यहाँ के आदिवासी, जो अपनी मिट्टी और जमीन के साथ जीवन की हर मुश्किल को झेलते हुए अपने तरीके से जी रहे थे, अब विकास के नाम पर अपनी जड़ों से फिर कटने को मजबूर हो रहे हैं।
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले की रौप घसिया बस्ती के आदिवासियों के सामने एक गहरी चिंता और चुनौती एक साथ खड़ी हो गई है। यहाँ के आदिवासी, जो अपनी मिट्टी और जमीन के साथ जीवन की हर मुश्किल को झेलते हुए अपने तरीके से जी रहे थे, अब विकास के नाम पर अपनी जड़ों से फिर कटने को मजबूर हो रहे हैं। जंगल और बस्तियों से दूर होता ये विकास, अब आदिवासियों के घरों तक पहुँच गया है, जहां उन्हें वर्षों से बसेरा मिला हुआ था। अब इस भूमि पर उनके कदम डगमगाने लगे हैं।
सरकारी फरमान आया है कि जिस जगह रह रहे हैं, उसे खाली करना होगा, मगर उनकी नजरें इस सवाल से भरी हैं, "अगर वे अपनी जड़ों से उखाड़ दिए गए,हम कहाँ जाएंगे?" और चुनौती यह कि जिस स्थान पर वो पिछले 36 साल से रह रहे हैं, उस जमीन को कैसे बचाएंगे? सोनभद्र की घसिया बस्ती अब मानो एक सूनी आवाज की तरह हो गई है, जैसे अपने दर्द की गूँज सुनाने को बैठी हो। लेकिन इस गूँज को सुनने वाले कान मानो बंद हो चुके हैं। इस बस्ती में एसडीएम के आदेश से डर का साया छाया हुआ है। उनका कहना है कि “हम दशकों से यहाँ रह रहे हैं, अब अचानक हमसे हमारा बसेरा क्यों छीना जा रहा है? "
फुलवा नाम की एक महिला ने अपनी आँखों में भय और दर्द के साथ बताया, "हमें यहाँ से जाने का हुक्म तो मिल गया, पर हमें कहीं और बसाने की कोई व्यवस्था नहीं है। हमें बस इतना कहा गया कि जाकर कांशीराम आवास में रहो।" मैंने उससे पूछा, "क्या आपने वह जगह देखी है?" उसने कहा, "नहीं, हमने नहीं देखा। सरकार को अगर हमें कहीं बसाना है, तो यहीं रहने दें जहाँ हमारे बाप-दादा ने बसाया था। हमारा तो आदमी ही गुजर गया है। कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। विकलांग हूं। बीमार रहती हूं। सरकार बताए कि आखिर हम जिंदा कैसे रहेंगे?"
घसिया बस्ती की दर्दनाक दास्तां
राबर्ट्सगंज से सटे रौप गांव की घसिया बस्ती की तस्वीर देखकर ऐसा लगता है जैसे समय थम गया हो। यहां विकास का नाम तो है, पर उसकी छाया भी इन गरीबों की जिंदगी में नहीं पहुंची। कली का साढ़े तीन साल का बेटा शिव अपने दुबले-पतले शरीर में बस किसी तरह साँसें भरता है। उसकी आंखों में एक ऐसी उदासी है, जैसे दुनिया का दर्द उसकी मासूम रूह ने समझ लिया हो। उसकी मां, कली, जो दिन-रात खेतों में मेहनत करती है, अपने बच्चे की ओर देखती है तो उसका दिल बैठ जाता है। उसके लिए ‘स्वास्थ्य’, ‘शिक्षा’, ‘विकास’ जैसे शब्द किसी सपने से कम नहीं हैं।
कली, और उसकी जैसी हज़ारों महिलाएं, घसिया बस्ती की उसी दुखभरी दास्तां का हिस्सा हैं, जहां जीने का मतलब भूख से लड़ना और गरीबी की चादर में अपने बच्चों को समेटकर उम्मीद की सांसें लेना है। यह बस्ती करमा नृत्य के अपने अनोखे हुनर के लिए तो जानी जाती है, पर इनके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। एक चारपाई, पुराने-फटे हुए बिस्तर, और मटमैली दीवारों से ढंकी झोपड़ियों में ये अपना जीवन बिताते हैं। इनके पास बस एक ही चीज़ है – अपनी मेहनत, जो इन्हें दिन-रात जिंदा रखती है।
घसिया बस्ती में एक चबूतरा है, जिसे यहां भूख से मरने वाले बच्चों की याद में एक स्मारक बना है, जिसे ‘शहीद स्मारक’ कहा जाता है। इस स्मारक पर उन बच्चों के नाम लिखे हैं जो बस दो वक्त की रोटी न मिलने के कारण दुनिया से रुखसत हो गए हैं। भूख से बिलबिलाते बच्चों ने चकवड़ का जहरीला पौधा खा लिया था, और उस जहर ने उनके नन्हें-नन्हें शरीरों को निगल लिया। बनारस की मानवाधिकार जन निगरानी समिति ने उनकी याद में एक स्मारक बनवाया, जो यहाँ के संघर्ष का गवाह है। इस स्मारक को देखना अपने आप में एक गहरी पीड़ा को महसूस करना है। इस पर पुन्नू, रोशन, विजमल, लालमोहन, प्रीति जैसे नाम दर्ज हैं, जो इस बात की गवाही देते हैं कि गरीबी और भूख ने उनकी छोटी सी ज़िंदगी को लील लिया।
