसाल बन गया है। 15 दिसंबर को शुरू हुए इस रैन बसेरे में अब तक केवल 14 लोगों को पनाह दी गई है, जबकि बगल में 20-25 लोग ठंड से लड़ते हुए प्लास्टिक बिछाकर और फटी हुई कथरियों में रात काट रहे हैं।
इन्हीं में से एक हैं अरुण कुमार, जिनका परिवार अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई में बेघर हो गया। अरुण बताते हैं, "हम राजघाट में रहते थे। वहां से हमारा घर तोड़ दिया गया। अब हमारे पास कोई छत नहीं है। आधार कार्ड होने के बावजूद हमें रैन बसेरे में घुसने नहीं दिया जाता। ठेकेदार कहता है कि तुम लोग बिस्तर गंदा कर दोगे। अब हम सरकार से कह रहे हैं कि कुछ ऐसा करो कि हमें मार ही दो। हमें कोई शिकायत नहीं होगी। अगर सरकार नहीं मारेगी, तो ठंड हमें मार देगी।"
अरुण की बात सुनकर वहां खड़े रविंद्र और रवि भी सहमति में सिर हिलाते हैं। उनका दर्द भी कुछ अलग नहीं है। खुले आसमान के नीचे बिताई हर रात उनके लिए मौत से कम नहीं है।
रैन बसेरा किसके लिए ?
निर्मला देवी और मंगरा देवी भी इन्हीं लोगों के बीच अपना दिन-रात काट रही हैं। वो कहती हैं, "आप खुद आकर देख सकते हैं कि हम किस हालत में हैं। ठंड में सिकुड़कर जी रहे हैं। मोदी सरकार बड़ी-बड़ी बातें करती है, लेकिन हम यहां पुल के नीचे जिंदगी काटने को मजबूर हैं। रैन बसेरा आखिर किसके लिए है? हमारा तो सब कुछ चला गया—घर, सामान, और अब तो उम्मीद भी। अगर सरकार हमें बस जीने लायक जमीन ही दे दे, तो हम अपनी झोपड़ी दोबारा बना लेंगे। लेकिन ये भी नहीं किया जा रहा।"
फ्लाईओवर के नीचे ठिठुरते इन लोगों का दिन भी आसान नहीं है। दिनभर छोटे-मोटे काम कर जो कुछ कमाते हैं, वह दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने में ही खत्म हो जाता है। जब रात होती है, तो ये लोग प्लास्टिक और कथरी के सहारे ठंड से लड़ते हैं। सरकार द्वारा बनाए गए रैन बसेरे के दरवाजे उनके लिए बंद हैं, और उनकी ज़िंदगी धीरे-धीरे सर्द हवाओं के थपेड़ों में खत्म हो रही है।
स्थानीय लोगों और इन बेसहारा परिवारों का आरोप है कि रैन बसेरे का संचालन करने वाला ठेकेदार अपनी मनमानी करता है। वहां जाने वाले लोगों से दुर्व्यवहार किया जाता है और कई बार तो बिना किसी वजह के उन्हें लौटा दिया जाता है। सरकारी योजनाओं का लाभ आखिरकार उन्हीं तक सीमित रह जाता है, जो पहले से ही सुविधाओं से संपन्न हैं।
यह रिपोर्ट सवाल उठाती है कि आखिर सरकार और प्रशासन इन बेसहारा लोगों की ओर कब ध्यान देगा। क्या रैन बसेरे सिर्फ दिखावे के लिए हैं? क्या गरीब और हासिये पर खड़े समुदाय के लोग इस सर्दी में अपनी जान गंवा देंगे?
