"इलाज बहुत कराया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। सरकारी अस्पताल में जाती हूं तो डाक्टर कुछ लाल-पीली गोलियां दे देते हैं, लेकिन कोई लाभ नहीं होता। मन को दिलासा दिलाने के लिए इलाज करा रही हूं। जानती हूं की दूषित पानी के चलते बीमार हूं। जीने के लिए पानी चाहिए और हमारे हिस्से में साफ पानी कहां हैं?"

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के करकटपुर गांव की 55 वर्षीया बिजेंद्री देवी के सीने पर लाल रंग के चकत्ते और लाल रंग के दाने उभर आए हैं। उनकी आंखों में अतीत का एक साफ़ अक्स तैरता है—जब वो तेज़ कदमों से खेतों में काम किया करती थीं, घर संभालती थीं, हंसती-बोलती थीं। लेकिन अब, हर कदम दर्द से भरा है, हर सांस बोझिल है। वो बस इतना ही कहती हैं, "इलाज बहुत कराया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। सरकारी अस्पताल में जाती हूं तो डाक्टर कुछ लाल-पीली गोलियां दे देते हैं, लेकिन कोई लाभ नहीं होता। मन को दिलासा दिलाने के लिए इलाज करा रही हूं। जानती हूं की दूषित पानी के चलते बीमार हूं। जीने के लिए पानी चाहिए और हमारे हिस्से में साफ पानी कहां हैं? "
बिजेंद्री के पति 62 वर्षीय हरिलाल अक्सर बीमार रहते हैं। उन्हें हार्निया की बीमारी है, लेकिन इनके हाथ और सीने पर आर्सेनिक के दुष्प्रभाव का असर साफ-साफ दिखता है। गले की नीचे के हिस्से पर लाल रंग के चकत्ते उभर आए हैं और हथेलियों में भी दरारें उभर आई हैं। हरिलाल के पांच बच्चे हैं और सभी की जिंदगी में आर्सेनिक का जहर घुल चुका है। हरिलाल बताते हैं, --हमारे गांव करकटपुर में सीताराम, ऋषिकेश और रमेश्सर की जिंदगी आर्सेनिक के चलते चली गई। इन्हें कई तरह की बीमारियां हुई और जवानी में ही इन सभी की मौत हो गई।

करकटपुर गांव के हरिलाल जिनके सीने पर आर्सेनिक के उभरे खतरे के निशान
उनकी झुकी हुई गर्दन, खुरदुरी हथेलियां और पतली हड्डियों को देखकर कोई भी धोखा खा सकता है। लगता है जैसे किसी अदृश्य बोझ ने उन्हें हमेशा के लिए बीमार बना दिया है। हरिलाल कहते हैं, "दस बरस पहले मैं भी आम नौजवानों की तरह था। अखाड़े में कुश्ती लड़ता था। अब चलना भी मुश्किल है। हार्निया के साथ ही शहर पर चकत्ते उभर आए हैं। यह सब उसी पानी की वजह से हुआ है, जो हमने बचपन से पीया है। हमारे गांव में हर कोई किसी न किसी तकलीफ से जूझ रहा है।"
करकटपुर गांव में परचून की दुकान चलाने वाली 40 वर्षीया राधिका देवी के हाथ-पैर में हमेशा फुंसियां निकल आती हैं। इलाज से कोई फायदा नहीं हो रहा है। हमेशा दर्द होता रहता है। हमेशा घाव बना रहता है। एक स्थान पर घाव ठीक होता है तो दूसरी ओर नया घाव बन जाता है। राधिका कहती हैं, "जब शादी होकर इस गांव आई थीं, तब बिल्कुल स्वस्थ थीं। मगर धीरे-धीरे यह पानी उनके शरीर को खा गया, चुपचाप, बिना किसी हलचल के। वह कहती हैं, "सोचा नहीं था कि पानी भी किसी की ज़िंदगी तबाह कर सकता है। डाक्टरों को कई बार दिखाया तो जवाब मिला कि मिनरल वाटर का इस्तेमाल करो। हमारे पास इतना पैसा कहां है कि आरओ प्लांट लगवाएं? हमारे पूरे गांव में हर किसी को मेरी तरह की समस्या है। हैंडपंप का पानी को थोड़ी देर भी रख देते हैं तो माड़ जैसा हो जाता है।"
आर्सेनिक का दर्द सिर्फ बिजेंद्री और राधिका का नहीं, बल्कि करकटपुर गांव के सैकड़ों लोगों की चीख है—जो सालों से इस जहर को घूंट-घूंट पीने को मजबूर हैं। कई साल पहले इस गांव में ट्यूबवेल लगाने के लिए एक डीप बोरिंग कराई गई, लेकिन बाद में सरकारी नुमाइंदे बोरवेल में ढक्कन लगाकर लापता चले गई। तब से बोरवेल के उपर उपले पाथे जा रहे हैं। जिस स्थान पर ट्यूबवेल लगाया जाना था वहां दलितों और मल्लाहों की बस्ती है। करकटपुर गांव के लोगों की आंखों में उम्मीद की जो आखिरी लौ बची थी, वो भी बुझने लगी है। इस गांव के लोगों पता है कि अब कभी भी आर्सेनिक का असर उनकी जिंदगी में जहर घोल सकता है। वो जानते हैं कि यह आर्सेनिक से उपजी बीमारी उनकी जिंदगी में जहर घोल सकती है, लेकिन उनके पास कोई चारा नहीं है।

