आरएसएस-मुक्त भारतः एक राजनीतिक अभियान की जरूरत

Published on: June 22, 2016
रवि नायर, तपन बोस, तीस्ता सीतलवाड़


 
हाल ही में टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर छपी थी कि मोदी शासन 1966 के उस कानून को निरस्त करने जा रही है जिसके तहत सरकारी नौकरी में अपनी नियुक्ति के वक्त उम्मीदवार को यह घोषणा करनी पड़ती है कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) या जमात-ए-इस्लामी से किसी भी तरह से जुड़े नहीं हैं।

यह मॉडल गुजरात, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश जैसे भाजपा-शासित राज्यों में पहले ही लागू कर दिया गया है जो जमीनी स्तर पर शासन को पूरी तरह विकृत कर चुका है और नागरिक सेवाओं की तटस्थता को बाधित कर रहा है।

आरएसएस संचालित सिविल सर्विस एक सेक्युलर संविधान के तहत काम नहीं कर सकता है। लेकिन 'संविधान की शक्ल को बिना बदले सिर्फ प्रशासन के ढांचे में बदलाव कर, परस्पर विरोधी बना कर और संविधान की आत्मा की मुखालफत कर इसे विकृत कर देना संभव है।' 

जबकि संसदीय व्यवस्था एक पेशेवर और राजनीतिक रूप से तटस्थ सिविल सर्विस की बुनियाद पर टिकी होती है। आरएसएस ने अब मौजूदा संवैधानिक नियमों को ताक पर रख दिया है।
 
इस अभियान की जरूरत

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग अब गृह मंत्रालय से इस बारे में सलाह ले रहा है कि कैसे इस 'अनुचित और बेतुके' नियम को खत्म करने की जरूरत है। इसी संदर्भ में एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने यह बताया कि आरएसएस हमेशा से 'एक सांस्कृतिक और गैर-राजनीतिक संगठन' रहा है। दरअसल, यह कानूनों को ताक पर रख देने की सरकारी कवायद का हिस्सा है। इस मसले पर राज्यमंत्री जीतेंद्र सिंह ने कहा कि 'मौजूदा सरकार ने सरकारी नौकरियों में आरएसएस के सदस्यों पर रोक लगाने वाले इस सर्कुलर को जारी नहीं किया है। यह किसी से इस बात की अपेक्षा नहीं करता कि सरकारी सेवा में नियुक्ति के वक्त वह बताए कि वह आरएसएस का सदस्य है या नहीं!'

गौरतलब है कि 1966 में प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने यह आदेश जारी किया था, जिसे 1975 और 1980 में दोहराया गया था। तब आरएसएस पर प्रतिबंध आयद था। मौजूदा कवायद इस खबर के बाद सामने आई है कि गोवा में केंद्र सरकार के एक महकमे को अदालत में यह बताने के लिए कहा गया है कि नई नियुक्त वाले आरएसएस से नहीं जुड़े हैं। 1966 के आदेश के मुताबिक आरएसएस या जमात-ए-इस्लामी का सदस्य रहते हुए कोई भी व्यक्ति केंद्र सरकार की किसी नौकरी के लिए योग्य नहीं होगा। हालांकि गोवा में ताजा प्रकरण के सामने आने के बाद साफ हुआ कि इस आदेश पर सख्ती से अमल नहीं हुआ है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह और दूसरे कई केंद्रीय मंत्री हमेशा इस पर गर्व महसूस करते रहे हैं कि उनकी पहली वफादारी आरएसएस के लिए है।

कोई इस बात को सुन कर राहत महसूस कर सकता है कि पहले एक आरएसएस प्रचारक, फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका के अपने बहु-प्रचारित भाषण में कहा कि भारतीय संविधान एक पवित्र किताब है। हालांकि फिलहाल वे एक संवैधानिक पद हैं, लेकिन उनका निर्माण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साए में हुआ है जो भारतीय संविधान को नफरत की नजर से देखता है।