2007 में इस स्मारक का उद्घाटन हुआ, लेकिन इनकी यादें, इनके परिवार वालों के दिलों में आज भी ताज़ा हैं। जब इन बच्चों की भूख से मौतें हुईं, तो प्रशासन ने तब जाकर आंखें खोलीं, लेकिन राहत के नाम पर यहां के लोगों को कुछ भी नहीं मिला। आज जब वे इस जगह को छोड़ने की बात करते हैं, तो उनके साथ केवल उनकी यादें ही जाएंगी। क्या सरकार का यह विकास इन लोगों की जिंदगी से बढ़कर है? क्या इनकी पुश्तैनी जमीनें सिर्फ फरमानों में बदलकर रह जाएंगी? राबर्ट्सगंज की घसिया बस्ती में दर्द का यह मंजर जैसे एक पुरानी दास्तान को दोहरा रहा है – एक बार फिर से उजाड़ने का फरमान, और एक बार फिर से अपनी पहचान की लड़ाई।
भय और अनिश्चितता की छाया
सोनभद्र की घसिया बस्ती में हर चेहरे पर एक भय और अनिश्चितता की छाया दिखाई दे रही है। यह बस्ती उस घसिया जनजाति की है, जिनका नाम उनके पारंपरिक कार्य – राजाओं और सामंतों के घोड़ों के लिए घास लाने से जुड़ा हुआ है। युगों से, घसिया समुदाय अपने करमा नृत्य की कला के लिए प्रसिद्ध रहा है, और आज भी यहाँ के दर्जनों नृत्य समूह अपनी कला से दूर-दूर तक पहचान बना रहे हैं। लेकिन इस समय इनकी कला और पहचान, दोनों संकट में हैं।
घसिया बस्ती की अनारा और गायत्री कहती हैं, "हम पैंतीस साल से इस जमीन पर रह रहे हैं। हम मेहनत-मजदूरी करके जीते हैं, और अब हमें अचानक यहाँ से जाने का आदेश दे दिया गया है। लेकिन अगर हमें यहाँ से हटाया जाएगा, तो हमें रहने के लिए जगह कहाँ मिलेगी?" यह बस्ती सोनभद्र हाइवे से सटी है, जहां एक तरफ चुर्क की सड़क जाती है और दूसरी तरफ बनारस-छत्तीसगढ़ राजमार्ग। इस इलाके में बढ़ते विकास और सुविधाओं के चलते यह स्थान अब प्रशासन की नजर में काफी 'कीमती' बन चुका है, और इसी वजह से प्रशासन ने इसे खाली करने का आदेश जारी कर दिया है। लेकिन क्या घसिया समुदाय के पास कोई विकल्प है?
घसिया समुदाय के लोग मूलतः चिरूई मरकुड़ी से यहां आए थे, जब यह इलाका घने जंगलों से ढका हुआ था। सोनभद्र का अलग जिला बनना और शहर का विस्तार होना, इन बदलावों को घसिया समुदाय ने नजदीक से देखा है। धीरे-धीरे इस इलाके में प्रशासनिक कार्यालय बने, और विकास की दौड़ में इस बस्ती की जमीन का महत्व और बढ़ गया।
इस अनिश्चितता के बीच मानवाधिकार जन निगरानी समिति के संयोजक, डॉ. लेनिन ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और सोनभद्र के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर हस्तक्षेप की मांग की है। उन्होंने घसिया समुदाय के लिए भूमि आबंटन की मांग की है ताकि इस समुदाय को अपनी जमीन पर स्थायित्व मिल सके। उनका कहना है कि इस समुदाय का अधिकार जमींदारी उन्मूलन अधिनियम और भूमि सुधार अधिनियम के तहत सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
यहां का प्रशासन भी सवालों के घेरे में है। 2009 में, इस बस्ती में बनारस के दिवंगत पत्रकार सुशील त्रिपाठी की स्मृति में एक सामुदायिक केंद्र का निर्माण हुआ था, जिसका उद्घाटन तत्कालीन जिलाधिकारी पंधारी यादव ने किया था। उन्होंने घसिया लोगों को इस केंद्र के माध्यम से सरकारी सुविधाओं का लाभ दिलाने का आश्वासन दिया था। यदि यह बस्ती अवैध थी, तो उस समय यहाँ स्कूल और सामुदायिक केंद्र बनने की अनुमति क्यों दी गई?