करकटपुर में अपने हाथों में उभरे खतरे के निशान को दिखाती एक महिला
60 वर्षीय राधिका, सीमा देवी और 40 वर्षीय रीता देवी की हथेलियां पीली पड़ गई हैं। यही हाल 45 वर्षीय सुरेश चौधरी मोतीलाल का है। इनके परिवार के सभी सदस्य आर्सेनिकजनिक बीमारियों की जद में हैं। 52 वर्षीय सौदागर चौधरी और उनके बच्चों के हाथों में चकत्ते उभर आए हैं। वह कहते हैं, "आर्सेनिकयुक्त पानी का जहर हर किसी की जिंदगी में किसी न किसी रूप से घुलता जा रहा है। हमारे गांव में ट्यूबवेल लग जाए तो हमारी समस्या हमेशा के लिए हर हो सकती है।" कुछ इसी तरह का दर्द शांति देवी, धमरदेयी, केशव, सावित्री, सीताराम, सीमा देवी और राजेश चौधरी का है। साल 2022 में 25 साल के नौजवान वीरेंद्र की कैंसर से मौत हो गई थी।
45 वर्षीय सुरेश चौधरी की पत्नी लक्ष्मीना देवी आशा कार्यकत्री हैं। इनके चार बच्चे हैं, जिनमें पूजा, नेहा, धनंजय और मृत्युंजय हैं। लक्ष्मीना के घर के बार इंडिया मार्का हैंडपंप लगा है, लेकिन वो पानी सरकारी नल का पीती हैं। वह कहती हैं, "हमारे गांव में कुछ महीने से धरम्मरपुर से पानी की टंकी से जलापूर्ति हो रही है। तब से स्थिति थोड़ी ठीक है। फिर भी कई बार पाइप लाइन टूट जाती है तो फिर हैंडपंप का पानी ही इस्तेमाल करना पड़ता है। गांव के हर व्यक्ति ने सरकारी नल का कनेक्शन ले रखा है, लेकिन किसी न किसी रूप में आर्सेनिक का असर हमारे शरीर में घुस ही जाता है। हमारे सभी बच्चों के शरीर में आर्सेनिक के चलते चकत्ते आज भी नजर आते हैं। हालांकि हाल के कुछ महीनों से स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है।"
धरम्मरपुर ग्राम पंचायत से जुड़ा है करकटपुर। कुछ महीने पहले यहां सरकारी नल से ओवरहेड टैंक से पानी की सप्लाई शुरू हुई, लेकिन बलवंतपुर, हंसराजपुर, सिवाना और टेढ़वा पुरवा में हर कोई आर्सेनिकयुक्त पानी ही इस्तेमाल कर रहा है। करीब 12 हजार की आबादी वाली धरम्मरपुर ग्राम पंचायत के पूर्व प्रधान भीम सिंह यादव कहते हैं, "हमारे इलाके में आर्सेनिक की समस्या करीब बीस साल से है। इस इलाके में करीब तीन सौ इंडिया मार्का हैंडपंप लगे हैं, लेकिन जो आर्सेनियुक्त पानी उगल रहे हैं। मीडिया में यह मामला उछला तो करीब 20-22 हैंडपंपों की डीप बोरिंग कराई गई। बाकी हैंडपंपों को वैसे ही छोड़ दिया गया। हमें लगता है कि आर्सेनिक को लेकर सरकार कतई गंभीर नहीं है। हमारे गांव में सिर्फ एक पानी की टंकी है जो पूरी ग्राम सभा में पानी की सप्लाई करने में सक्षम नहीं है।"
पूर्व ग्राम प्रधान भीम यह भी कहते हैं, "जिन गांवों में सिर्फ हैंडपंप हैं और पीने के पानी का दूसरा कोई इंतजाम नहीं है वहां हर किसी के शरीर पर लाल-लाल चकत्ते उभर आए हैं। कुछ लोगों के हाथों में जख्म साफ-साफ नजर आते हैं। पानी की स्थिति यह है कि कुछ देर बर्तन में रख दीजिए, चावल के माड़ जैसा हो जाता है। इस इलाके में चर्मरोग और गैस की समस्या आम है। करीब 30 से 40 फीसदी लोग इस समस्या की जद में हैं। पहले लोग समझ नहीं पाते थे, क्योंकि इस अतरंगी नाम के बारे में लोगों को पता नहीं था। जागरूकता के अभाव में लोगों के जिंदीग में आर्सेनिक का जहर घुलता जा रहा है। सिर्फ धरम्मरपुर ही नहीं, आसपास उन सभी गांवों में आर्सेनिक का असर लोगों की जिंदगी में साफ तौर पर दिखता है जहां से गंगा नदी गुजरी है। गंगा नदी हमारे गांव में मुड़ती है, इसलिए यहां आर्सेनिक का डिपाजिट ज्यादा होता है।"

धरम्मरपुर के पूर्व ग्राम प्रधान भीम सिंह यादव
फिरोजाबाद में सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे उपकार यादव कहते हैं, "आर्सेनिक के असर के चलते हमारे इलाके में आरओ प्लांट वालों ने अपना बड़ा धंधा खड़ा कर लिया है। हर रोज करीब तीन-चार सौ बोतलें बिक जाती हैं। जो लोग सक्षम हैं वो आरओ का पानी पी रहे हैं। पढ़े-लिखे लोगों को पता है कि आर्सेनिक लाइलाज बीमारी है, जिसे दवा से ठीक नहीं किया जा सकता है। पानी बदलने से ही जिंदगी बचाई जा सकती है। धरम्मरपुर ग्राम पंचायत में दो स्थानों पर बोरवेल मौजूद है, लेकिन पंपिग स्टेशन बनवाया ही नहीं गया। जब तक सरकार इस गंभीर समस्या को गंभीरता से नहीं लेगी, तब तक आर्सेनिक से उपजी बीमारियों का इलाज कतई संभव नहीं है।"
दरअसल, गाजीपुर जिले के करंडा ब्लॉक में आने वाले कई गांवों में पानी ज़हर बन चुका है। धर्मपुर ग्राम पंचायत के करकटपुर गांव में पानी में आर्सेनिक की मात्रा 100 ppb से अधिक पाई गई है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार सुरक्षित सीमा 10 ppb से अधिक नहीं होनी चाहिए। बलवंतपुर और कोटिया में स्थिति और भी भयावह है, जहां यह मात्रा 500 ppb तक पहुंच गई है। नया पुरवा और धर्मपुर मुख्य बस्ती में हालात इससे भी अधिक चिंताजनक हैं, जहां जल में आर्सेनिक 800 ppb से लेकर 1000 ppb तक पाया गया है। टेढ़वा में भी यही स्थिति बनी हुई है, जहां के लोग बिना किसी और विकल्प के इस जहरीले पानी का सेवन कर रहे हैं। करीब 12,000 लोग इस जहरीले पानी को पीने को मजबूर हैं और यह पानी उनकी सेहत पर बुरा असर डाल रहा है।
करकटपुर, बलवंतपुर, कोटिया, नया पुरवा, धर्मपुर मुख्य बस्ती और टेढ़वा में पीने के पानी में आर्सेनिक की मात्रा इतनी अधिक पाई गई है कि यहां के लोग धीरे-धीरे गंभीर बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। इन गांवों के लोग सालों से इस समस्या से जूझ रहे हैं, लेकिन उनके पास कोई दूसरा स्रोत नहीं है। कुएं, नल और हैंडपंप सभी आर्सेनिक से दूषित हो चुके हैं। हर रोज़ लोग अपनी सेहत पर ज़हर घोल रहे हैं, क्योंकि उनके पास पीने के लिए कोई दूसरा पानी नहीं है। गांव के बुजुर्गों की हड्डियां कमजोर हो रही हैं, युवाओं की त्वचा पर भयानक धब्बे उभर रहे हैं, और बच्चों की सेहत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है।

सूखे हैंडपंप, जिसमें से निकलता है आर्सेनिकयुक्त पानी
जल, जीवन और लापरवाही की कहानी
वाराणसी स्थित इनर वॉयस फाउंडेशन ने उत्तर प्रदेश के गंगोटिक इलाकों में पेयजल की गुणवत्ता पर पिछले एक दशक में गहन अध्ययन किया। संस्था द्वारा जांचे गए 14 लाख सैंपलों से यह भयावह सच सामने आया कि विशेष रूप से पूर्वांचल के जिलों में आर्सेनिक प्रदूषण विस्फोटक स्थिति में पहुंच चुका है। यह सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि हजारों जिंदगियों पर मंडराता एक अदृश्य खतरा है, जिसकी अनदेखी से मासूम बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक की ज़िंदगी दांव पर लगी है।
आर्सेनिक मिटिगेशन विशेषज्ञ सौरभ सिंह बताते हैं कि, "इनर वॉयस फाउंडेशन ने 2014 में इस मुद्दे पर कार्य शुरू किया। प्रारंभिक जांच में ही वाराणसी के दक्षिणी हिस्से के जलस्रोतों में आर्सेनिक की मौजूदगी दर्ज की गई। गंगा किनारे और उससे सटे गांवों में आर्सेनिक का स्तर मानक से कई गुना अधिक पाया गया। 2015 की जांच ने भी इन नतीजों की पुष्टि की। सबसे चिंताजनक स्थिति यह रही कि वाराणसी के कई गांवों में पाइपलाइन से सप्लाई होने वाले पानी में बैक्टीरिया संक्रमण भी मिला, जिससे पेट और लीवर की बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। गांवों में लगे ओवरहेड टैंकों की नियमित सफाई या ब्लीचिंग न होने के कारण जल गुणवत्ता और अधिक खराब होती जा रही है।"
इनर वायस की रिपोर्ट के मुताबिक, "गाजीपुर में पेयजल योजनाओं की हालत बदहाल है। एक बार स्थापित होने के बाद इनकी मरम्मत पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना की स्थिति भी दयनीय है, जहां खराब पाइपों और बिजली की समस्याओं के चलते लोगों को दूषित जल पीने को मजबूर होना पड़ रहा है। गाजीपुर के करकटपुर, धरम्मरपुर और हंसराजपुर में इनर वायस टीम को बड़ी संख्या में आर्सेनिक प्रभावित मरीज मिले, जिनकी त्वचा पर धब्बे उभर आए हैं और कईयों में कैंसर जैसे लक्षण दिखने लगे हैं। इन गांवों के जलस्रोतों में आर्सेनिक का स्तर 500 पीपीबी से भी अधिक दर्ज किया गया, जो WHO द्वारा निर्धारित मानक (10 पीपीबी) से कई गुना ज्यादा है।"

