प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करने वाले पाकिस्तान में बने वीडियो को साझा करने के आरोप में 'युद्ध छेड़ने' और भारतीय न्याय संहिता (BNS) की गंभीर धाराओं के तहत गिरफ्तार किए गए आरोपी सवेज को जमानत मिल गई है। अदालत ने अपने आदेश में आपराधिक पृष्ठभूमि न होने, जांच में प्रक्रियात्मक खामियां और अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित न्याय के अधिकार को आधार बनाते हुए जमानत दी। यह मामला कड़े आतंकवाद-रोधी कानूनों के दुरुपयोग और विवादास्पद या असहमति से जुड़ी अभिव्यक्तियों को 'राष्ट्रविरोधी' बताकर कार्रवाई करने की प्रवृत्ति पर सवाल खड़ा करता है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सवेज़ को जमानत दे दी है, जिस पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) और भारतीय न्याय संहिता (BNS) की गंभीर धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया था। उस पर आरोप है कि उसने अपने व्हाट्सएप स्टेटस पर पाकिस्तान में बना एक वीडियो साझा किया था, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणियां थीं और पुलवामा तथा पहलगाम आतंकी हमलों के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया गया था।
न्यायमूर्ति संतोष राय ने आदेश देते हुए कहा कि अनिश्चितकालीन मुकदमे से पहले की हिरासत (pre-trial incarceration) को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता, विशेषकर तब जब मुकदमे के निष्कर्ष तक पहुंचने की कोई स्पष्ट समयसीमा नहीं है। LiveLaw के अनुसार, अदालत ने जेलों में भीड़भाड़ जैसी प्रणालीगत समस्याओं और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित न्याय की गारंटी को भी ध्यान में रखा।
प्रॉसिक्यूशन का पक्ष
अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि सवेज ने अपने व्हाट्सएप स्टेटस पर एक ऐसा वीडियो अपलोड किया, जिसे पाकिस्तान में तैयार किया गया था। इस वीडियो में ऐसी सामग्री थी, जो सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने, सामाजिक व्यवस्था को बाधित करने और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने की क्षमता रखती थी। FIR में गंभीर आरोप लगाए गए, जिनमें “भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने”, संप्रभुता और एकता को खतरे में डालने वाले कृत्य, और UAPA की धारा 13A शामिल हैं।
LiveLaw की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य सरकार ने सवेज़ को जमानत देने का कड़ा विरोध किया। सरकार का तर्क था कि इस तरह की भड़काऊ सामग्री प्रसारित करना राष्ट्रीय एकता के लिए नुकसानदेह है और आरोपी को रिहा करना ऐसे कृत्यों की पुनरावृत्ति को प्रोत्साहित कर सकता है।
बचाव पक्ष का पक्ष
Bar & Bench की रिपोर्ट के अनुसार, बचाव पक्ष ने प्रक्रियागत खामियों को उजागर किया। वकील ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि आरोपी ने वह वीडियो खुद नहीं बनाया था, बल्कि केवल उसे फॉरवर्ड किया था, जिससे यह गंभीर सवाल उठता है कि क्या उस पर लगाए गए गंभीर धाराएं वास्तव में लागू होती हैं। बचाव पक्ष के वकील ने आगे यह भी तर्क दिया कि:
● मोबाइल फोन की बरामदगी फर्जी थी और प्लांटेड था।
● जांच के दौरान किसी स्वतंत्र गवाह की गवाही नहीं ली गई, जिससे पूरे साक्ष्य की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा होता है।
● भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धाराएं 353(2), 147, 152, 196, 197(1)(d) और UAPA की धारा 13A को गलत तरीके से लागू किया गया, क्योंकि इन अपराधों के लिए जो मूलभूत तत्व आवश्यक होते हैं, वे इस मामले में मौजूद नहीं हैं।
अदालत के निष्कर्ष
अदालत ने बचाव पक्ष की दलीलों में दम पाया, विशेष रूप से दो पहलुओं के आधार पर:
1. आवेदक का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था।
2. चार्जशीट पहले ही दाखिल की जा चुकी थी, जिससे यह संभावना भी कम हो गई कि आरोपी जांच को प्रभावित कर सकता है।
अदालत ने आरोपों की गंभीरता और संविधान में निहित अधिकारों के संतुलन पर बल देते हुए कहा कि, "जमानत नियम है और जेल अपवाद" चाहे मामला गंभीर ही क्यों न हो-जब तक कि हिरासत को उचित ठहराने के लिए ठोस परिस्थितियां मौजूद न हों। इन तथ्यों के आधार पर, अदालत ने सवेज़ को व्यक्तिगत बांड और दो मजबूत जमानतदारों के साथ जमानत दी, इस शर्त पर कि वह सबूतों से छेड़छाड़ नहीं करेगा, गवाहों को धमकाएगा नहीं, और अनावश्यक स्थगन (adjournment) की मांग नहीं करेगा।
