विरासत की विदाईः बनारस के गंगा घाटों पर दम तोड़ रहे रूहानी पेशे, गुम होती परंपराओं के फनकार और खत्म होती जिंदगी की अनमोल कहानियां-ग्राउंड रिपोर्ट

Written by विजय विनीत | Published on: January 10, 2025
बनारस के गंगा घाटों पर कभी मालिश करने वालों, पर्यटकों की फोटो खींचने वालों, तांगा और रिक्शा चलाने वालों, हथकरघे पर साड़ियां बुनने वालों, लोहे का बक्सा और सिल-बट्टा बनाने वालों की बड़ी अहमियत थी। इन पेशों से जुड़े लोग न केवल अपनी आजीविका चलाते थे, बल्कि बनारस की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा भी थे। लेकिन आज, बदलते दौर और आधुनिक तकनीक के चलते इनकी स्थिति दयनीय हो गई है।



बनारस... वो शहर जो कभी सिर्फ एक शहर नहीं था, बल्कि एक जीती-जागती परंपरा, एक चलता-फिरता उत्सव और आत्माओं की शांति का ठिकाना था। गंगा के किनारे बसे इस शहर में हर सुबह आरती की गूंज और हर शाम घाटों पर जलते दीपक मानो जीवन और मृत्यु के बीच संवाद करते थे। लेकिन वक्त के साथ इस शहर की धड़कनें धीमी होती जा रही हैं। यहां के घाटों पर गूंजने वाले स्वर अब कहीं गुम हो गए हैं और उनके साथ ही गुम हो रहे हैं वो फनकार, जिनकी कला और मेहनत से बनारस की आत्मा सजीव लगती थी।

सुबह-ए-बनारस और शाम-ए-बनारस, न केवल स्थानीय लोगों के लिए बल्कि देश-विदेश के पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बना रहता था, लेकिन समय के साथ, इन घाटों का स्वरूप बदल गया है। आज ये दुनिया के सबसे बड़े सेल्फी प्वाइंट बन गए हैं। इसके पीछे जहां एक ओर पर्यटन का बढ़ता दबाव है, वहीं दूसरी ओर उन पारंपरिक पेशों और हुनरों का पतन भी, जो कभी इन घाटों की शान हुआ करते थे।

बनारस, जिसे सात बार नौ त्योहार मनाने वाले ज़िंदादिल शहर के रूप में जाना जाता है, अपनी विरासत और परंपराओं के लिए दुनिया भर में मशहूर है। यहां की हर गली, हर घाट अपनी कहानियों से भरी पड़ी है। लेकिन, इसी बनारस की एक अनमोल धरोहर, गंगा घाटों पर मालिश का हुनर, अब दम तोड़ रहा है। वह हुनर, जो कभी बनारस के रईसों और तीर्थयात्रियों को मंत्रमुग्ध कर देता था, अब अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है।

बनारस के गंगा घाटों पर कभी मालिश करने वालों, पर्यटकों की फोटो खींचने वालों, तांगा और रिक्शा चलाने वालों, हथकरघे पर साड़ियां बुनने वालों, लोहे का बक्सा और सिल-बट्टा बनाने वालों की बड़ी अहमियत थी। इन पेशों से जुड़े लोग न केवल अपनी आजीविका चलाते थे, बल्कि बनारस की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा भी थे। लेकिन आज, बदलते दौर और आधुनिक तकनीक के चलते इनकी स्थिति दयनीय हो गई है।


संकठा घाट पर मालिश का काम करने वाले संतोष शर्मा इस पेशे से पिछले डेढ़ दशक से जुड़े हैं। मूल रूप से चंदौली के रहने वाले संतोष बताते हैं, " "घंटे घड़ियाल और शंख–डमरुओं की लय पर हम लोगों के शरीर की मालिश किया करते थे। वे दिन अब लद गए जब धूप से नहाए गंगा किनारे चबूतरे पर पीठ टिकाकर आकाश के भूगोल को नापने वाले दूर क्षितिज की गहराई को समेटने वाले बनारसियों को हर पीड़ा हम दूर कर दिया करते थे। अब ये बीते दिनों की बात है। गंगा घाटों पर अब मालिश करने वाले कुछ फनकार ही बचे हैं। मालिश कराने वाले भी बहुत कम हैं। हमारे हुनर को सिर्फ खांटी बनारसी ही अहमियत देते हैं। मेरा एक ही बेटा है, उसी के भविष्य के लिए हम गंगा घाट पर पड़े हुए हैं, अन्यथा हम भी अपने गांव चले जाते।"

संतोष आगे कहते हैं, " बनारस के गंगा घाटों पर मालिश कराने वाले लोग अब ना के बराबर बचे हैं। सिर्फ खांटी बनारसी ही कभी-कभार आते हैं। हमारा हुनर धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। मैं यहां सिर्फ अपने बेटे के भविष्य के लिए पड़ा हूं। अगर उसके लिए उम्मीद नहीं होती, तो शायद मैं भी गांव लौट गया होता। लेकिन महंगाई के इस दौर में किसी तरह दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए गंगा घाटों पर टिके रहना हमारी मजबूरी है।"

गंगा घाटों पर मालिश का काम करने वाले लोग कभी पर्यटकों के लिए अनिवार्य सेवक माने जाते थे। उनके हाथों की कारीगरी और पारंपरिक तेल मालिश का आकर्षण हर किसी को खींचता था। आज, स्पा और आधुनिक मसाज पार्लरों ने उनकी जगह ले ली है। महंगाई और घटते ग्राहक उनके जीवन को कठिन बना रहे हैं।

बिहार के भभुआ जिले के कोमल शर्मा, जो 1990 से बनारस के घाटों पर मालिश का काम कर रहे हैं, बताते हैं, "पहले मालिश कराने वालों की लाइन लगी रहती थी। अब हमें ग्राहकों का इंतजार करना पड़ता है। पहले यह पेशा बहुत अच्छा था। घर का खर्चा आराम से चल जाता था। लेकिन अब महंगाई बढ़ गई है और कमाई दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। सोचिए, कैसे कटेगी जिंदगी?

