हाथरस की उस दलित बेटी की याद आना लाज़मी है, जिसके साथ 14 सितम्बर 2020 को सामूहिक दुष्कर्म किया गया था और 29 सितम्बर 2020 को उसने दम तोड़ दिया था। बाद में पुलिस वालों ने रात में ही जलाकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया था। अब घटना को दो साल हो रहे हैं।
फाइल फ़ोटो।
आज हाथरस की उस दलित बेटी की याद आना लाज़मी है, जिसके साथ 14 सितम्बर 2020 को सामूहिक दुष्कर्म किया गया था और 29 सितम्बर 2020 को उसने दम तोड़ दिया था। बाद में पुलिस वालों ने रात में ही जलाकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया था। अब घटना को दो साल हो रहे हैं। इस बीच सीबीआई ने चार्जशीट दाखिल कर दी है। हालांकि दुष्कर्मियों को बचाने का प्रयास किया जा रहा है। वैसे भी दलितों को आसानी से न्याय कहां मिलता है।
ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच की महासचिव अबिरामी कहती हैं – “हाथरस की गैंगरेप और हत्या का शिकार हमारी दलित युवती की घटना को दो साल हो गए हैं। हमारा SC/ST एक्ट कहता है कि 60 दिन के अंदर न्याय मिलना चाहिए। पर अभी तक हमारी दलित युवती को न्याय नही मिला। भारतीय न्याय व्यवस्था के बारे में ठीक ही कहा जाता है कि यहां तारीख पर तारीख तो मिलती है, पर न्याय जल्दी नहीं मिलता। खास कर यदि मामला दलितों-वंचितों-पिछड़ों-आदिवासियों और हाशिए के लोगों का हो। शासन-प्रशासन की जातिवादी मानसिकता एक बड़ा कारण बनती है। सरकार कानून बना देती है पर जातिवादी मानसिकता वाला प्रशासन उसे लागू नहीं करता और न सरकार उसे लागू कराने में कुछ दिलचस्पी दिखाती है।“
हाथरस की बेटी के बलात्कार और हत्या के मामले में न्याय मिलना तो दूर की बात है बल्कि ऐसी साज़िश रच दी गई कि दलितों पर अत्याचार और बलात्कार के मामलों में अन्य लोग सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार आदि उनके समर्थन में न आएं। इसी साज़िश के तहत सिद्दीकी जैसे पत्रकार को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।
बलात्कार की एक के बाद एक कई घटनाओं में बलात्कार कर हत्या और फिर जलाने का एक ट्रेंड बन गया है। यही कारण है कि हाथरस की बेटी के बाद भी बलात्कार-जलाने-हत्या करने का सिलसिला जारी है।
पीलीभीत में 7 सितम्बर 2022 को एक दलित लड़की को बलात्कार के बाद जला दिया जाता है। 19 सितम्बर को इलाज के दौरान उसने दम तोड़ दिया। लखीमपुर खीरी में 14 सितम्बर 2022 को दो नाबालिग दलित लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया फिर उनकी हत्या कर पेड़ पर लटका दिया।
मेरठ में बेटी के साथ बलात्कार होता है। पर बलात्कारी खुलेआम घूमते हैं। इससे क्षुब्ध होकर मां बेटी आत्महत्या हत्या करना चाहती हैं तो पुलिस उन्हें रोक देती है पर बलाकारियों को गिरफ्तार नहीं करती।
हम अपने देश की न्याय व्यवस्था और प्रशासन से भी क्या उम्मीद करें। यहां बिलकीस बानो के साथ सामूहिक दुष्कर्म करने वालों को 15 अगस्त को बाइज्जत बरी कर दिया गया। इतना ही नहीं फूल मालाओं से उनका स्वागत किया गया। कठुआ में 8 साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म करने वालों के पक्ष में जुलूस निकाला गया। जहां पीड़िता के बजाय बलात्कारियों का पक्ष लिया जाता हो उस व्यवस्था को क्या कहें।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के वर्ष 2021 के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2021 में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की कुल 3893 घटनाएं हुई जिनमें 2585 महिलाएं और 1308 नाबालिग बच्चियों के साथ इन घटनाओं को अंजाम दिया गया।
हाल ही में उत्तराखंड में मंत्री के बेटे पुलकित आर्य पर 19 वर्षीया उसके रिजोर्ट की कर्मचारी अंकिता भंडारी से यौन शोषण करने और नहर में फेंक देने से उसकी हत्या करने का आरोप है। इस पर आरएसएस के हरिद्वार, रूड़की और ऋषिकेश के विभाग प्रचार प्रमुख विपिन कर्णवाल ने अंकिता के परिवार पर अभद्र टिप्पणी की है जो उनकी पितृसत्तात्मक विचारधारा को दर्शाती है।
पिछले 25 सितम्बर 2022 को विश्व बेटी दिवस मनाया गया जिसका सन्देश था – बेटियों पर करो गर्व। बेटियां घर का उत्सव होती हैं। बेटियों से घर-परिवार की रौनक होती है। बेटियों को रंगोली, अल्पना के रूप में भी देखा जाता है जो घर की सुन्दरता को बढ़ाती हैं।
बिलकुल सही, पर कितनी सुरक्षित हैं हमारी बेटियां?