आज, घसिया बस्ती के लोग अपने जीवन की अनिश्चितता से जूझ रहे हैं। विस्थापन का दर्द उनके चेहरे और बातों में साफ झलकता है। उनका सवाल है कि क्या विकास का मतलब उनके अधिकारों और जीवन से खिलवाड़ करना है? घसिया समुदाय के लोग अपने पैरों तले की जमीन को सुरक्षित रखना चाहते हैं, अपने बच्चों के भविष्य को संवारना चाहते हैं और अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाना चाहते हैं। परंतु विकास के नाम पर उन्हें दूसरी बार विस्थापन का दर्द झेलने के लिए मजबूर किया जा रहा है। यह कहानी केवल घसिया समुदाय की नहीं है; यह हर उस आदिवासी और कमजोर वर्ग की है जो विकास के नाम पर अपनी जड़ों से कटता जा रहा है।
विस्थापन और अस्थिरता का दर्द
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, उपजिलाधिकारी कार्यालय से दी गई रिपोर्ट में घसिया बस्ती के संबंध में चार महत्वपूर्ण बिंदुओं पर जानकारी दी गई थी। पहले बिंदु में स्पष्ट किया गया कि घसिया बस्ती के लोग 1.500 हेक्टेयर भूमि पर बसे हुए हैं, जिसकी लंबाई उत्तर से दक्षिण की दिशा में 150 मीटर, पूर्व में 80 मीटर और पश्चिम में 120 मीटर है। दूसरे बिंदु में यह बताया गया कि घसिया बस्ती के लोग जिस भूमि पर बसे हैं, वह आराजी नंबर 932 पर है, जो खतौनी में क्रीड़ास्थल के रूप में दर्ज है। तीसरे बिंदु के अनुसार इस भूमि की सीमाएं इस प्रकार हैं-उत्तर में क्रीड़ास्थल की शेष भूमि, दक्षिण में चुर्क जाने वाली सड़क, पूरब में संरक्षित वन, और पश्चिम में जंगल और कलेक्ट्रेट की भूमि। चौथे बिंदु में यह स्पष्ट किया गया कि घसिया बस्ती के लोग पिछले सात-आठ सालों से इस जमीन पर बसे हैं।
12 जून को जारी किए गए नोटिस के अनुसार, घसिया बस्ती के निवासियों को सरकारी भूमि को खाली करने का आदेश दिया गया था। इस बस्ती में रह रहे लोगों को सरकारी अधिकारियों ने मौखिक रूप से यह बताया है कि उन्हें कांशीराम आवास में स्थानांतरित किया जाएगा। लेकिन उन्हें इस नई जगह का निरीक्षण करने का मौका नहीं दिया गया, और न ही उन्हें इस बारे में कोई ठोस जानकारी दी गई है। बस्ती की निवासी उषा देवी के अनुसार, "हम लोगों को तो केवल खाली करने का आदेश मिला है, लेकिन हमारे लिए कोई दूसरा विकल्प तैयार नहीं किया गया।"
घसिया बस्ती के संदर्भ में वर्ष 2007 में एक स्थानीय निवासी द्वारा सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत जानकारी मांगी गई थी। इस जानकारी में खुलासा हुआ कि घसिया बस्ती के लोग 1.5 हेक्टेयर भूमि पर निवास कर रहे हैं, जिसे सरकारी रिकॉर्ड में खेल मैदान के रूप में दर्ज किया गया है। PVCHR के संस्थापक डॉ. लेनिन रघुवंशी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और सोनभद्र के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर मांग की है कि घसिया समुदाय के लोगों को ज़मीन का अधिकार दिया जाए, और जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम की धारा 122 B (4-F) के तहत इस बस्ती को वैधता दी जाए। उन्होंने यह भी बताया कि भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता अधिनियम, 2013 के अनुसार सरकार की जिम्मेदारी है कि वह उन लोगों को पुनर्वास और मुआवजा प्रदान करे जो भूमि अधिग्रहण के कारण विस्थापित होते हैं।
