सुगतकुमारी
एक राज्य में जहां पैसा देश में बाहर गए लोगों के जरिये आ रहा है वहां सांस्कृतिक श्रेष्ठता का दावा अपने आप में विरोधाभासी है।
मशहूर मलयाली लेखिका सुगतकुमारी ने 24 सितंबर को लोकप्रिय अखबार मातृभूमि के अपने कॉलम में जो कहा* उसने केरल में खलबली पैदा कर दी है। नीचे उन्होंने जो कहा, उसका सरल अनुवाद है -`केरल अपने दौर के सबसे मुश्किल समस्या से मुखातिब है। दक्षिण के इस छोटे प्रदेश में देश के दूसरे राज्यों की बेकाबू भीड़ बढ़ती जा रही है। प्रवासियों की बढ़ती तादाद भविष्य में केरल के लिए भारी सांस्कृतिक आपदा का सबब बन सकती है। जो लोग यहां रोजगार की तलाश में आ रहे हैं, उनसे हमारा कभी भी सांस्कृतिक मेल-मिलाप नहीं हो सकता। ये लोग न सिर्फ शैक्षिक तौर पर पिछड़े हैं बल्कि उनमे कई आपराधिक पृष्ठभूमि के भी हैं। ये लोग आखिरकार यहां मकान बना कर शादी कर (यहां की महिलाओं से) बस जाएंगे।
सुगतकुमारी की यह भविष्यवाणी कई मायने में आश्चर्यजनक है। एक, कोई केरलवासी याने की भारत की सबसे बड़ी आप्रवासी आबादी (लगभग 40 लाख) का प्रतिनिधि अगर यह कह रहा है तो वह अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनल्ड ट्रम्प की भाषा बोल रहा है, जिन्हें आप्रवासियों से एलर्जी है। यानी खुद बड़ी आबादी वाले आप्रवासी समुदाय के प्रतिनिधि के तौर पर वह आप्रवासियों के प्रति अपनी हिकारत जाहिर कर रही हैं। दूसरे, जाति के वर्चस्व वाले पुराने सामंती ‘स्वर्णिम’ दिनों की समर्थक सुगतकुमारी को हमेशा बाहर से आने वाले पैसे से समस्या रही है। उन्हें लगता रहा है कि यह पैसा केरल को बरबाद कर रहा है। पर इस बार उन्होंने गैर मलयाली लोगों पर निशाना साधा है। तीसरे, वह अति राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी की कट्टर समर्थक होते हुए भी वह भारत के अन्य राज्यों के लोगों के खिलाफ हैं।
इस विरोधाभास की पहेली में राज्य के बहुसंख्यकवाद को समझने के सूत्र मिल सकते हैं।
केरल में अन्य राज्यों की तुलना में जो समृद्धि दिखती है वह भारत के अन्य हिस्सों और दूसरे देशों में काम कर रहे मलयालियों के कमाए हुए धन का नतीजा है। यह एक जाना-माना तथ्य है। अगर देश के दूसरे राज्य के लोग रोजगार की दृष्टि से केरल को आकर्षक मान रहे हैं तो उसकी वजह राज्य की उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था है। कंस्ट्रक्शन सेक्टर में आया तेज उभार है। शुरुआत में यह समृद्धि केरल के गैर-कुशल कर्मचारियों की खाड़ी से कमाई गई दौलत की बदौलत आई। इस दौलत में 1960 के दशक में अमेरिका और यूरोप गईं नर्सों की कमाई और उसके बाद आईटी सेक्टर में काम करने वालों की कमाई का हाथ भी था।
इस तरह के एक राज्य में जहां पैसा देश में बाहर गए लोगों के जरिये आ रहा है वहां सांस्कृतिक श्रेष्ठता का दावा अपने आप में विरोधाभासी है। कतर, अमीरात, अमेरिका, जर्मनी और यहां तक कि बेंगलुरू और मुंबई के लोग भी यही नजरिया मलयालियों के प्रति रख सकते हैं। लोग अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता का दावा करने के चक्कर में इतिहास को तथ्यों का दबाने का सुविधाजनक रुख अपना लेते हैं। यह रुख बहुसंख्यकवाद को स्थापित करने की बुनियाद है।
प्रवासियों के विरोध के इस मुद्दे में हम कुछ बुनियादी तथ्यों को भूल जाते हैं-
जब तक कहीं रोजगार उपलब्ध होगा वहां से कोई दूसरी जगह रोजगार की तलाश में नहीं जाएगा। यानी रोजगार की तलाश में ही प्रवास होता है। प्रवासी श्रमिक होता है, जो आपके लिए काम करता है। मेक्सिको के लोग रोजगार की तलाश में अमेरिका आते हैं और अमेरिकी उन्हें इसलिए काम देते हैं कि उन्हें यह तुलनात्मक तौर पर सस्ते में करवाना होता है। ब्रिटेन ने अगर 1948 के दौरान कॉमनवेल्थ देशों से अफ्रीकियों को बुलाकर अपने यहां की नागरिकता दी तो इसलिए कि वे युद्ध से बरबाद अपने शहरों का पुनर्निर्माण करना चाहते थे।
दरअसल यह सोचना कि हम उन्हें (प्रवासियों) अपने यहां आकर कमाने का मौका देकर अहसान कर रहे हैं, सामंती राष्ट्रवाद की निशानी है। श्रमिक आपका काम कर आपको सेवा दे रहा है। इस सोच में एक नैतिक खामी है मालिक काम देता है और श्रमिक काम करता है।