बढ़ते दुष्कर्म, भ्रूण हत्या, बाल विवाह, घरेलू हिंसा, दहेज़ हत्या – क्या ये हमारे समाज का सच नहीं हैं?
हमारे समाज में पितृसत्ता इस कदर व्याप्त है कि माता-पिता खुद बेटे-बेटियों में भेदभाव करते हैं। एक सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि माता-पिता भले ही बेटी को लक्ष्मी मानते हों पर पढ़ाई में प्रमुखता बेटों को ही देते हैं। आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर माता-पिता बेटों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं और बेटियों को सरकारी स्कूलों में।
नारे हैं नारों का क्या
आज के सन्दर्भ में देखें तो “बेटी बचाओ बेटी पढाओं” का नारा एक मजाक बन कर रह गया है। हकीकत देखें तो ग़ालिब का एक शेर याद आता है कि –‘हमें मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को बहलाने के लिए ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है।‘ हमारे समाज में बेटियों को दोयम दर्जा प्राप्त है। जब बात बेटे बेटियों में प्रमुखता देने की आती है तो बेटों को ही वरीयता दी जाती है। जबकि हमारी बेटियों ने यह साबित कर दिया है कि वे बेटों से किसी भी मायने में कम नहीं हैं। पढाई का भी उदाहरण देखें तो दसवीं-बारहवीं की परीक्षा में हमारी बेटियां ही अव्वल आती हैं। जहां तक माता-पिता के सेवा भाव की बात आती है तो बेटों की तुलना में बेटियां ही अधिक वफादार साबित होती हैं। पर विडंबना देखिये कि जो ज्यादा काबिल हैं उन्हीं की उपेक्षा की जाती है।
जिस तरह से हमारे यहां बेटियां असुरक्षित हैं एक पिता बेटी के बड़े होने से डरता है। कवि कहता है –
घुटनों–घुटनों चलती बेटी खड़ी नहीं हो जाना तुम
ऐसी ही अच्छी लगती हो बड़ी नहीं हो जाना तुम
या फिर यूं कहें कि –
छोटी-सी चिड़िया बाज़ के पंजो में देखकर
सपने में रात भर उसे बिटिया दिखाई दी
कहने का तात्पर्य यह है कि सिर्फ नारे गढ़ने से नहीं बल्कि समाज की ऐसी मानसिकता बनाने की जरूरत है जहां दूसरे की बहन-बेटी में हम अपनी बहन-बेटी देखें और आवश्यकता पढ़ने पर न केवल उसे बचाएं बल्कि उसके सर्वांगीण विकास के लिए बेटियों को पढाएं भी, अच्छा पोषण युक्त भोजन दें। उनके सपनों को उड़ान दें। और सबसे बड़ी बात अपने बेटों को अच्छे संस्कार दें। ऐसे संस्कार जो इस संवैधानिक भावना के अनुकूल हों कि स्त्री-पुरुष लड़का-लडकी सब बराबर हैं। सबको मानवीय गरिमा के साथ जीने का हक़ है।