PVCHR ने इस मामले में पहले भी कई बार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से हस्तक्षेप की मांग की थी। वर्ष 2003 में PVCHR ने NHRC को एक याचिका भेजी, जिसके बाद NHRC के हस्तक्षेप से प्रशासन ने प्रभावित परिवारों को खाद्यान्न वितरित किया और उन्हें लाल कार्ड जारी किए। पीवीसीएचआर और कई दानदाताओं की मदद से घसिया समुदाय को कुछ राहत मिली है, लेकिन उनकी स्थिति अब भी बेहद दयनीय है। इन परिवारों के पास न तो पर्याप्त भूमि है, न पानी, न बिजली, न स्वास्थ्य सेवाएं और न ही शिक्षा तक पहुंच। वर्ष 2009 में यहां एक स्कूल का उद्घाटन हुआ, लेकिन प्रशासन द्वारा इसे कभी चालू नहीं किया गया।
हाल ही में मुख्यमंत्री कार्यालय के हस्तक्षेप के बाद बस्ती में बिजली की सुविधा उपलब्ध कराई गई है। PVCHR ने यहां एक ICDS केंद्र और सामुदायिक केंद्र भी स्थापित किया है, जिसका उद्घाटन जिलाधिकारी द्वारा किया गया। लेकिन इन सभी प्रयासों के बावजूद, घसिया बस्ती के लोग पुनर्वास के बिना इस बेदखली के संकट का सामना कर रहे हैं। डॉ. लेनिन रघुवंशी ने अपनी याचिका में NHRC से मांग की है कि घसिया समुदाय के लोगों को बिना पुनर्वास व्यवस्था के बेदखल नहीं किया जाए। उनकी डिमांड है कि जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम की धारा 122 (4-BF) के तहत घसिया जनजातियों के लिए भूमि का आवंटित किया जाए।
पीवीसीएचआर ने यह भी बताया कि कुछ भ्रष्ट राजस्व अधिकारी भूमि माफिया के साथ मिलकर इस मूल्यवान भूमि पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके चारों ओर पहले से ही एक मजबूत बाउंड्री वॉल बना दी गई है, जो निवासियों के भविष्य को लेकर गंभीर चिंता का कारण बन रहा है। डॉ. रघुवंशी ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से निवासियों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा के लिए त्वरित हस्तक्षेप की मांग की है। उनका मानना है कि अगर इस मामले में तत्काल कार्रवाई नहीं की गई, तो बस्ती के निवासियों का भविष्य खतरे में पड़ सकता है। घसिया बस्ती के निवासियों को उनकी भूमि का अधिकार मिलना चाहिए, ताकि वे यहां शांति से अपना जीवनयापन कर सकें।
क्या है नोटिस में?
यह नोटिस 12 जून, 2024 को जारी किया गया है, जिसमें कहा गया है कि रूप घसिया बस्ती के निवासी प्लॉट नंबर 932 पर अवैध कब्जा किए हुए हैं। यह भूमि वन अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत आती है और इसे खाली करने का आदेश दिया गया है। नोटिस में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि अगर इस जमीन को खाली नहीं किया गया, तो निवासियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।
अब सवाल उठता है कि जिला मुख्यालय के समीप स्थित इस भूमि पर जब इतने वर्षों से घसिया बस्ती बसी हुई थी, तो इसकी अनदेखी क्यों की गई? और अगर आज प्रशासन इसे अवैध मान रहा है, तो साल 2009 में इस जमीन पर स्कूल और सामुदायिक भवन बनाने की अनुमति क्यों दी गई थी? उस समय जिला प्रशासन के आला अधिकारियों ने इन भवनों का उद्घाटन किया था और समुदाय के विकास के लिए योजनाएं बनाई थीं। यह विरोधाभास प्रशासन के रवैये पर कई गंभीर सवाल खड़े करता है।
भूमि अधिग्रहण के संदर्भ में भारत में स्पष्ट कानून और नीति है। भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन का उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 के तहत, सरकार द्वारा किसी भी परियोजना या सार्वजनिक उद्देश्य के लिए जमीन अधिग्रहण की स्थिति में वहाँ बसे परिवारों का पुनर्वास और मुआवजा देना अनिवार्य है। इस अधिनियम के अनुसार विस्थापित परिवारों को सुरक्षित आवास देने की जिम्मेदारी सरकार अथवा परियोजना की उत्तरदायी संस्था की होती है।