इस पेशे के महारथी, जो कभी मालिश के काम को अपनी कला के रूप में प्रस्तुत करते थे, अब इस दुनिया में नहीं हैं। हम जैसे चंद लोग सिर्फ वक्त की धारा में बचे हुए हैं, लेकिन ज्यादा दिनों तक इस पेशे का ज़िंदा रहना मुश्किल है। बदलते समय के साथ हमारा काम भी बीते दिनों की याद बन जाएगा।

गंगा स्नान के बाद मालिश का आनंद लेने वालों की संख्या में आई कमी और इस पेशे के प्रति घटती रुचि ने इसे हाशिए पर धकेल दिया है। जहां पहले घाटों पर मालिश के लिए चहल-पहल होती थी, आज वहां सन्नाटा पसरा है। महंगाई और बदलते सामाजिक परिवेश ने इस परंपरा को लगभग समाप्ति की ओर धकेल दिया है। मालिश करने वाले इन फनकारों की संख्या अब गिनती के कुछ लोगों तक सीमित रह गई है। बनारस के घाट, जो कभी इस कला के साक्षी थे, अब इन हाथों की मेहनत और कला के खत्म होने के गवाह बन रहे हैं।


वो कहानियां जो गुम हो रहीं

बनारस के गंगा घाटों पर हर कोना किसी ना किसी हुनर की कहानी कहता था। समय के साक्षी रहे यहां के गंगा घाट कभी केवल स्नान और पूजा के केंद्र नहीं थे, वे ज़िंदगी का जीवंत प्रतीक थे। हर कोने पर कोई न कोई कला सांस ले रही थी, और हर कलाकार अपनी अदाओं से इन घाटों को जीवंत बनाए रखता था। इन्हीं में से एक अनोखी कला थी—कानों की सफाई। एक छोटे से थैले में सिमटी ये दुनिया, जिसमें रूई के फाहे, एक पीतल की तीली, और तेल की कुछ बूंदें होती थीं। सामान मामूली था, पर उनका हुनर बेमिसाल।

कान साफ करने वाले कलाकारों का अंदाज़ ऐसा था कि कोई भी उनकी ओर खिंचा चला आता। पहले बड़े मनोयोग से कानों का मुआयना करते, फिर सलीके से सफाई की सलाह देते। यह महज़ काम नहीं, बल्कि एक नफासत भरी कला थी, जो अब बनारस की गंगा की लहरों के साथ कहीं गुम हो गई है।

काशी विश्वनाथ मंदिर के पास रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार ऋषि झिंगरन इस बदलाव को देखकर भावुक हो जाते हैं। वे कहते हैं, "घाटों पर कान साफ करने वाले, मालिश करने वाले फनकार अब नहीं दिखते। यह केवल लोगों का पेशा नहीं था, यह बनारस के दिल की धड़कन थी। बनारस तो गुरु है, जो जीने का ढंग सिखाता है। लेकिन अब यह परंपराएं धीरे-धीरे दम तोड़ रही हैं।"

आज बनारस के घाटों की सुबहें नलों और शावरों से होती हैं। गंगा की ठंडी लहरों में डुबकी लगाने का जज़्बा अब शायद किसी को याद भी नहीं। शरीर की मालिश करने वाले हाथ, जिनकी उंगलियों में जादू था, अब दिखाई नहीं देते। कानों की सफाई करने वाले फनकार, जिनकी कला कानों से होते हुए दिल तक को सुकून देती थी, अब गंगा किनारे से विदा ले चुके हैं।

ऋषि झिंगरन कहते हैं, "बनारस का जीवन सिर्फ घाटों और मंदिरों तक सीमित नहीं था। यहां की हर गली, हर नुक्कड़, हर पेड़ के नीचे एक अलग संस्कृति, एक अलग जीवन शैली सांस लेती थी। इन फनकारों की मौजूदगी इस शहर की आत्मा थी। अब जैसे वह आत्मा खुद को खोती जा रही है।"


एक बीती दास्तां का दर्द

बनारस, जहां हर घाट एक कहानी कहता है और हर तस्वीर के पीछे एक भावना छिपी होती है। यही घाट कभी फोटोग्राफी की धड़कन थे। दशाश्वमेध घाट पर पंक्तिबद्ध खड़े फोटोग्राफरों का हुजूम, उनके ट्राईपॉड पर टिके डब्बानुमा कैमरे और उस काले कपड़े के भीतर से झांकती उनकी आंखें—ये सब उस दौर का आईना थे जब तस्वीरें सिर्फ यादें नहीं, एक जीवन की कहानी होती थीं। दो दशक पहले, गंगा घाटों पर फोटोग्राफरों की खास धाक थी। उनके पास मौजूद बड़े डब्बानुमा कैमरे, जिन्हें चलाने के लिए गजब की महारत और धैर्य चाहिए होता था, सैलानियों और स्थानीय लोगों की जिंदगी के खूबसूरत पलों को कैद करते थे। कैमरे के पीछे का काला कपड़ा एक जादूगर के परदे की तरह लगता था, जहां से सिर्फ कुछ पलों में तस्वीरें जीवंत होकर सामने आ जाती थीं। तस्वीर खींचने और उसे डेवलप करने की प्रक्रिया एक कला थी, जिसमें समय, मेहनत और कौशल का अनूठा मेल होता था।

वक्त ने करवट ली। पोलराइड कैमरे आए और फोटोग्राफी की यह जादुई दुनिया धीरे-धीरे बदलने लगी। मोबाइल कैमरों और डिजिटल फोटोग्राफी ने इस पेशे की तस्वीर ही बदल दी। अब हर हाथ में स्मार्टफोन और हर जेब में डिजिटल कैमरा है। तकनीक की इस क्रांति ने फोटोग्राफी को सुलभ तो बना दिया, लेकिन इससे जुड़े हुनर और भावनाओं को कहीं पीछे छोड़ दिया।

