16 साल की आदिवासी लड़की मीना खलखो के हत्यारे पुलिसकर्मी आज भी मज़े से नौकरी कर रहे हैं

Written by Anuj Shrivastava | Published on: July 27, 2018

मीना खलखो की हत्या को सात साल हो चुके हैं पर छत्तीसगढ़ में हत्याओं का सिलसिला बदस्तूर जारी है


Adivasi Girls
मीना खलखो के माता पिता 

 
छत्तीसगढ़ की हर आदिवासी लड़की शायद इसी डर में जीती है कि एक दिन कुछ पुलिस वाले आएंगे, उसके साथ बलात्कार करेंगे, फिर उसे गोली मार देंगे और कागज़ में लिख देंगे कि ये नक्सली थी और मुठभेड़ में मारी गई.  
 
5 जुलाई 2011 और 6 जुलाई 2011 की दरमियानी रात छत्तीसगढ़ के बलरामपुर ज़िले में करचा गांव की रहने वाली 16 साल की आदिवासी लड़की मीना खलखो को भी कुछ इसी तरह मार दिया गया था. इस मामले में पुलिस ने दावा किया था कि 5 जुलाई 2011 से 6 जुलाई 2011 की दरमियानी रात झारखंड से आए जिन 30-35 नक्सलियों से पुलिस की मुठभेड़ हुई उनमे मीना खलखो भी शामिल थी. परन्तु अनीता झा जांच आयोग की रिपोर्ट में पुलिस के द्वारा दी गई लगभग हर जानकारी ग़लत और मनगढ़ंत साबित हुई. जांच में ये साबित हुआ कि पुलिस के द्वारा बनाई मुठभेड़ की कहानी झूठी है. आयोग ने ये भी माना है कि मृत्यु के पूर्व मीना के साथ शारीरिक बल का प्रयोग करते हुए उसके साथ बलात्कार किया गया और मॉड्रेट रेंज (1 से 5 मीटर) यानि बहुत नज़दीक से उसे गोली मारी गई, जबकि चांदो थाना प्रभारी निकोदीन खेस (जो कथित मुठभेड़ की रात पुलिस टुकड़ी को लीड कर रहे थे) ने अपने बयान में साफ़ साफ़ ये बात कही थी कि नक्सली टीम और पुलिस टुकड़ी के बीच की दूरी 75 से 100 मीटर के लगभग थी.



अनीता झा आयोग ने इन 6 बिन्दुओं पर की थी जांच
1.   दिनांक 06 जुलाई 2011 थाना चांदो अंतर्गत ग्राम नवाडीह चेड़रा नाला के किनारे हुई पुलिस मुठभेड़ में कुमारी मीना खलखो कि मृत्यु कैसे हुई.
2.   वे परिस्थितियां तथा कारण जिसके फलस्वरूप घटना घटित हुई.
3.   घटना में किन-किन व्यक्तियों की मृत्यु हुई या घायल हुए.
4.   ग्राम नवाडीह चेड़रा नाला के किनारे मुठभेड़ में नक्सली कमाण्डर के साथ कुमारी मीना खलखो एवं 30-35 नक्सलियों के शामिल होने का कथन कहां तक प्रमाणित है.
5.   यदि पुलिस / प्रशासन की ओर से त्रुटि या उपेक्षा हुई है तो उसके लिए ज़िम्मेदार कौन है.
6.   भविष्य में इस प्रकार की घटनाएं रोकने हेतु क्या उपाय किए जाने चाहिए.
आयोग ने रिपोर्ट प्रस्तुत की और सुझाव भी दिए परन्तु किसी दोषी पर कोई संतोषजनक कार्रवाई नहीं की गई. अनीता झा आयोग की रिपोर्ट आप यहां देख सकते हैं.