इस अधिनियम के तहत, थलसेना, नौसेना, वायुसेना, और अर्धसैनिक बलों के कार्यों के लिए अधिग्रहण की गई जमीन पर बसे परिवारों को भी मुआवजा और पुनर्वास की व्यवस्था दी जानी चाहिए। इसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि निजी अस्पतालों, निजी शिक्षण संस्थानों और निजी होटलों के लिए जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता; उन्हें जमीन बाजार मूल्य पर खरीदनी होगी।
वर्तमान स्थिति में घसिया बस्ती के लोगों को हटाने की योजना प्रशासन द्वारा बनाई जा रही है, लेकिन मुआवजा और पुनर्वास की बात पर कोई स्पष्ट नहीं है। प्रशासन के इस कदम के खिलाफ मानवाधिकार जन निगरानी समिति के संयोजक डॉ. लेनिन ने राज्य के मुख्यमंत्री और सोनभद्र के जिलाधिकारी से हस्तक्षेप की अपील की है। उन्होंने मांग की है कि घसिया समुदाय को पुनर्वास के साथ ही भूमि का अधिकार दिया जाए।
प्रश्न यह उठता है कि अगर घसिया बस्ती को यहाँ से हटाया जाता है तो प्रशासन उनके पुनर्वास और मुआवजे की उचित व्यवस्था क्यों नहीं कर रहा? भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 के तहत विस्थापित परिवारों के पुनर्वास का दायित्व सरकार का है। पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) परियोजनाओं के लिए भी जमीन अधिग्रहण के लिए प्रभावित परिवारों की सहमति आवश्यक है, और कम से कम 70 प्रतिशत प्रभावित परिवारों की अनुमति के बिना अधिग्रहण नहीं किया जा सकता।
इस अधिनियम में उन परिवारों को पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन के लिए अधिकृत माना गया है जिनकी जमीन या घर का अधिग्रहण किया गया हो, वे परिवार जिनके पास जमीन नहीं है, लेकिन उस पर वर्षों से बटाईदारी या ठेके पर खेती कर रहे हों, और अनुसूचित जाति, जनजाति और वन क्षेत्र के निवासियों पर विशेष ध्यान दिया गया है।
इस अधिनियम के तहत, मुआवजे की राशि न्यायालय द्वारा निर्देशित सर्किल रेट के आधार पर तय होती है, जिसमें खड़ी फसलों, मकानों और पेड़ों के नुकसान की भरपाई का प्रावधान भी है। अधिग्रहण से पहले एक सामाजिक प्रभाव आकलन अनिवार्य है, जो यह सुनिश्चित करता है कि परियोजना से जनता के हितों की पूर्ति होगी या नहीं। प्रभावित परिवारों की सांस्कृतिक पहचान और उनके भविष्य के सवाल को ध्यान में रखते हुए, ग्राम पंचायत, ग्राम सभा, नगर पालिका, नगर निगम सहित स्थानीय संस्थाओं का प्रतिनिधित्व होना आवश्यक है।
क्या कहते हैं बस्ती के लोग?
इस घसिया बस्ती के निवासियों पर नोटिस का असर साफ दिखाई देता है। मैनेजर, जो इस बस्ती में करीब 28 सालों से बसे हुए हैं। इनका मकान जमींदोज हो गया है। नया मकान खड़ा करने के लिए पैसा नहीं है। वह कहते हैं, "हम मेहनत-मजूरी करके गुजर-बसर करते हैं। एक दिन एसडीएम साहब आए और बोले कि जगह खाली करनी होगी, लेकिन हम कहां जाएंगे?" घसिया बस्ती की लैला के पति लालब्रत पुलिस के खौफ के चलते गांव छोड़कर चले गए हैं। वो मुजफ्फरनगर में एक गन्ना किसान के यहां मजूरी करते हैं। लैला कहती हैं, "हमने काफी वर्षों से इस जमीन पर बसेरा किया है। यहां पुलिस द्वारा कई बार मारपीट की गई है, बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएं सबको प्रताड़ित किया गया है। पीवीसीएचर संस्था ने हमारी मदद की, राशन दिया और यहां स्कूल बनवाया। उन्होंने वादा किया था कि अब पुलिस हमें परेशान नहीं करेगी। इस जमीन पर हमारा हक है।"
