विजुअल परसेप्शन एक स्वाभाविक रूप से चयनात्मक प्रक्रिया है, और भारतीय व्यावसायिक टेलीविजन चैनल अब इसका इस्तेमाल एक नई रणनीति के रूप में कर रहे हैं। NBDSA (न्यूज ब्रॉडकास्टिंग एंड डिजिटल स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी) के सख्त आदेशों का सामना कर रहे ये चैनल भ्रामक क्लिक-बेट हेडलाइनों, आपत्तिजनक विज़ुअल्स और थंबनेल्स में भड़काऊ टेक्स्ट के ज़रिए दर्शकों का ध्यान खींचने की कोशिश कर रहे हैं। इस प्रवृत्ति पर सवाल उठाते हुए CJP-HW टीम ने पूछा है: क्या यह प्रतिक्रियाओं को भड़काने और निगरानी से बचने की एक नई तकनीक है?

विशेषज्ञों के अनुसार, विजुअल परसेप्शन विचार और भावना दोनों को प्रभावित करता है। भारतीय वाणिज्यिक टेलीविजन चैनल, जो पहले ही खुद को सत्ताधारी ताकतों के मुखपत्र के रूप में स्थापित कर चुके हैं, पिछले एक दशक से विभाजनकारी राजनीति को बढ़ावा देने के लिए विजुअल कम्युनिकेशन का दुरुपयोग कर रहे हैं, विशेषकर सत्तारूढ़ विचारधारा के अनुरूप।
हाल के वर्षों में इन चैनलों को विश्वसनीयता की चुनौती, यूट्यूब जैसे स्वतंत्र मीडिया से प्रतिस्पर्धा, और NBDSA द्वारा जारी दिशानिर्देशों व वीडियो हटाने के आदेशों से सामना करना पड़ा है। ऐसे में ये चैनल अब वही सनसनीखेज डिजिटल टूल्स—जैसे थंबनेल और भड़काऊ टेक्स्ट—का इस्तेमाल चालाकी से कर रहे हैं, जिन्हें पहले बेशर्मी से सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने के लिए इस्तेमाल किया जाता था।
CJP हेट वॉच टीम द्वारा किया गया यह विश्लेषण इस चिंताजनक प्रवृत्ति की पड़ताल करता है।
भ्रामक क्लिकबेट, विजुअल और टेक्स्ट का सुनियोजित उपयोग देश के सांप्रदायिक सौहार्द को खतरे में डाल रहा है और सीधे हिंसा भड़काने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है। ज़ी न्यूज़, टाइम्स नाउ नवभारत, आजतक और न्यूज़ 18 इंडिया जैसे चैनल अपनी रिपोर्टिंग के तरीकों को लेकर अब जांच के घेरे में हैं। 2022, 2023 और 2024 में NBDSA द्वारा पारित आदेश इस प्रवृत्ति की पुष्टि करते हैं, जिनकी प्रतियां CJP के पास उपलब्ध हैं।
CJP का उद्देश्य है नफरत फैलाने वाले बयानों को सामने लाकर कट्टरपंथियों को बेनकाब करना और उन्हें न्याय के कटघरे में लाना। हमारे अभियान के बारे में अधिक जानने और सहयोग देने के लिए, कृपया सदस्य बनें या दान करें।
अब, NBDSA के दिशानिर्देशों से बचने के लिए, चैनलों ने एक नया रुख अपनाया है। वे अब असदुद्दीन ओवैसी जैसे मुस्लिम नेताओं की छवियों का उपयोग मुस्लिम समुदाय से जुड़ी किसी भी खबर में करते हैं, भले ही उनका सीधा संबंध न हो। यह ‘विज़ुअल शॉर्टहैंड’ एक खतरनाक स्टीरियोटाइप को मजबूत करता है, जो मुस्लिम पहचान को आक्रामक और एकरूपी दर्शाने की कोशिश करता है।
हालाँकि, जब हमारी टीम ने पूरे शो और एंकरिंग का विश्लेषण किया, तो वह अपेक्षाकृत निष्पक्ष प्रतीत हुआ। लेकिन असली चाल थंबनेल में थी, जहाँ भड़काऊ तस्वीरें और शब्द दर्शकों को क्लिक करने के लिए उकसाते हैं।
मुर्शिदाबाद हिंसा (विवादास्पद वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 के बाद) जैसी हालिया घटनाओं पर रिपोर्टिंग भी इस प्रवृत्ति की पुष्टि करती है। रिपोर्टिंग में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तस्वीरों और पंक्तियों जैसे "योगी एक्शन" या "योगी स्टाइल एक्शन" का अत्यधिक उपयोग, भले ही खबर यूपी से संबंधित न हो, दर्शकों के मन में एक आक्रामक छवि बैठाने की कोशिश प्रतीत होती है। यह रणनीति एक खास दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर तैयार की जाती है।
इसके अलावा, बंगाल में मुस्लिम वर्चस्व और “मजबूर हिंदू पलायन” जैसे नैरेटिव थोपना, और साथ ही योगी-ममता थंबनेल का विरोधाभासी उपयोग, इन आशंकाओं को और बढ़ाते हैं। इस प्रकार के विजुअल्स दर्शकों के बीच भय, संदेह और घृणा का वातावरण पैदा कर सकते हैं। भाषा और दृश्यों के चयन में नैतिकता की कमी भारतीय मीडिया के एक हिस्से के लिए चिंताजनक संकेत है।
वक्फ अधिनियम पर बहस की कवरेज इस ट्रेंड को और उजागर करती है। ओवैसी की छवि और "मौलाना, मौलाना" जैसे शब्दों का दोहराव मुस्लिम धार्मिक नेतृत्व को बदनाम करने की एक रणनीति दिखाता है। यह खबरों को जानबूझकर सांप्रदायिक चश्मे से दिखाने का प्रयास है, जो सामाजिक विभाजन को गहरा कर सकता है।
चयनात्मक विजुअल कम्युनिकेशन और इसका नकारात्मक प्रभाव
जैसा कि विजुअल कम्युनिकेशन के विशेषज्ञ कहते हैं, यह स्वाभाविक रूप से एक चयनात्मक प्रक्रिया है। इस तरह की चुनी हुई और बार-बार दोहराई जाने वाली ध्यान खींचने वाली रणनीति का लोगों और समाज पर भावनात्मक असर पड़ता है। जब हमारा ध्यान लगातार डर या खतरे से जुड़ी बातों की ओर मोड़ा जाता है, तो हम अपने आसपास की संतुलित और सामान्य जानकारी को नज़रअंदाज़ करने लगते हैं। नतीजतन, हम लगातार परेशान करने वाले विचारों में उलझे रहते हैं। रिसर्च बताती है कि इस तरह की अटेंशनल बायस, भावनात्मक असंतुलन और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी दिक्कतों का एक कारण बन सकती है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से भारतीय समाज को जानबूझकर फैलाए गए नकारात्मक और पक्षपाती नैरेटिव्स का सामना करना पड़ा है — ऐसी सोच और सामग्री जो ख़ास तौर पर कुछ समुदायों को अलग-थलग करने और राजनीतिक रूप से निशाना बनाने के मकसद से तैयार की गई है। यह एक सोची-समझी रणनीति रही है, जिसका असर समाज में भेदभाव और दरार को बढ़ाने के रूप में दिख रहा है।
जैसा कि द डिजिटल कब (The Digital Kab) से अटेंशनल संबंधी पूर्वाग्रह पर सिंपल विजुअल एक्सप्लेनेशन हमें बताता है कि चयनात्मक धारणा के चार प्रकार हैं।