क्यों जारी है बलात्कार और अत्याचार का सिलसिला
बेटियां स्त्रियाँ होती हैं। और मनु स्मृति के चश्मे से देखने वाले तो हमेशा बेटियों को स्त्रियों को किसी न किसी के अधीन देखना चाहते हैं। उनका साफ़ मानना होता है कि बचपन में स्त्री पिता के अधीन रहे, युवावस्था में पति के और बुढ़ापे में बेटे के अधीन। तुलसीदास इसी को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं –“जिमी स्वतंत्र होंहि बिगरहि नारी” या “शूद्र, गंवार, ढोल, पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी”। ऐसी ही विचारधारा दलितों और महिलाओं पर अत्याचार करने को बढ़ावा देती है।
शोभा सिंह अपनी कविता “अभी देखना बाकी है” में कहती हैं :
“औसर बानो इसलिए मारी गई कि
वह मुसलमान थी
रूप कंवर इसलिए जलाई गई कि
वह हिन्दू थी
रूप कंवर और औसर बानो दुबकी हुई हैं हर शहर में
अभी गुजरात कहां देखा है।“
बलात्कार की मानसिकता भी बलात्कारी का वर्चस्व, ईगो और दबंगई दर्शाती है। वह पीड़िता को यह अहसास कराना चाहता है कि उसके सामने पीड़िता की कोई हस्ती नहीं। इसी सन्दर्भ में मुकुल सरल अपनी कविता में कहते हैं :
“ये बलात्कार नहीं, एक हथियार है
धर्मसत्ता, पितृसत्ता, धनसत्ता, राजनैतिक सत्ता
हर तरह की सत्ता कायम रखने का
एक नायब हथियार।
औरत की योनि रौंद कर ही खड़े किए गए हैं
बड़े-बड़े राज्य और साम्राज्य
औरत की योनि में ही गाढ़ी गई हैं विजय पताकाएं।“
पत्रकार और कवियित्री भाषा सिंह बलात्कारी मानसिकता को चुनौती देती हुई कहती हैं –
“मुझे तुम से बेइन्तहां नफरत है...
याद रखो जमापूंजी है यह हमारी
आतताई के खिलाफ हमारी नफ़रत
याद रखो हम अमन की बेटियां हैं
और इस वतन में तुम्हारा मुकाबला हम से है।“
नजरिया बदलिए तभी नजारा बदलेगा
अगर हम बेटियों के प्रति या कहिए लड़कियों महिलाओं के प्रति अपना नजरिया नहीं बदलेंगे तब तक न स्त्री पुरुष समानता वाले समाज का निर्माण होगा और न बेटियों को बचा पाएंगे और नाहीं उन्हें पढ़ा पाएंगे। हमें लड़कियों को कमतर आंकना बंद करना होगा। उनकी क्षमताओं को पहचानना होगा। महावीर फोगाट का उदाहरण देख लीजिए उन्होंने अपनी बेटियों को पहलवानी सिखाई कुश्ती लड़वाई और देश का नाम रौशन करवाया। सोचिए लड़कियां क्या नहीं कर सकतीं। जब लड़कियां अन्तरिक्ष में जा सकती हैं। एयर फ़ोर्स में जा सकती हैं। नेवी और थल सेना में जा सकती हैं। खतरा और जोखिम उठा सकती हैं। युद्ध लड़ सकती हैं।...