"बलिया जिले में स्थिति और भी गंभीर है। यहां के 150 से अधिक गांवों में जलस्रोतों में आर्सेनिक का स्तर बेहद उच्च पाया गया, जिसके कारण बड़ी संख्या में लोग कैंसर, त्वचा रोग और अन्य गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं। बलिया और बिहार के भोजपुर जिले में आर्सेनिक से हजारों मौतें हो चुकी हैं, लेकिन सरकारी व्यवस्था अब भी सोई हुई है। 2013 में इनर वॉयस फाउंडेशन ने इस संकट को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष रखा था, जिसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रभावित परिवारों को मुआवजा देने का आदेश दिया। लेकिन यह मुआवजा बीमारी से जूझ रहे लोगों के दर्द को कम करने के लिए नाकाफी साबित हुआ।"
बच्चे जहरीला पानी पीने को मजबूर
आर्सेनिक मिटिगेशन विशेषज्ञ सौरभ सिंह कहते हैं, "पूर्वी उत्तर प्रदेश के सैकड़ों विद्यालयों में बच्चे विषाक्त पानी पी रहे हैं, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा। हमारी जांच में गाजीपुर के 4, चंदौली के 4, बलिया के 28 और वाराणसी के 9 स्कूलों में आर्सेनिक युक्त जल की पुष्टि हुई। यह संख्या वास्तविक रूप से कहीं अधिक हो सकती है, क्योंकि यह जांच का केवल पहला चरण था। सबसे खतरनाक बात यह है कि गर्भवती महिलाओं द्वारा आर्सेनिक युक्त जल के सेवन से यह विष भ्रूण तक पहुंच जाता है, जिससे जन्मजात विकृतियां और कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।"
"इनर वायस के पांच वर्षों के फील्डवर्क में यह तथ्य सामने आया कि इस बीमारी से ग्रस्त लोगों के लिए कोई समुचित इलाज उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों को भी इस बीमारी की पर्याप्त जानकारी नहीं है। कई गांवों में इसे एड्स या टीबी समझकर इलाज किया जा रहा है, जिससे रोगियों की स्थिति और भी बिगड़ रही है। यदि जल की नियमित जांच होती, तो यह समस्या समय रहते उजागर की जा सकती थी। सरकार की ओर से ग्रामीण इलाकों में जल परीक्षण किट देने की योजना थी, लेकिन हमारा सर्वेक्षण बताता है कि इन किटों का उपयोग कहीं भी नहीं हो रहा।"
सौरभ कहते हैं, "पिछले एक दशक में हजारों लोगों की जिंदगियां जाने के बावजूद सरकार का रवैया उदासीन बना हुआ है। भारत सरकार और मानवाधिकार आयोग की रिपोर्टें भी इस संकट की पुष्टि कर चुकी हैं, लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई। पूर्वी उत्तर प्रदेश में हजारों करोड़ की पेयजल परियोजनाएं चल रही हैं, लेकिन गांवों में इसका प्रभाव नगण्य है। जलशक्ति मंत्रालय की वेबसाइट पर आर्सेनिक प्रभावित जिलों की सूची देखने पर पता चलता है कि कई गंभीर रूप से प्रभावित जिले इस सूची में शामिल ही नहीं हैं। कुआं का पानी अपेक्षाकृत सुरक्षित होता है, लेकिन सरकार की प्राथमिकता इन्हें साफ और पुनर्जीवित करने की नहीं है, जबकि यह कम लागत में किया जा सकता है।"
आर्सेनिक युक्त पानी पीने से इन गांवों में आर्सेनिकोसिस, त्वचा रोग, कैंसर और किडनी की गंभीर बीमारियां फैल रही हैं। कई लोगों की त्वचा पर काले धब्बे उभर चुके हैं, तो कुछ के शरीर के अंदर आर्सेनिक ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। कई नवजात शिशु जन्म से ही कमजोर पैदा हो रहे हैं। यहां के लोगों के लिए हर घूंट पानी किसी धीमे ज़हर से कम नहीं।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि प्रशासन को इस समस्या की जानकारी है, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। लोगों ने कई बार अधिकारियों से गुहार लगाई, लेकिन केवल आश्वासन मिले। सरकार की जल जीवन मिशन जैसी योजनाएं इन गांवों तक नहीं पहुंच पाईं। जल शुद्धिकरण संयंत्र लगाने की कोई पहल नहीं हुई, और न ही कोई वैकल्पिक जल स्रोत उपलब्ध कराया गया।