एमएस गोलवलकर की लिखी एक किताब 'बंच ऑफ थॉट' संघ का एक अहम दस्तावेज है। इसमें भारतीय संविधान में दर्ज भारत की आधुनिक बुनियाद को खारिज किया गया है। गोलवलकर का कहना है, 'वे भूल गए हैं कि यहां पहले से ही हिंदुओं और कई दूसरे समुदायों का एक सशक्त प्राचीन राष्ट्र था, जहां मेहमान के तौर पर यहूदी और पारसी या फिर आक्रमणकारी के रूप में मुसलिम और ईसाई रह रहे थे। उन्होंने कभी इस तरह के सवाल का सामना नहीं किया कि ये तमाम अलग-अलग समुदाय सिर्फ इसलिए कैसे इस धरती के संतान कहे जा सकते थे कि उनका दुश्मन एक था और उसके शासन के तहत वे एक भूभाग में रहते थे।' 

सवैधानिक जनादेश के उलट आरएसएस अपने मकसद को लेकर भी बेशर्म है।
“...हमें अब तक यह उपदेश देकर बेवकूफ बनाया जाता रहा है कि हम हिंदू स्वभाव से उदार और सहिष्णु हैं, इसलिए हमें हिंदू राष्ट्रवाद और ऐसे सभी 'सांप्रदायिक', 'मध्ययुगीन' और 'प्रतिगामी' विचारों की बात करके खुद को संकीर्ण नहीं बनाना चाहिए! हमें हर हाल में यह समझना है कि एक स्थापित तथ्य के तौर पर हमारा राष्ट्रवाद एक सच है और हिंदू भारत का राष्ट्रीय समुदाय है। हमारे श्रद्धेय संस्थापक ने इसीलिए हमारे संगठन के लिए 'राष्ट्रीय' शब्द रखना तय किया। हमें एक बार फिर अपनी वास्तविक और पूरे कद के साथ खड़े होना है और पूरी ताकत के साथ यह बताना है कि हम महिमा और सम्मान के शिखर पर पहुंचने के लिए भारत में हिदू ऱाष्ट्रीय जीवन को फिर से वहीं ऊंचाई देंगे जो शुरुआती सुनहरे और धवल दिनों से लेकर अब तक इसका जन्मसिद्ध अधिकार रहा है। (पेज 127, बंच ऑफ थॉट, एमएस गोलवलकर.)

अहम बात यह है कि भारत के पहले गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल ने 27 अप्रैल, 1948 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखे एक पत्र में कहा था- “शायद ही इस बात पर जोर देकर कहने की जरूरत है कि एक लोकतांत्रिक शासन और इससे भी ज्यादा एक तानाशाही राज में भी एक कुशल, अनुशासित और आपस में जुड़ी हुई सेवाएं एक अनिवार्य शर्त हैं। ये सेवाएं हर हाल में पार्टी से ऊपर होनी चाहिए और हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राजनीतिक विचार को अगर पूरी तरह खत्म नहीं करते हैं तो घटा कर न्यूनतम कर दिया जाए, चाहें वे भर्तियों में हों या फिर अनुशासित और नियंत्रित हों।”

आरएसएस के हाथों संचालित नागरिक सेवाएं एक सेक्युलर संविधान के साथ काम नहीं कर सकतीं। उनकी निगाह में- "यह बिल्कुल संभव है कि संविधान के स्वरूप में कोई बदलाव लाए बिना, लेकिन  संविधान की आत्मा के खिलाफ प्रशासन के स्वरूप में बदलाव लाकर और लागू कर संविधान को विकृत कर दिया जाए।

सिविल सेवाओं की तटस्थता पर गंभीर असर डालने वाली इस कवायद के मद्देनजर संवैधानिक अधिकारों को बनाए रखने के लिए एक मंच की शुरुआत की गई है। हम इस अभियान में शामिल होने के लिए आप सबको न्योता देते हैं। 

जन-जागरूकता के लिए अंग्रेजी और हिंदी में तैयार सूचना पत्र की शृंखला की यह पहली कड़ी है। अगर आप इसे दूसरी भाषाओं में अनुवाद करना चाहते हैं तो कृपया इस पते पर संपर्क करें-
platform.constirights@gmail.com, sabrangind@gmail.com