सेलेक्टिव परसेप्शन के चार चरणों में शामिल हैं:
सेलेक्टिव एक्सपोजर, सेलेक्टिव अटेंशन, सेलेक्टिव कंप्रिहेंशन और सेलेक्टिव रिटेंशन
रिपोर्ट और कम्युनिकेशन में तटस्थता तय करने के लिए एक प्रतिबद्ध, गैर-पक्षपाती दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है। सरल भाषा में कहें तो — खुले दिमाग वाला होना। वास्तव में, खुले दिमाग वाला और सहानुभूतिपूर्ण होना धारणा पूर्वाग्रह से बचने के सर्वोत्तम तरीकों में से एक माना जाता है। एक ऐसे समाज में, जो परंपरागत रूप से विविधता और बहुलता पर टिका रहा है, वहां ज़रूरी है कि लोग लगातार अलग-अलग तरह के लोगों, रायों और संस्कृतियों से रूबरू हों। जितनी ज़्यादा सोच-समझकर और ढंग से अलग-अलग लोगों और नज़िरयों को दिखाया जाएगा, पुराने जमे-जमाए सोच और रूढ़ियों को तोड़ने में उतना ही ज़्यादा असरदार होगा।
सीजेपी एचडब्ल्यू की टीम ने पिछले हफ्तों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कवरेज और विजुअल का अध्ययन और विश्लेषण किया और हमने जो पाया वह इस तरह है।
जी न्यूज
जी न्यूज, लगातार दर्शकों की संख्या बढ़ाने की होड़ में, अक्सर जल्दबाज़ी और असंवेदनशील रिपोर्टिंग करता है, जिससे तथ्यात्मक सटीकता और संदर्भ की अनदेखी होती है। चैनल को अपने सांप्रदायिक और भ्रामक प्रसारणों के लिए एनबीडीएसए से जुर्माने के साथ-साथ फटकार का सामना करना पड़ा है। इसके थंबनेल और क्लिकबेट रणनीति अक्सर रूढ़िवादिता और सनसनी को बढ़ाती है।
सच्चाई से ज़्यादा कल्पना: रेटिंग के लिए जी न्यूज की दौड़
वक्फ अधिनियम के मुद्दे पर अपने कवरेज में, जी न्यूज ने भड़काऊ हिंदी कैप्शन का इस्तेमाल किया, जैसे — “जिसका डर था वही हुआ! वक्फ कानून पर तगड़ा झटका, मुसलमानों में जश्न”, “सुप्रीम कोर्ट का आदेश! खुद ही फंस गए मुसलमान” और “सुप्रीम कोर्ट से फैसला, 21 करोड़ मुसलमानों में भगदड़! लाइव”। ये शब्दावली एक तरह का नाटकीय तनाव पैदा करने की कोशिश करती थी और मुस्लिम समुदाय को नकारात्मक रूप में पेश करने का प्रयास करती थी, जैसे कि किसी मुश्किल या सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई से होने वाली घबराहट पर वो खुशी मना रहे हों। (हालांकि मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।)
ध्रुवीकरण वाला थंबनेल: सत्ता के प्रतीक बनाम ‘अन्य’
इसके अलावा, थंबनेल में अक्सर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की तस्वीरों के साथ “वक्फ बिल पर पलटे 24 करोड़ मुसलमान, पूरा देश हड़कंप! 3000 करोड़ की संपत्ति जब्त” और “मोदी को ऐसी सज़ा देंगे! मौलानाओं ने दी है धमकी, लाखों मुसलमानों ने घेर लिए 6 शहर” जैसे टेक्स्ट लिखे गए। इनका उद्देश्य वक्फ बिल को मुस्लिम समुदाय द्वारा कथित राष्ट्रव्यापी उथल-पुथल से जोड़ना था, इसे एक खतरे के रूप में पेश करना और अल्पसंख्यक समूह के खिलाफ कड़ी प्रतिक्रियाएं भड़काना था। मोदी और योगी आदित्यनाथ की तस्वीरों को शामिल करने का उद्देश्य संभवतः एक विशिष्ट दर्शक वर्ग को आकर्षित करना था, जो उनके राजनीतिक रुख का समर्थन करता है।

इस चैनल ने अपने थंबनेल में आक्रामक और सांप्रदायिक भाषा का इस्तेमाल किया, जैसे “अब आर-पार की जंग”, “मोदी को सज़ा देंगे”, “वक्फ गैंग को योगी का तगड़ा अल्टीमेटम” और अपमानजनक “मियां जी का नया ख़ौफ़ आ रहा है”। सनसनीखेज और रूढ़िवादिता को पुष्ट करने वाले अन्य थंबनेल में शामिल हैं — “15 मिनट... मुसलमानों को कोर्ट में देवकीनंदन का खुला चैलेंज, उछल पड़े मौलाना”, “दंगा ज़ोन में लाखों मुसलमान, वक्फ पर नया प्लान” और “आज़ादी... कर्नाटक घेरने निकले लाखों मुसलमान और फिर...”।
इन कैप्शंस ने मिलकर मुस्लिम समुदाय को ऐसे दिखाया, जैसे वो हमेशा प्रतिक्रिया देने वाले, हिंसा की ओर झुके हुए और ख़तरनाक हो सकते हैं। इससे न सिर्फ नकारात्मक रूढ़िवादिता को बढ़ावा मिला, बल्कि सनसनी फैलाने और ज़्यादा दर्शक खींचने के लिए इसे जानबूझकर किया गया। चैनल द्वारा इस तरह की भाषा और तस्वीरों के लगातार इस्तेमाल ने जिम्मेदार और तथ्यात्मक पत्रकारिता के बजाय सनसनीखेज और हानिकारक रूढ़िवादिता को प्राथमिकता देने के पैटर्न को उजागर किया।