अपराध तो साबित हुआ पर सज़ा नहीं हुई
मीना खलखो फर्जी मुठभेड़ मामले के आरोपियों में चंदो थाना के तत्कालीन प्रभारी उपनिरीक्षक निकोदीन खेस, प्रधान आरक्षक ललित भगत, आरक्षक क्रमांक 196, 396, 435, 414, 437, 453, 797, 421, 216 एवं 404 शामिल थे. इसके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ सशस्त्र बल बारहवीं बटालियन के आराक्षक व प्रधान आरक्षकगण शामिल थे. शुरूआती जाँच के बाद सभी आरोपियों को लाइन अटैच कर दिया गया था लेकिन बाद में उन सभी को अलग अलग थाना क्षेत्रों में बहाल कर दिया गया. 5 साल बाद साल बाद फ़रवरी 2017 थाना प्रभारी निकोदीन खेस की गिरफ़्तारी के बाद मामला फिर चर्चा में आया पर नतीजा तब भी कुछ नहीं निकला फिलहाल थाना प्रभारी ज़मानत पर रिहा हैं.
 
जाँच में उजागर हुए कुछ प्रमुख तथ्य
1)  मृतका का पोस्टमॉर्टम 6 जुलाई 2011 की दोपहर 3:45 बजे किया गया था. डॉक्टरों के अनुसार मीना की मृत्यु पोस्टमॉर्टम किये जाने के समय से 10 से 14 घंटे के भीतर हुई थी यानि रात 1:45 बजे से लेकर 5:45 के बीच जबकि पुलिस ने बयान में कहा था कि मुठभेड़ के बाद सुबह उजाला होने पर मीना उन्हें जीवित अवस्था में मिली थी और उसने ख़ुद अपने नक्सली होने की बात कही थी  
2)  विधि विज्ञान प्रयोगशाला रायपुर के प्रतिवेदन दिनांक 24.08.2011 के अनुसार मृतिका की अन्डरवियर एवं पोस्ट मॉर्टम के दौरान योनी स्त्राव स्लाईड में वीर्य के धब्बे एवं मानव शुक्राणु पाए गए.
3)  मृतिका की योनी में वीर्य का पाया जाना ये इंगित करता है कि घटना के दिन उसके साथ सहवास हुआ था. उक्त सहवास बलपूर्वक किये जाने की स्थिति ज़्यादा प्रबल मालूम होती है, क्योंकि मृतिका के शरीर पर बन्दूक की गोलियों के ज़ख़्म के अलावा अन्य गंभीर चोटें भी पाई गई हैं.
4)  05.07.2011 एवं 06.07.2011 की दरमियानी रात में कुमारी मीना खलखो के अलावा अन्य किसी भी व्यक्ति की न तो मृत्यु हुई न ही कोई घायल हुआ.
5)  मीना खलखो के परिवार वालों एवं गांव वालों का ये स्पष्ट कथन है कि मीना घटना के बहुत पहले ही पढ़ाई छोड़ चुकी थी और घरेलु कार्य किया करती थी. वो नक्सली नहीं थी.
6)  शासन की ओर से निकोदीन खेस (घटना दिनांक को उपनिरीक्षक थाना चांदो) का ये कथन महत्वपूर्ण है कि उसने तीन वर्ष के चांदो थाना में अपने कार्यकाल के दौरान मीना खलखो को किसी भी नक्सली गतिविधि में शामिल होते नहीं पाया था. उनका ये कथन है कि वे नहीं बता सकते कि मृतिका नक्सली थी या नहीं.