सर्दी से गरीबों में कोहराम
पश्चिमी विक्षोभ के सक्रिय होने के कारण पछुआ हवा में नमी बढ़ गई है। दिन में भले ही धूप हो रही है, लेकिन लोगों को सर्दी से राहत नहीं मिल पा रही है। ऐसे में कोरामनगर, कज्जाकपुरा, आदमपुर, शिवपुर, लहरतारा, सामनेघाट, भगवानपुर के साथ ही ग्रामीण इलाकों में आराजीलाइन, राजातालाब, रोहनिया, पिंडरा सहित ग्रामीण इलाकों में अन्य दिनों की तुलना में गलन महसूस की जा रही है।
सर्दी से बचाव के इंतजाम का जायजा लेने के लिए सबरंग इंडिया ने पांडेयपुर, सारनाथ, आशापुर, अंधरापुल के पास रोड किनारे फुटपाथ पर सो रहे लोगों से बात की। उनका कहना है कि प्रशासन की तरफ से मदद मिली होती तो शायद हम मजबूरी में यहाँ नहीं सो रहे होते। फुटपाथ पर महिला और पुरुष के साथ ही छोटे-छोटे बच्चे भी खुले आसमान में सो रहे हैं। कड़ाके की सर्दी से बचने के लिए लोग आग का सहारा ले रहे हैं।
एक्टिविस्ट डा.लेनिन रघुवंशी कहते हैं, "गंगा घाटों पर मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट की अधजली लकड़ियां बड़ी सहारा है। ये लकड़ियां नहीं रहें तो बहुत से बेसहारा और गरीब लोग जहां तहां सर्दी से मर जाएंगे। गंगा घाटों पर तमाम साधु और भिखारी कड़ाके की सर्दी में इन्हीं लकड़ियों के सहारा रात गुजार लेते हैं। जहां तक रैन बसेरे की बात है तो वह सिर्फ कमीशन का धंधा साबित हो रहा है।"
30 वर्षीय गीता सिंधौरा के एक गांव की रहने वाली हैं। पति अर्जुन क्षेत्र में ही दूसरे के खेतों में मजदूरी करते थे। पहले महंगाई उसके बाद बेरोज़गारी से ये लोग आज़िज हो गए। वहां काम की किल्लत देख अर्जुन परिवार के साथ बनारस आ गए और परिचितों के जुगाड़ से लेबर मंडी में खड़े होने लगे। वहां कभी-कभार बमुश्किल काम मिल जाता है।
कुछ ऐसी ही कहानी है सारनाथ में फुटपाथ पर रहने वाली अनीता की। हवेलिया चौराहे पर अनीता अपने पति और बच्चों के साथ खुले आसमान के नीचे जीवन बसर कर रही हैं। उनके पति सीवर सफाई का काम करते हैं। वह बताती हैं कि ‘भीषण सर्दी में बड़ी मुश्किल में ज़िंदगी गुजारनी पड़ती है। कोई हमारी समस्या पूछने वाला नहीं है।’
वह कहती हैं कि हवेलिया चौराहे के पास हमारी झोपड़ी प्रशासन ने उजाड़ दी। हम विरोध भी नहीं सकें। फुटपाथ पर हमें भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। तिरपाल डालकर दोबारा रहना शुरू किया तो फिर हटा दिया गया। तीसरी मर्तबा जी20 के समय हमें खदेड़ दिया गया। तब से अब तक हम सड़क के किनारे ही किसी तरह से समय काट रहे हैं।
सरकार के चमचमाते रैन बसेरों में चमक तो है, लेकिन वहां गरीबों के लिए जगह नहीं। फुटपाथ पर ठिठुरते लोग एक अदद सहारे के इंतजार में अपनी रातें गुजार देते हैं। सरकार के चमचमाते रैन बसेरों में चमक तो है, लेकिन वहाँ गरीबों के लिए जगह नहीं। फुटपाथ पर ठिठुरते लोग एक अदद सहारे के इंतजार में अपनी रातें गुजार देते हैं।
शर्मीली कहती है, "हमारे पिता जब जिंदा थे तक दिक्कत नहीं थी। साल 2021 में कोरोना के वक्त उनकी मौत हो गई। कुछ ही दिनों बाद हवेलिया चौराहे के पास हमारी झुग्गी-झोपड़ी सरकार ने उजाड़ दी। हमें भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। दोबारा पालिथीन डालकर रहना शुरू किया तो फिर बुल्डोजर चल गया। तीसरी मर्तबा जी-20 के समय हमें खदेड़ा गया। तब से अब तक हम सड़क के किनारे ही किसी तरह से वक्त काट रहे हैं।"
