ट्रांसजेंडर महिला को कानूनी रूप से 'महिला' माना जाएगा : आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय

Written by A Legal Researcher | Published on: July 2, 2025
विश्‍वनाथन कृष्णमूर्ति मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का हालिया निर्णय भारत में ट्रांसजेंडर अधिकारों की कानूनी मान्यता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह निर्णय इस मायने में खास तौर से महत्वपूर्ण है कि यह एक मिसाल स्थापित करता है कि घरेलू हिंसा से संरक्षण के कानून ट्रांस महिलाओं पर भी लागू होते हैं, यदि वे विषमलैंगिक विवाह (heterosexual marriages) में हों।


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आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने 16 जून 2025 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया जो ट्रांसजेंडर अधिकारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इस निर्णय में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि एक ट्रांसजेंडर महिला को कानूनी रूप से 'महिला' माना जाएगा और वह भारत के वैवाहिक क्रूरता के खिलाफ बनाए गए कानूनों के तहत संरक्षण की मांग कर सकती है। हालांकि, इसी के साथ न्यायालय ने यह कहते हुए उस विशेष क्रूरता के मामले को खारिज भी कर दिया कि लगाए गए आरोप इतने ठोस नहीं थे कि मामले की सुनवाई आगे बढ़ाई जा सके।

ये मामला विश्‍वनाथन कृष्णमूर्ति एवं अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य एवं अन्य से संबंधित है, जिसमें 24 वर्षीय ट्रांस महिला पोकाला सभाना द्वारा की गई शिकायत शामिल थी। उन्होंने आरोप लगाया कि उनके पति विश्‍वनाथन कृष्णमूर्ति और उनके परिवार ने उन्हें प्रताड़ित और उत्पीड़न किया। सभाना ने अपनी शिकायत भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498-ए के तहत दर्ज कराई जो विशेष रूप से पत्नियों को उनके पतियों और ससुरालवालों द्वारा किए गए दुर्व्यवहार और हिंसा से बचाने के लिए बनाई गई है।

इसने न्यायालय के समक्ष दो महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए: पहला, क्या एक ट्रांस महिला को इस कानून के तहत 'महिला' माना जा सकता है? दूसरा, क्या लगाए गए आरोप इतने पर्याप्त हैं कि उनके आधार पर आपराधिक मुकदमा चलाया जा सके? पहले प्रश्न के उत्तर में न्यायालय ने स्पष्ट रूप से “हां” कहा, जबकि दूसरे प्रश्न पर उसका उत्तर बिल्कुल “ना” था।

कानून के तहत ट्रांस महिला एक ‘महिला’ है

पति और उसके परिवार ने यह तर्क दिया कि सभाना को भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत ‘महिला’ नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह संतान उत्पन्न नहीं कर सकतीं और इस कारण से वे उनके अनुसार “पूर्ण रूप से महिला” नहीं हैं।

न्यायमूर्ति डॉ. वेंकट ज्योतिर्मयी प्रतापा ने इस तर्क को खारिज कर दिया और इसे “गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण और कानूनी रूप से अस्वीकृत” करार दिया। न्यायालय का तर्क स्थापित कानूनी सिद्धांतों पर आधारित था:

● महिलाओं की पहचान प्रजनन क्षमता से नहीं होती: न्यायालय ने कहा कि महिला होने को केवल संतान उत्पन्न करने की क्षमता से जोड़ना “संविधान की उस भावना को कमजोर करता है, जो हर व्यक्ति की गरिमा, पहचान और समानता को कायम रखती है।”

● लैंगिक पहचान को स्वयं निर्धारित करने का अधिकार: यह निर्णय मुख्य रूप से सर्वोच्च न्यायालय के 2014 के नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी (NALSA) बनाम भारत संघ मामले पर आधारित था। NALSA मामले ने स्थापित किया कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी लैंगिक पहचान स्वयं निर्धारित करने का मौलिक अधिकार है और राज्य के लिए आवश्यक है कि वह इस पहचान को कानूनी रूप से स्वीकार और मान्यता दे।

● विवाह का अधिकार: न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के 2023 के विवाह समानता मामले सुप्रियो उर्फ सुप्रिया चक्रवर्ती बनाम भारत संघ का भी हवाला दिया। हालांकि उस मामले में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता नहीं मिली, फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति से यह निर्णय दिया कि “ट्रांसजेंडर लोगों को विषमलैंगिक संबंधों में मौजूदा कानून के तहत विवाह करने का अधिकार प्राप्त है।”