टाइम्स नाउ नवभारत
टाइम्स नाउ नवभारत ने संवेदनशील विषयों पर सनसनीखेज और भ्रामक रिपोर्टिंग का एक पैटर्न दिखाया। एक प्रमुख रणनीति में थंबनेल में योगी आदित्यनाथ की तस्वीर का लगातार और अनावश्यक इस्तेमाल शामिल था, चाहे न्यूज़ की लोकेशन उत्तर प्रदेश से सीधे जुड़ी हो या न हो। योगी आदित्यनाथ की सोशल मीडिया पर काफ़ी फॉलोइंग को देखते हुए, यह रणनीति क्लिकबेट के ज़रिए दर्शकों की संख्या बढ़ाने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास लगता है।
सनसनी के लिए क्लिकबेट: योगी आदित्यनाथ की तस्वीर का रणनीतिक इस्तेमाल
उदाहरण के लिए, मुर्शिदाबाद हिंसा की अपनी कवरेज में चैनल ने “सीएम योगी ने खाई कसम, एक-एक हिंदू को बचाना है” और “लातों के भूत, बातों से: मुर्शिदाबाद हिंसा पर ममता से क्या बोले योगी” जैसे हिंदी कैप्शन का इस्तेमाल किया। योगी आदित्यनाथ की तस्वीर के साथ इस तरह के टेक्स्ट का इस्तेमाल करने का उद्देश्य नैरेटिव में एक हिंदू राष्ट्रवादी एंगल डालना था, जो उस राजनीतिक झुकाव के भीतर एक मजबूत, निर्णायक नेता के रूप में उनकी छवि को भुनाने के लिए था। इस सनसनीखेज फ्रेमिंग का उद्देश्य मौजूदा सोशल मीडिया ट्रेंड का फ़ायदा उठाकर दर्शकों को आकर्षित करना था, जहां उनके समर्थक अक्सर हिंसा की घटनाओं के जवाब में “योगी आदित्यनाथ स्टाइल एक्शन” जैसे वाक्यों का इस्तेमाल करते हैं।
वक्फ एक्ट कवरेज: कानूनी बारीकियों पर सांप्रदायिक फ्रेमिंग
इसी तरह, वक्फ अधिनियम की बहस पर चैनल की रिपोर्टिंग में योगी आदित्यनाथ को प्रमुखता से दिखाया गया, जिसमें “बाबा ‘बुलडोज़र निर्णय’ लेंगे, एससी से 555 का इंतज़ार” और “योगी की टेबल पर वक्फ की 1.25 लाख फाइलें” जैसे कैप्शन का इस्तेमाल किया गया। इस लगातार विजुअल और टेक्स्ट के संबंध के पीछे उद्देश्य मुद्दे को सांप्रदायिक बनाना था। हिंदुत्व के पक्ष में अपने रुख के लिए जाने जाने वाले एक मुख्यमंत्री को विशेष रूप से हाइलाइट करके, चैनल ने वक्फ अधिनियम की चर्चाओं को हिंदू-मुस्लिम आधार पर फ्रेम करने की कोशिश की, जो एक ख़ास दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर किया गया। कानून का वस्तुपरक विश्लेषण करने के बजाय, क्लिक बढ़ाने के लिए विषय को सनसनीखेज बनाना था।
वक्फ अधिनियम को कानूनी चुनौती देने की रिपोर्टिंग करते समय भी थंबनेल में लिखा था: “ओवैसी, सिब्बल, सिंघवी का चेहरा उतरा, सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ कानून पर मोदी का काम आसान कर दिया।” कानूनी चुनौती की ख़बर के साथ इस कैप्शन का उद्देश्य इसे मुस्लिम नेताओं और उनका प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों के लिए एक झटके के रूप में चित्रित करना था।
इंजीनियर्ड कन्फ्लिक्ट: तमाशा दिखाने के लिए नेताओं को खड़ा करना
चैनल ने असदुद्दीन ओवैसी और टी. राजा सिंह जैसे विरोधी व्यक्तित्वों को दिखाने वाले थंबनेल का भी इस्तेमाल किया, जिनके कैप्शन थे: “वक्फ बिल के विरोध में ओवैसी की हुंकार, टी. राजा ने दिया करारा जवाब।” विरोधी व्यक्तित्वों को एक साथ लाने के साथ-साथ टी. राजा सिंह के लिए असंवेदनशील और अपूर्ण वाक्यांश “तुम्हारा बाप भी…” ने संघर्ष और सनसनी पैदा करने का काम किया, दर्शकों को तीखी बहस के वादे के साथ अपनी ओर खींचा और संभावित रूप से विभाजनकारी भावनाओं को आकर्षित किया। इस दृष्टिकोण ने दर्शकों को वक्फ अधिनियम और संबंधित चर्चाओं की बारीक समझ देने की तुलना में सनसनीखेज और क्लिकबेट को प्राथमिकता दी।


आज तक
इसी तरह, आज तक भी सनसनीखेजता के समान पैटर्न में शामिल दिखाई दिया, हालांकि कम हद तक। वक्फ बिल से संबंधित इसके थंबनेल, जैसे कि “वक्फ का वक्त आ गया!” और “वक्फ बिल से मुसलमानों की ज़मीन छीनने वाली हैं?”, भले ही कुछ अन्य चैनलों की तुलना में कम स्पष्ट रूप से भड़काऊ थे, फिर भी इनमें सनसनीखेज और संभावित रूप से भ्रामक फ़्रेमिंग का इस्तेमाल किया गया। वाक्यांश “वक्फ का वक्त आ गया!” दर्शकों के दृष्टिकोण के आधार पर संभावित रूप से बेचैनी या उत्तेजना पैदा करने वाला एक अहम संकेत था। सवाल “वक्फ बिल से मुसलमानों की ज़मीन छीनने वाली हैं?” सीधे मुस्लिम समुदाय के भीतर संभावित चिंताओं को कुरेदता है, और बिना तथ्यात्मक संदर्भ दिए उनकी संपत्तियों के लिए खतरे का संकेत देता है।

यहां तक कि सवाल के रूप में भी, इस तरह का थंबनेल ग़लत सूचना फैलाने और क्लिक तथा दर्शकों को आकर्षित करने के लिए डर का इस्तेमाल कर सकता है। कुछ अन्य चैनलों की तरह खुले तौर पर सांप्रदायिक भाषा या छवियों का सहारा न लेते हुए, आज तक द्वारा इस तरह के थंबनेल का इस्तेमाल संवेदनशील धार्मिक और कानूनी मुद्दों को कवर करते समय सनसनी की ओर झुकाव को दर्शाता है, जो संभावित रूप से चिंता और संदेह के माहौल में योगदान देता है।
इंडिया टीवी
इंडिया टीवी ने भी अपनी रिपोर्टिंग में इस चिंताजनक प्रवृत्ति को दोहराया, जिसमें उत्तेजक और भ्रामक भाषा का इस्तेमाल किया गया, जो हानिकारक रूढ़ियों का समर्थन करती है। मुर्शिदाबाद हिंसा की अपनी कवरेज के दौरान, चैनल ने “मुर्शिदाबाद…10 हजार दंगाई निकले जुम्मे के बाद?” जैसे वाक्यांशों का इस्तेमाल किया। (जैसे: “ओवैसी का युद्ध का ऐलान, कितने मुसलमान उनके साथ हैं?”, “मोदी बनाम मुस्लिम बोर्ड” और “मोदी बनाम मौलाना”)।
क्लाइमेक्स-ओरिएंटेड थंबनेल: गहराई से ज़्यादा ड्रामा
इन कैप्शंस का मकसद था हिंसा को तुरंत धार्मिक दृष्टिकोण से पेश करना, मुस्लिम समुदाय को आक्रामक दिखाना (जैसे “10 हजार दंगाई”), और यह दिखाना कि मुस्लिम समुदाय (जो ओवैसी और “मुस्लिम बोर्ड” द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया था) और हिंदू बहुमत (जो मोदी द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया था) के बीच टकराव हो रहा है। इस सनसनीखेज तरीके से स्थिति को पेश करते समय मुद्दे की जटिलताओं को नज़रअंदाज़ किया गया, और मुख्य उद्देश्य समाज में और ज़्यादा बंटवारा पैदा करना प्रतीत होता है।