7)  प्रधान आरक्षक महेश कुमार जो वर्ष 2006 से 2011 तक चांदो थाना में पदस्थ थे, का ये कथन महत्वपूर्ण है कि अपनी 5 साल की पदस्थापना के दौरान मीना खलखो का नाम नक्सली के रूप में कभी उसके सामने नहीं आया.
8)  उल्लेखनीय है कि 25 पुलिस वालों की टीम नक्सलियों के छुपे होने की खबर मिलने पर पैदल सर्चिंग के लिए रवाना हुई थी अतः उनके चलने की रफ़्तार अत्यंत धीमी व सावधानीपूर्वक होना आवश्यक थी. नक्सलियों की सर्चिंग हेतु पुलिस पार्टी का 9 से 10 किलोमीटर 2 घंटे में पहुचना और 6 से 7 किलोमीटर की दूरी मात्र 1 घंटे में तय कर लेना स्वाभाविक नहीं लगता है. ये स्वीकार करने योग्य तथ्य नहीं है.
9) पुलिस के कहे अनुसार 30-35 नक्सली वहां मौजूद थे जो लगातार पुलिस पर फायरिंग कर रहे थे. पुलिस की तरफ़ से केवल 3 पुलिस कर्मियों ने जवाबी फायरिंग की. इतनी बड़ी मुठभेड़ में मात्र तीन के द्वारा जवाबी फायरिंग करने कि बात कहना, घटना के होने पर ही सवाल उठाता है.
10) पुलिस की ये बात भी बड़ी हास्यास्पद लगती है कि 30-35 नक्सलियों के फायरिंग करने की जगह से गन के मात्र 6 ख़ाली खोखे बरामद हुए और केवल 3 पुलिस कर्मियों द्वारा फ़ायरिंग किये जाने की जगह से 9 ख़ाली खोखे बरामद हुए.
11) मुठभेड़ स्थल लोंगारटोला और करचा गांव के रहने वालों ने ये बयान दिया कि उस रात उन्होंने केवल तीन गोलियों के चलने की आवाज़ सुनी जबकि पुलिस ने कहा था कि मुठभेड़ देर तक लगातार चलती रही थी.
12) पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में सामने आया कि मीना को बहुत करीब से गोली मारी गई थी कि जिससे गोली उसके शरीर को चीरते हुए बाहर निकल गई जबकि पुलिस के कहे अनुसार नक्सलियों से पुलिस टुकड़ी की दूरी 75 से 100 मीटर की थी.
13) शासन की ओर से मीना खलखो के परिवार को 2 लाख रूपए की सहायता राशी दी गई. शासन की ओर से लिखित में ये तर्क भी अभिकथित किया गया कि मुठभेड़ के दौरान मीना खलखो अचानक बीच में आ गई इस कारण गोली लगने से उसकी मृत्यु हुई, इसके लिए पुलिस को दोषी नहीं माना जाना चाहिए. जबकि पुलिस अधिकारी निकोदीन खेस ने अपने बयान में ये कहा था कि मीना खलखो ने पूछताछ के दौरान अपने नक्सली होने कि बात स्वीकारी थी.  
 

छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में पुलिस पर हमेशा से उठते रहे हैं सवाल 
छत्तीसगढ़ में कार्य करने वाले मानवाधिकार संगठनों और विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पुलिस पर, लगातार फ़ेंक एनकाउंटर करने, आदिवासियों पर फर्जी मुकदमें दायर करने, आदिवासी महिलाओं के साथ क्रूर यौनिक हिंसा व उनकी हत्या करने, सामाजिक कार्यकर्ताओं व जनपक्षधर पत्रकारों को डराने धमकाने जैसे मामलों की शिकायत की है, और कई मामलों में तथ्य भी प्रस्तुत किए हैं. पर धन्य है छत्तीसगढ़ की सरकार जो ऐसे पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई करने की बजाए उन्हें पदोन्नति दे कर ज़्यादा अधिकारों के साथ वापस काम पर लगा देती है.

दोशी पुलिस अधिकारी को राष्ट्रपति ने दिया गैलेंट्री अवॉर्ड
अक्टूबर 2011, छत्तीसगढ़ में एक छात्रावास की आदिवासी वार्डन सोनी सोरी को माओवादी समर्थक होने का इल्ज़ाम लगा कर पुलिस ने हिरासत में लिया. दंतेवाड़ा के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक अंकित गर्ग की जानकारी में सोनी सोरी को निर्वस्त्र कर उसे बिजली के झटके दिए गए व उसकी योनी में पुलिस कर्मियों द्वारा पत्थर डाल दिए जाने जैसी वीभत्स घटना को अंजाम दिया गया. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कराई गई चिकित्सकीय जांच में इन घटनाओं के प्रमाण मिले. बावजूद इसके अंकित गर्ग को गैलेंट्री अवार्ड दे कर सम्मानित किया गया.

मीना खलखो फर्जी मुठभेड़ मामले में तथ्यों की जांच करते हुए WSS ने एक विडियो डॉक्युमेंट्री फ़िल्म भी बनाई है जिसे आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं.
https://vimeo.com/157416877


यौन हिंसा व राजकीय दमन के ख़िलाफ़ महिलाएं (WSS) ने जुलाई 2017 में “गवाही” शीर्षक से किताब के रूप में कुछ दस्तावेज़ और पीड़ित महिलाओं के बयान प्रकाशित किये हैं. पुलिस द्वारा यौन हिंसा से पीड़ित महिलाओं ने जो बयान WSS को दिए उसके कुछ अंश हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे आपको ये अंदाज़ा लग सके कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में मानवाधिकार हनन की घटनाएं कितने गंभीर रूप में मौजूद हैं.
 
“पुलिस और सुरक्षाकर्मी बारी-बारी से हमें छू रहे थे, हमारे स्तनों को दबा रहे थे, हमारे पेट, पीठ और जांघों को छू रहे थे. ऐसा करते हुए वे हँसते हुए हमारा मज़ाक उड़ा रहे थे.”
 
“हम लोग जंगल जाते हैं जानवरों का शिकार करने के लिए, वे जाते हैं हमारे जैसे इंसानों का शिकार करने के लिए”
 
“बलात्कार करने के बाद उन्होंने मुझे धमकी दी और मुझे मेरा मुह बंद रखने के लिए कहा. उन्होंने कहा कि अगर मैंने किसी को कुछ बताया तो अगली बार जब वे आएंगे तो मुझे गोली से उड़ा देंगे”

मीना को सायकल चलाना बहुत पसंद था. छत्तीसगढ़ की वो मासूम आदिवासी लड़की अगर आज ज़िन्दा होती तो शायद किसी खेत की पगडण्डी पर मज़े से सायकल दौड़ा रही होती. पर अफ़सोस कि उस पर पुलिस की नज़र पड़ गई. ये बात आम तौर पर प्रचलित है कि दक्षिण छत्तीसगढ़ में सुरक्षाबालों को नक्सलवाद से निपटने के लिए लगाया गया है. पर तथ्यों को टटोला जाए तो सैन्यीकरण, खनिज सम्पदा और औद्योगीकरण से ज़्यादा सरोकार रखता प्रतीत होता है

छत्तीसगढ़ की आदिवासी महिलाओं पर सुरक्षाबलों द्वारा यौन हिंसा
छत्तीसगढ़ में बीएसएफ़ और जिला पुलिस ने मानवाधिकारों के उल्लंघन का सिरहन पैदा करने वाला रिकॉर्ड खड़ा कर दिया है. सितम्बर 2010 पुलिस ने 40 आदमियों पर नृशंस हमला किया, दो किशोरियों का यौन उत्पीड़न किया और 17 आदमियों को उठा कर ले गई. इन लोगों को बीएसएफ़ कैम्प में बंदी बना कर 3 दिनों तक यातना दी गई, उन्हें बिजली के झटके दिए गए और ये कुबूलने पर मजबूर किया गया कि वे नक्सली है. इनमें से 2 ने बताया कि उनके मलद्वार में डंडे घुसाए गए थे.