आर्सेनिक का प्रभाव
मुख्य रूप से गाजीपुर, बलिया, बनारस, मिर्जापुर, भदोही और इलाहाबाद में गंगा के नजदीक के गांवों के लोग हर दिन ज़हर पीने को मजबूर हैं, लेकिन उनके पास कोई और रास्ता नहीं है। अगर जल्द ही सुरक्षित पेयजल की व्यवस्था नहीं की गई, तो आने वाले वर्षों में यहां की स्थिति और भी भयावह हो जाएगी। सरकार, प्रशासन और समाज को इस संकट की गंभीरता को समझना होगा। आर्सेनिक सिर्फ एक तत्व नहीं, बल्कि एक अदृश्य हत्यारा है, जो गाजीपुर के इन गांवों में धीरे-धीरे ज़िंदगी को लील रहा है। यदि आज भी कुछ नहीं किया गया, तो कल बहुत देर हो जाएगी।
खतरे में 2.34 करोड़ लोगों की जिंदगी
प्रदेश के 25 जिलों के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा मानकों से अधिक पाई गई है, जबकि 18 जिलों में फ्लोराइड और आर्सेनिक दोनों की उच्च मात्रा दर्ज की गई है। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार, "उत्तर प्रदेश की 707 बस्तियां आर्सेनिक प्रदूषित पानी से प्रभावित हैं। --जल शक्ति मंत्रालय द्वारा संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक, --2015 में देशभर में 1,800 बस्तियां आर्सेनिक प्रभावित थीं, जबकि 2017 तक यह संख्या बढ़कर 4,421 हो गई, जो महज दो वर्षों में 145% की वृद्धि दर्शाती है।"
नई दिल्ली स्थित टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के शोधकर्ता डॉ. चंदर कुमार सिंह के अनुसार, "उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में जल संकट एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या बनता जा रहा है। उनका कहना है कि अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि प्रदेश की लगभग 2.34 करोड़ ग्रामीण आबादी आर्सेनिक से दूषित भूमिगत जल के उपयोग से प्रभावित हो रही है। यह समस्या उन क्षेत्रों में अधिक गंभीर है जहां पाइपलाइन जल आपूर्ति कमजोर है और लोग पीने व अन्य आवश्यक कार्यों के लिए हैंडपंप एवं कुओं के जल पर निर्भर हैं।"
उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में लाखों लोग हैंडपंपों और कुओं पर निर्भर हैं, लेकिन जब यही जल आर्सेनिक युक्त होता है, तो यह धीरे-धीरे गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म देता है। शोध के अनुसार, "प्रदेश के कई क्षेत्रों में भूजल में आर्सेनिक की मात्रा 1,000 पीपीबी (पार्ट्स पर बिलियन) से अधिक पाई गई है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा निर्धारित 10 पीपीबी की सुरक्षित सीमा से 100 गुना अधिक है।"
डॉ. सिंह के अनुसार, "उत्तर प्रदेश के 40 जिलों में 1,680 भूजल नमूनों का परीक्षण किया गया, जिसमें उत्तर-पूर्वी जिलों में आर्सेनिक की मात्रा अधिक पाई गई। इनमें बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर, फैजाबाद, बाराबंकी, गोंडा और लखीमपुर खीरी सबसे अधिक प्रभावित जिले हैं। इसके अलावा, शाहजहांपुर, उन्नाव, चंदौली, वाराणसी, प्रतापगढ़, कुशीनगर, मऊ, बलरामपुर, देवरिया और सिद्धार्थनगर में भूजल में आर्सेनिक की मध्यम मात्रा दर्ज की गई। इन जिलों की विशेष भौगोलिक स्थितियां, जैसे गंगा, राप्ती और घाघरा जैसी नदियों के मैदानों में स्थित होना, भूजल में आर्सेनिक की अधिकता का एक प्रमुख कारण मानी जाती है।"
उत्तर प्रदेश की लगभग 78% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, जो पीने के पानी, खाना पकाने, सिंचाई और अन्य घरेलू कार्यों के लिए भूजल पर निर्भर है। पाइपलाइन जल आपूर्ति की कमी के कारण लोग हैंडपंप, ट्यूबवेल और कुओं का पानी इस्तेमाल करते हैं। इन जल स्रोतों में आर्सेनिक की अधिकता होने से लाखों लोगों के स्वास्थ्य को खतरा है।
शोधकर्ताओं ने मिट्टी की संरचना, जलकूपों की गहराई, वाष्पन दर और जल प्रवाह क्षेत्र जैसे 20 प्रमुख मापदंडों के आधार पर विस्तृत अध्ययन किया। कंप्यूटर मॉडलिंग तकनीक का उपयोग कर प्रभावित क्षेत्रों का मानचित्र तैयार किया गया। इस अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि राज्य के लगभग 2.34 करोड़ ग्रामीण लोग इस जहरीले तत्व से प्रभावित हैं।
टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के वैज्ञानिक डॉ. चंदर कुमार सिंह ने चेतावनी दी है कि बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर, फैजाबाद और देवरिया जैसे जिलों में सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट गहराता जा रहा है। वह कहते हैं, "आर्सेनिक प्रदूषित पानी के लंबे समय तक उपयोग से त्वचा संबंधी रोग और कैंसर, फेफड़े और मूत्राशय का कैंसर, हृदय और रक्त संचार प्रणाली से जुड़ी समस्याएं, गर्भपात और शिशु मृत्यु दर में वृद्धि, बच्चों के बौद्धिक विकास में बाधा समेत कई गंभीर बीमारियां हो सकती हैं। उत्तर प्रदेश के कई जिलों में आर्सेनिक प्रदूषण एक गंभीर समस्या बन चुका है, जिससे लाखों लोग प्रभावित हो रहे हैं। सरकार को चाहिए कि आर्सेनिकयुक्त पानी के सेवन से बड़े पैमाने पर हैंडपंप और ट्यूबवेल के पानी की नियमित जांच करनी चाहिए।"

गाजीपुर की धरम्मरपुर ग्राम पंचायत में गंगा का किनारा
चिंतित है केंद्रीय भूमि जल बोर्ड
आर्सेनिक प्रदूषण पर विभिन्न शोधों ने भारत में इस समस्या की गंभीरता को उजागर किया है। केंद्रीय भूमि जल बोर्ड (CGWB) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 21 राज्यों में आर्सेनिक का स्तर भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) द्वारा निर्धारित 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर की अनुमन्य सीमा से अधिक हो गया है। गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी बेसिन के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और असम इस भू-गर्भीय घटना से सबसे अधिक प्रभावित हैं।
एक अन्य अध्ययन में पाया गया है कि आर्सेनिक न केवल भूजल को बल्कि खाद्य शृंखला को भी दूषित करता है। यह दूषित जल से सिंचित फसलों, विशेष रूप से चावल, गेहूं और आलू में पाया गया है, जिससे मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। शोध के मुताबिक, पीने योग्य जल की तुलना में भोजन में आर्सेनिक की मात्रा अधिक पाई गई, वहीं पीने योग्य जल में आर्सेनिक का मौजूदा स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर (μg/L) के अनंतिम गाइड मूल्य से भी ऊपर है। कच्चे चावल की तुलना में पके चावल में इसकी सांद्रता काफी अधिक देखी गई।
इसके अतिरिक्त, एक शोध में यह भी पता चला है कि देश में गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी घाटियों में भूजल के अंदर उच्च मात्रा में आर्सेनिक मौजूद है, जोकि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। शोध के अनुसार उत्तर भारत में आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर पर है। इसके साथ ही देश के कई अन्य इलाकों में आर्सेनिक की मात्रा तय मानकों से कहीं ज्यादा है। जिसमें दक्षिण-पश्चिम और मध्य भारत के कई हिस्से शामिल हैं।
हालांकि, इन प्रयासों के बावजूद आर्सेनिक प्रदूषण की समस्या पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है और इसके समाधान के लिए ठोस रणनीतियों की आवश्यकता है। सरकार, वैज्ञानिक समुदाय और आम जनता—सभी को मिलकर इस समस्या के समाधान के लिए प्रयास करने होंगे। आर्सेनिक प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए दीर्घकालिक रणनीतियां विकसित करनी होंगी, ताकि आने वाली पीढ़ियां इस विषैले तत्व के प्रभाव से सुरक्षित रह सकें।
गाजीपुर जिले में आर्सेनिक का खतरा सबसे अधिक सैदपुर तहसील क्षेत्र में हैं। आर्सेनिक के खतरे को कम करने के लिए प्रशासन क्या कर रहा है, इसका जवाब देने के लिए कोई तैयार नहीं है। सैदपुर तहसील क्षेत्र के ज्वाइंट मजिस्ट्रेट रामेश्वर सुधाकर सब्बनवाड़ और करंडा की खंड विकास अधिकारी शिवेदिता सिंह से कई बार संपर्क करने की कोशिश की गई, लेकिन दोनों अफसरों ने फोन नहीं उठाया। बीडीओ निवेदिता सिंह ने व्हाट्सएप मैसेज का जवाब तक नहीं दिया। इनकी ओर से कोई जवाब आता है तो रिपोर्ट में उनका पक्ष जोड़ दिया जाएगा।
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं और आर्सेनिक प्रभावित गांवों से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के करकटपुर गांव की 55 वर्षीया बिजेंद्री देवी के सीने पर लाल रंग के चकत्ते और लाल रंग के दाने उभर आए हैं। उनकी आंखों में अतीत का एक साफ़ अक्स तैरता है—जब वो तेज़ कदमों से खेतों में काम किया करती थीं, घर संभालती थीं, हंसती-बोलती थीं। लेकिन अब, हर कदम दर्द से भरा है, हर सांस बोझिल है। वो बस इतना ही कहती हैं, "इलाज बहुत कराया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। सरकारी अस्पताल में जाती हूं तो डाक्टर कुछ लाल-पीली गोलियां दे देते हैं, लेकिन कोई लाभ नहीं होता। मन को दिलासा दिलाने के लिए इलाज करा रही हूं। जानती हूं की दूषित पानी के चलते बीमार हूं। जीने के लिए पानी चाहिए और हमारे हिस्से में साफ पानी कहां हैं? "
बिजेंद्री के पति 62 वर्षीय हरिलाल अक्सर बीमार रहते हैं। उन्हें हार्निया की बीमारी है, लेकिन इनके हाथ और सीने पर आर्सेनिक के दुष्प्रभाव का असर साफ-साफ दिखता है। गले की नीचे के हिस्से पर लाल रंग के चकत्ते उभर आए हैं और हथेलियों में भी दरारें उभर आई हैं। हरिलाल के पांच बच्चे हैं और सभी की जिंदगी में आर्सेनिक का जहर घुल चुका है। हरिलाल बताते हैं, --हमारे गांव करकटपुर में सीताराम, ऋषिकेश और रमेश्सर की जिंदगी आर्सेनिक के चलते चली गई। इन्हें कई तरह की बीमारियां हुई और जवानी में ही इन सभी की मौत हो गई।