कुछ ऐसी ही कहानी 17 वर्षीय करन की है। इसके पिता सिकंदर की मौत उस समय हो गई थी जब उसकी उम्र पांच साल की थी। बाद में मां हमें छोड़कर चली गई। उसने किसी और से शादी रचा ली। करन सीवर की सफाई का काम करता है। रहने के लिए जगह नहीं है तो वह भी सड़क के किनारे गुदड़ी-चादर लपेटकर खुले आसमान के नीचे सो जाता है। वह कहता है, "इस दुनिया में हमारा कोई अपना नहीं है। पहले हर साल रात में लोग कंबल दे दिया करते थे और इस साल तो कोई आया ही नहीं।"
सर्दी से नकाब सरीखी हो गई धुंध
पूर्वांचल में पिछले तीन-चार दिनों से कड़ाके की सर्दी के बीच धुंध नकाब सरीखी हो गई है। कोहरे ने सूरज को भी अपने आगोश में छिपा लिया है। नतीजा, सड़कों पर जिंदगी सिमट-सी गई है। सर्द हवाओं ने गरीबों और वंचित तबके के लोगों की ख्वाहिशों को कुल्फी जैसा जमा दिया है। बेहद सर्द मौसम उन लोगों के अरमानों को झुलसा रहा है जो सालों से सड़कों पर जीवन बसर कर रहे हैं। खासतौर पर वो लोग जो हर रोज कमाते हैं और रोज खाते हैं। उनके जीने का और कोई दूसरा साधन नहीं है। पिछले तीन दिनों से धुंध और कोहरा कहर बरपा रहा है। सर्दी का सितम ऐसा है कि बनारस ही नहीं, पूर्वांचल के सभी जिलों में जिंदगी सिमटकर रह गई है। कुछ लोग नर्म-नर्म रजाइयों और गद्दों में दुबक रहे तो आम आदमी सड़कों पर सर्दीी हवाओं के झोंको से ठिठुरता नजर आ रहा है।
30 वर्षीय मधु भी खुले आसमान के नीचे जिंदगी गुजारने पर विवश है। सारनाथ में पहले इसकी भी झोपड़ी हुआ करती थी जिसे बुल्डोकर लगाकर सरकार ने ढहा दिया। मधु का पति राकेश किराये पर ई-रिक्शा चलता है। रहने को घर नहीं। बारिश और सर्दी से बचने के लिए कभी-कभी वह एक सरकारी इमारत के बारजे के नीचे रात गुजारने के लिए चादर लपेटकर सो जाते हैं।
60 वर्षीय राजू सारनाथ स्थित म्युजियम परिसर में पिछले 18 सालों से झाड़ू लगाने का काम करते थे। उम्र ढलने लगी तो अफसरों ने यह कहकर उन्हें काम से हटा दिया कि अब उससे सफाई का काम नहीं हो पाता। वह कहते हैं, "हमारी जगह किसी नौजवान को नौकरी दे दी गई। हमें हमेशा के लिए हटा दिया गया। मेरी पत्नी का नाम डीजल बत्ती था वह भी कोरोना के समय चल बसी। 17 वर्षीय बेटा बादल झाड़ू लगाता है जिससे मुश्किल से दो वक्त भोजन मिल पाता है। कई बार तो सिर्फ पानी पीकर रात गुजारनी पड़ती है।"
62 वर्षीय हीरालाल बनारस के विश्वेश्वरगंज में ट्राली पर सामान ढोने का काम करते हैं। रहने के लिए कोई घर नहीं है। लाचारी में वो भी सड़क के किनारे ट्राली खड़ी कर सो जाते हैं। पूरी रात ठिठुरते हैं लेकिन कोई दूसरा चारा नहीं है। इन्हें यह पता नहीं है कि सरकार ने बेसहारा लोगों के लिए रैन-बसेरा बनवा रखा है। 30 वर्षीया हिना अपनी बहन रेशमा के साथ रहती है। झाड़ू-पोछा लगाती है। संजय मजूरी करते हैं। शाम को सड़क के किनारे ईंट का चूल्हा बनाकर लकड़ी पर भोजन पकाते हैं। सर्दी हो या गर्मी, रात में सड़क के किनारे ही सो जाते हैं।