न्यायालय आँखों से पट्टी उतारें न्याय की स्पीड बढ़ाएं
हमारे यहां सबसे आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता न्याय व्यवस्था में है। यहां तारीख पर तारीख मिलती रहती है। मामले में विलम्ब होता रहता है। और होता वही है जो कहावत है कि न्याय में देरी मतलब न्याय नहीं मिलना। अब तो यह बात न्यायाधीश भी मानने लगे हैं। SC/ST Act के अनुसार दलितों के मामले फास्ट ट्रैक कोर्ट में 60 दिन के अन्दर हल कर दिए जाने चाहिए। पर हकीकत में ऐसा होता नहीं है। सालों साल केस चलते रहते हैं और अंत में दोषियों को सजा नहीं मिल पाती है। आम आदमी कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाते-लगाते इतना आजिज आ जाता है कि न्याय की उम्मीद ही छोड़ देता है। दबंग और पैसे वाले लोग अपनी दबंगई और पैसे के बल पर गवाहों को खरीद लेते हैं और मामले को प्रभावित करते हैं। परिणाम यह होता है कि कमजोर और गरीब को न्याय नहीं मिल पाता। पक्षपात या अन्यायपूर्ण इन्साफ के चलते लोग कानून को ही अंधा कहने लगते हैं। न्याय की मूर्ति आंखो पर पट्टी बांधे इन्साफ का तराजू लिए होती है। हालांकि आँखों पर पट्टी बाँधने का भले ये उद्देश्य रहा हो कि क़ानून किसी के साथ भेदभाव न करे। पर आज इस पट्टी को खोलकर यह देखने की जरूरत है कि कहीं कोई अपराधी तराजू में नोटों की गड्डियां रख कर अपना पलड़ा भारी तो नहीं कर रहा। इसके साथ ही लंबित मामलों का शीघ्र निपटारा बहुत जरूरी है। इसके साथ ही हत्या और बलात्कार के मामले 60 दिनों में निपटाना अनिवार्य हो। आज न्याय की स्पीड बढ़ाने की सख्त आवश्यता है।
यदि मामलों का निपटान शीघ्र होगा और अपराधियों को सटीक सजा मिलेगी तो इससे दूसरे अपराधियों को सबक मिलेगा और हत्या तथा बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में कमी आएगी।
दूसरी और पुलिस प्रशासन भी कुछ ऐसी नई पहल करे ताकि हमारी बेटियां और अधिक सुरक्षित महसूस करें और बलात्कारी मानसिकता के अपराधियों में कठोर सजा का भय व्याप्त हो।
यदि ऐसे ठोस कदम नहीं उठाए गए तो एक हाथरस ही नहीं बल्कि बर्बरता का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा।
(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं।)
Courtesy: Newsclick
फाइल फ़ोटो।
आज हाथरस की उस दलित बेटी की याद आना लाज़मी है, जिसके साथ 14 सितम्बर 2020 को सामूहिक दुष्कर्म किया गया था और 29 सितम्बर 2020 को उसने दम तोड़ दिया था। बाद में पुलिस वालों ने रात में ही जलाकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया था। अब घटना को दो साल हो रहे हैं। इस बीच सीबीआई ने चार्जशीट दाखिल कर दी है। हालांकि दुष्कर्मियों को बचाने का प्रयास किया जा रहा है। वैसे भी दलितों को आसानी से न्याय कहां मिलता है।
ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच की महासचिव अबिरामी कहती हैं – “हाथरस की गैंगरेप और हत्या का शिकार हमारी दलित युवती की घटना को दो साल हो गए हैं। हमारा SC/ST एक्ट कहता है कि 60 दिन के अंदर न्याय मिलना चाहिए। पर अभी तक हमारी दलित युवती को न्याय नही मिला। भारतीय न्याय व्यवस्था के बारे में ठीक ही कहा जाता है कि यहां तारीख पर तारीख तो मिलती है, पर न्याय जल्दी नहीं मिलता। खास कर यदि मामला दलितों-वंचितों-पिछड़ों-आदिवासियों और हाशिए के लोगों का हो। शासन-प्रशासन की जातिवादी मानसिकता एक बड़ा कारण बनती है। सरकार कानून बना देती है पर जातिवादी मानसिकता वाला प्रशासन उसे लागू नहीं करता और न सरकार उसे लागू कराने में कुछ दिलचस्पी दिखाती है।“