करकटपुर गांव के हरिलाल जिनके सीने पर आर्सेनिक के उभरे खतरे के निशान
उनकी झुकी हुई गर्दन, खुरदुरी हथेलियां और पतली हड्डियों को देखकर कोई भी धोखा खा सकता है। लगता है जैसे किसी अदृश्य बोझ ने उन्हें हमेशा के लिए बीमार बना दिया है। हरिलाल कहते हैं, "दस बरस पहले मैं भी आम नौजवानों की तरह था। अखाड़े में कुश्ती लड़ता था। अब चलना भी मुश्किल है। हार्निया के साथ ही शहर पर चकत्ते उभर आए हैं। यह सब उसी पानी की वजह से हुआ है, जो हमने बचपन से पीया है। हमारे गांव में हर कोई किसी न किसी तकलीफ से जूझ रहा है।"
करकटपुर गांव में परचून की दुकान चलाने वाली 40 वर्षीया राधिका देवी के हाथ-पैर में हमेशा फुंसियां निकल आती हैं। इलाज से कोई फायदा नहीं हो रहा है। हमेशा दर्द होता रहता है। हमेशा घाव बना रहता है। एक स्थान पर घाव ठीक होता है तो दूसरी ओर नया घाव बन जाता है। राधिका कहती हैं, "जब शादी होकर इस गांव आई थीं, तब बिल्कुल स्वस्थ थीं। मगर धीरे-धीरे यह पानी उनके शरीर को खा गया, चुपचाप, बिना किसी हलचल के। वह कहती हैं, "सोचा नहीं था कि पानी भी किसी की ज़िंदगी तबाह कर सकता है। डाक्टरों को कई बार दिखाया तो जवाब मिला कि मिनरल वाटर का इस्तेमाल करो। हमारे पास इतना पैसा कहां है कि आरओ प्लांट लगवाएं? हमारे पूरे गांव में हर किसी को मेरी तरह की समस्या है। हैंडपंप का पानी को थोड़ी देर भी रख देते हैं तो माड़ जैसा हो जाता है।"
आर्सेनिक का दर्द सिर्फ बिजेंद्री और राधिका का नहीं, बल्कि करकटपुर गांव के सैकड़ों लोगों की चीख है—जो सालों से इस जहर को घूंट-घूंट पीने को मजबूर हैं। कई साल पहले इस गांव में ट्यूबवेल लगाने के लिए एक डीप बोरिंग कराई गई, लेकिन बाद में सरकारी नुमाइंदे बोरवेल में ढक्कन लगाकर लापता चले गई। तब से बोरवेल के उपर उपले पाथे जा रहे हैं। जिस स्थान पर ट्यूबवेल लगाया जाना था वहां दलितों और मल्लाहों की बस्ती है। करकटपुर गांव के लोगों की आंखों में उम्मीद की जो आखिरी लौ बची थी, वो भी बुझने लगी है। इस गांव के लोगों पता है कि अब कभी भी आर्सेनिक का असर उनकी जिंदगी में जहर घोल सकता है। वो जानते हैं कि यह आर्सेनिक से उपजी बीमारी उनकी जिंदगी में जहर घोल सकती है, लेकिन उनके पास कोई चारा नहीं है।