इसके अलावा, बिना किसी आधिकारिक पुष्टि या बयानों के, इंडिया टीवी ने “मुर्शिदाबाद से 10,000 हिंदू विस्थापित, मुस्लिम स्थापित” और “आज बंगाल के हिंदुओं का कलेजा फट गया” जैसे भयावह और निराधार दावों के साथ शो चलाए। ये भावनात्मक रूप से उकसाने वाली और अपुष्ट बातें हिंदू समुदाय में डर और नफ़रत फैलाने का काम करती हैं और मुस्लिमों को ऐसा दिखाती हैं जैसे वे हिंदुओं को उनकी जगह से हटा रहे हों।
इस चैनल द्वारा “मोदी से नफ़रत सख्त, मौलाना का वक्फ वक्फ!” वाक्यांश का इस्तेमाल इस पैटर्न का एक और उदाहरण है। वक्फ अधिनियम के विरोध में “मौलाना” (इस्लामी धर्मगुरु) को विशेष रूप से उजागर करके और इस विरोध को प्रधानमंत्री मोदी के प्रति “नफ़रत” से जोड़कर, चैनल का उद्देश्य मुस्लिम समुदाय के भीतर धार्मिक नेताओं को स्वाभाविक रूप से सरकार विरोधी और हिंदू नेता के प्रति दुश्मनी रखने वाले के रूप में प्रस्तुत करना था। यह जानबूझकर दिखाई गई तस्वीर मीडिया चैनलों के उस बड़े रुझान को बढ़ावा देती है, जहां धार्मिक पहचान का इस्तेमाल ख़बरों को सनसनीखेज बनाने और दर्शकों को आकर्षित करने के लिए किया जाता है, जिससे समाज में विभाजन गहरा होता है।

न्यूज़ 18 इंडिया
वक्फ मुद्दे पर न्यूज़ 18 इंडिया की कवरेज में ऐसे थंबनेल और शीर्षकों का इस्तेमाल किया गया जिन्हें सनसनीखेज और संभावित रूप से भ्रामक माना जा सकता है। “वक्फ एक्ट के बहाने जुटे मुस्लिम, क्या है असली एजेंडा?” जैसे वाक्यांश, “भू-माफिया या इस्लाम, वक्फ आ रहा किसके काम?”, “जुम्मे की नमाज़, मस्जिद अड्डा”, “प्रदर्शन से पहले, दिल्ली में मुसलमानों का जमावड़ा” और “वक्फ के खिलाफ दिल्ली में मुसलमानों का हल्ला बोल” जैसे शीर्षकों के साथ ओवैसी और मौलाना अरशद मदनी जैसी हस्तियों की तस्वीरें भी लगाई गईं। इससे एक जटिल मुद्दे को एक संकीर्ण और पक्षपाती नज़रिये से दिखाने का खतरा पैदा होता है। यह एंगल अनजाने में एकतरफा नैरेटिव बना सकता है, जो इस तरह की जल्दबाज़ और ध्यान खींचने वाली प्रस्तुतियों के व्यापक संदर्भ और संभावित नतीजों को नज़रअंदाज़ करता है।



इसी तरह, मुर्शिदाबाद हिंसा पर उनकी रिपोर्टिंग में “बजरंग दल की एंट्री, हिल गया पूरा बंगाल” और “दीदी… तेरे बंगाल में हिंदुओं की जान की कीमत क्या है?” जैसी हेडलाइनें हैं, जो सनसनी को प्राथमिकता देती लगती हैं। बजरंग दल को ‘रक्षक’ की भूमिका में दिखाना सांप्रदायिक आवाज़ को बढ़ा सकता है।
जबकि चैनल हिंदुओं की रक्षा करने में कथित रूप से विफल रहने के लिए टीएमसी सरकार की आलोचना करता है, यह पूरे राज्य में हिंसा को रोकने में सरकार की ज़िम्मेदारी पर व्यापक रूप से सवाल नहीं उठाता। रिपोर्टिंग का यह खास तरीका दुर्भाग्य से नैरेटिव को सांप्रदायिक बनाकर ज़्यादा दर्शक संख्या और टीआरपी रेटिंग को प्राथमिकता दे सकता है — संभवतः क्लाइमेक्स-ओरिएंटेड थंबनेल और क्लिकबेट के इस्तेमाल के जरिए, सद्भाव और सांप्रदायिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने की कीमत पर।
एनबीडीएसए और ऑन-एयर निगेटिविटी की निगरानी
पिछले छह वर्षों या उससे अधिक समय से, सशक्त नागरिक अभियानों ने कई इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चैनलों से उनकी रिपोर्टिंग और कवरेज में जवाबदेही की मांग की है। सीजेपी का हेटवॉच कार्यक्रम (हेटहटाओ पहल) यकीनन ऑन-एयर नफरत के उल्लंघनों पर लगातार नजर रखने वाला एक सक्रिय मंच है। सावधानीपूर्वक और कैलिब्रेटेड विश्लेषण के जरिए हम न सिर्फ ट्रैक करने और शिकायत दर्ज कराने में, बल्कि यह सुनिश्चित करने में भी कामयाब रहे हैं कि सबसे आपत्तिजनक शो (वीडियो) को ऑफ-एयर किया जाए। इनमें वे चैनल भी शामिल हैं जो लगातार उत्तेजक और भड़काऊ थंबनेल और विज़ुअल का इस्तेमाल करते रहे हैं।
सीजेपी द्वारा एनबीडीएसए को की गई शिकायतों में यह बारीकी से बताया गया है कि कैसे अक्सर 50 मिनट के शो के पूरे हिस्से (यहां तक कि कुछ मिनटों) में भी बेहद चौंकाने वाली भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। इन्हें इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है कि पूरा कवरेज या उसका फोकस दर्शकों के लिए आकर्षक बन जाए, जबकि उसमें गलत धारणाएं और भेदभावपूर्ण बातें शामिल होती हैं, जो अंततः पक्षपातपूर्ण नैरेटिव को जन्म देती हैं।
अब, हम पूछते हैं: क्या यह उन्हीं उल्लंघनकर्ताओं द्वारा दर्शकों की प्रतिक्रिया में भ्रष्ट प्रभाव उत्पन्न करने का एक नया प्रयास है, जो वास्तव में न तो कंटेंट में और न ही एंकरिंग की भूमिका में किसी सीमा का पालन कर रहे हैं?
बारीकियों को छोड़कर नैरेटिव पर तवज्जो: व्यापक जवाबदेही की कमी
हालांकि कुछ भारतीय न्यूज़ चैनलों द्वारा की गई सनसनीखेज रिपोर्टिंग के उदाहरण पत्रकारिता की नैतिकता में गिरावट और इन तरीकों द्वारा सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने की क्षमता को लेकर गंभीर चिंताएं पैदा करते हैं। भ्रामक विज़ुअल्स, भड़काऊ भाषा और क्लिकबेट रणनीतियों का जानबूझकर इस्तेमाल — जो अक्सर धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाता है और संवेदनशील मुद्दों को सांप्रदायिक चश्मे से पेश करता है — यह दर्शाता है कि दर्शकों की संख्या को जिम्मेदार रिपोर्टिंग पर तरजीह दी जा रही है।
डिजिटल मीडिया की व्यापक पहुंच को देखते हुए, यह आवश्यक है कि रेगुलेटरी बॉडीज़ और पत्रकारिता संगठन इस तरह की गैर-जिम्मेदार, सनसनीखेज रिपोर्टिंग पर रोक लगाने के प्रभावी तरीके अपनाएं। साथ ही, यह सुनिश्चित करें कि मीडिया अपना वह अहम रोल निभाए, जो एक जागरूक, समावेशी और सौहार्दपूर्ण समाज को बढ़ावा दे — न कि बंटवारे और तनाव को हवा देने का जरिया बने।