सूचना पत्र नंबर- 1
आरएसएस-मुक्त भारत का निर्माण
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आरएसएस-मुक्त भारत का बिल्कुल सही आह्वान किया है। इसे केवल एक नारा और उम्मीद तक सीमित नहीं रहना चाहिए। शृंखला के इस पहले सूचना-पत्र में यह विचार पेश है कि संघ-मुक्त भारत के निर्माण के लिए गैर-भाजपा शासित राज्यों को सरकारी नीतियों के स्तर पर क्या करना चाहिए। इसके बाद यह बात आगे बढ़ेगी कि एक नागरिक के स्तर पर आप क्या कर सकते हैं।
 
आरएसएस-मुक्त भारत के लिए अभियान
1947 से लेकर आज तक माओवादियों और कुछ मुसलिम राजनीतिक संगठनों के अपवाद के अलावा यहां कोई और राजनीतिक धारा नहीं रही है जिसने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कुछ बिंदुओं पर आरएसएस के साथ संवाद नहीं किया। यह कहने की जरूरत है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद करने के मामले में बहुत कम ऐसे रहे, जिनके हाथ साफ रहे और जाने-अनजाने इसके सामने दिखने वाले संगठनों का जाल फैलता रहा। और अब यह छिपा हुआ शैतान परदे के पीछे से भारत को चला रहा है। वे भारत को हिंदुत्ववादी तानाशाही देश बनाने की ओर ले जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका सबसे अच्छा उदाहरण एक गुप्त रह कर काम करने वाला श्वेत नस्लवादी संगठन अफ्रीकानेर-ब्रॉयडरबॉन्ड है जो अफ्रीका में 1918 से ही श्वेत नस्लवादी राजनीतिक गतिविधियां चला रहा है।

एक सामान्य हिंदू को यह बताने की जरूरत है कि हिंदू होने और उस हिंदुत्व में क्या फर्क है जो आरएसएस परोसना और छल से उसका घालमेल करना चाहता है। लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ उनके विरोध का जाल ठीक वैसा ही है जैसे वाइमार गणतंत्र और संविधान के प्रति एडोल्फ हिटलर का था।

यह एक संगठन के झूठ के इतिहास को सामने रखने की कोई कोशिश नहीं है, जो महात्मा गांधी की हत्या के बाद से ही सारी दुनिया जानती रही है। ये सूचना-पत्र उन लोगों की ओर से एक ठोस लड़ाई की शुरुआत करने के लिए रोड-मैप मुहैया कराने की कोशिश है जो 1950 में लागू हुए भारत के संविधान में भरोसा रखते हैं और इसे बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं।
 
केंद्र, राज्य सरकारों और उनके महकमों को क्या करना चाहिए?
गैर-भारतीय जनता पार्टी शासित सभी राज्य सरकारों को केंद्रीय सिविल सेवाएं (आचरण) नियमावली यानी द सेंट्रल सिविल सर्विस (कंडक्ट) रूल्स, 1964 को सख्ती से लागू करना चाहिए। इस नियम साफ कहा गया है-

“(12) आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी संगठनों की गतिविधियों में सरकारी कर्मचारियों का भाग लेनाः
वित्त मंत्रालय आदि का ध्यान केंद्रीय सिविल सेवाएं (आचरण) नियमावली, 1964 के नियम 5 के उपनियम (1) के उपबंधों की ओर आकर्षित किया जाता है, जिसके अनुसार कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी भी राजनीतिक दल या राजनीति में भाग लेने वाले किसी राजनीतिक संगठन का सदस्य नहीं बन सकता। या उससे अन्यथा संबंध नहीं रख सकता या वह किसी राजनीतिक आंदोलन या गतिविधि में भाग नहीं ले सकता या उसकी सहातार्थ चंदा नहीं दे सकता या अन्य किसी  भी प्रकार से उसकी सहायता नहीं कर सकता।

2. सरकारी कर्मचारियों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमात-ए-इस्लामी का सदस्य बनने और इनकी गतिविधियों में भाग लेने के संबंध में कुछ संदेह व्यक्त किए गए हैं। इसलिए यहां स्पष्ट किया जाता है कि सरकार ने इन दोनों ही संगठनों की गतिविधियों को हमेशा ही एक-सा माना है कि यदि सरकारी कर्मचारी इनमें भाग लेंगे तो उन पर केंद्रीय सिविल सेवाएं (आचरण) नियमावली, 1964 के नियम 5 के उपनियम (1) के उपबंध लागू होंगे। इसलिए कोई भी सरकारी कर्मचारी यदि उक्त संगठनों का सदस्य बनेगा या अन्यथा उसकी गतिविधियों से संबंध रखेगा तो उसके खिलाफ अनुशासनिक कार्रवाई की जा सकेगी।