सारनाथ स्टेशन रोड के किनारे 42 लोगों का परिवार झोपड़ी डालकर रहता था। विकास के नाम पर इनकी झोपड़ियां उजाड़ दी गईं तो इनका पता भी छिन गया। इन्हीं में एक हैं गोविंद और शांति जो एक नाले के ऊपर पालिथीन डालकर कड़ाके की सर्दी में रात गुजारने को विवश हैं। सारंगनाथ मंदिर पर भीख मांगने वाली मुच्चन कहती हैं, "जब तक आंखें थी, लोगों के घरों में काम करते रहे। रोशनी चली गई तो काम छूट गया। दान के पैसे से जिंदगी कट रही है। कड़ाके की सर्दी ने हमारी दुश्वारियां बढ़ा दी है। गीता, मंगरू और फूलकली की जिंदगी सर्द रातों में सड़क के किनारे गुजर रही है।"
कड़ाके की सर्द रात में पारा लुढ़कते हुए छह डिग्री सेंटीग्रेट तक पहुंच गया है। सिर पर प्लास्टिक और एक पतला सा कंबल ओढ़े 65 वर्षीय मंगरू रेलवे स्टेशन के बाहर सोया नजर आया। बात करने पर उसकी पीड़ा भी खुलकर सामने आ गई। रोडवेज बस स्टैंड और बनारस के गंगा घाटों के किनारे सर्द रात में ठिठुरते हुए तमाम लोग पड़े रहते हैं। ऐसे लोग प्रशासन के उस दावे की पोल खोल रहे हैं जिसमें जरूरतमंद लोगों को सर्दी से बचाने के लिए सारे उपाए किए जाने की दलील दी जाती है।
बनारस में रिक्शा चालकों का हाल अभी अजीब है। 55 वर्षीय कल्लू कहते हैं, "हजूर पेट की आग और परिवार की जरूरतों को पूरी करने की मजबूरी है। इस वजह से घने कोहरे के बीच सड़कों पर रिक्शा वाले निकल आए हैं। पूरे दिन रिक्शा चलाने के बाद किराए के पैसे अदा करने के बाद जो पैसे बचते हैं उसी से दो वक्त की रोटी और अन्य जरूरी सामानों की खरीदारी करता हूं। अगर मैं किसी दिन रिक्शा नहीं चलाऊंगा तो उसका किराया भी नहीं भर पाऊंगा। ऐसे में रोटी का इंतजाम मुश्किल हो जाएगा। हमारे पास सिर छुपाने के लिए छत नहीं है। जब थककर अपने ठिकाने (फुटपाथ) पर पहुंचते हैं तो बनारस की सर्दी में रात में ठिठुरते हुए किसी तरह रात काटकर सुबह का इंतजार करते है"
बेसहारों को कौन देगा सहारा
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में काम-धंधे की तलाश में बड़ी तादाद में आकर लोग रहते है। किसी के पास कोई स्थायी रोजगार नहीं होता। कभी भीख मांगकर तो कभी मेहनत मजदूरी कर जीवनयापन करने वाले ऐसे बेसहारा और आवासहीन लोगों के सामने सर्द रात गुजारना सबसे बड़ी चुनौती होती है। दिन तो किसी तरह गुजर जाता है लेकिन रात इनके लिए बेहद कष्टकारी होती है। बहुत से लोग सरकारी भवनों के बरामदों और शेड के नीचे रात गुजारते नजर आते हैं। कभी किसी की नजर पड़ी तो फटा पुराना एकाध कंबल मिल जाता है।
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार पवन मौर्य कहते हैं, "सर्दी का मौसम सरकारी नुमाइंदों के लिए सौगात लेकर आता है। राहत के नाम पर नगर निगम लाखों की लकड़ियां हर साल खरीदता है फिर भी आम आदमी सर्दी से ठिठुरता हुआ दिखता है। गरीबों को सर्दी से बचाने के लिए कागजों में आदेश जारी होते हैं लेकिन धरातल पर ठिठुरते हुए जरूरतमंद लोगों को राहत देने के लिए कोई सार्थक पहल नहीं सालों से नहीं हुई। कहने को तो शहर में कई स्वयंसेवी संस्थाएं हैं लेकिन जरूरतमंद लोगों के लिए ये संस्थाएं कभी आगे नहीं आतीं। साधन संपन्न कुछ लोग कंबल बांटने का दिखावा करते हैं। कुछ संस्थाएं भी ऐसा ही करती हैं जिससे उनका नाम अफसरों और नेताओं तक पहुंच जाए। उनका निजी स्वार्थ पूरा होता रहे।"