गंगा घाट पर हमारी मुलाकात जुगनू नाम के फोटोग्राफर से हुई। उनकी आंखों में उस समय एक चमक आई, जब उन्हें लगा कि हम उनसे तस्वीर खिंचवाने आए हैं। लेकिन जब हमने उन्हें बताया कि हम पत्रकार हैं, तो उनके चेहरे की चमक एक मायूसी में बदल गई। जुगनू बोले, "पहले हर तस्वीर एक सपना होती थी, जिसे फोटोग्राफर अपने हुनर से हकीकत बनाता था। आज हर किसी के हाथ में कैमरा है, लेकिन उस जज्बे और मेहनत की जगह मशीनों ने ले ली है।"


जुगनू के मुताबिक, लकड़ी के बॉक्स कैमरे और हेजल ब्लेड कैमरों के दौर में हर तस्वीर एक जिम्मेदारी होती थी। ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें बनाना सिर्फ एक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक गहरी रचनात्मकता का प्रदर्शन था। लेकिन डिजिटल युग ने इस कला को आम बना दिया। अब तस्वीरें फिल्म की जगह छोटी-सी चिप में सिमट गई हैं। "पहले फोटोग्राफर के एक क्लिक में सबकुछ परफेक्ट होना चाहिए था। लेकिन आज, फोटोशॉप और अन्य तकनीकों के सहारे तस्वीरों को ठीक किया जाता है। यह सब फोटोग्राफी के उस आत्मा को खत्म कर रहा है, जो इसे एक कला बनाती थी," जुगनू ने कहा।

चेतगंज के चंदन निवासी चंदन घाटों पर फोटोग्राफी करते हैं। वह कहते हैं कि फोटोग्राफी एक कला थी और हमेशा रहेगी। लेकिन समय के साथ यह कला कैसे बदली है, यह फोटोग्राफरों के दिलों में एक गहरे दर्द की लकीर खींचता है। पहले हर तस्वीर में फोटोग्राफर का समर्पण, उसका प्यार और उसकी मेहनत झलकती थी। अब तकनीक ने इसे सस्ता और सुलभ बना दिया है, लेकिन उस जज्बात को कहीं खो दिया है जो इन तस्वीरों में सांस लेता था।

गंगा घाटों पर पुराने डब्बानुमा कैमरे अब सिर्फ शोपीस बनकर रह गए हैं। कुछ फोटोग्राफर इन्हें सैलानियों को आकर्षित करने के लिए दुकान के सामने रखते हैं, मानो यह याद दिलाने की कोशिश कर रहे हों कि कभी यह उनका जीवन हुआ करता था। फोटोग्राफी अब भी एक बड़ी कला है, लेकिन इसकी आत्मा, जो कभी गंगा घाटों पर सांस लेती थी, अब शायद अतीत का हिस्सा बनती जा रही है। एक समय था जब गंगा घाटों पर पर्यटक फोटोग्राफरों की बड़ी मांग थी। वे पर्यटकों की यादों को कैमरे में कैद करते थे। लेकिन स्मार्टफोन और सस्ती फोटोग्राफी तकनीकों के दौर में इनकी रोज़ी-रोटी खत्म हो गई है। “पहले हर दिन कुछ न कुछ कमा लेते थे, अब हफ्तों तक ग्राहक नहीं मिलते,” कहते हैं राजेश, जो दशाश्वमेध घाट पर पिछले 20 सालों से फोटोग्राफी का काम कर रहे हैं।


भूल-भुलैया में खो गए तांगे-रिक्शे

रमेश सिप्पी की फ़िल्म 'शोले' का बसंती का तांगा, वो रफ्तार, वो शान, आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है। लेकिन आज बनारस की गलियों में तांगे गुम हो गए हैं। कभी ये तांगे यहां की शान हुआ करते थे, सस्ती और सुलभ सवारी का ज़रिया। गोदौलिया, सारनाथ, और चौकाघाट जैसे इलाकों में इनका जमावड़ा होता था। आज इनकी जगह टोटो और ऑटो ने ले ली है, और जो तांगे कभी यहां की पहचान हुआ करते थे, वे अब बस यादों में बचे हैं।

गोदौलिया का तांगा स्टैंड, जो कभी तांगों के पहियों की खनक और घोड़ों की टापों से गूंजता था, अब मल्टी-लेवल पार्किंग में बदल गया है। वहां एक कोने में बैठकर अपनी किस्मत को कोसते हुए मोहम्मद यूसुफ मिले। आवाज़ में एक गहरी पीड़ा थी। उन्होंने कहा, "पहले तांगा चलाकर कुछ पैसे बचा भी लेते थे। उन्हीं पैसों से हमने अपना घर बनाया। लेकिन अब बच्चों का पेट पालना मुश्किल हो गया है। हमारा पुश्तैनी पेशा खत्म होने के कगार पर है।"

यही दर्द काशी रेलवे स्टेशन के पास रहने वाले अनीश खां की बातों में भी झलकता है। अनीश की कई पीढ़ियां तांगा चलाकर ही गुजर गईं। वह बताते हैं, "बनारस की गलियां अब तांगों के लिए नहीं बची। जहां देखो जाम ही जाम है। पुलिस वाले भी चलने नहीं देते। मजबूरी में हमने बग्घियां रख लीं। शादी-ब्याह के मौसम में थोड़ी कमाई हो जाती है, लेकिन बाकी समय हमारे घोड़ों का चारा जुटाना भी मुश्किल हो जाता है।"

कोरोना महामारी के समय हालात और बिगड़ गए। अनीश ने कहा, "लॉकडाउन में तो भूखों मरने की नौबत आ गई थी। बग्घियों की बुकिंग बंद हो गई थी, और हमारे पास खाने तक के पैसे नहीं बचे थे।" यह दर्द उनके अकेले का नहीं है, बल्कि हर उस तांगे वाले का है, जिसकी जिंदगी अब अंधेरों में सिमट गई है।


इसी तरह बनारस की पहचान के साथ एक और चीज़ है, जो गुम हो रही है—रिक्शा वाले। कभी यह शहर रिक्शों से चलता था। हर गली-मोहल्ले में इनकी आवाजाही आम थी। लेकिन आज इनके चेहरे पर सिर्फ बेबसी और आंखों में दम तोड़ती उम्मीदें बाकी हैं।