विशेषज्ञों के अनुसार, विजुअल परसेप्शन विचार और भावना दोनों को प्रभावित करता है। भारतीय वाणिज्यिक टेलीविजन चैनल, जो पहले ही खुद को सत्ताधारी ताकतों के मुखपत्र के रूप में स्थापित कर चुके हैं, पिछले एक दशक से विभाजनकारी राजनीति को बढ़ावा देने के लिए विजुअल कम्युनिकेशन का दुरुपयोग कर रहे हैं, विशेषकर सत्तारूढ़ विचारधारा के अनुरूप।
हाल के वर्षों में इन चैनलों को विश्वसनीयता की चुनौती, यूट्यूब जैसे स्वतंत्र मीडिया से प्रतिस्पर्धा, और NBDSA द्वारा जारी दिशानिर्देशों व वीडियो हटाने के आदेशों से सामना करना पड़ा है। ऐसे में ये चैनल अब वही सनसनीखेज डिजिटल टूल्स—जैसे थंबनेल और भड़काऊ टेक्स्ट—का इस्तेमाल चालाकी से कर रहे हैं, जिन्हें पहले बेशर्मी से सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने के लिए इस्तेमाल किया जाता था।
CJP हेट वॉच टीम द्वारा किया गया यह विश्लेषण इस चिंताजनक प्रवृत्ति की पड़ताल करता है।
भ्रामक क्लिकबेट, विजुअल और टेक्स्ट का सुनियोजित उपयोग देश के सांप्रदायिक सौहार्द को खतरे में डाल रहा है और सीधे हिंसा भड़काने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है। ज़ी न्यूज़, टाइम्स नाउ नवभारत, आजतक और न्यूज़ 18 इंडिया जैसे चैनल अपनी रिपोर्टिंग के तरीकों को लेकर अब जांच के घेरे में हैं। 2022, 2023 और 2024 में NBDSA द्वारा पारित आदेश इस प्रवृत्ति की पुष्टि करते हैं, जिनकी प्रतियां CJP के पास उपलब्ध हैं।
CJP का उद्देश्य है नफरत फैलाने वाले बयानों को सामने लाकर कट्टरपंथियों को बेनकाब करना और उन्हें न्याय के कटघरे में लाना। हमारे अभियान के बारे में अधिक जानने और सहयोग देने के लिए, कृपया सदस्य बनें या दान करें।
अब, NBDSA के दिशानिर्देशों से बचने के लिए, चैनलों ने एक नया रुख अपनाया है। वे अब असदुद्दीन ओवैसी जैसे मुस्लिम नेताओं की छवियों का उपयोग मुस्लिम समुदाय से जुड़ी किसी भी खबर में करते हैं, भले ही उनका सीधा संबंध न हो। यह ‘विज़ुअल शॉर्टहैंड’ एक खतरनाक स्टीरियोटाइप को मजबूत करता है, जो मुस्लिम पहचान को आक्रामक और एकरूपी दर्शाने की कोशिश करता है।
हालाँकि, जब हमारी टीम ने पूरे शो और एंकरिंग का विश्लेषण किया, तो वह अपेक्षाकृत निष्पक्ष प्रतीत हुआ। लेकिन असली चाल थंबनेल में थी, जहाँ भड़काऊ तस्वीरें और शब्द दर्शकों को क्लिक करने के लिए उकसाते हैं।
मुर्शिदाबाद हिंसा (विवादास्पद वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 के बाद) जैसी हालिया घटनाओं पर रिपोर्टिंग भी इस प्रवृत्ति की पुष्टि करती है। रिपोर्टिंग में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तस्वीरों और पंक्तियों जैसे "योगी एक्शन" या "योगी स्टाइल एक्शन" का अत्यधिक उपयोग, भले ही खबर यूपी से संबंधित न हो, दर्शकों के मन में एक आक्रामक छवि बैठाने की कोशिश प्रतीत होती है। यह रणनीति एक खास दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर तैयार की जाती है।
इसके अलावा, बंगाल में मुस्लिम वर्चस्व और “मजबूर हिंदू पलायन” जैसे नैरेटिव थोपना, और साथ ही योगी-ममता थंबनेल का विरोधाभासी उपयोग, इन आशंकाओं को और बढ़ाते हैं। इस प्रकार के विजुअल्स दर्शकों के बीच भय, संदेह और घृणा का वातावरण पैदा कर सकते हैं। भाषा और दृश्यों के चयन में नैतिकता की कमी भारतीय मीडिया के एक हिस्से के लिए चिंताजनक संकेत है।
वक्फ अधिनियम पर बहस की कवरेज इस ट्रेंड को और उजागर करती है। ओवैसी की छवि और "मौलाना, मौलाना" जैसे शब्दों का दोहराव मुस्लिम धार्मिक नेतृत्व को बदनाम करने की एक रणनीति दिखाता है। यह खबरों को जानबूझकर सांप्रदायिक चश्मे से दिखाने का प्रयास है, जो सामाजिक विभाजन को गहरा कर सकता है।
चयनात्मक विजुअल कम्युनिकेशन और इसका नकारात्मक प्रभाव
जैसा कि विजुअल कम्युनिकेशन के विशेषज्ञ कहते हैं, यह स्वाभाविक रूप से एक चयनात्मक प्रक्रिया है। इस तरह की चुनी हुई और बार-बार दोहराई जाने वाली ध्यान खींचने वाली रणनीति का लोगों और समाज पर भावनात्मक असर पड़ता है। जब हमारा ध्यान लगातार डर या खतरे से जुड़ी बातों की ओर मोड़ा जाता है, तो हम अपने आसपास की संतुलित और सामान्य जानकारी को नज़रअंदाज़ करने लगते हैं। नतीजतन, हम लगातार परेशान करने वाले विचारों में उलझे रहते हैं। रिसर्च बताती है कि इस तरह की अटेंशनल बायस, भावनात्मक असंतुलन और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी दिक्कतों का एक कारण बन सकती है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से भारतीय समाज को जानबूझकर फैलाए गए नकारात्मक और पक्षपाती नैरेटिव्स का सामना करना पड़ा है — ऐसी सोच और सामग्री जो ख़ास तौर पर कुछ समुदायों को अलग-थलग करने और राजनीतिक रूप से निशाना बनाने के मकसद से तैयार की गई है। यह एक सोची-समझी रणनीति रही है, जिसका असर समाज में भेदभाव और दरार को बढ़ाने के रूप में दिख रहा है।
जैसा कि द डिजिटल कब (The Digital Kab) से अटेंशनल संबंधी पूर्वाग्रह पर सिंपल विजुअल एक्सप्लेनेशन हमें बताता है कि चयनात्मक धारणा के चार प्रकार हैं।