एक बुजुर्ग महिला प्रतापी देवी की कहानी भी इसी दर्द को बयां करती है। वह कहती हैं, " हमने अपनी मेहनत से झोपड़ी बनाई है, और अब उसे तोड़ने का आदेश आ गया है। ये कहां का न्याय है? हमें यहाँ आधार कार्ड, राशन कार्ड, शौचालय, बिजली, गैस सब कुछ मिला है। इतने अधिकार देने के बाद अब सरकार हमें यहां से क्यों हटा रही है? हमें आयोजनों में सांस्कृतिक कार्यक्रम करने का मौका मिलता है। हम झोपड़ी में रहने को तैयार हैं, पर इस जमीन को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे।"
तारा नाम की महिला बताती हैं कि "घसिया बस्ती में 605 लोग रहते हैं। ज्यादातर महिलाएं झाड़ू बनाकर, और पुरुष रिक्शा चला कर अथवा मजूरी करके गुजारा करते हैं। हमने अपनी पूरी जिंदगी इसी जमीन पर मेहनत करके गुजारी है। अगर यह जमीन हमसे छीन ली गई, तो हमारा परिवार कहां जाएगा? हमने तब तय कर लिया था कि चाहे हमारी जान क्यों न चली जाए, हम इस जमीन को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे।"
जंगलों से तेंदू पत्ता, शहद और जलावन लकड़ी जैसे साधनों पर निर्भर ये घसिया आदिवासी अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। घसिया बस्ती के आदिवासी परिवारों ने यह ठान लिया है कि चाहे जो हो जाए, वे अपनी जमीन नहीं छोड़ेंगे। चंदा देवी कहती हैं, "हमारे पास ढेर सारे सरकारी कागजात हैं, और हम इसे किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ेंगे।"
घसिया बस्ती में न केवल जमीन पर मालिकाना हक का सवाल है, बल्कि पुनर्वास का भी सवाल है। वन विभाग ने जिन आदिवासियों को जमीन खाली करने का नोटिस दिया है, उनकी दलीलें सुनी नहीं जा रही हैं। इन आदिवासियों की कहानी एक गहरी पीड़ा की दास्तान है। सरकार के नए वन नियम और प्रशासन की इस अनदेखी ने आदिवासियों को एक अनिश्चित भविष्य की ओर धकेल दिया है। आदिवासी और वंचित समुदाय के लिए आवाज उठाने वाले अजय राय कहते हैं, "जिन जंगलों में आदिवासी रहते थे, उन्हें मुहिम चलाकर खाली कराया जा रहा है और वन माफिया वहां कब्जा कर रहे हैं। यह स्थिति आजादी के बाद से आज तक जारी है। सरकारें आदिवासियों को बार-बार उनके हक से महरूम करती रही हैं। वन विभाग और प्रशासन के बीच समन्वय की कमी ने आदिवासियों को कभी उनका हक नहीं मिलने दिया।"
"सोनभद्र के इन घसिया आदिवासियों की यह दास्तान हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या इनका भविष्य इसी तरह की पीड़ा और बेबसी में बीतेगा? क्या कभी ये लोग अपने अधिकारों को प्राप्त कर पाएंगे या फिर उनके अधिकार इसी तरह किसी कागजी प्रक्रिया में खो जाएंगे? क्या इनकी अनसुनी चीखें कभी उस लोकतंत्र के कानों तक पहुंच पाएंगी, जो इन्हीं के भरोसे पर खड़ा है? "
अजय राय यह भी कहते हैं, "यह मामला प्रशासन की लापरवाही और इस समुदाय के अधिकारों की अनदेखी को उजागर करता है। घसिया समुदाय के लोगों की यह बस्ती केवल उनकी आजीविका का केंद्र नहीं है, बल्कि उनकी सांस्कृतिक पहचान और उनके बच्चों का भविष्य भी इसी जमीन से जुड़ा हुआ है। ऐसे में, इनका विस्थापन न केवल उनकी आजीविका बल्कि उनके सामाजिक और सांस्कृतिक अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है।"