सोमारू, जो बिहार के मोतिहारी से बनारस रिक्शा चलाने आए थे, से मुलाकात हुई। उनका गमछा पसीने से भीगा था और आंखों में उदासी थी। उन्होंने रुंधी आवाज़ में कहा, "दो दिन पहले गांव से फोन आया था। मां और पत्नी की तबीयत खराब है। दवा के पैसे नहीं हैं। जो कमाते हैं, वह राशन में खत्म हो जाता है। पहले पांच-सात सौ रुपये रोज कमा लेते थे। कभी-कभी हज़ार रुपये तक भी हो जाते थे, लेकिन अब घंटों इंतजार करने के बाद भी सवारी नहीं मिलती।"

लॉकडाउन ने हालात और खराब कर दिए। बहुत सारे रिक्शा चालक अपने गांव लौट गए। जो बचे हैं, उनकी जिंदगी अब एक संघर्ष बनकर रह गई है। उन्हें याद है वो वक्त, जब शहर में अंग्रेज पर्यटक आते थे। उनका एक दिन का खर्च रिक्शा वालों की जिंदगी बदल देता था। लेकिन आज हालात ऐसे हो गए हैं कि सोमारू जैसे लोग अपनी उम्मीदें खोते जा रहे हैं। साइकिल रिक्शा चलाने वाले रामकिशोर कहते हैं, "पहले हमारे पास काम की कोई कमी नहीं थी। दिनभर में इतना कमा लेते थे कि परिवार को अच्छे से चला सकें। लेकिन अब सवारी मिलना मुश्किल हो गया है। ऑटो और ई-रिक्शा ने सब कुछ बदल दिया है।"

तांगे और रिक्शे, बनारस के इतिहास और उसकी सांस्कृतिक धड़कन के हिस्से थे। लेकिन वक्त के साथ ये धड़कन धीमी पड़ गई है। अब बस कहानियां, यादें, और कुछ बेबस चेहरे बाकी रह गए हैं। नतीजा, तांगा और रिक्शा चलाने वाले बड़े संकट का सामना कर रहे हैं। ऑटो रिक्शा और ऐप-आधारित टैक्सियों ने उनके पेशे को लगभग खत्म कर दिया है। पंडित रवि, जो अस्सी घाट पर रिक्शा चलाते हैं, कहते हैं, “पहले बनारस के गलियों और घाटों पर तांगा और रिक्शा की धूम थी। अब लोग ऐप से गाड़ी बुक कर लेते हैं। हमारा काम लगभग खत्म हो गया है।”


खोते बाजार, टूटते सपने

नरहरपुरा, जिसे लोहटिया के नाम से जाना जाता है, बनारस की उन पुरानी यादों का हिस्सा है, जहां कभी लोहे की चमचमाती चादरों से बने बक्से घरों की शान हुआ करते थे। पहले इनके बक्से गंगा घाटों पर भी बिका करते थे। ससुराल जाने वाली दुल्हनों के साथ नक्काशीदार बक्सों की कहानी हर परिवार की परंपरा का अभिन्न हिस्सा थी। लेकिन वक्त के साथ, ये बक्से और इन्हें बनाने वाले कारीगर, दोनों कहीं खो से गए।

बक्सा कारोबार से जुड़े विजय कुमार गुप्ता का दर्द उनकी हर बात में छलकता है। "हम बक्सा नहीं बनाते, बनारस की एक पुरानी परंपरा को ढो रहे हैं," वे कहते हैं। उनकी आवाज में एक ऐसी कशिश है, जो बीते वक्त की मजबूरी और आज की बेरुखी का गहरा एहसास कराती है। जब ब्रांडेड सूटकेस और ब्रीफ़केस का चलन नहीं था, तब लोहे के बक्से हर घर की ज़रूरत हुआ करते थे। दुल्हन के गहनों से लेकर बच्चों की किताबों तक, हर खास सामान का ठिकाना यही बक्से हुआ करते थे।

लेकिन आज? आज यह कारोबार सिर्फ शादी-विवाह तक सिमटकर रह गया है। विजय बताते हैं, "अब तो भूले-भटके गांव वाले आते हैं और वही बक्सा खरीदकर ले जाते हैं। बनारस, जो कभी परंपराओं का केंद्र था, अब आधुनिकता की आंधी में अपनी पहचान खोता जा रहा है। बक्सा बनाने वाले, लकड़ी के खिलौने बनाने वाले बढ़ई, और चुड़िहारिन जैसी परंपराओं से जुड़े लोग—इन सबकी कहानी सिर्फ व्यापार खत्म होने की नहीं, बल्कि भावनाओं, रिश्तों और जिंदगी के बदलते मायनों की है।"

विजय कुमार गुप्ता की बातों में बीते वक्त की कारीगरी की गूंज और आज की उपेक्षा का दर्द साफ महसूस होता है। इनकी बातें इन दिनों पुराने किस्सों की तरह सुनाई देती हैं। एक ऐसा किस्सा, जिसे याद करते हुए दिल भर आता है। शायद यही वक्त है, जब हमें इन परंपराओं को सिर्फ याद करने के बजाय इन्हें बचाने के लिए कुछ करना होगा, वरना हमारी अगली पीढ़ी बनारस के इन हिस्सों को सिर्फ किताबों में पढ़ेगी।


खिलौने और बचपन की यादें

बनारस और पूर्वांचल में कभी छोटे बच्चों का पहला खिलौना लकड़ी की तीन चक्कों वाली गाड़ी होती थी। यह सिर्फ खिलौना नहीं था, बच्चों के चलने का पहला सहारा भी था। ये खिलौने पहले सभी गंगा घाटों पर बिका करते थे, लेकिन प्लास्टिक और ब्रांडेड खिलौनों के बाजार ने इन लकड़ी के फनकारों को हाशिये पर धकेल दिया। खोजवां के कारीगर अब भी गाड़ियां बनाते हैं और हड़हा सराय में बेचने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनके खरीदार लगभग गायब हो गए हैं।