(गृह मंत्रालय का तारीख 30.11.1966 का का. ज्ञा. संख्या 3/10/(एस)/66-स्थापना (क) )
 
(12 क) उपरोक्त निर्णय (12) के संदर्भ में, अनुरोध है कि:
(क) इसके उपबंधों के संबंध में सभी सरकारी कर्मचारियों को दोबारा सूचना दी जाए, तथा
(ख) यदि किसी सरकारी कर्मचारी के बारे में मालूम हो कि उसने उपर्युक्त अनुदेशों का उल्लंघन किया है तो उसके विरुद्ध अवश्य कार्रवाई की जानी चाहिए।
(गृह मंत्रालय का तारीख 25 जुलाई, 1970 का का.ज्ञा. संख्या 7/4/70-स्थापना (ख) )
 
(12 ख) विभिन्न मंत्रालयों का ध्यान इस मंत्रालय के दिनांक 30 नवम्बर, 1966 के कार्यालय ज्ञापन संख्या 3/10 (एस)/66- स्थापना (ख) की ओर भी आकर्षित किया जाता है, जिसमें यह स्पष्ट कर दिया गया था कि सरकार ने सदा ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमात-ए-इस्लामी दोनों ही की गतिविधियों को ऐसे स्वरूप का माना है जिनमें सरकारी कर्मचारियों द्वारा भाग लिए जाने पर केंद्रीय सिविल सेवाएं (आचरण) नियमावली, 1964 के नियम 5 के उपनियम (1) के उपबंध लागू होंगे और ऐसा कोई भी सरकारी कर्मचारी, जो उपर्युक्त संगठनों का सदस्य है अथवा उनकी गतिविधियों में किसी दूसरे तरीके से संबद्ध है, अनुशासनिक कार्रवाई का भागी होगा।

2. देश में विद्यमान स्थिति के प्रसंग में, सरकारी कर्मचारियों के लिए धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण को दृढ़ करने की आवश्यकता सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है। इस बात पर अधिक बल दिए जाने की आवश्यकता है कि सांप्रदायिक भावनाओं और सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों का मूलोच्छेदन किया जाना चाहिए।

3. सरकार और इसके अधिकारियों, स्थानीय निकायों, राज्य सहायता प्राप्त संस्थाओं द्वारा सांप्रदायिक आधार वाली याचिकाओं या अभ्यावेदनों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए और किसी भी सांप्रदायिक संगठन को किसी तरह का संरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए।

4. अतः वित्त मंत्रालय आदि से अनुरोध है कि वह इस विषय पर पैरा-1 में उपर्युक्त उपबंधों को अपने अधीन कार्यरत सभी सरकारी कर्मचारियों के ध्यान में एक बार विशेष रूप से फिर ला दें। इस बात पर जोर दिया जाता है कि इन अनुदेशों की किसी अवहेलना को गंभीर  अनुशासनहीनता से भरा कार्य समझा जाए और दोषी कर्मचारियों के विरुद्ध उपयुक्त कार्रवाई शुरू की जाए।
(कार्मिक और प्रशासनिक सुधार विभाग का तारीख 28 अक्तूबर, 1980 का कार्यालय ज्ञापन संख्या 15014/3/एस/80-स्थापना (ख))
 
केंद्र सरकार के स्तर पर, भारत सरकार के सभी सचिव अपने संवैधानिक शपथ के मुताबिक केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियमावली को लागू करने के लिए बाध्य हैं।
लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने के मकसद से पहले ही यह अधिसूचना जारी कर अपने कर्मचारियों को आरएसएस का सदस्य बनने और इसकी शाखाओं में शामिल होने की इजाजत दे दी है। यह आदेश 23 फरवरी, 2015 को जारी हुआ था। अधिसूचना में कहा गया है कि जहां तक छत्तीसगढ़ सिविल सेवा (आचरण) नियमावली, 1965 के उपबंध 5 (1) का सवाल है, इसमें उल्लिखित प्रतिबंध आरएसएस के संबंध में लागू नहीं होंगे।