"घसिया बस्ती में जब कोई विकास की बात करता है, तो यह बातें किसी मजाक जैसी लगती हैं। भूख, कुपोषण, और गरीबी ने यहां के लोगों का जीना हर दिन एक संघर्ष बना दिया है। यहां के बच्चे सिर्फ रोटी के लिए तड़पते हैं, और उनका बचपन अपनी उम्र से पहले ही बूढ़ा हो जाता है। कली और उसके जैसे हज़ारों लोगों के लिए ‘विकास’ बस एक सपना है, जो शायद कभी पूरा नहीं होगा। उनके पास अधिकार, शिक्षा, स्वास्थ्य, कुछ भी नहीं है, बस है तो उनके दिन-रात की मेहनत और एक धुंधला सा सपना कि शायद एक दिन उनकी भी दुनिया बेहतर होगी।"
करमा नृत्य के फनकारों की बेबसी
घसिया बस्ती का हर आदमी और औरत लोकनृत्य का फनकार है, जो करमा, झूमर, शैला जैसे नृत्य रूपों में बेमिसाल हुनरमंद हैं। इस कला को जीवंत बनाए रखने वाले इन आदिवासी कलाकारों की हालत ऐसी है कि वे आज भी पानी, बिजली, और बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए जूझ रहे हैं। “सबका साथ-सबका विकास” जैसे नारों की गूंज यहां पहुंचती तो है, लेकिन यहां के लोग इन नारों को सिर्फ एक खोखली उम्मीद के रूप में देखते हैं।
पंचायत सदस्य सुक्खन और रामवृक्ष कहते हैं, "हम पिछले बीस साल से पानी के लिए दौड़-धूप कर रहे हैं। गांव में पानी का एकमात्र स्रोत वह पाइप है, जिसमें एक छेद से थोड़ी-बहुत बूंदें निकलती हैं। यहां दिन भर औरतें और बच्चे डिब्बे लेकर कतार में खड़े रहते हैं। बिजली का खंभा भी गिरा पड़ा है, जिससे घसिया बस्ती हमेशा अंधेरे में डूबी रहती है। यहां मलेरिया और बुखार का प्रकोप आम बात है।"
लोक कलाकार आशा की बातों में वर्षों की उपेक्षा का दर्द झलकता है। वे कहती हैं, "चुनाव के वक्त नेता आते हैं, हमें सपना दिखाते हैं, लेकिन चुनाव के बाद सब कुछ भूल जाते हैं। अफसर आते हैं, तरक्की के वादे करते हैं, पर हमारी बस्ती में सुविधाएं मांगने पर अपमान ही मिलता है। सच कहूं तो हमने इन लोगों की वादों पर विश्वास करना छोड़ दिया है।"
घसिया बस्ती की पहचान केवल गरीबी और संघर्ष से नहीं, बल्कि उनकी कला और उनकी पहचान से है। यह बस्ती वही जगह है, जहाँ के फनकार राष्ट्रीय स्तर के सांस्कृतिक आयोजनों में करमा नृत्य प्रस्तुत कर चुके हैं। 1986 में सोनिया गांधी के आवास पर करमा नृत्य पेश करने से लेकर पोर्टब्लेयर के फेस्टिवल में अपनी प्रस्तुति देने तक, यहां के कलाकारों ने अपनी कला को समर्पण से निभाया है। वे अपनी कला में निपुण हैं, लेकिन अपने जीवन में बेबस।
गजाधर घसिया, एक प्रमुख करमा कलाकार, निराशा से कहते हैं, "हमसे चुनाव में मतदाता जागरूकता के लिए नृत्य प्रस्तुतियां करवाई जाती हैं। विधानसभा चुनाव में मतदाता जागरूकता अभियान में हमने भाग लिया, लेकिन हमें इसका मेहनताना आज तक नहीं मिला। हमारी कला की सब सराहना करते हैं, पर हमारे दर्द को कोई नहीं समझता। हम कलाकार हैं, पर भूख से बिलबिला रहे हैं। हमारे घरों में जो भी गहना-गुरिया था, वो गिरवी रखकर बच्चों के लिए रोटी जुटाई। हम कब तक ऐसे जिएंगे?"
घसिया बस्ती के कलाकार हर बड़े नेताओं के दरबार में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। इनकी कला की ख्याति तो है, लेकिन उनकी परेशानियों का कोई समाधान नहीं। गजाधर की बातों में वर्षों की उपेक्षा का दर्द झलकता है। "करमा नृत्य के हर प्रोग्राम के लिए हमें 75 हज़ार से एक लाख रुपये तक मिलते हैं, लेकिन अफसरों को कमीशन और रिश्वत देने के पैसे नहीं होते, इसलिए हमारे पैसे फंसे रहते हैं। कई राज्य सरकारें हमारा पैसा दबाकर बैठी हैं। सरकार हमारी स्थिति को समझती ही नहीं। क्या वे कभी समझ पाएंगे कि गरीबी आखिर क्या होती है?"