दशाश्वमेध घाट के पास एक मुहल्ले में रहने वाले एक्टिविस्ट गणेश शंकर पांडेय कहते हैं, "-घाटों पर अभी खिलौने बिकते हैं, लेकिन प्लास्टिक के। लकड़ी की खिलौना बैलगाड़ी, जो कभी मध्य भारत में खूब देखी जाती थी, अब सिर्फ यादों में रह गई है। बढ़ई कारीगरों की गिनती अब उंगलियों पर सिमट गई है। जैसे-जैसे ये परंपराएं खत्म होती जा रही हैं, इनके साथ जुड़ी संवेदनाएं और रिश्तों की मिठास भी धीरे-धीरे मिट रही है।"

बनारस के पक्के मुहाल की गलियों में कभी रंग-बिरंगी चूड़ियां बेचने वाली चुड़िहारिनों का अपना एक अनूठा संसार था। उनकी आवाज़, "चूड़ी ले लो, चूड़ी," आज भी बनारस की पुरानी गलियों में गूंजती हुई महसूस होती है। हर चुड़िहारिन का अपना एक गांव या मोहल्ला हुआ करता था, जहां वह चूड़ियां पहनाकर पैसा या अनाज लेती थी। लेकिन आज, यह परंपरा भी मेले-ठेले तक सीमित हो गई है।

गंगा घाटों और उससे सटी गलियों में घूमने वाली चूड़ीहारिन महिलाएं अब छोटे हाट-बाज़ारों में दिखती हैं, और वो भी आखिरी पीढ़ी की तरह। उनकी गायब होती उपस्थिति, बनारस की उन पुरानी परंपराओं के खत्म होने का सबूत है, जो कभी इस शहर की सांस्कृतिक पहचान हुआ करती थीं।


गुम होते सितारे, लुप्त होती पहचान

काशी की रंग-बिरंगी परंपरा में एक तबका ऐसा भी है, जो अपनी कला और कौशल से इस शहर की पहचान में जान डालता है, लेकिन आज उनकी ज़िंदगी संघर्ष और उपेक्षा के साए में सिमटी हुई है। इन तबकों में प्रमुख हैं कुम्हार, नाई और टेलर मास्टर, जो अपनी पुश्तैनी कला के सहारे कभी इस शहर के जीवन का अभिन्न हिस्सा थे। आज ये बदलाव की आंधी में अपनी ज़िंदगी को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। काशी के इन सितारों की चमक धीमी होती जा रही है, लेकिन उनकी ज़िंदगी की मुश्किलें हमारे ध्यान और सहारे की ओर इशारा कर रही हैं।

बनारस में पेशेवर नाइयों के धंधे भी इतिहास के पन्नों में सिमटते जा रहे हैं। पहले गंगा घाटों पर हजामत बनाने वालों का जखेड़ा मजमा लगाए रहता था। धार्मिक आयोजनों पर सिर का बाल उतारने वाले नाइयों की कहानी भी कम दुखदायी नहीं है। बदलते वक्त के साथ इनकी कैंची की धार कमज़ोर हो गई है। पेट भरने के लिए अब भारी इन्हें जद्दोजहद करनी पड़ रही है। एक छोटा-सा झोला हाथ में लिए, बाएं कंधे पर "ललका गमछा" लटकाए नाइयों को देखकर लोग आवाज़ लगाया करते थे और कुछ ही देर में हजामत बन जाया करती थी। इनका कहना है कि अब ज़मीन पर बैठकर कोई हजामत नहीं बनवाना चाहता। लाचारी में कुछ नाइयों ने काठ की कुर्सी रख ली है, जिससे उनकी ज़िंदगी घिसट-घिसटकर चल रही है।

बनारस की रेलवे कॉलोनी में सड़क के किनारे कुर्सी लगाए बैठे मनोज शर्मा कहते हैं, "ढलती उम्र के इस पड़ाव पर हम अपना पुश्तैनी धंधा नहीं छोड़ सकते हैं। दूसरा धंधा करने के लिए चाहिए पूंजी और अनुभव। दोनों ही चीज़ें हमारे पास नहीं हैं। बनारस शहर में तमाम तारांकित सैलून खुल गए हैं। तमाम पूंजीपति इस धंधे में आ गए हैं। हमारा पुश्तैनी धंधा तो पहले से ही चौपट हो गया है।"

बनारस के पक्के महाल की गलियों में टेलरिंग का हुनर भी पलता था जो अब दम तोड़ रहा है। इस शहर की गलियों में टेलर मास्टर बैठा करते थे जो लोगों के मन-मुताबिक हर तरह कपड़े सिल दिया करते थे। जब से टेलरिंग करने वाली बड़ी-बड़ी दुकानें खुल गई हैं तब से इन्हें कोई पूछने वाला नहीं रह गया है।

गायघाट इलाके में दशकों से टेलरिंग का काम कर रहे शिवकुमार श्रीवास्तव से मुलाकात हुई तो वह अपने दुखड़ा सुनाने लग गए। प्रसिद्ध मलाई साव की कचौड़ी की दुकान के सामने एक छोटे-से कमरे में अपनी पुरानी सिलाई मशीन लेकर बैठे रहते हैं। भूले-भटके कोई आता है तो बगैर हीला-हवाली के काम लेकर सिलाई करने में जुट जाते हैं।

शिवकुमार कहते हैं, "हमारी दुकान 75 साल पुरानी है। पहले हमारे पिता गुलाब दास श्रीवास्तव और उससे पहले हमारे दादा बैजू राम कपड़ों की सिलाई करते थे। हमारी दुकान काफी मशहूर थी। चौक तक से लोग हमारे यहां कपड़े सिलवाने के लिए आया करते थे। हमें लेडीज़ और जेंट्स दोनों के कपड़ों को सिलने का हुनर आता है, लेकिन महंगा कपड़े लेकर कोई इस डर से नहीं आता कि कहीं हम ड्रेस बिगाड़ न दें। हम पहले की तरह दुकान खोलते और बंद करते हैं। कुछ लोगों को पुराने कपड़ों को अल्टर करने काम मिल जाया करता है। बस किसी तरह से हमारी रोज़ी-रोटी चल रही है।"