"विश्व गुरु बनने का ख्वाब दिखाने वालों ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि इस महंगाई में रोज़ कमाने वाले परिवार की थाली में क्या परोसा जाता होगा और कड़ाके की सर्दी में उनकी रातें कैसे गुजरती होंगी? देश की 40 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है। 9.3 करोड़ लोग आज भी झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं। 12.8 करोड़ लोगों साफ़ पानी नहीं मिलता और 70 लाख बच्चे शिक्षा से कोसों दूर हैं। फिर भी दावा किया जा रहा है कि सरकार ने सभी को छत दे दिया है और भोजन भी।"
वाराणसी में वंचितों को खदेड़ने का यह पहला मामला नहीं हैं, बल्कि यहां विकास के नाम पर विस्थापन की त्रासदकथा का इतिहास नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद शुरू हो जाती है। कभी पुलिस लाइंस, राजातालब, मिर्जामुराद, चंदापुर, बड़ा लालपुर, मवइया, लहरतारा, कैंट, नमो घाट, खिड़किया घाट, लहरतारा-चौकाघाट फ्लाईओवर, काशी-विश्वनाथ कारीडोर, सारनाथ स्टेशन आदि के लोग विकास के नाम पर उजाड़े गए हैं।
पिछले दो हफ्ते से सर्दी और शीतलहरी का प्रकोप यूपी में काफी बढ़ गया है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में हजारों लोग सड़क पर ही अपनी ज़िंदगी गुज़ारने को विवश हैं। उन्हें न सरकारी योजनाएँ मिलती हैं न अन्य कोई लाभ। प्रतिदिन मजदूरी करके जो कमाई होती है, उससे दो वक्त की रोटी मिल जाती है। बच्चों की शिक्षा से लेकर दवाइयों के खर्च का जुगाड़ नहीं हो पाता। इसलिए शिक्षा उनके लिए ‘सपना’ ही हो गई है।
वंचित और गरीब तबके के यह लोग सर्दी के सितम को अपने कलेजे पर झेलते हैं। सर्दी ज़्यादा होने पर आसपास के कूड़ा-करकट, प्लास्टिक को इकट्ठा करते हैं और उसे जलाकर सर्दी के साथ अपने दुखों को भी राहत पहुँचाते हैं। लेकिन यह सहूलियत रोज़ नहीं मिल पाती और सर्दी में ही खुद को सिकुड़कर इन्हें रात गुज़ारनी पड़ती है।
अंधरापुल के फुटपाथ पर बच्चों के साथ रहने वाले राजू और उनकी पत्नी मधु के साथ ही अन्य लोगों से जब बात की गई, तो उनका कहना है कि प्रशासन अगर मदद करता तो, हम यहाँ क्यों सोते? हम बच्चों और अपना पेट पालने के लिए इधर-उधर कमा कर फुटपाथ पर सोते हैं। इन लोगों का यह भी कहना है कि अगर सोने की बेहतर जगह मिल जाए तो वह खुले आसमान के नीचे इस कड़ाके की सर्दी में क्यों सोना पसंद करेंगे? आज कोई व्यवस्था उनके पास नहीं है। फुटपाथ पर बच्चों के साथ मजबूरी में सो रहे हैं।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में काम-धंधे की तलाश में बड़ी तादाद में आकर लोग रहते है। किसी के पास कोई स्थाई रोजगार नहीं होता। कभी भीख माँग कर तो कभी मेहनत-मजदूरी कर जीवनयापन करने वाले ऐसे बेसहारा और आवासहीन लोगों के सामने सर्द रात गुज़ारना सबसे बड़ी चुनौती होती है।
इन्हीं में से एक हैं गोविंद, जो किराए की ट्रॉली चलाते हैं, जिसका एक दिन का किराया सौ रुपये है। जब काम मिलता है तब ही गोविंद ट्रॉली लेते हैं। सारनाथ चौराहे के फुटपाथ पर रहने वाले गोविंद बमुश्किल अपनी बेटी की शादी कर चुके हैं। बेटा किराए के एक कमरे में रहता है, लेकिन गोविंद बेटे पर बोझ नहीं बना चाहते हैं। इसलिए खुद कमाकर ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं।
सुबह चाय-ब्रेड और रात में निजी संस्थाओं द्वारा दिए जाने वाला खाना खाकर गोविंद सर्द रातों में ज़मीन पर एक कथरी बिछाकर सोते हैं। एक सवाल के जवाब में वह कहते हैं कि ‘…ज़मीन रहेगी तभी पीएम आवास मिलेगा। ‘आवास’ का सपना देखना अब मैंने छोड़ दिया। 60 बरस उम्र हो गई है। अब तो बस दुनिया से रुखसत होने का इंतज़ार है। बाकि ज़िंदगी तो सड़क पर कट ही गई है।’