केरल में अगर प्रवासी मजदूरों की स्थितियों का जायजा लिया जाए तो पता चल जाएगा कि हम इनके प्रति किस कदर अमानवीय हैं। केरल के किसी भी सुदूर गांव में दो कमरों के मकान का किराया 3000 रुपये से ज्यादा नहीं हो सकता। लेकिन केरल के मकान मालकिन इन दो कमरों से 15000 रुपये की तक कमाई करते हैं। बंगाल, बिहार या असम के दस-दस श्रमिकों को इन दो कमरों में रखा जाता है और एक बेड के लिए हर दिन 50 रुपये वसूले जाते हैं। रहन-सहन की स्थिति की तो कल्पना ही की जा सकती है।
बाहर से आए इन श्रमिकों को अवमानना की निगाह से देखा जाता है। केरल की ‘पवित्र भूमि’ में ये श्रमिक 'अपवित्र' माने जाते हैं। यह एक तरह की रणनीति है, जिसके तहत श्रमिकों के अदृश्य बल में बदल दिया जाता है।
केरल की सांस्कृतिक श्रेष्ठता या विशिष्टता को थोपने के लिए उन्हें हमेशा रक्षात्मक बनाए रखा जाता है। वाल्टर बेंजामिन के शब्दों में कहें तो – बहुसंख्यकवाद राजनीति का सौंदर्यीकरण है।
सुगतकुमारी हमेशा से उस रुमानी माहौल के प्रति लोगों की संवेदनाओं को उभारने की समर्थक रही हैं, जो एक सुनहरे अतीत की तस्वीर पेश करता है। और भविष्य की मंजिल के तौर पर इसकी पैरवी करता है।
लेकिन जिस सामाजिक विरोधाभास की दुनिया में हम जी रहे हैं उसमें इस तरह के सामंती नोस्टेलजिया को उभारना नामुमकिन है। यही वजह है कि सुगतकुमारी बाहरी पैसे और बाहरी संस्कृति के खिलाफ हैं। उनके लिए ये चीजें यहां की पवित्र हरियाली के विनाश का कारण हैं। यह राज्य के सुनहरे चरित्र को बिगाड़ रहा है। यह ध्यान देने लायक बात है कि मलयाली सांस्कृतिक श्रेष्ठता को थोपने के लिए उन्होंने इस वक्त इस तर्क या आख्यान को छोड़ दिया है। जाहिर है बहुसंख्यकवाद फौरी, मौजूदा और आसान धारणा का पकड़ लेता है, जिसके इर्द-गिर्द लोगों की लामबंदी की जा सके। अक्सर मिथक को इतिहास पर थोप दिया जाता है।
बीजेपी में सुगतकुमारी का जो विश्वास है, उसका मलयाली कट्टरता से सीधा सामना है। बीजेपी एक अखिल भारतीय हिंदूकरण में विश्वास करती है जो क्षेत्रीय, भाषाई विभेद को नकारता है। बीजेपी एक मिलीजुली धार्मिक पहचान का निर्माण करती है। अगर मलयाली मानस शिवसेना जैसा आतंक का फॉर्मूला अपनाता है तो लंबी अवधि में कामयाब नहीं होने वाला। एक क्षेत्र, धर्म और भाषा वाला यूरोपीय राष्ट्रवाद भारतीय संवैधानिक और एकीकृत राष्ट्रवाद के ऐतिहासिक यथार्थ को नुकसान पहुंचाएगा।
सुगतकुमारी का बयान अमित शाह के उस शुभकामना संदेश के बाद आया था, जिसमें असुर राजा बलि को दरकिनार कर वामन जयंती को याद किया गया था। यह बयान बीजेपी के कोझिकोड सम्मेलन के ठीक पहले आया है। हालांकि जिस मलयाली सांस्कृतिक श्रेष्ठता का सुगतकुमारी नारा बुलंद कर रही हैं वह बीजेपी की योजना की विरोधाभासी है। फिर भी यह बहुसंख्यकवाद के मुफीद है। यह क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर कारगर है।
यह बहुसंख्यकवाद के डीएनए में है। अगर यह और आगे बढ़े तो गणराज्य के बिखरने की वजह बन सकता है। इस यथार्थ को पहचानने की जरूरत है लेकिन सुगतकुमारी जैसे लोगों को गणराज्य के संविधान की कोई परवाह नहीं है। वह सिर्फ वर्चस्व की चिंता करती हैं । चाहे वह मलयाली के तौर पर हो हिंदू के या फिर सामंती शख्स के तौर पर।
सुगतकुमारी के बहुसंख्यकवाद को ठोस, स्थिर, ऐतिहासिक और नैतिक रणनीति से चुनौती दी जा सकती है। इसके लिए संवैधानिक राष्ट्रवाद पर आधारित सामाजिक समावेश का चरित्र विकसित करना होगा।
*सुगतकुमारी ने 25 सितंबर के मातृभूमि के बयान में जारी कर कहा कि उन्हें मिस कोट किया गया। मैं इसे संज्ञान में नहीं ले रहा हूं कि मातृभूमि को दिए इंटरव्यू से उन्होंने दूरी नहीं बनाई है। इंटरव्यू में उन्होंने जो शब्द इस्तेमाल किए हैं मातृभूमि में उन्हीं का जिक्र किया गया है। अगर उनकी सफाई पर सरसरी निगाह भी दौड़ाई जाए तो भी वह प्रकारांतर से वही कह रही हैं जो कहना चाहती हैं।