शाही-ब्याह या किसी और तरह का आयोजन हो, गांव-देहातों में यहां तक की शहरों में भी खाने-पाने के लिए दोना-पत्तल का इस्तेमाल आम होता था। लेकिन अब बाज़ार में उनकी जगह नई किस्म के मशीन से बनने वाले कागज़, थर्मोकोल और प्लास्टिक के सफ़ेद-चमकीले दोने-पत्तलों ने ले ली है। यही वजह है कि हरे पत्तल-दोने अब कम ही नज़र आते हैं और इसी के साथ उन लोगों की रोज़ी-रोटी भी ख़तरे में पड़ गई है जो इन्हें बनाते थे। बनारस के कर्णघंटा की दुकानों में अब दोना पत्तल नहीं, कागज के दोना और थालियां बिका करती हैं।


सिलबट्टे का चलन गायब

बनारस में पत्थर के सिलबट्टे से मसाले पीसने का चलन सालों पुराना रहा है। बनारस के कई इलाकों में सिलबट्टे आज भी बिकते हैं, लेकिन मिक्सी मशीन आने के बाद इसके कद्रदान न के बराबर रह गए हैं। सिलबट्टा दो शब्दों से बना है, सिल और बट्टा। सिल एक सपाट पत्थर का स्लैब होता है जिसे आसानी से पीसने के लिए खुरदरा किया जाता है। बट्टा (जांता) एक बेलनाकार पत्थर होता है जिसके ज़रिये से किसी भी चीज़ को पीसा जाता है। इसका इस्तेमाल आमतौर पर गीली चटनी या पेस्ट बनाने के लिए किया जाता है। कुछ मल्टीनेशनल कंपनियां सिलबट्टा बना रही और मोटा मुनाफा भी कमा रही हैं। बाज़ारबाद में कोई पिस रहा है तो वह हैं कुछ साख जातियां जो दशकों से इस पेशे में लगी हैं।

बनारस के कैंट-रोहनिया मार्ग पर जनजाति के कुछ लोग इसी हुनर के ज़रिए अपना पेट पालते आए हैं। ऐसे ही एक परिवार की 56 बरस की कंचन देवी बताती हैं कि मिक्सी के बढ़ते चलन के कारण पिछले एक दशक से उनका कारोबार काफी कम हो गया है। कुछ ही घरों में सिलबट्टे इस्तेमाल किए जाते हैं। आमतौर पर सिलबट्टे पर चटनी और मसाले पीसे जाते हैं। सिलौटी बनाना हमारा खानदानी काम है। सिलौटी बनाते समय कई बार पत्थर उड़कर आंखों में चले जाते हैं। अगर आंखों में पत्थर जाएगा तो वह निकल भी जाएगा, पर शीशा गया तो निकल पाना मुश्किल हो जाता है।"

"सिलबट्टा बनाने के लिए हम सीतामढ़ी से पत्थर का सिलाप खरीद कर लाते हैं। उसी से हम सिलौटी और जांता बनाते हैं। एक सिलाप में तीन सिलौटी व जांता की जोड़ी बन जाती है। छैनी और हथौड़ी की मदद से पटिया पर हमें नक्काशी करनी पड़ती है। एक सिलौटी बनाने में हमें कम-से-कम दो घंटे का समय लगता है। एक सिलबट्टा हम 350-400 रुपये में बेचते हैं। सिलबट्टा नहीं बिकता तो उसे लेकर हम गांव-गांव में घूमते हैं। किसी दिन सभी सिलौटी बिक जाती है और किसी दिन खाली हाथ लौटना पड़ता है। बारिश के दिनों में हमें मुश्किलों का सामना करना पड़ता क्योंकि उस वक्त सिलबट्टे की बिक्री कम होती है।"

लूम के शोर में कराह रहा हथकरघा

बनारस की रेशमी साड़ियों की बुनाई कला अपनी सुंदरता और बारीकी के लिए विश्व प्रसिद्ध है। लेकिन जिस हथकरघे पर ये बुनाई होती थी, उसकी गूंज अब पावरलूम के शोर में गुम हो चुकी है। बनारस में पहले जहां 80,000 से अधिक हथकरघे थे, अब उनकी संख्या तेजी से घटकर नगण्य रह गई है। पावरलूम के बढ़ते इस्तेमाल ने बुनाई के पारंपरिक तरीके को किनारे कर दिया है। यह बदलाव न केवल इस प्राचीन कला के लिए बल्कि इसके कलाकारों के जीवन के लिए भी बड़ा झटका है।

नागेपुर गांव के लल्लन जैसे गिने-चुने बुनकर आज भी हथकरघे पर साड़ियां बुनने की कला को जिंदा रखे हुए हैं। लल्लन बताते हैं कि दिनभर कड़ी मेहनत के बाद मुश्किल से डेढ़ से दो सौ रुपये ही कमाए जा सकते हैं। हथकरघे पर बुनाई में समय और मेहनत दोनों अधिक लगते हैं, लेकिन इसका मूल्यांकन बाजार में नहीं होता। यही कारण है कि युवा पीढ़ी इस पेशे से दूरी बना रही है।

हथकरघे पर बनी साड़ियां न केवल अधिक सुंदर और टिकाऊ होती हैं, बल्कि इनमें बुनकर की रचनात्मकता और मेहनत भी झलकती है। इसके बावजूद बुनकरों को उनकी मेहनत का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। लल्लन जैसे बुनकरों के पास पावरलूम लगाने के लिए संसाधन नहीं हैं। वह कहते हैं, "हथकरघे से बुनाई करना एक परंपरा है, लेकिन इससे अब पेट पालना मुश्किल हो गया है।"