आदेश का महत्व
यह आदेश कई कारणों से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। सबसे पहले, यह UAPA के लगातार हो रहे दुरुपयोग को उजागर करता है, जहां सिर्फ किसी विवादित सामग्री को साझा करना-बिना उसे खुद बनाने, किसी आपराधिक मंशा के या आतंकवादी गतिविधि से कोई स्पष्ट संबंध होने के-को राष्ट्रीय सुरक्षा के गंभीर अपराध की तरह पेश किया जाता है। इसके अलावा, भारतीय न्याय संहिता (BNS) के तहत युद्ध छेड़ने जैसे प्रावधानों का इस्तेमाल ऐसे मामलों में किया जाना असंगत (disproportionate) लगता है। इससे न केवल इन अपराधों की गंभीरता कम होती है, बल्कि ऑनलाइन अभिव्यक्ति जैसे अपेक्षाकृत छोटे कृत्यों को भी कठोर राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों के दायरे में लाया जाता है।
दूसरा, यह निर्णय इस बात की फिर से पुष्टि करता है कि संविधान का अनुच्छेद 21 -जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है - मनमाने और लंबित कारावास (prolonged incarceration) से भी रक्षा करता है, चाहे मामला तथाकथित "राष्ट्रीय सुरक्षा" से ही क्यों न जुड़ा हो। अदालतों को अब पहले से कहीं ज्यादा राज्य द्वारा उठाए गए सुरक्षा संबंधी दावों और नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के बीच संतुलन बनाने के लिए हस्तक्षेप करना पड़ रहा है।
आखिरकार, यह मामला जांच प्रक्रिया की अति-व्यापकता (overbreadth) को भी उजागर करता है, जिसमें अक्सर प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों-जैसे कि स्वतंत्र गवाहों की मौजूदगी और सबूतों की विश्वसनीय बरामदगी-को नजरअंदाज कर दिया जाता है। यह तथ्य कि अभियोजन ने स्वयं यह स्वीकार किया कि आरोपी ने वीडियो बनाया नहीं, केवल उसे साझा किया था, इस बात पर गंभीर सवाल उठाता है कि क्या ऐसा आचरण वास्तव में “आतंकी गतिविधि” या “युद्ध छेड़ने” जैसे गंभीर अपराधों की कसौटी पर खरा उतरता है?
हालांकि हाई कोर्ट का यह निर्णय एक जरूरी हस्तक्षेप है, लेकिन यह एक गंभीर संरचनात्मक समस्या की ओर भी इशारा करता है कि UAPA जैसे कठोर आतंकवाद विरोधी कानूनों का सामान्य असहमति या विवादास्पद अभिव्यक्ति जैसे अपेक्षाकृत मामूली कृत्यों पर लागातार इस्तेमाल किया जा रहा है।
इस तरह का दुरुपयोग न केवल न्याय प्रणाली को बोझिल बनाता है, बल्कि इन कानूनों के असाधारण और विशिष्ट उद्देश्य को भी कमजोर करता है।
Related

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सवेज़ को जमानत दे दी है, जिस पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) और भारतीय न्याय संहिता (BNS) की गंभीर धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया था। उस पर आरोप है कि उसने अपने व्हाट्सएप स्टेटस पर पाकिस्तान में बना एक वीडियो साझा किया था, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणियां थीं और पुलवामा तथा पहलगाम आतंकी हमलों के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया गया था।
न्यायमूर्ति संतोष राय ने आदेश देते हुए कहा कि अनिश्चितकालीन मुकदमे से पहले की हिरासत (pre-trial incarceration) को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता, विशेषकर तब जब मुकदमे के निष्कर्ष तक पहुंचने की कोई स्पष्ट समयसीमा नहीं है। LiveLaw के अनुसार, अदालत ने जेलों में भीड़भाड़ जैसी प्रणालीगत समस्याओं और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित न्याय की गारंटी को भी ध्यान में रखा।
प्रॉसिक्यूशन का पक्ष
अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि सवेज ने अपने व्हाट्सएप स्टेटस पर एक ऐसा वीडियो अपलोड किया, जिसे पाकिस्तान में तैयार किया गया था। इस वीडियो में ऐसी सामग्री थी, जो सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने, सामाजिक व्यवस्था को बाधित करने और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने की क्षमता रखती थी। FIR में गंभीर आरोप लगाए गए, जिनमें “भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने”, संप्रभुता और एकता को खतरे में डालने वाले कृत्य, और UAPA की धारा 13A शामिल हैं।
LiveLaw की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य सरकार ने सवेज़ को जमानत देने का कड़ा विरोध किया। सरकार का तर्क था कि इस तरह की भड़काऊ सामग्री प्रसारित करना राष्ट्रीय एकता के लिए नुकसानदेह है और आरोपी को रिहा करना ऐसे कृत्यों की पुनरावृत्ति को प्रोत्साहित कर सकता है।
बचाव पक्ष का पक्ष