करकटपुर में अपने हाथों में उभरे खतरे के निशान को दिखाती एक महिला
60 वर्षीय राधिका, सीमा देवी और 40 वर्षीय रीता देवी की हथेलियां पीली पड़ गई हैं। यही हाल 45 वर्षीय सुरेश चौधरी मोतीलाल का है। इनके परिवार के सभी सदस्य आर्सेनिकजनिक बीमारियों की जद में हैं। 52 वर्षीय सौदागर चौधरी और उनके बच्चों के हाथों में चकत्ते उभर आए हैं। वह कहते हैं, "आर्सेनिकयुक्त पानी का जहर हर किसी की जिंदगी में किसी न किसी रूप से घुलता जा रहा है। हमारे गांव में ट्यूबवेल लग जाए तो हमारी समस्या हमेशा के लिए हर हो सकती है।" कुछ इसी तरह का दर्द शांति देवी, धमरदेयी, केशव, सावित्री, सीताराम, सीमा देवी और राजेश चौधरी का है। साल 2022 में 25 साल के नौजवान वीरेंद्र की कैंसर से मौत हो गई थी।
45 वर्षीय सुरेश चौधरी की पत्नी लक्ष्मीना देवी आशा कार्यकत्री हैं। इनके चार बच्चे हैं, जिनमें पूजा, नेहा, धनंजय और मृत्युंजय हैं। लक्ष्मीना के घर के बार इंडिया मार्का हैंडपंप लगा है, लेकिन वो पानी सरकारी नल का पीती हैं। वह कहती हैं, "हमारे गांव में कुछ महीने से धरम्मरपुर से पानी की टंकी से जलापूर्ति हो रही है। तब से स्थिति थोड़ी ठीक है। फिर भी कई बार पाइप लाइन टूट जाती है तो फिर हैंडपंप का पानी ही इस्तेमाल करना पड़ता है। गांव के हर व्यक्ति ने सरकारी नल का कनेक्शन ले रखा है, लेकिन किसी न किसी रूप में आर्सेनिक का असर हमारे शरीर में घुस ही जाता है। हमारे सभी बच्चों के शरीर में आर्सेनिक के चलते चकत्ते आज भी नजर आते हैं। हालांकि हाल के कुछ महीनों से स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है।"
धरम्मरपुर ग्राम पंचायत से जुड़ा है करकटपुर। कुछ महीने पहले यहां सरकारी नल से ओवरहेड टैंक से पानी की सप्लाई शुरू हुई, लेकिन बलवंतपुर, हंसराजपुर, सिवाना और टेढ़वा पुरवा में हर कोई आर्सेनिकयुक्त पानी ही इस्तेमाल कर रहा है। करीब 12 हजार की आबादी वाली धरम्मरपुर ग्राम पंचायत के पूर्व प्रधान भीम सिंह यादव कहते हैं, "हमारे इलाके में आर्सेनिक की समस्या करीब बीस साल से है। इस इलाके में करीब तीन सौ इंडिया मार्का हैंडपंप लगे हैं, लेकिन जो आर्सेनियुक्त पानी उगल रहे हैं। मीडिया में यह मामला उछला तो करीब 20-22 हैंडपंपों की डीप बोरिंग कराई गई। बाकी हैंडपंपों को वैसे ही छोड़ दिया गया। हमें लगता है कि आर्सेनिक को लेकर सरकार कतई गंभीर नहीं है। हमारे गांव में सिर्फ एक पानी की टंकी है जो पूरी ग्राम सभा में पानी की सप्लाई करने में सक्षम नहीं है।"
पूर्व ग्राम प्रधान भीम यह भी कहते हैं, "जिन गांवों में सिर्फ हैंडपंप हैं और पीने के पानी का दूसरा कोई इंतजाम नहीं है वहां हर किसी के शरीर पर लाल-लाल चकत्ते उभर आए हैं। कुछ लोगों के हाथों में जख्म साफ-साफ नजर आते हैं। पानी की स्थिति यह है कि कुछ देर बर्तन में रख दीजिए, चावल के माड़ जैसा हो जाता है। इस इलाके में चर्मरोग और गैस की समस्या आम है। करीब 30 से 40 फीसदी लोग इस समस्या की जद में हैं। पहले लोग समझ नहीं पाते थे, क्योंकि इस अतरंगी नाम के बारे में लोगों को पता नहीं था। जागरूकता के अभाव में लोगों के जिंदीग में आर्सेनिक का जहर घुलता जा रहा है। सिर्फ धरम्मरपुर ही नहीं, आसपास उन सभी गांवों में आर्सेनिक का असर लोगों की जिंदगी में साफ तौर पर दिखता है जहां से गंगा नदी गुजरी है। गंगा नदी हमारे गांव में मुड़ती है, इसलिए यहां आर्सेनिक का डिपाजिट ज्यादा होता है।"

धरम्मरपुर के पूर्व ग्राम प्रधान भीम सिंह यादव
फिरोजाबाद में सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे उपकार यादव कहते हैं, "आर्सेनिक के असर के चलते हमारे इलाके में आरओ प्लांट वालों ने अपना बड़ा धंधा खड़ा कर लिया है। हर रोज करीब तीन-चार सौ बोतलें बिक जाती हैं। जो लोग सक्षम हैं वो आरओ का पानी पी रहे हैं। पढ़े-लिखे लोगों को पता है कि आर्सेनिक लाइलाज बीमारी है, जिसे दवा से ठीक नहीं किया जा सकता है। पानी बदलने से ही जिंदगी बचाई जा सकती है। धरम्मरपुर ग्राम पंचायत में दो स्थानों पर बोरवेल मौजूद है, लेकिन पंपिग स्टेशन बनवाया ही नहीं गया। जब तक सरकार इस गंभीर समस्या को गंभीरता से नहीं लेगी, तब तक आर्सेनिक से उपजी बीमारियों का इलाज कतई संभव नहीं है।"
दरअसल, गाजीपुर जिले के करंडा ब्लॉक में आने वाले कई गांवों में पानी ज़हर बन चुका है। धर्मपुर ग्राम पंचायत के करकटपुर गांव में पानी में आर्सेनिक की मात्रा 100 ppb से अधिक पाई गई है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार सुरक्षित सीमा 10 ppb से अधिक नहीं होनी चाहिए। बलवंतपुर और कोटिया में स्थिति और भी भयावह है, जहां यह मात्रा 500 ppb तक पहुंच गई है। नया पुरवा और धर्मपुर मुख्य बस्ती में हालात इससे भी अधिक चिंताजनक हैं, जहां जल में आर्सेनिक 800 ppb से लेकर 1000 ppb तक पाया गया है। टेढ़वा में भी यही स्थिति बनी हुई है, जहां के लोग बिना किसी और विकल्प के इस जहरीले पानी का सेवन कर रहे हैं। करीब 12,000 लोग इस जहरीले पानी को पीने को मजबूर हैं और यह पानी उनकी सेहत पर बुरा असर डाल रहा है।
करकटपुर, बलवंतपुर, कोटिया, नया पुरवा, धर्मपुर मुख्य बस्ती और टेढ़वा में पीने के पानी में आर्सेनिक की मात्रा इतनी अधिक पाई गई है कि यहां के लोग धीरे-धीरे गंभीर बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। इन गांवों के लोग सालों से इस समस्या से जूझ रहे हैं, लेकिन उनके पास कोई दूसरा स्रोत नहीं है। कुएं, नल और हैंडपंप सभी आर्सेनिक से दूषित हो चुके हैं। हर रोज़ लोग अपनी सेहत पर ज़हर घोल रहे हैं, क्योंकि उनके पास पीने के लिए कोई दूसरा पानी नहीं है। गांव के बुजुर्गों की हड्डियां कमजोर हो रही हैं, युवाओं की त्वचा पर भयानक धब्बे उभर रहे हैं, और बच्चों की सेहत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है।

सूखे हैंडपंप, जिसमें से निकलता है आर्सेनिकयुक्त पानी
जल, जीवन और लापरवाही की कहानी
वाराणसी स्थित इनर वॉयस फाउंडेशन ने उत्तर प्रदेश के गंगोटिक इलाकों में पेयजल की गुणवत्ता पर पिछले एक दशक में गहन अध्ययन किया। संस्था द्वारा जांचे गए 14 लाख सैंपलों से यह भयावह सच सामने आया कि विशेष रूप से पूर्वांचल के जिलों में आर्सेनिक प्रदूषण विस्फोटक स्थिति में पहुंच चुका है। यह सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि हजारों जिंदगियों पर मंडराता एक अदृश्य खतरा है, जिसकी अनदेखी से मासूम बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक की ज़िंदगी दांव पर लगी है।
आर्सेनिक मिटिगेशन विशेषज्ञ सौरभ सिंह बताते हैं कि, "इनर वॉयस फाउंडेशन ने 2014 में इस मुद्दे पर कार्य शुरू किया। प्रारंभिक जांच में ही वाराणसी के दक्षिणी हिस्से के जलस्रोतों में आर्सेनिक की मौजूदगी दर्ज की गई। गंगा किनारे और उससे सटे गांवों में आर्सेनिक का स्तर मानक से कई गुना अधिक पाया गया। 2015 की जांच ने भी इन नतीजों की पुष्टि की। सबसे चिंताजनक स्थिति यह रही कि वाराणसी के कई गांवों में पाइपलाइन से सप्लाई होने वाले पानी में बैक्टीरिया संक्रमण भी मिला, जिससे पेट और लीवर की बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। गांवों में लगे ओवरहेड टैंकों की नियमित सफाई या ब्लीचिंग न होने के कारण जल गुणवत्ता और अधिक खराब होती जा रही है।"
इनर वायस की रिपोर्ट के मुताबिक, "गाजीपुर में पेयजल योजनाओं की हालत बदहाल है। एक बार स्थापित होने के बाद इनकी मरम्मत पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना की स्थिति भी दयनीय है, जहां खराब पाइपों और बिजली की समस्याओं के चलते लोगों को दूषित जल पीने को मजबूर होना पड़ रहा है। गाजीपुर के करकटपुर, धरम्मरपुर और हंसराजपुर में इनर वायस टीम को बड़ी संख्या में आर्सेनिक प्रभावित मरीज मिले, जिनकी त्वचा पर धब्बे उभर आए हैं और कईयों में कैंसर जैसे लक्षण दिखने लगे हैं। इन गांवों के जलस्रोतों में आर्सेनिक का स्तर 500 पीपीबी से भी अधिक दर्ज किया गया, जो WHO द्वारा निर्धारित मानक (10 पीपीबी) से कई गुना ज्यादा है।"