सन 2002 में केंद्र में एनडीए सरकार के दौरान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल ने सरकारी कर्मचारियों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर लगे प्रतिबंध को उठा लिया।
हिमाचल प्रदेश और मध्यप्रदेश की राज्य सरकारों ने इसी आशय की अधिसूचना क्रमशः सन 2004 और 2006 में जारी की। अब कांग्रेस पार्टी को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि शिमला में उनकी पार्टी की वर्तमान सरकार पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के उपर्युक्त आदेश को हर हाल में रद्द करे।

भाजपा द्वारा संघ को एक गैरराजनीतिक और सांस्कृतिक संगठन के तौर पर पेश करने की कोशिश हास्यास्पद है। संघ चुनावी प्रक्रियाओं में सीधे तौर पर भाग लेता है। वह संगठनात्मक कार्यों के लिए अपने प्रचारकों को भाजपा में भेजता है। ये प्रचारक संघ के साथ अपने रिश्ते बरकरार रखते हैं और संघ और भाजपा के बीच एक कड़ी का काम करते हैं। नरेंद्र मोदी, नितिन गडकरी और राजनाथ समेत कई अन्य संघ के प्रचारक ही रहे हैं।

भाजपा के मामले में, खासकर पार्टी के पदाधिकारियों और चुनाव में उम्मीदवार तय करने में संघ की इच्छा अंतिम मानी जाती है। संघ के नेता चुनाव सभाओं में सीधे तौर पर भाग नहीं लेते हैं, लेकिन परदे के पीछे मौजूद जरूर रहते हैं। संघ के प्रचारक भाजपा के चुनावी प्रचार तंत्र में होते हैं। यही नहीं, संघ के नेतागण राजनीतिक मुद्दों पर नियमित रूप से अपने विचार जाहिर करते रहते हैं।

केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियमावली में दर्ज प्रतिबंधों का मकसद प्रशासनिक अधिकारियों को राजनीतिक संगठनों और कार्यों में संलग्न होने से रोकना था। बेशक प्रशासनिक अधिकारियों को मतदान में भाग लेने, राजनीतिक दलों द्वारा आयोजित जनसभाओं में जाने और राजनीतिकों का भाषण सुनने की खुली छूट है। मगर सन 1969 में केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया था कि केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियमावली यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि सरकारी सेवक राजनीतिक रूप से न सिर्फ तटस्थ रहें, बल्कि ऐसा करते हुए दिखें भी। यह भी सुनिश्चित हो कि वे ऐसे किसी भी संगठन से न जुड़ें और उसकी किसी भी वैसी गतिविधियों में भाग न लें, जिसके जरा-सा भी राजनीतिक होने की संभावना हो। 

सन 1980 में केंद्र सरकार ने प्रशासनिक अधिकारियों को आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी की गतिविधियों में भाग न लेने देने के अपने निर्णय को दोहराया। सरकार ने कहा कि 'देश के वर्तमान हालात के मद्देनजर प्रशासनिक अधिकारियों के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को सुनिश्चित करना सबसे ज्यादा जरूरी है। सांप्रदायिक भावनाओं और पूर्वाग्रहों के उन्मूलन की जरूरत को अनदेखा नहीं किया जा सकता।'
27 अप्रैल, 1948 को जवाहरलाल नेहरू को भेजे गए एक पत्र में वल्लभ भाई पटेल ने लिखा- 'मुझे एक योग्य, अनुशासित और संतुष्ट सेवा की जरूरत के बारे में ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इसका महत्त्व एक निरंकुश शासन के मुकाबले एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ज्यादा है। इस किस्म की सेवा दलीय निष्ठा से हर हाल में परे हो।' और हमें यह सुनिश्चत करना चाहिए कि इसकी नियुक्ति प्रक्रिया, इसके अनुशासन और नियंत्रण के मामले में राजनीतिक आकांक्षाएं अगर पूरी तरह खत्म न की जा सकें, तो कम से कम हों।'