Bar & Bench की रिपोर्ट के अनुसार, बचाव पक्ष ने प्रक्रियागत खामियों को उजागर किया। वकील ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि आरोपी ने वह वीडियो खुद नहीं बनाया था, बल्कि केवल उसे फॉरवर्ड किया था, जिससे यह गंभीर सवाल उठता है कि क्या उस पर लगाए गए गंभीर धाराएं वास्तव में लागू होती हैं। बचाव पक्ष के वकील ने आगे यह भी तर्क दिया कि:
● मोबाइल फोन की बरामदगी फर्जी थी और प्लांटेड था।
● जांच के दौरान किसी स्वतंत्र गवाह की गवाही नहीं ली गई, जिससे पूरे साक्ष्य की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा होता है।
● भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धाराएं 353(2), 147, 152, 196, 197(1)(d) और UAPA की धारा 13A को गलत तरीके से लागू किया गया, क्योंकि इन अपराधों के लिए जो मूलभूत तत्व आवश्यक होते हैं, वे इस मामले में मौजूद नहीं हैं।
अदालत के निष्कर्ष
अदालत ने बचाव पक्ष की दलीलों में दम पाया, विशेष रूप से दो पहलुओं के आधार पर:
1. आवेदक का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था।
2. चार्जशीट पहले ही दाखिल की जा चुकी थी, जिससे यह संभावना भी कम हो गई कि आरोपी जांच को प्रभावित कर सकता है।
अदालत ने आरोपों की गंभीरता और संविधान में निहित अधिकारों के संतुलन पर बल देते हुए कहा कि, "जमानत नियम है और जेल अपवाद" चाहे मामला गंभीर ही क्यों न हो-जब तक कि हिरासत को उचित ठहराने के लिए ठोस परिस्थितियां मौजूद न हों। इन तथ्यों के आधार पर, अदालत ने सवेज़ को व्यक्तिगत बांड और दो मजबूत जमानतदारों के साथ जमानत दी, इस शर्त पर कि वह सबूतों से छेड़छाड़ नहीं करेगा, गवाहों को धमकाएगा नहीं, और अनावश्यक स्थगन (adjournment) की मांग नहीं करेगा।
आदेश का महत्व
यह आदेश कई कारणों से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। सबसे पहले, यह UAPA के लगातार हो रहे दुरुपयोग को उजागर करता है, जहां सिर्फ किसी विवादित सामग्री को साझा करना-बिना उसे खुद बनाने, किसी आपराधिक मंशा के या आतंकवादी गतिविधि से कोई स्पष्ट संबंध होने के-को राष्ट्रीय सुरक्षा के गंभीर अपराध की तरह पेश किया जाता है। इसके अलावा, भारतीय न्याय संहिता (BNS) के तहत युद्ध छेड़ने जैसे प्रावधानों का इस्तेमाल ऐसे मामलों में किया जाना असंगत (disproportionate) लगता है। इससे न केवल इन अपराधों की गंभीरता कम होती है, बल्कि ऑनलाइन अभिव्यक्ति जैसे अपेक्षाकृत छोटे कृत्यों को भी कठोर राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों के दायरे में लाया जाता है।
दूसरा, यह निर्णय इस बात की फिर से पुष्टि करता है कि संविधान का अनुच्छेद 21 -जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है - मनमाने और लंबित कारावास (prolonged incarceration) से भी रक्षा करता है, चाहे मामला तथाकथित "राष्ट्रीय सुरक्षा" से ही क्यों न जुड़ा हो। अदालतों को अब पहले से कहीं ज्यादा राज्य द्वारा उठाए गए सुरक्षा संबंधी दावों और नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के बीच संतुलन बनाने के लिए हस्तक्षेप करना पड़ रहा है।
आखिरकार, यह मामला जांच प्रक्रिया की अति-व्यापकता (overbreadth) को भी उजागर करता है, जिसमें अक्सर प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों-जैसे कि स्वतंत्र गवाहों की मौजूदगी और सबूतों की विश्वसनीय बरामदगी-को नजरअंदाज कर दिया जाता है। यह तथ्य कि अभियोजन ने स्वयं यह स्वीकार किया कि आरोपी ने वीडियो बनाया नहीं, केवल उसे साझा किया था, इस बात पर गंभीर सवाल उठाता है कि क्या ऐसा आचरण वास्तव में “आतंकी गतिविधि” या “युद्ध छेड़ने” जैसे गंभीर अपराधों की कसौटी पर खरा उतरता है?
हालांकि हाई कोर्ट का यह निर्णय एक जरूरी हस्तक्षेप है, लेकिन यह एक गंभीर संरचनात्मक समस्या की ओर भी इशारा करता है कि UAPA जैसे कठोर आतंकवाद विरोधी कानूनों का सामान्य असहमति या विवादास्पद अभिव्यक्ति जैसे अपेक्षाकृत मामूली कृत्यों पर लागातार इस्तेमाल किया जा रहा है।
इस तरह का दुरुपयोग न केवल न्याय प्रणाली को बोझिल बनाता है, बल्कि इन कानूनों के असाधारण और विशिष्ट उद्देश्य को भी कमजोर करता है।
Related
धर्मांतरण विरोधी कानून : सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों से मांगा जवाब, अंतरिम रोक पर छह हफ्ते बाद सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट का निर्देश: कैंपस में जातिगत भेदभाव रोकने के लिए UGC को 8 हफ्ते में सख्त नियम तैयार करने होंगे!