● संवैधानिक संरक्षण: चूंकि सभाना और मुरथी का विवाह कानूनी रूप से वैध था, इसलिए धारा 498-ए के तहत उसे सुरक्षा प्रदान करने से इनकार करना उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा, जिसमें समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), भेदभाव न होने का अधिकार (अनुच्छेद 15) और गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार (अनुच्छेद 21) शामिल हैं।

इसी आधार पर न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि विषमलैंगिक विवाह में एक ट्रांस महिला को भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत संरक्षण का अधिकार प्राप्त है।

मामला क्यों खारिज किया गया

इस ऐतिहासिक निर्णय के बावजूद न्यायालय ने मुरथी और उनके परिवार के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई को रद्द कर दिया। इसका कारण पूरी तरह से प्रक्रिया संबंधी था: सभाना की शिकायत में धारा 498-ए के तहत क्रूरता के आरोपों को मजबूत करने के लिए आवश्यक विशिष्ट विवरणों की कमी थी।

न्यायालय ने आरोपों को बहुत ही कमजोर और अधूरा बताया, मतलब कि ये बातें इतनी साफ और ठोस नहीं थीं कि उन पर कोई केस चलाया जा सके। खास तौर पर अदालत ने ये कमियां बताईं:

● पति के खिलाफ: शिकायत में कहा गया कि वह शादी के बाद दो महीने भी नहीं बिताए थे कि घर छोड़ गया और बाद में उसके फोन से उसे धमकी भरा संदेश भी मिला। लेकिन इसमें यह नहीं बताया गया कि साथ रहने के दौरान उसने कोई खास शारीरिक या मानसिक क्रूरता की हो।

● ससुरालवालों के खिलाफ: सभाना ने अपनी शिकायत में कहा कि उनके ससुराल वाले उनके साथ “अच्छे रिश्ते” बनाए रखे हुए थे। नकारात्मक शिकायत केवल इतना था कि वे अपने बेटे को विदेश भेजने की कोशिश कर रहे थे, जो कोई अपराध नहीं है।

● एक अन्य रिश्तेदार के खिलाफ: एक चौथे व्यक्ति पर केवल एक ही वाक्य में आरोप लगाया गया था कि वह दूसरों को निर्देश दे रहा था, लेकिन इसके कोई ठोस सबूत या विवरण नहीं दिए गए थे।

न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों का हवाला दिया, जो धारा 498-ए के दुरुपयोग के प्रति सतर्क करते हैं। व्यक्तिगत झगड़ों को निपटाने के लिए इस कानून का गलत इस्तेमाल रोकने के लिए, अदालतें शिकायतों में हर आरोपी के खिलाफ स्पष्ट और विशिष्ट आरोपों की मांग करती हैं। चूंकि सभाना की शिकायत इस मानक पर खरी नहीं उतरी, इसलिए न्यायालय ने फैसला सुनाया कि मामले को आगे बढ़ने देना “कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग” होगा।

विश्‍वनाथन कृष्णमूर्ति मामले में दिया गया यह फैसला भारत में ट्रांसजेंडर अधिकारों की कानूनी मान्यता के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। इस फैसले ने मिसाल कायम की है कि घरेलू हिंसा से सुरक्षा के कानून विषमलैंगिक विवाहों में ट्रांस महिलाओं पर भी लागू होते हैं।

यूके और अमेरिका जैसे देशों में ट्रांस लोगों को बाहर रखने वाली कट्टर नीतियां और संस्थान देखने को मिल रहे हैं, जिनमें जेके रॉलिंग और डोनाल्ड ट्रम्प जैसी हस्तियां शामिल हैं। उदाहरण के तौर पर, हाल ही में यूके के सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि महिला की कानूनी परिभाषा जैविक लिंग पर आधारित होती है।[1] ऐसे फैसले भारत में उभरते संवेदनशील विमर्श को उजागर करते हैं, जिसमें हमारी शक्तिशाली न्यायपालिका का योगदान महत्वपूर्ण है। हालांकि, यह ध्यान रखना जरूरी है कि न्यायिक निर्णय अकेले क्वीयर विवाह को मान्यता देने वाले व्यापक कानून की आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकते और ना ही पूरा करेंगे। इस तरह के कानून के लिए एक लोकतांत्रिक और पारदर्शी विधायी प्रक्रिया आवश्यक होगी, जो इस खामियों को दूर कर सके।

(लेखक इस संगठन की लीगल रिसर्च टीम के सदस्य हैं)

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