सेलेक्टिव परसेप्शन के चार चरणों में शामिल हैं:
सेलेक्टिव एक्सपोजर, सेलेक्टिव अटेंशन, सेलेक्टिव कंप्रिहेंशन और सेलेक्टिव रिटेंशन
रिपोर्ट और कम्युनिकेशन में तटस्थता तय करने के लिए एक प्रतिबद्ध, गैर-पक्षपाती दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है। सरल भाषा में कहें तो — खुले दिमाग वाला होना। वास्तव में, खुले दिमाग वाला और सहानुभूतिपूर्ण होना धारणा पूर्वाग्रह से बचने के सर्वोत्तम तरीकों में से एक माना जाता है। एक ऐसे समाज में, जो परंपरागत रूप से विविधता और बहुलता पर टिका रहा है, वहां ज़रूरी है कि लोग लगातार अलग-अलग तरह के लोगों, रायों और संस्कृतियों से रूबरू हों। जितनी ज़्यादा सोच-समझकर और ढंग से अलग-अलग लोगों और नज़िरयों को दिखाया जाएगा, पुराने जमे-जमाए सोच और रूढ़ियों को तोड़ने में उतना ही ज़्यादा असरदार होगा।
सीजेपी एचडब्ल्यू की टीम ने पिछले हफ्तों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कवरेज और विजुअल का अध्ययन और विश्लेषण किया और हमने जो पाया वह इस तरह है।
जी न्यूज
जी न्यूज, लगातार दर्शकों की संख्या बढ़ाने की होड़ में, अक्सर जल्दबाज़ी और असंवेदनशील रिपोर्टिंग करता है, जिससे तथ्यात्मक सटीकता और संदर्भ की अनदेखी होती है। चैनल को अपने सांप्रदायिक और भ्रामक प्रसारणों के लिए एनबीडीएसए से जुर्माने के साथ-साथ फटकार का सामना करना पड़ा है। इसके थंबनेल और क्लिकबेट रणनीति अक्सर रूढ़िवादिता और सनसनी को बढ़ाती है।
सच्चाई से ज़्यादा कल्पना: रेटिंग के लिए जी न्यूज की दौड़
वक्फ अधिनियम के मुद्दे पर अपने कवरेज में, जी न्यूज ने भड़काऊ हिंदी कैप्शन का इस्तेमाल किया, जैसे — “जिसका डर था वही हुआ! वक्फ कानून पर तगड़ा झटका, मुसलमानों में जश्न”, “सुप्रीम कोर्ट का आदेश! खुद ही फंस गए मुसलमान” और “सुप्रीम कोर्ट से फैसला, 21 करोड़ मुसलमानों में भगदड़! लाइव”। ये शब्दावली एक तरह का नाटकीय तनाव पैदा करने की कोशिश करती थी और मुस्लिम समुदाय को नकारात्मक रूप में पेश करने का प्रयास करती थी, जैसे कि किसी मुश्किल या सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई से होने वाली घबराहट पर वो खुशी मना रहे हों। (हालांकि मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।)
ध्रुवीकरण वाला थंबनेल: सत्ता के प्रतीक बनाम ‘अन्य’
इसके अलावा, थंबनेल में अक्सर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की तस्वीरों के साथ “वक्फ बिल पर पलटे 24 करोड़ मुसलमान, पूरा देश हड़कंप! 3000 करोड़ की संपत्ति जब्त” और “मोदी को ऐसी सज़ा देंगे! मौलानाओं ने दी है धमकी, लाखों मुसलमानों ने घेर लिए 6 शहर” जैसे टेक्स्ट लिखे गए। इनका उद्देश्य वक्फ बिल को मुस्लिम समुदाय द्वारा कथित राष्ट्रव्यापी उथल-पुथल से जोड़ना था, इसे एक खतरे के रूप में पेश करना और अल्पसंख्यक समूह के खिलाफ कड़ी प्रतिक्रियाएं भड़काना था। मोदी और योगी आदित्यनाथ की तस्वीरों को शामिल करने का उद्देश्य संभवतः एक विशिष्ट दर्शक वर्ग को आकर्षित करना था, जो उनके राजनीतिक रुख का समर्थन करता है।

इस चैनल ने अपने थंबनेल में आक्रामक और सांप्रदायिक भाषा का इस्तेमाल किया, जैसे “अब आर-पार की जंग”, “मोदी को सज़ा देंगे”, “वक्फ गैंग को योगी का तगड़ा अल्टीमेटम” और अपमानजनक “मियां जी का नया ख़ौफ़ आ रहा है”। सनसनीखेज और रूढ़िवादिता को पुष्ट करने वाले अन्य थंबनेल में शामिल हैं — “15 मिनट... मुसलमानों को कोर्ट में देवकीनंदन का खुला चैलेंज, उछल पड़े मौलाना”, “दंगा ज़ोन में लाखों मुसलमान, वक्फ पर नया प्लान” और “आज़ादी... कर्नाटक घेरने निकले लाखों मुसलमान और फिर...”।
इन कैप्शंस ने मिलकर मुस्लिम समुदाय को ऐसे दिखाया, जैसे वो हमेशा प्रतिक्रिया देने वाले, हिंसा की ओर झुके हुए और ख़तरनाक हो सकते हैं। इससे न सिर्फ नकारात्मक रूढ़िवादिता को बढ़ावा मिला, बल्कि सनसनी फैलाने और ज़्यादा दर्शक खींचने के लिए इसे जानबूझकर किया गया। चैनल द्वारा इस तरह की भाषा और तस्वीरों के लगातार इस्तेमाल ने जिम्मेदार और तथ्यात्मक पत्रकारिता के बजाय सनसनीखेज और हानिकारक रूढ़िवादिता को प्राथमिकता देने के पैटर्न को उजागर किया।