हाथरस की बेटी के बलात्कार और हत्या के मामले में न्याय मिलना तो दूर की बात है बल्कि ऐसी साज़िश रच दी गई कि दलितों पर अत्याचार और बलात्कार के मामलों में अन्य लोग सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार आदि उनके समर्थन में न आएं। इसी साज़िश के तहत सिद्दीकी जैसे पत्रकार को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।
बलात्कार की एक के बाद एक कई घटनाओं में बलात्कार कर हत्या और फिर जलाने का एक ट्रेंड बन गया है। यही कारण है कि हाथरस की बेटी के बाद भी बलात्कार-जलाने-हत्या करने का सिलसिला जारी है।
पीलीभीत में 7 सितम्बर 2022 को एक दलित लड़की को बलात्कार के बाद जला दिया जाता है। 19 सितम्बर को इलाज के दौरान उसने दम तोड़ दिया। लखीमपुर खीरी में 14 सितम्बर 2022 को दो नाबालिग दलित लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया फिर उनकी हत्या कर पेड़ पर लटका दिया।
मेरठ में बेटी के साथ बलात्कार होता है। पर बलात्कारी खुलेआम घूमते हैं। इससे क्षुब्ध होकर मां बेटी आत्महत्या हत्या करना चाहती हैं तो पुलिस उन्हें रोक देती है पर बलाकारियों को गिरफ्तार नहीं करती।
हम अपने देश की न्याय व्यवस्था और प्रशासन से भी क्या उम्मीद करें। यहां बिलकीस बानो के साथ सामूहिक दुष्कर्म करने वालों को 15 अगस्त को बाइज्जत बरी कर दिया गया। इतना ही नहीं फूल मालाओं से उनका स्वागत किया गया। कठुआ में 8 साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म करने वालों के पक्ष में जुलूस निकाला गया। जहां पीड़िता के बजाय बलात्कारियों का पक्ष लिया जाता हो उस व्यवस्था को क्या कहें।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के वर्ष 2021 के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2021 में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की कुल 3893 घटनाएं हुई जिनमें 2585 महिलाएं और 1308 नाबालिग बच्चियों के साथ इन घटनाओं को अंजाम दिया गया।
हाल ही में उत्तराखंड में मंत्री के बेटे पुलकित आर्य पर 19 वर्षीया उसके रिजोर्ट की कर्मचारी अंकिता भंडारी से यौन शोषण करने और नहर में फेंक देने से उसकी हत्या करने का आरोप है। इस पर आरएसएस के हरिद्वार, रूड़की और ऋषिकेश के विभाग प्रचार प्रमुख विपिन कर्णवाल ने अंकिता के परिवार पर अभद्र टिप्पणी की है जो उनकी पितृसत्तात्मक विचारधारा को दर्शाती है।
पिछले 25 सितम्बर 2022 को विश्व बेटी दिवस मनाया गया जिसका सन्देश था – बेटियों पर करो गर्व। बेटियां घर का उत्सव होती हैं। बेटियों से घर-परिवार की रौनक होती है। बेटियों को रंगोली, अल्पना के रूप में भी देखा जाता है जो घर की सुन्दरता को बढ़ाती हैं।
बिलकुल सही, पर कितनी सुरक्षित हैं हमारी बेटियां?
बढ़ते दुष्कर्म, भ्रूण हत्या, बाल विवाह, घरेलू हिंसा, दहेज़ हत्या – क्या ये हमारे समाज का सच नहीं हैं?