अक्टूबर 2015 के बाद दक्षिण छत्तीसगढ़ में सामूहिक यौन हिंसा कि चार वारदातें उजागर हुई हैं. मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि यहां 20 से ज़्यादा सामूहिक बलात्कार और यौन हिंसा कि वारदातें हुई हैं. ये सभी वारदातें पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा चलाए जा रहे तलाशी अभियानों के दौरान हुई हैं.

पुलिस की गोली से मारे जाने का खौफ़ छत्तीसगढ़ के लगभग हर आदिवासी का यथार्थ है. लोग अपने खेतों में काम करने या वनोपज इकठ्ठा करने जाने से भी डरते हैं. सैन्यीकरण अपने आप में तो अनिष्ट है ही वो यौन हिंसा और मानवाधिकार हनन के लिए ज़मीन भी तैयार करता है.

मार्च 2011 में कोया कमाण्डो, कोबरा और विशेष पुलिस अफसरों ने 3 गावों पर कहर बरपाया 300 घर जला दिए और 3 औरतों के साथ बलात्कार किया. ये अभियान पुलिस की बड़ी सफलता के रूप में देखा गया. ये अभियान एसआरपी कल्लूरी के आदेश पर चलाया गया था जो उस दौरान दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक थे. कल्लूरी अपने बुरे कारनामों के लिए कुख्यात हैं. लेधा बाई नामक एक आदिवासी महिला ने उन पर बलात्कार का आरोप लगाया था. लेधा बाई ने मजिस्ट्रेट के सामने दिए अपने बयान में कहा था कि न केवल कल्लूरी ने उनके साथ बलात्कार किया बल्कि अपने मातहत काम करने वालों से कहा कि वे उसके साथ रोज़ सामूहिक बलात्कार करते रहें. लेधा बाई ने 2006 में केस दर्ज कराया था पर दबाव में आकर उन्हें केस वापस लेना पड़ा और तब से लेधा बाई लापता हैं. इस मामले की निष्पक्ष जाँच हो सके इसलिए कल्लूरी का तबादला कर दिया गया. जाँच चल ही रही थी उसी दौरान कल्लूरी को 2013 में राष्ट्रपति का पुलिस मैडल विशिष्ट सेवा के लिए दिया गया. जून 2014 में उन्हें पदोन्नत करके बस्तर रेंज का पुलिस महानिरीक्षक नियुक्त कर दिया गया.

अक्टूबर 2016 में केन्द्रीय जाँच ब्यूरो ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट पेश की जिसमें उसने सुरक्षाबलों को 160 घर जलाने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया और ये भी कहा कि पुलिस ने झूठ बोला था कि ये घर नक्सलियों ने जलाए. कल्लूरी ने स्वयं सार्वजनिक रूप से इस अभियान के लिए ज़िम्मेदार होने कि बात क़ुबूल की. पर कल्लूरी को दोषी ठहराने वाली इस रिपोर्ट के न्यायलय में पेश होने के कुछ दिनों बाद ही उन्हें छत्तीसगढ़ स्थापना दिवस के उपलक्ष्य पर प्रधानमन्त्री मोदी के स्वागत के लिए आमंत्रित किया गया. ये सीधा इशारा है कि कंपनियों के लिए बर्बरता से गांव ख़ाली करवाने और उसके लिए यौन हिंसा के इस्तेमाल को सरकारी मान्यता प्राप्त है. 