टाइम्स नाउ नवभारत
टाइम्स नाउ नवभारत ने संवेदनशील विषयों पर सनसनीखेज और भ्रामक रिपोर्टिंग का एक पैटर्न दिखाया। एक प्रमुख रणनीति में थंबनेल में योगी आदित्यनाथ की तस्वीर का लगातार और अनावश्यक इस्तेमाल शामिल था, चाहे न्यूज़ की लोकेशन उत्तर प्रदेश से सीधे जुड़ी हो या न हो। योगी आदित्यनाथ की सोशल मीडिया पर काफ़ी फॉलोइंग को देखते हुए, यह रणनीति क्लिकबेट के ज़रिए दर्शकों की संख्या बढ़ाने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास लगता है।
सनसनी के लिए क्लिकबेट: योगी आदित्यनाथ की तस्वीर का रणनीतिक इस्तेमाल
उदाहरण के लिए, मुर्शिदाबाद हिंसा की अपनी कवरेज में चैनल ने “सीएम योगी ने खाई कसम, एक-एक हिंदू को बचाना है” और “लातों के भूत, बातों से: मुर्शिदाबाद हिंसा पर ममता से क्या बोले योगी” जैसे हिंदी कैप्शन का इस्तेमाल किया। योगी आदित्यनाथ की तस्वीर के साथ इस तरह के टेक्स्ट का इस्तेमाल करने का उद्देश्य नैरेटिव में एक हिंदू राष्ट्रवादी एंगल डालना था, जो उस राजनीतिक झुकाव के भीतर एक मजबूत, निर्णायक नेता के रूप में उनकी छवि को भुनाने के लिए था। इस सनसनीखेज फ्रेमिंग का उद्देश्य मौजूदा सोशल मीडिया ट्रेंड का फ़ायदा उठाकर दर्शकों को आकर्षित करना था, जहां उनके समर्थक अक्सर हिंसा की घटनाओं के जवाब में “योगी आदित्यनाथ स्टाइल एक्शन” जैसे वाक्यों का इस्तेमाल करते हैं।
वक्फ एक्ट कवरेज: कानूनी बारीकियों पर सांप्रदायिक फ्रेमिंग
इसी तरह, वक्फ अधिनियम की बहस पर चैनल की रिपोर्टिंग में योगी आदित्यनाथ को प्रमुखता से दिखाया गया, जिसमें “बाबा ‘बुलडोज़र निर्णय’ लेंगे, एससी से 555 का इंतज़ार” और “योगी की टेबल पर वक्फ की 1.25 लाख फाइलें” जैसे कैप्शन का इस्तेमाल किया गया। इस लगातार विजुअल और टेक्स्ट के संबंध के पीछे उद्देश्य मुद्दे को सांप्रदायिक बनाना था। हिंदुत्व के पक्ष में अपने रुख के लिए जाने जाने वाले एक मुख्यमंत्री को विशेष रूप से हाइलाइट करके, चैनल ने वक्फ अधिनियम की चर्चाओं को हिंदू-मुस्लिम आधार पर फ्रेम करने की कोशिश की, जो एक ख़ास दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर किया गया। कानून का वस्तुपरक विश्लेषण करने के बजाय, क्लिक बढ़ाने के लिए विषय को सनसनीखेज बनाना था।
वक्फ अधिनियम को कानूनी चुनौती देने की रिपोर्टिंग करते समय भी थंबनेल में लिखा था: “ओवैसी, सिब्बल, सिंघवी का चेहरा उतरा, सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ कानून पर मोदी का काम आसान कर दिया।” कानूनी चुनौती की ख़बर के साथ इस कैप्शन का उद्देश्य इसे मुस्लिम नेताओं और उनका प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों के लिए एक झटके के रूप में चित्रित करना था।
इंजीनियर्ड कन्फ्लिक्ट: तमाशा दिखाने के लिए नेताओं को खड़ा करना
चैनल ने असदुद्दीन ओवैसी और टी. राजा सिंह जैसे विरोधी व्यक्तित्वों को दिखाने वाले थंबनेल का भी इस्तेमाल किया, जिनके कैप्शन थे: “वक्फ बिल के विरोध में ओवैसी की हुंकार, टी. राजा ने दिया करारा जवाब।” विरोधी व्यक्तित्वों को एक साथ लाने के साथ-साथ टी. राजा सिंह के लिए असंवेदनशील और अपूर्ण वाक्यांश “तुम्हारा बाप भी…” ने संघर्ष और सनसनी पैदा करने का काम किया, दर्शकों को तीखी बहस के वादे के साथ अपनी ओर खींचा और संभावित रूप से विभाजनकारी भावनाओं को आकर्षित किया। इस दृष्टिकोण ने दर्शकों को वक्फ अधिनियम और संबंधित चर्चाओं की बारीक समझ देने की तुलना में सनसनीखेज और क्लिकबेट को प्राथमिकता दी।


आज तक
इसी तरह, आज तक भी सनसनीखेजता के समान पैटर्न में शामिल दिखाई दिया, हालांकि कम हद तक। वक्फ बिल से संबंधित इसके थंबनेल, जैसे कि “वक्फ का वक्त आ गया!” और “वक्फ बिल से मुसलमानों की ज़मीन छीनने वाली हैं?”, भले ही कुछ अन्य चैनलों की तुलना में कम स्पष्ट रूप से भड़काऊ थे, फिर भी इनमें सनसनीखेज और संभावित रूप से भ्रामक फ़्रेमिंग का इस्तेमाल किया गया। वाक्यांश “वक्फ का वक्त आ गया!” दर्शकों के दृष्टिकोण के आधार पर संभावित रूप से बेचैनी या उत्तेजना पैदा करने वाला एक अहम संकेत था। सवाल “वक्फ बिल से मुसलमानों की ज़मीन छीनने वाली हैं?” सीधे मुस्लिम समुदाय के भीतर संभावित चिंताओं को कुरेदता है, और बिना तथ्यात्मक संदर्भ दिए उनकी संपत्तियों के लिए खतरे का संकेत देता है।

यहां तक कि सवाल के रूप में भी, इस तरह का थंबनेल ग़लत सूचना फैलाने और क्लिक तथा दर्शकों को आकर्षित करने के लिए डर का इस्तेमाल कर सकता है। कुछ अन्य चैनलों की तरह खुले तौर पर सांप्रदायिक भाषा या छवियों का सहारा न लेते हुए, आज तक द्वारा इस तरह के थंबनेल का इस्तेमाल संवेदनशील धार्मिक और कानूनी मुद्दों को कवर करते समय सनसनी की ओर झुकाव को दर्शाता है, जो संभावित रूप से चिंता और संदेह के माहौल में योगदान देता है।
इंडिया टीवी
इंडिया टीवी ने भी अपनी रिपोर्टिंग में इस चिंताजनक प्रवृत्ति को दोहराया, जिसमें उत्तेजक और भ्रामक भाषा का इस्तेमाल किया गया, जो हानिकारक रूढ़ियों का समर्थन करती है। मुर्शिदाबाद हिंसा की अपनी कवरेज के दौरान, चैनल ने “मुर्शिदाबाद…10 हजार दंगाई निकले जुम्मे के बाद?” जैसे वाक्यांशों का इस्तेमाल किया। (जैसे: “ओवैसी का युद्ध का ऐलान, कितने मुसलमान उनके साथ हैं?”, “मोदी बनाम मुस्लिम बोर्ड” और “मोदी बनाम मौलाना”)।
क्लाइमेक्स-ओरिएंटेड थंबनेल: गहराई से ज़्यादा ड्रामा
इन कैप्शंस का मकसद था हिंसा को तुरंत धार्मिक दृष्टिकोण से पेश करना, मुस्लिम समुदाय को आक्रामक दिखाना (जैसे “10 हजार दंगाई”), और यह दिखाना कि मुस्लिम समुदाय (जो ओवैसी और “मुस्लिम बोर्ड” द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया था) और हिंदू बहुमत (जो मोदी द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया था) के बीच टकराव हो रहा है। इस सनसनीखेज तरीके से स्थिति को पेश करते समय मुद्दे की जटिलताओं को नज़रअंदाज़ किया गया, और मुख्य उद्देश्य समाज में और ज़्यादा बंटवारा पैदा करना प्रतीत होता है।