हमारे समाज में पितृसत्ता इस कदर व्याप्त है कि माता-पिता खुद बेटे-बेटियों में भेदभाव करते हैं। एक सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि माता-पिता भले ही बेटी को लक्ष्मी मानते हों पर पढ़ाई में प्रमुखता बेटों को ही देते हैं। आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर माता-पिता बेटों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं और बेटियों को सरकारी स्कूलों में।
नारे हैं नारों का क्या
आज के सन्दर्भ में देखें तो “बेटी बचाओ बेटी पढाओं” का नारा एक मजाक बन कर रह गया है। हकीकत देखें तो ग़ालिब का एक शेर याद आता है कि –‘हमें मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को बहलाने के लिए ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है।‘ हमारे समाज में बेटियों को दोयम दर्जा प्राप्त है। जब बात बेटे बेटियों में प्रमुखता देने की आती है तो बेटों को ही वरीयता दी जाती है। जबकि हमारी बेटियों ने यह साबित कर दिया है कि वे बेटों से किसी भी मायने में कम नहीं हैं। पढाई का भी उदाहरण देखें तो दसवीं-बारहवीं की परीक्षा में हमारी बेटियां ही अव्वल आती हैं। जहां तक माता-पिता के सेवा भाव की बात आती है तो बेटों की तुलना में बेटियां ही अधिक वफादार साबित होती हैं। पर विडंबना देखिये कि जो ज्यादा काबिल हैं उन्हीं की उपेक्षा की जाती है।
जिस तरह से हमारे यहां बेटियां असुरक्षित हैं एक पिता बेटी के बड़े होने से डरता है। कवि कहता है –
घुटनों–घुटनों चलती बेटी खड़ी नहीं हो जाना तुम
ऐसी ही अच्छी लगती हो बड़ी नहीं हो जाना तुम
या फिर यूं कहें कि –
छोटी-सी चिड़िया बाज़ के पंजो में देखकर
सपने में रात भर उसे बिटिया दिखाई दी
कहने का तात्पर्य यह है कि सिर्फ नारे गढ़ने से नहीं बल्कि समाज की ऐसी मानसिकता बनाने की जरूरत है जहां दूसरे की बहन-बेटी में हम अपनी बहन-बेटी देखें और आवश्यकता पढ़ने पर न केवल उसे बचाएं बल्कि उसके सर्वांगीण विकास के लिए बेटियों को पढाएं भी, अच्छा पोषण युक्त भोजन दें। उनके सपनों को उड़ान दें। और सबसे बड़ी बात अपने बेटों को अच्छे संस्कार दें। ऐसे संस्कार जो इस संवैधानिक भावना के अनुकूल हों कि स्त्री-पुरुष लड़का-लडकी सब बराबर हैं। सबको मानवीय गरिमा के साथ जीने का हक़ है।
क्यों जारी है बलात्कार और अत्याचार का सिलसिला
बेटियां स्त्रियाँ होती हैं। और मनु स्मृति के चश्मे से देखने वाले तो हमेशा बेटियों को स्त्रियों को किसी न किसी के अधीन देखना चाहते हैं। उनका साफ़ मानना होता है कि बचपन में स्त्री पिता के अधीन रहे, युवावस्था में पति के और बुढ़ापे में बेटे के अधीन। तुलसीदास इसी को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं –“जिमी स्वतंत्र होंहि बिगरहि नारी” या “शूद्र, गंवार, ढोल, पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी”। ऐसी ही विचारधारा दलितों और महिलाओं पर अत्याचार करने को बढ़ावा देती है।
शोभा सिंह अपनी कविता “अभी देखना बाकी है” में कहती हैं :
“औसर बानो इसलिए मारी गई कि
वह मुसलमान थी
रूप कंवर इसलिए जलाई गई कि
वह हिन्दू थी
रूप कंवर और औसर बानो दुबकी हुई हैं हर शहर में
अभी गुजरात कहां देखा है।“
बलात्कार की मानसिकता भी बलात्कारी का वर्चस्व, ईगो और दबंगई दर्शाती है। वह पीड़िता को यह अहसास कराना चाहता है कि उसके सामने पीड़िता की कोई हस्ती नहीं। इसी सन्दर्भ में मुकुल सरल अपनी कविता में कहते हैं :
“ये बलात्कार नहीं, एक हथियार है
धर्मसत्ता, पितृसत्ता, धनसत्ता, राजनैतिक सत्ता
हर तरह की सत्ता कायम रखने का
एक नायब हथियार।
औरत की योनि रौंद कर ही खड़े किए गए हैं
बड़े-बड़े राज्य और साम्राज्य
औरत की योनि में ही गाढ़ी गई हैं विजय पताकाएं।“
पत्रकार और कवियित्री भाषा सिंह बलात्कारी मानसिकता को चुनौती देती हुई कहती हैं –
“मुझे तुम से बेइन्तहां नफरत है...