"बलिया जिले में स्थिति और भी गंभीर है। यहां के 150 से अधिक गांवों में जलस्रोतों में आर्सेनिक का स्तर बेहद उच्च पाया गया, जिसके कारण बड़ी संख्या में लोग कैंसर, त्वचा रोग और अन्य गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं। बलिया और बिहार के भोजपुर जिले में आर्सेनिक से हजारों मौतें हो चुकी हैं, लेकिन सरकारी व्यवस्था अब भी सोई हुई है। 2013 में इनर वॉयस फाउंडेशन ने इस संकट को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष रखा था, जिसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रभावित परिवारों को मुआवजा देने का आदेश दिया। लेकिन यह मुआवजा बीमारी से जूझ रहे लोगों के दर्द को कम करने के लिए नाकाफी साबित हुआ।"
बच्चे जहरीला पानी पीने को मजबूर
आर्सेनिक मिटिगेशन विशेषज्ञ सौरभ सिंह कहते हैं, "पूर्वी उत्तर प्रदेश के सैकड़ों विद्यालयों में बच्चे विषाक्त पानी पी रहे हैं, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा। हमारी जांच में गाजीपुर के 4, चंदौली के 4, बलिया के 28 और वाराणसी के 9 स्कूलों में आर्सेनिक युक्त जल की पुष्टि हुई। यह संख्या वास्तविक रूप से कहीं अधिक हो सकती है, क्योंकि यह जांच का केवल पहला चरण था। सबसे खतरनाक बात यह है कि गर्भवती महिलाओं द्वारा आर्सेनिक युक्त जल के सेवन से यह विष भ्रूण तक पहुंच जाता है, जिससे जन्मजात विकृतियां और कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।"
"इनर वायस के पांच वर्षों के फील्डवर्क में यह तथ्य सामने आया कि इस बीमारी से ग्रस्त लोगों के लिए कोई समुचित इलाज उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों को भी इस बीमारी की पर्याप्त जानकारी नहीं है। कई गांवों में इसे एड्स या टीबी समझकर इलाज किया जा रहा है, जिससे रोगियों की स्थिति और भी बिगड़ रही है। यदि जल की नियमित जांच होती, तो यह समस्या समय रहते उजागर की जा सकती थी। सरकार की ओर से ग्रामीण इलाकों में जल परीक्षण किट देने की योजना थी, लेकिन हमारा सर्वेक्षण बताता है कि इन किटों का उपयोग कहीं भी नहीं हो रहा।"
सौरभ कहते हैं, "पिछले एक दशक में हजारों लोगों की जिंदगियां जाने के बावजूद सरकार का रवैया उदासीन बना हुआ है। भारत सरकार और मानवाधिकार आयोग की रिपोर्टें भी इस संकट की पुष्टि कर चुकी हैं, लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई। पूर्वी उत्तर प्रदेश में हजारों करोड़ की पेयजल परियोजनाएं चल रही हैं, लेकिन गांवों में इसका प्रभाव नगण्य है। जलशक्ति मंत्रालय की वेबसाइट पर आर्सेनिक प्रभावित जिलों की सूची देखने पर पता चलता है कि कई गंभीर रूप से प्रभावित जिले इस सूची में शामिल ही नहीं हैं। कुआं का पानी अपेक्षाकृत सुरक्षित होता है, लेकिन सरकार की प्राथमिकता इन्हें साफ और पुनर्जीवित करने की नहीं है, जबकि यह कम लागत में किया जा सकता है।"
आर्सेनिक युक्त पानी पीने से इन गांवों में आर्सेनिकोसिस, त्वचा रोग, कैंसर और किडनी की गंभीर बीमारियां फैल रही हैं। कई लोगों की त्वचा पर काले धब्बे उभर चुके हैं, तो कुछ के शरीर के अंदर आर्सेनिक ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। कई नवजात शिशु जन्म से ही कमजोर पैदा हो रहे हैं। यहां के लोगों के लिए हर घूंट पानी किसी धीमे ज़हर से कम नहीं।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि प्रशासन को इस समस्या की जानकारी है, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। लोगों ने कई बार अधिकारियों से गुहार लगाई, लेकिन केवल आश्वासन मिले। सरकार की जल जीवन मिशन जैसी योजनाएं इन गांवों तक नहीं पहुंच पाईं। जल शुद्धिकरण संयंत्र लगाने की कोई पहल नहीं हुई, और न ही कोई वैकल्पिक जल स्रोत उपलब्ध कराया गया।