बजरडीहा की सना कहती हैं, "बदलाव की आंधी में हथकरघे और बनारसी साड़ियों के बुनकर अपनी ज़िंदगी को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। काशी के इन सितारों की चमक धीमी होती जा रही है। जुलाहा समुदाय की वो महिलाएं संकट में हैं जो साड़ियों पर सलमा-सितारे टांका करती थीं। इन महिलाओं को मजूरी भी कम मिलती थी, लेकिन महिला फनकारों की सांसों की डोर टूतती जा जा रही हैं।"

"पावरलूम ने साड़ियों की उत्पादन प्रक्रिया को तेज और सस्ता बना दिया है। लेकिन इसका असर पारंपरिक हथकरघे के बुनकरों पर विनाशकारी साबित हो रहा है। मदनपुरा, लोहता, बजरडीहा, पितरकुंडा जैसे इलाकों में बुनाई का यह पेशा एक समय समृद्धि का प्रतीक था। यहां के बुनकर अपनी कला के दम पर एक प्रतिष्ठित जीवन जीते थे। अब, पावरलूम ने उनकी कला को हाशिए पर धकेल दिया है, "बताती हैं सना।

दरअसल, पावरलूम के प्रभाव ने केवल बुनाई प्रक्रिया को ही नहीं बदला, बल्कि समाज और पारंपरिक कारीगरों के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला है। पहले एक बुनकर अपनी मेहनत से पूरे परिवार का भरण-पोषण कर सकता था, लेकिन अब हालात इतने खराब हैं कि कई बुनकरों को अन्य मजदूरी करनी पड़ती है।

गंगा के किनारे हथकरघा चलाने वाले कारीगर भी इसी दर्द से जूझ रहे हैं। बनारसी साड़ी, जो कभी इस शहर की शान हुआ करती थी, अब मशीनों और नकली कारीगरी के बीच अपनी पहचान खो रही है। रामलाल, जो पिछले 30 सालों से साड़ियां बुन रहे हैं, बताते हैं, "हमारी साड़ियों की खूबसूरती की कोई मिसाल नहीं थी। लेकिन अब बाजार में मशीन से बनी सस्ती साड़ियां बिक रही हैं। लोग असली और नकली में फर्क करना ही भूल गए हैं।"

फूलमाला बेचने वाली कविता साहनी कहती हैं कि महंगाई ने जीवन में बड़ी मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। हमारी तीन पीढ़ियां फूल-माला बेचते हुए घाटों पर रह गईं। बस किसी तरह से खर्च निकल पा रहा है। कुछ ऐसी ही कहानी फूल बेचने वाली पलक की भी है। हर फनकार की कहानी में एक बात आम है—महंगाई और आधुनिकता की मार। मालिश करने वाले, साड़ी बुनने वाले, तांगा और रिक्शा चलाने वाले, हर किसी के सामने रोज़ी-रोटी का संकट है। वे अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने के सपने तो देखते हैं, लेकिन वह सपना टूटता हुआ नजर आता है।

बुनकर नेता अतीक अंसारी कहते हैं, "सरकार और बाजार से मिलने वाले सहयोग का अभाव इस संकट को और बढ़ा रहा है। पारंपरिक हथकरघे की कला को बचाने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है। यदि समय रहते इस दिशा में कदम नहीं उठाए गए, तो बनारस की यह ऐतिहासिक विरासत इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जाएगी। बुनकरों को उचित मजदूरी, संसाधनों तक पहुंच, और बाजार में हथकरघे पर बनी साड़ियों के प्रचार-प्रसार की जरूरत है। इससे न केवल उनकी आजीविका में सुधार होगा, बल्कि यह कला भी अगली पीढ़ियों तक पहुंच सकेगी। हथकरघे की धड़कनें बनारस की संस्कृति और पहचान का अभिन्न हिस्सा हैं। इन्हें बचाना केवल बुनकरों का नहीं, पूरे समाज का दायित्व है।"


संघर्ष और जीवन की सच्चाई

गंगा घाट, जो कभी आध्यात्मिकता और शांति के लिए जाने जाते थे, अब बाजार और बदलते स्वरूप का प्रतिबिंब बन गए हैं। नमो घाट पर जहां खेल-तमाशों का शोर है, वहीं अन्य घाटों पर फूल-मालाओं, नकली मोतियों, रुद्राक्ष, टैटू, और पोट्रेट बनाने वालों की भीड़ है। सर्दियों के इस मौसम में चायवालों की मौजूदगी हर कोने में दिखती है, लेकिन महंगाई ने इन सबकी कमर तोड़ दी है। चंदन, रामसूरत, सद्दाम, संकठा, अनिकेत, निरंजन, नरेंद्र शाह, कविता साहनी, बलजीत जैसे दर्जनों लोग घाटों पर छोटे-मोटे काम कर अपनी आजीविका चलाते हैं। महंगाई की मार ने इनके लिए जिंदगी जीना मुश्किल कर दिया है। दिनभर की कड़ी मेहनत के बावजूद, ये फनकार अपनी जरूरतें पूरी करने के संघर्ष में डूबे रहते हैं। इनमें से अधिकतर लोग अपने दर्द और परेशानियों को जाहिर नहीं करते। जब उनसे पूछा जाता है कि जीवन कैसा चल रहा है, तो वे बस यही कहते हैं, "जिंदगी किसी तरह चल रही है।" यह कथन उनकी मजबूरी के साथ-साथ उनके धैर्य और जिजीविषा का प्रतीक है।

घाटों पर काम करने वाले इन लोगों का कहना है कि बदलते समय और बढ़ती महंगाई ने उनके लिए हालात और कठिन बना दिए हैं। चाहे चाय बेचने वाले हों, माला बनाने वाले, टैटू कलाकार हों, या पोट्रेट बनाने वाले—सभी के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती हैं। बारिश के चार महीने घाटों पर पानी भरने से इनकी आजीविका पूरी तरह ठप हो जाती है। बाकी आठ महीनों में जो थोड़ी-बहुत कमाई होती है, वही इनके लिए जीवन का सहारा है। गंगा घाट अब न केवल आध्यात्मिक स्थल हैं, बल्कि जीवन के संघर्ष और उम्मीदों की सजीव कहानी भी कहते हैं। ये घाट उन फनकारों की मजबूरियों, दर्द और अदम्य साहस के गवाह हैं, जो हर दिन अपनी जिंदगी को जीने की नई वजह तलाशते हैं।