याद रखो जमापूंजी है यह हमारी
आतताई के खिलाफ हमारी नफ़रत
याद रखो हम अमन की बेटियां हैं
और इस वतन में तुम्हारा मुकाबला हम से है।“
नजरिया बदलिए तभी नजारा बदलेगा
अगर हम बेटियों के प्रति या कहिए लड़कियों महिलाओं के प्रति अपना नजरिया नहीं बदलेंगे तब तक न स्त्री पुरुष समानता वाले समाज का निर्माण होगा और न बेटियों को बचा पाएंगे और नाहीं उन्हें पढ़ा पाएंगे। हमें लड़कियों को कमतर आंकना बंद करना होगा। उनकी क्षमताओं को पहचानना होगा। महावीर फोगाट का उदाहरण देख लीजिए उन्होंने अपनी बेटियों को पहलवानी सिखाई कुश्ती लड़वाई और देश का नाम रौशन करवाया। सोचिए लड़कियां क्या नहीं कर सकतीं। जब लड़कियां अन्तरिक्ष में जा सकती हैं। एयर फ़ोर्स में जा सकती हैं। नेवी और थल सेना में जा सकती हैं। खतरा और जोखिम उठा सकती हैं। युद्ध लड़ सकती हैं।...
न्यायालय आँखों से पट्टी उतारें न्याय की स्पीड बढ़ाएं
हमारे यहां सबसे आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता न्याय व्यवस्था में है। यहां तारीख पर तारीख मिलती रहती है। मामले में विलम्ब होता रहता है। और होता वही है जो कहावत है कि न्याय में देरी मतलब न्याय नहीं मिलना। अब तो यह बात न्यायाधीश भी मानने लगे हैं। SC/ST Act के अनुसार दलितों के मामले फास्ट ट्रैक कोर्ट में 60 दिन के अन्दर हल कर दिए जाने चाहिए। पर हकीकत में ऐसा होता नहीं है। सालों साल केस चलते रहते हैं और अंत में दोषियों को सजा नहीं मिल पाती है। आम आदमी कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाते-लगाते इतना आजिज आ जाता है कि न्याय की उम्मीद ही छोड़ देता है। दबंग और पैसे वाले लोग अपनी दबंगई और पैसे के बल पर गवाहों को खरीद लेते हैं और मामले को प्रभावित करते हैं। परिणाम यह होता है कि कमजोर और गरीब को न्याय नहीं मिल पाता। पक्षपात या अन्यायपूर्ण इन्साफ के चलते लोग कानून को ही अंधा कहने लगते हैं। न्याय की मूर्ति आंखो पर पट्टी बांधे इन्साफ का तराजू लिए होती है। हालांकि आँखों पर पट्टी बाँधने का भले ये उद्देश्य रहा हो कि क़ानून किसी के साथ भेदभाव न करे। पर आज इस पट्टी को खोलकर यह देखने की जरूरत है कि कहीं कोई अपराधी तराजू में नोटों की गड्डियां रख कर अपना पलड़ा भारी तो नहीं कर रहा। इसके साथ ही लंबित मामलों का शीघ्र निपटारा बहुत जरूरी है। इसके साथ ही हत्या और बलात्कार के मामले 60 दिनों में निपटाना अनिवार्य हो। आज न्याय की स्पीड बढ़ाने की सख्त आवश्यता है।
यदि मामलों का निपटान शीघ्र होगा और अपराधियों को सटीक सजा मिलेगी तो इससे दूसरे अपराधियों को सबक मिलेगा और हत्या तथा बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में कमी आएगी।
दूसरी और पुलिस प्रशासन भी कुछ ऐसी नई पहल करे ताकि हमारी बेटियां और अधिक सुरक्षित महसूस करें और बलात्कारी मानसिकता के अपराधियों में कठोर सजा का भय व्याप्त हो।
यदि ऐसे ठोस कदम नहीं उठाए गए तो एक हाथरस ही नहीं बल्कि बर्बरता का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा।
(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं।)
Courtesy: Newsclick