आरएसएस संचालित सिविल सेवा एक सेक्युलर संविधान के तहत काम नहीं कर सकती है। लेकिन 'संविधान की शक्ल को बिना बदले सिर्फ प्रशासन के ढांचे में बदलाव कर, परस्पर विरोधी बना कर और संविधान की आत्मा की मुखालफत कर इसे विकृत कर देना संभव है।' लोकतांत्रिक व्यवस्था एक पेशेवर और राजनीतिक तौर पर तटस्थ सिविल सेवा पर आधारित है। जबकि संघ वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था को कमजोर करने के अभियान में लगा हुआ है।

सन 2000 में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कहा था- 'मैंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा (संघ में) बिताया है। और मैं बता सकता हूं कि भाजपा में टिकट बांटने से लेकर कैबिनेट मंत्री चुने जाने तक, सब कुछ संघ तय करता है। इसके अलावा, राजनीतिक गतिविधि और क्या होती है..!'
 
तो अब क्या किया जाए?
सभी गैर-भाजपा सरकारें यह सुनिश्चत करें कि सभी विभागों के सभी कर्मचारी अपने कार्यस्थल पर एक आमसभा में सार्वजनिक रूप से यह शपथ लें कि उनकी निष्ठा सिर्फ भारत के वर्तमान संविधान के प्रति है। ऐसा हर एक कर्मचारी से लिखित शपथ पर हस्ताक्षर करवा भी किया जा सकता है। अनुरोध करने पर ऐसी प्रतिज्ञा का प्रारूप उपलब्ध है।

सभी राज्य सरकारों के सभी महकमे राज्य के मुख्यमंत्री के सामने इस आशय की रिपोर्ट जरूर पेश करें कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े विभिन्न संगठनों को राजकीय कोषागार से कितनी सब्सिडी या अनुदान मिलता है। इन सूचनाओं को सार्वजनिक वेबसाइटों पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए और इस किस्म की वित्तीय सहायता को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए।

मुख्यमंत्री सचिवालय में एक नोडल अधिकारी की नियुक्ति की जाए जो किसी सरकारी अधिकारी के संघ की शाखाओं में जाने या संघ के अन्य संगठनों की गतिविधियों में भाग लेने की जन-शिकायतों पर गौर करे। इस किस्म के सरकारी अधिकारियों तत्काल निलंबित करते हुए उसके खिलाफ केंद्रीय सेवा नियमावली के अनुरूप कड़ी कार्रवाई की जाए।

राज्यों में शिक्षा विभाग प्रसिद्ध शिक्षाविदों की एक समिति का गठन करे जो सरकारी स्कूलों और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों के पाठ्य-पुस्तकों और अन्य पाठ्य सामग्रियों की समीक्षा करे और उनमें सांप्रदायिक और अलगाव की भावना पैदा करने वाली सामग्रियों को हटाए।

पेशेवर कानूनी जानकारों का एक पैनल बने जो भारतीय दंड संहिता की धारा 153 (ए) के अनुरूप इस किस्म के उल्लंघनों की सूचना मिलने के नब्बे दिनों के भीतर आरोप-पत्र दाखिल करे।
हर राज्य में इस तरह के मामलों की सुनवाई के लिए विशेष न्यायालयों का गठन किया जाए। सुनवाई दैनिक आधार पर हो और किसी भी सूरत में कोई स्थगनादेश न दिया जाए।
सभी राज्य सरकारें शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा (2) की उप-धारा (सी) को सख्ती से लागू करें और संघ और बजरंग दल जैसे उनके अन्य संगठनों द्वारा लाठी, चाकू, तलवार का सार्वजनिक प्रदर्शन और हर साल विजयादशमी पर शस्त्रों के इस तरह सरेआम पूजन को प्रतिबंधित करें। जिलाधिकारियों को भारतीय दंड संहिता की धारा (141) और धारा (148) का सहारा लेना चाहिए।
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हम इस पर अन्य सुझावों का स्वागत करते हैं।
Ravi Nair, Tapan Bose, platform.constirights@gmail.com
Teesta Setalvad, teestateesta@gmail.com
Dr Sunilam, samajwadisunilam@gmail.com

 

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