आम आदमी झेलता है सर्दी की मार
सोशल एक्टिविस्ट सौरभ सिंह कहते हैं, "धन कुबेरों के लिए सर्दी मन बहलाव का मौसम क्यों न हो लेकिन बनारस के हजारों रिक्शा चालक और सड़कों पर जीवनयापन करने वाले करीब पांच लाख लोग इन दिनों मुश्किल में हैं। इन्हें प्रकृति की मार झेलनी पड़ रही है। जाड़े में इनकी जिंदगी और भी ज्यादा कष्टकर हो गई है। विकास के नाम पर बनारस में घाटों के आसपास की कई मलिन बस्तियां तोड़ी गईं। आजादी के बाद ऐसा पहली बार हो रहा है कि गरीबों को यहां लावारिश हाल में छोड़ दिया गया है।''
सौरभ कहते हैं, "पिछले एक हफ्ते से शीतलहर चल रही है। सर्दीी हवाओं के झोकों से आम आदमी जमता हुआ नजर आ रहा है। खुले आसमान के नीचे गुदड़ी लपेटकर लोग गुजारा कर ही रहे हैं। रैन बसेरों में बदइंतजामी गरीबों का सिर्फ इम्तिहान ही नहीं, जान भी ले रही है। कड़ाके की सर्दी से ठिठुर कर मरने वाले लोगों की गिनती सरकार भी नहीं करती है। वाराणसी कैंट, सिटी, काशी और मंडुआडीह (बनारस) रेलवे स्टेशनों के बाहर रात में चले जाइए। खुले आसमान के नीचे ठिठुरते हुए रात गुजार रहे सैकड़ों लोग मिल जाएंगे। तमाम लोगों की मजबूरी यह होती है कि उन्हें गंतव्य तक जाने के लिए वाहन नहीं मिलते। सुबह वाहन जाते है। इसलिए रातें भी कांपते हुए गुजारनी पड़ती है। किसी को पता नहीं होता कि रैन बसेरे कहां बने हैं? "
सौरभ बताते हैं, "बनारस जिले में प्रशासन द्वारा बहुत ही सुनियोजित तरीके से वंचित तबकों को हटाया जा रहा है। राजघाट में फुटपाथ पर रहने वाले लोग डुमरी चले गए। महमूरगंज में फुटपाथ पर रहने वाले लोग रोहनिया चले गए। आशापुर, सारनाथ में फुटपाथ पर रहने वाले लोग चिरईगाँव चले गए। पांडेयपुर में फुटपाथ पर रहने वाले लोग शिवपुर, कादीपुर, सिंधोरा चले गए। वंचित तबके को शहर से गाँव की ओर धकेल दिया जा रहा है, जहाँ वह नए सिरे से अपनी ज़िंदगी शुरू करेंगे। अब वह नई परेशानियों का सामना करेंगे।"
"सड़क और विकास से जुड़े अन्य योजनाओं के नाम पर फुटपाथ पर रहने वाले लोगों को ही खदेड़ा गया। शहर का विकास हर तबके का आदमी चाहता है, लेकिन उसके लिए समाज के एकदम निचले वर्ग की उपेक्षा कर देना सही नहीं लगता। एक्टिविस्ट सौरभ इन दिनों फुटपाथ पर रहने वाले लोगों में गर्म कपड़े-कम्बल वगैरह बांट रहे हैं। ताकि शीतलहरी से होने वाली कोई जनहानि न हो सके।"
सामाजिक कार्यकर्ता मुनीजा खान कहती हैं, "योगी सरकार ने वंचित समाज को मेन स्ट्रीम से जोड़ने के लिए कई योजनाएं तो बनाई हैं, लेकिन इन लोगों को लाभ उन्हें क्यों नहीं मिल पा रहा है, यह शोचनीय है और बड़ा सवाल भी। बीना कहती हैं कि पिछले एक हफ्ते से शीतलहर चल रही है। बारिश से जनजीवन बेहाल है। सर्दीी हवाओं के झोकों से आम आदमी जमता हुआ नजर आ रहा है। ऐसे में फुटपाथ पर रहने वाले लोग खुले आसमान के नीचे फटे-पुराने कपड़े लपेटकर गुज़र-बसर कर रहे हैं। रैन बसेरों की बदइंतजामी इन गरीबों का एक और इम्तिहान ले रही है।"
(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं। बनारस से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)