आधुनिक पर्यटन का प्रभाव

बनारस की गलियां और घाट आज शॉपिंग और कैफे कल्चर के प्रतीक बन गए हैं। यह बदलाव उन लोगों के लिए फायदेमंद रहा है, जिन्होंने खुद को नई ज़रूरतों के अनुसार ढाल लिया। लेकिन पारंपरिक पेशों और हुनरों से जुड़े लोग इस बदलाव की गति का सामना नहीं कर पाए। गंगा घाटों पर आज हजारों पर्यटक आते हैं। उनका उद्देश्य अब सिर्फ घाटों की सुंदरता को देखना और तस्वीरें लेना होता है। इससे स्थानीय समुदाय की पारंपरिक सेवाओं की मांग घट गई है। हालांकि सरकार की ओर से कई योजनाएं शुरू की गई हैं, लेकिन वे पर्याप्त साबित नहीं हो रही हैं। घाटों के विकास और साफ-सफाई के नाम पर बड़े प्रोजेक्ट्स शुरू हुए, लेकिन पारंपरिक पेशों को संरक्षित करने पर ध्यान नहीं दिया गया।

बनारस के घाट केवल सेल्फी प्वाइंट बनकर न रह जाएं, इसके लिए जरूरी है कि यहां के पारंपरिक हुनरों और पेशों को संरक्षण मिले। सरकार और समाज को मिलकर ऐसे कदम उठाने होंगे, जो इन फनकारों को नया जीवन दे सकें। यह तभी संभव है जब आधुनिकता और परंपरा का संतुलन कायम किया जाए। बनारस के घाट न केवल गंगा के किनारे बने पक्के सीढ़ियों का नाम हैं, बल्कि वे उस सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक हैं, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ती है। इस विरासत को बचाना हम सबकी जिम्मेदारी है।

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार और अचूक रणनीति के संपादक विनय मौर्य कहते हैं, "बनारस, जो कभी परंपराओं का जीता-जागता म्यूज़ियम था, अब अपनी ही विरासत को धीरे-धीरे विदा कर रहा है। ये घाट, ये गलियां, ये नुक्कड़ आज भी खड़े हैं, पर उनकी कहानियां बेजान हो चुकी हैं। कानों की सफाई करने वाले, मालिश करने वाले, और इन घाटों के अन्य कलाकार बनारस की उन धड़कनों का हिस्सा थे, जो अब केवल यादों में रह गए हैं।"

"बनारस में लोग कभी न जाने के लिए आते हैं, लेकिन इस शहर से बहुत कुछ चला गया। ज़िंदगी की एक लय और सुकून ही नहीं, हज़ारों फनकारों का हुनर भी गुमशुदा हो गया। वो फनकार जिनकी अदा पर बनारस फिदा होता था। जिनके हुनर का हर कोई दीवाना हुआ करता था। अब सिर्फ बेचैनियां भरी पड़ी हैं। आडंबर है, बेबसी है खलबली है। लोग कहते हैं कि समय बदल रहा है, लेकिन वक्त के साथ जो चीज़ें बदल रही हैं अब उनका कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता। होता भी है तो सिर्फ किस्से और कहानियों में।"

क्या बचेगा बनारस का दिल?

गंगा घाटों पर बनारस के पारंपरिक पेशे दम तोड़ते जा रहे हैं। बीजेपी सरकार जब से सत्ता में आई है, तब से घाटों पर पारंपरिक पेशों की जगह खेल-तमाशों ने ले ली है। घाटों पर मेले-ठेले जैसा माहौल है और कलाएं मर रही हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी कहते हैं, "बनारस के घाटों की कहानी सिर्फ पत्थरों और सीढ़ियों की नहीं है। यह कहानी उन लोगों की है, जिन्होंने अपनी कला और मेहनत से इस शहर को जीवंत बनाया। गंगा की लहरें अब भी बहती हैं, लेकिन उनके किनारे वो आवाज़ें नहीं गूंजतीं, जो कभी बनारस की आत्मा थीं। क्या यह शहर अपनी परंपराओं को बचा पाएगा? या फिर ये यादें भी गंगा की लहरों में बह जाएंगी, हमेशा के लिए? यह सवाल बनारस के हर बाशिंदे को खुद से पूछना होगा।"

"बनारस अगर गुरु है, तो उसे जीने की कला सिखाने के लिए अपनी आत्मा को बचाना होगा। इस सांस्कृतिक शहर की पहचान उसके घाट, उसके फनकार और उनकी कहानियों से है। लेकिन अगर ये कहानियां खत्म हो गईं, तो क्या बनारस अपनी आत्मा बचा पाएगा? बदलते वक्त के साथ यह सवाल और गहराता जा रहा है। इस शहर की कहानी उसके हर फनकार की कहानी है। और जब-जब इन फनकारों के सपने टूटते हैं, बनारस की आत्मा का एक हिस्सा भी टूट जाता है। शायद एक दिन ऐसा आए, जब इन कहानियों को सुनाने वाला कोई न हो, और तब बनारस सचमुच खामोश हो जाएगा।"

राजेंद्र कहते हैं, "गंगा में हर साल आने वाली बाढ़ के चलते जुलाई से से अक्टूबर तक नौकायन के साथ घाटों पर सभी तरह के धंधे ठप रहते हैं। आसमानी छलांग लगा रही महंगाई के चलते बाकी आठ महीने में इनके लिए रोटी-रोटी के लिए जुगाड़ करना आसान नहीं होता। बनारस के घाटों पर ठहरी गंगा आज भी वही है, पर उसके किनारे गूंजने वाली कहानियां खामोश हैं। ये खामोशी न सिर्फ इन घाटों की, बल्कि हमारी संवेदनाओं की भी कहानी है। क्या हम इन्हें फिर से जीवित कर पाएंगे? या यह विरासत हमेशा के लिए गुम हो जाएगी?"

(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं। बनारस के गंगा घाटों से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)

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