ये सब होता है विकास के नाम पर
अलग राज्य बनने के महज़ 2 वर्षों के भीतर ही छत्तीसगढ़ में CRPF को स्थाई रूप से तैनात कर दिया गया था 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार ने लोहंडीगुड़ा क्षेत्र का एक बड़ा इलाका स्टील प्लांट लगाने के लिए एक कम्पनी को देना तय किया. जहां प्रतिवर्ष 50 लाख टन स्टील का उत्पादन किया जाना था. तकरीबन उसी समय एक और कम्पनी के साथ करार किया गया जिसमें 267 किलोमीटर की पाईपलाइन बिछाकर लौह अयस्क का घोल छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले से आँध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम जिले तक ले जाना था. पाईपलाइन को नक्सलियों से बचाने के लिए बड़ी संख्या में सुरक्षाबलों की ज़रुरत थी. उसी समय एक निजी स्वयंभू सुरक्षादल सलवा जुडूम खड़ा किया गया. सलवा जुडूम ने एक साल के भीतर ही हत्या, लूटपाट, यौन हिंसा, आगज़नी जैसे आपराधिक तरीकों से ढाई लाख आदिवासियों को उनकी ज़मीन और गावों से खदेड़ दिया. इसके तुरन्त बाद राज्य सरकार ने सलवा जुडूम से उपजी परिस्थितियों से निपटने के लिए 2006 में 7 से 10 अतिरिक्त बटालियनों की मांग की. सलवा जुडूम के बढ़ने से बिगड़ी परिस्थितियों की जांच करने के लिए महिलाओं की एक राष्ट्र स्तरीय टीम ने 2006 में दो बार छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों का दौरा किया और अपनी रिपोर्ट बनाई.

बस्तर संभाग में 6000 हेक्टेयर भूमि लौह अयस्क खदानों के लिए लीज़ पर देने कि मंज़ूरी दी जा चुकी है. दंतेवाड़ा में 1162 और नारायणपुर में 1647 हेक्टेयर की मंज़ूरी दी गई है. टिन अयस्क के लिए 750 हेक्टेयर भूमि लीज़ पर दी गई है. चूना, बाक्साईट, सोना, हीरा और अन्य जवाहरात ढूंढने के लिए 19,555 वर्ग किलोमीटर के इलाके में कंपनियों को परमिट दिया गया है.

पिछले कुछ सालों में छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ़, कोबरा, डीआरजीएफ़, नागा व मिज़ो बटालियनों के आलावा छः बीएसएफ़ कैम्प भी स्थापित हो चुके हैं. छत्तीसगढ़ सरकार खनिज सम्पदा के दोहन में आगे बढ़ने के लिए पुलिस और अर्धसैनिक बलों पर निर्भर है, जिसके चलते बस्तर दुनिया के सबसे ज़्यादा सैन्यीकृत इलाकों में शामिल हो गया है. ज़ाहिर है, ये बढ़ती आद्योगिक और खनन गतिविधियों से उपजने वाले विरोध की आशंका की तयारी है.

पुलिस के द्वारा डर का ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जिससे कोई सामाजिक संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता या पत्रकार जनता के हित में और पुलिस व प्रशासन के विरोध में आवाज़ न उठा पाए. पिछले कुछ वर्षों में कई पत्रकारों को गिरफ़्तार किया गया है और कईयों को डरा धमका कर परेशान किया जा रहा है. एडिटर्स गिल ने मार्च 2016 में इस इलाके का दौरा किया और वे काम करने के हालातों की जानकारी के लिए पत्रकारों से मिले, उनकी रिपोर्ट के अनुसार इस इलाके में कोई भी ऐसा पत्रकार नहीं है जो बिना खौफ़ के काम कर पा रहा हो.

सरकार द्वारा किये जा रहे अमानवीय अपराधों पर रोक लगाने के लिए समाज में नागरिक समूहों और पत्रकारों की सक्रियता आवश्यक है. ये ज़रूरी है कि राजसत्ता द्वारा किये गए अपराधों पर नज़र रखी जाए और उन्हें सार्वजनिक किया जाए ताकि सरकार की जवाबदेही बनी रहे. जहां-जहां सेना, अर्धसैनिक बल और पुलिस बड़ी संख्या में लगाई जाती है वहां ऐसे अपराध होते रहने की आशंका बढ़ जाती है. ऐसे में ज़रूरी है कि लोग इन मामलों के प्रति सतर्क रहें.

 

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