इसके अलावा, बिना किसी आधिकारिक पुष्टि या बयानों के, इंडिया टीवी ने “मुर्शिदाबाद से 10,000 हिंदू विस्थापित, मुस्लिम स्थापित” और “आज बंगाल के हिंदुओं का कलेजा फट गया” जैसे भयावह और निराधार दावों के साथ शो चलाए। ये भावनात्मक रूप से उकसाने वाली और अपुष्ट बातें हिंदू समुदाय में डर और नफ़रत फैलाने का काम करती हैं और मुस्लिमों को ऐसा दिखाती हैं जैसे वे हिंदुओं को उनकी जगह से हटा रहे हों।
इस चैनल द्वारा “मोदी से नफ़रत सख्त, मौलाना का वक्फ वक्फ!” वाक्यांश का इस्तेमाल इस पैटर्न का एक और उदाहरण है। वक्फ अधिनियम के विरोध में “मौलाना” (इस्लामी धर्मगुरु) को विशेष रूप से उजागर करके और इस विरोध को प्रधानमंत्री मोदी के प्रति “नफ़रत” से जोड़कर, चैनल का उद्देश्य मुस्लिम समुदाय के भीतर धार्मिक नेताओं को स्वाभाविक रूप से सरकार विरोधी और हिंदू नेता के प्रति दुश्मनी रखने वाले के रूप में प्रस्तुत करना था। यह जानबूझकर दिखाई गई तस्वीर मीडिया चैनलों के उस बड़े रुझान को बढ़ावा देती है, जहां धार्मिक पहचान का इस्तेमाल ख़बरों को सनसनीखेज बनाने और दर्शकों को आकर्षित करने के लिए किया जाता है, जिससे समाज में विभाजन गहरा होता है।

न्यूज़ 18 इंडिया
वक्फ मुद्दे पर न्यूज़ 18 इंडिया की कवरेज में ऐसे थंबनेल और शीर्षकों का इस्तेमाल किया गया जिन्हें सनसनीखेज और संभावित रूप से भ्रामक माना जा सकता है। “वक्फ एक्ट के बहाने जुटे मुस्लिम, क्या है असली एजेंडा?” जैसे वाक्यांश, “भू-माफिया या इस्लाम, वक्फ आ रहा किसके काम?”, “जुम्मे की नमाज़, मस्जिद अड्डा”, “प्रदर्शन से पहले, दिल्ली में मुसलमानों का जमावड़ा” और “वक्फ के खिलाफ दिल्ली में मुसलमानों का हल्ला बोल” जैसे शीर्षकों के साथ ओवैसी और मौलाना अरशद मदनी जैसी हस्तियों की तस्वीरें भी लगाई गईं। इससे एक जटिल मुद्दे को एक संकीर्ण और पक्षपाती नज़रिये से दिखाने का खतरा पैदा होता है। यह एंगल अनजाने में एकतरफा नैरेटिव बना सकता है, जो इस तरह की जल्दबाज़ और ध्यान खींचने वाली प्रस्तुतियों के व्यापक संदर्भ और संभावित नतीजों को नज़रअंदाज़ करता है।



इसी तरह, मुर्शिदाबाद हिंसा पर उनकी रिपोर्टिंग में “बजरंग दल की एंट्री, हिल गया पूरा बंगाल” और “दीदी… तेरे बंगाल में हिंदुओं की जान की कीमत क्या है?” जैसी हेडलाइनें हैं, जो सनसनी को प्राथमिकता देती लगती हैं। बजरंग दल को ‘रक्षक’ की भूमिका में दिखाना सांप्रदायिक आवाज़ को बढ़ा सकता है।
जबकि चैनल हिंदुओं की रक्षा करने में कथित रूप से विफल रहने के लिए टीएमसी सरकार की आलोचना करता है, यह पूरे राज्य में हिंसा को रोकने में सरकार की ज़िम्मेदारी पर व्यापक रूप से सवाल नहीं उठाता। रिपोर्टिंग का यह खास तरीका दुर्भाग्य से नैरेटिव को सांप्रदायिक बनाकर ज़्यादा दर्शक संख्या और टीआरपी रेटिंग को प्राथमिकता दे सकता है — संभवतः क्लाइमेक्स-ओरिएंटेड थंबनेल और क्लिकबेट के इस्तेमाल के जरिए, सद्भाव और सांप्रदायिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने की कीमत पर।
एनबीडीएसए और ऑन-एयर निगेटिविटी की निगरानी
पिछले छह वर्षों या उससे अधिक समय से, सशक्त नागरिक अभियानों ने कई इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चैनलों से उनकी रिपोर्टिंग और कवरेज में जवाबदेही की मांग की है। सीजेपी का हेटवॉच कार्यक्रम (हेटहटाओ पहल) यकीनन ऑन-एयर नफरत के उल्लंघनों पर लगातार नजर रखने वाला एक सक्रिय मंच है। सावधानीपूर्वक और कैलिब्रेटेड विश्लेषण के जरिए हम न सिर्फ ट्रैक करने और शिकायत दर्ज कराने में, बल्कि यह सुनिश्चित करने में भी कामयाब रहे हैं कि सबसे आपत्तिजनक शो (वीडियो) को ऑफ-एयर किया जाए। इनमें वे चैनल भी शामिल हैं जो लगातार उत्तेजक और भड़काऊ थंबनेल और विज़ुअल का इस्तेमाल करते रहे हैं।
सीजेपी द्वारा एनबीडीएसए को की गई शिकायतों में यह बारीकी से बताया गया है कि कैसे अक्सर 50 मिनट के शो के पूरे हिस्से (यहां तक कि कुछ मिनटों) में भी बेहद चौंकाने वाली भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। इन्हें इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है कि पूरा कवरेज या उसका फोकस दर्शकों के लिए आकर्षक बन जाए, जबकि उसमें गलत धारणाएं और भेदभावपूर्ण बातें शामिल होती हैं, जो अंततः पक्षपातपूर्ण नैरेटिव को जन्म देती हैं।
अब, हम पूछते हैं: क्या यह उन्हीं उल्लंघनकर्ताओं द्वारा दर्शकों की प्रतिक्रिया में भ्रष्ट प्रभाव उत्पन्न करने का एक नया प्रयास है, जो वास्तव में न तो कंटेंट में और न ही एंकरिंग की भूमिका में किसी सीमा का पालन कर रहे हैं?
बारीकियों को छोड़कर नैरेटिव पर तवज्जो: व्यापक जवाबदेही की कमी
हालांकि कुछ भारतीय न्यूज़ चैनलों द्वारा की गई सनसनीखेज रिपोर्टिंग के उदाहरण पत्रकारिता की नैतिकता में गिरावट और इन तरीकों द्वारा सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने की क्षमता को लेकर गंभीर चिंताएं पैदा करते हैं। भ्रामक विज़ुअल्स, भड़काऊ भाषा और क्लिकबेट रणनीतियों का जानबूझकर इस्तेमाल — जो अक्सर धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाता है और संवेदनशील मुद्दों को सांप्रदायिक चश्मे से पेश करता है — यह दर्शाता है कि दर्शकों की संख्या को जिम्मेदार रिपोर्टिंग पर तरजीह दी जा रही है।
डिजिटल मीडिया की व्यापक पहुंच को देखते हुए, यह आवश्यक है कि रेगुलेटरी बॉडीज़ और पत्रकारिता संगठन इस तरह की गैर-जिम्मेदार, सनसनीखेज रिपोर्टिंग पर रोक लगाने के प्रभावी तरीके अपनाएं। साथ ही, यह सुनिश्चित करें कि मीडिया अपना वह अहम रोल निभाए, जो एक जागरूक, समावेशी और सौहार्दपूर्ण समाज को बढ़ावा दे — न कि बंटवारे और तनाव को हवा देने का जरिया बने।
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