आर्सेनिक का प्रभाव
मुख्य रूप से गाजीपुर, बलिया, बनारस, मिर्जापुर, भदोही और इलाहाबाद में गंगा के नजदीक के गांवों के लोग हर दिन ज़हर पीने को मजबूर हैं, लेकिन उनके पास कोई और रास्ता नहीं है। अगर जल्द ही सुरक्षित पेयजल की व्यवस्था नहीं की गई, तो आने वाले वर्षों में यहां की स्थिति और भी भयावह हो जाएगी। सरकार, प्रशासन और समाज को इस संकट की गंभीरता को समझना होगा। आर्सेनिक सिर्फ एक तत्व नहीं, बल्कि एक अदृश्य हत्यारा है, जो गाजीपुर के इन गांवों में धीरे-धीरे ज़िंदगी को लील रहा है। यदि आज भी कुछ नहीं किया गया, तो कल बहुत देर हो जाएगी।
खतरे में 2.34 करोड़ लोगों की जिंदगी
प्रदेश के 25 जिलों के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा मानकों से अधिक पाई गई है, जबकि 18 जिलों में फ्लोराइड और आर्सेनिक दोनों की उच्च मात्रा दर्ज की गई है। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार, "उत्तर प्रदेश की 707 बस्तियां आर्सेनिक प्रदूषित पानी से प्रभावित हैं। --जल शक्ति मंत्रालय द्वारा संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक, --2015 में देशभर में 1,800 बस्तियां आर्सेनिक प्रभावित थीं, जबकि 2017 तक यह संख्या बढ़कर 4,421 हो गई, जो महज दो वर्षों में 145% की वृद्धि दर्शाती है।"
नई दिल्ली स्थित टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के शोधकर्ता डॉ. चंदर कुमार सिंह के अनुसार, "उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में जल संकट एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या बनता जा रहा है। उनका कहना है कि अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि प्रदेश की लगभग 2.34 करोड़ ग्रामीण आबादी आर्सेनिक से दूषित भूमिगत जल के उपयोग से प्रभावित हो रही है। यह समस्या उन क्षेत्रों में अधिक गंभीर है जहां पाइपलाइन जल आपूर्ति कमजोर है और लोग पीने व अन्य आवश्यक कार्यों के लिए हैंडपंप एवं कुओं के जल पर निर्भर हैं।"
उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में लाखों लोग हैंडपंपों और कुओं पर निर्भर हैं, लेकिन जब यही जल आर्सेनिक युक्त होता है, तो यह धीरे-धीरे गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म देता है। शोध के अनुसार, "प्रदेश के कई क्षेत्रों में भूजल में आर्सेनिक की मात्रा 1,000 पीपीबी (पार्ट्स पर बिलियन) से अधिक पाई गई है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा निर्धारित 10 पीपीबी की सुरक्षित सीमा से 100 गुना अधिक है।"
डॉ. सिंह के अनुसार, "उत्तर प्रदेश के 40 जिलों में 1,680 भूजल नमूनों का परीक्षण किया गया, जिसमें उत्तर-पूर्वी जिलों में आर्सेनिक की मात्रा अधिक पाई गई। इनमें बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर, फैजाबाद, बाराबंकी, गोंडा और लखीमपुर खीरी सबसे अधिक प्रभावित जिले हैं। इसके अलावा, शाहजहांपुर, उन्नाव, चंदौली, वाराणसी, प्रतापगढ़, कुशीनगर, मऊ, बलरामपुर, देवरिया और सिद्धार्थनगर में भूजल में आर्सेनिक की मध्यम मात्रा दर्ज की गई। इन जिलों की विशेष भौगोलिक स्थितियां, जैसे गंगा, राप्ती और घाघरा जैसी नदियों के मैदानों में स्थित होना, भूजल में आर्सेनिक की अधिकता का एक प्रमुख कारण मानी जाती है।"
उत्तर प्रदेश की लगभग 78% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, जो पीने के पानी, खाना पकाने, सिंचाई और अन्य घरेलू कार्यों के लिए भूजल पर निर्भर है। पाइपलाइन जल आपूर्ति की कमी के कारण लोग हैंडपंप, ट्यूबवेल और कुओं का पानी इस्तेमाल करते हैं। इन जल स्रोतों में आर्सेनिक की अधिकता होने से लाखों लोगों के स्वास्थ्य को खतरा है।
शोधकर्ताओं ने मिट्टी की संरचना, जलकूपों की गहराई, वाष्पन दर और जल प्रवाह क्षेत्र जैसे 20 प्रमुख मापदंडों के आधार पर विस्तृत अध्ययन किया। कंप्यूटर मॉडलिंग तकनीक का उपयोग कर प्रभावित क्षेत्रों का मानचित्र तैयार किया गया। इस अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि राज्य के लगभग 2.34 करोड़ ग्रामीण लोग इस जहरीले तत्व से प्रभावित हैं।
टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के वैज्ञानिक डॉ. चंदर कुमार सिंह ने चेतावनी दी है कि बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर, फैजाबाद और देवरिया जैसे जिलों में सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट गहराता जा रहा है। वह कहते हैं, "आर्सेनिक प्रदूषित पानी के लंबे समय तक उपयोग से त्वचा संबंधी रोग और कैंसर, फेफड़े और मूत्राशय का कैंसर, हृदय और रक्त संचार प्रणाली से जुड़ी समस्याएं, गर्भपात और शिशु मृत्यु दर में वृद्धि, बच्चों के बौद्धिक विकास में बाधा समेत कई गंभीर बीमारियां हो सकती हैं। उत्तर प्रदेश के कई जिलों में आर्सेनिक प्रदूषण एक गंभीर समस्या बन चुका है, जिससे लाखों लोग प्रभावित हो रहे हैं। सरकार को चाहिए कि आर्सेनिकयुक्त पानी के सेवन से बड़े पैमाने पर हैंडपंप और ट्यूबवेल के पानी की नियमित जांच करनी चाहिए।"

गाजीपुर की धरम्मरपुर ग्राम पंचायत में गंगा का किनारा
चिंतित है केंद्रीय भूमि जल बोर्ड
आर्सेनिक प्रदूषण पर विभिन्न शोधों ने भारत में इस समस्या की गंभीरता को उजागर किया है। केंद्रीय भूमि जल बोर्ड (CGWB) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 21 राज्यों में आर्सेनिक का स्तर भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) द्वारा निर्धारित 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर की अनुमन्य सीमा से अधिक हो गया है। गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी बेसिन के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और असम इस भू-गर्भीय घटना से सबसे अधिक प्रभावित हैं।
एक अन्य अध्ययन में पाया गया है कि आर्सेनिक न केवल भूजल को बल्कि खाद्य शृंखला को भी दूषित करता है। यह दूषित जल से सिंचित फसलों, विशेष रूप से चावल, गेहूं और आलू में पाया गया है, जिससे मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। शोध के मुताबिक, पीने योग्य जल की तुलना में भोजन में आर्सेनिक की मात्रा अधिक पाई गई, वहीं पीने योग्य जल में आर्सेनिक का मौजूदा स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर (μg/L) के अनंतिम गाइड मूल्य से भी ऊपर है। कच्चे चावल की तुलना में पके चावल में इसकी सांद्रता काफी अधिक देखी गई।
इसके अतिरिक्त, एक शोध में यह भी पता चला है कि देश में गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी घाटियों में भूजल के अंदर उच्च मात्रा में आर्सेनिक मौजूद है, जोकि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। शोध के अनुसार उत्तर भारत में आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर पर है। इसके साथ ही देश के कई अन्य इलाकों में आर्सेनिक की मात्रा तय मानकों से कहीं ज्यादा है। जिसमें दक्षिण-पश्चिम और मध्य भारत के कई हिस्से शामिल हैं।
हालांकि, इन प्रयासों के बावजूद आर्सेनिक प्रदूषण की समस्या पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है और इसके समाधान के लिए ठोस रणनीतियों की आवश्यकता है। सरकार, वैज्ञानिक समुदाय और आम जनता—सभी को मिलकर इस समस्या के समाधान के लिए प्रयास करने होंगे। आर्सेनिक प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए दीर्घकालिक रणनीतियां विकसित करनी होंगी, ताकि आने वाली पीढ़ियां इस विषैले तत्व के प्रभाव से सुरक्षित रह सकें।
गाजीपुर जिले में आर्सेनिक का खतरा सबसे अधिक सैदपुर तहसील क्षेत्र में हैं। आर्सेनिक के खतरे को कम करने के लिए प्रशासन क्या कर रहा है, इसका जवाब देने के लिए कोई तैयार नहीं है। सैदपुर तहसील क्षेत्र के ज्वाइंट मजिस्ट्रेट रामेश्वर सुधाकर सब्बनवाड़ और करंडा की खंड विकास अधिकारी शिवेदिता सिंह से कई बार संपर्क करने की कोशिश की गई, लेकिन दोनों अफसरों ने फोन नहीं उठाया। बीडीओ निवेदिता सिंह ने व्हाट्सएप मैसेज का जवाब तक नहीं दिया। इनकी ओर से कोई जवाब आता है तो रिपोर्ट में उनका पक्ष जोड़ दिया जाएगा।
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं और आर्सेनिक प्रभावित गांवों से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)