यह दर्द सिर्फ गजाधर का नहीं, बल्कि घसिया बस्ती के हर कलाकार का है। इनकी कला का मूल्य जरूर है, पर इनके जीवन का कोई मूल्य नहीं। झूमर नृत्य की फनकार दुलारी कहती हैं, "पहाड़ों के झरनों का संगीत हमारे अंदर एक जोश भरता था, पर आज प्रशासन हमारे जीवन को नर्क बना रहा है। हमें जीने का भी अधिकार नहीं मिलता, और अक्सर पुलिस हम पर चोरी का झूठा इल्जाम लगाकर हमें प्रताड़ित करती है।"
भुखमरी और दर्द की बस्ती
घसिया बस्ती के 102 परिवार एक अदृश्य बोझ के साथ जी रहे हैं। यहां के लोगों को कभी अपनी संस्कृति और कला पर गर्व था, आज जीने के बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यहां के आदिवासी, जिनकी ज़िंदगियाँ कभी लोकनृत्य करमा और झूमर के लय से भरी थीं, आज अपने बच्चों के भूखे पेट और फटे कपड़ों को देखकर अपने अस्तित्व पर सवाल करते हैं।
पिछले दो दशक से घसिया आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ रही एक्टिविस्ट श्रुति नागवंशी कहती हैं, "यहां की महिलाओं और पुरुषों को समान रूप से डर का सामना करना पड़ता है। महिलाओं को अपनी इज़्ज़त की चिंता सताती है, तो पुरुष हमेशा इस बात से सहमे रहते हैं कि किसी झूठे मुकदमे में फंसा दिए जाएंगे। पुलिस या किसी सरकारी अधिकारी की गाड़ी देखते ही बच्चे और नौजवान इधर-उधर छिपने लगते हैं। प्रशासन इन आदिवासियों के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव करता है। एक ओर इनके करमा नृत्य को भारतीय संस्कृति का प्रतीक बताकर प्रचारित किया जाता है, दूसरी ओर इन्हीं कलाकारों के साथ अपराधियों जैसा व्यवहार किया जाता है। ऐसे में इनके हुनर का भविष्य क्या है, यह कहना मुश्किल है।”
करीब दो-ढाई दशक पहले जंगलों से विस्थापित हुए इन आदिवासियों ने इस बस्ती में शरण ली थी। उनके पास रहने को बस खास-फूस की झोपड़ियां थीं और पेट भरने के लिए न तो रोटी थी और न ही किसी रोजगार की गारंटी। भूख से संघर्ष करते हुए ये घसिया आदिवासी यहां आए थे, लेकिन उनके हालात में आज भी कोई खास बदलाव नहीं आया। अब वे न तो जंगलों में लौट सकते हैं और न ही शहर की सुविधाओं में कहीं ठिकाना बना सकते हैं। उनके पास रोजगार गारंटी कार्ड तो हैं, पर उस कार्ड पर काम आज तक नहीं मिला। ज़िला प्रशासन से पूछने पर जवाब मिलता है कि आदिवासियों ने शायद काम मांगा ही नहीं होगा।
रामसूरत, एक लोक कलाकार जिनकी दुनिया केवल उनकी कला और बच्चों के भरे पेट तक सीमित है, कहते हैं, “हम अगले चुनाव में उसी को वोट देंगे, जो हमारे लिए घर और रोजगार का वादा करेगा। साथ ही घसिया बस्ती को एक सांस्कृतिक गांव के रूप में मान्यता दिलाने की गारंटी देगा।" रामसूरत को नहीं पता कि अगला चुनाव दिल्ली का है या लखनऊ का, उन्हें बस एक छोटी-सी उम्मीद है कि शायद कभी कोई नेता आएगा, उनकी बात सुनेगा और उनके गांव की सुध लेगा।
लोकनृत्य की उनकी कला, जो कभी देश-विदेश में सराही जाती थी, अब भूख और अभाव की छाया में विलीन होती जा रही है। उनकी झोपड़ियां, जो अब तक बामुश्किल कच्चे घरों में बदली हैं, प्रधानमंत्री आवास योजना का इंतजार कर रही हैं। इस बस्ती के बच्चों को कुपोषण से छुटकारा दिलाने का सपना आज भी दूर है। सरकारी अभिलेखों में घसिया बस्ती को खेल का मैदान बताया गया है। प्रशासन का दावा है कि ये लोग दो-तीन दशक से उस जमीन पर काबिज हैं, इसलिए जमीन से बेदखल करने के निर्देश दिए गए हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर इन्हें शौचालय और हैंडपंप मिल सकते हैं, तो छत क्यों नहीं?
क्या मिट जाएगा घसिया बस्ती का अस्तित्व
घसिया बस्ती के लोग अपने जीवन की जद्दोजहद में दिन-रात लगे रहते हैं। यह कहानी केवल सोनभद्र की घसिया बस्ती की नहीं है। यह उन सभी आदिवासियों की कहानी है, जिनकी ज़िंदगियाँ किसी एक अदृश्य चक्र में फंसी हुई हैं। सोनभद्र में घसिया आदिवासियों की संख्या लगभग 60 हजार से अधिक है, लेकिन अधिकांश आदिवासी बच्चे स्कूल से बाहर हैं। कई परिवारों की मासिक आमदनी 700-800 रुपये से भी कम है, जिससे उनके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया है। भूख और गरीबी के इन आँकड़ों को बीपीएल जनगणना 2002 की रिपोर्ट ने भी उजागर किया है। ऊर्जांचल में 4,633 परिवार, मिर्जापुर में 45,952 परिवार और चंदौली में 716 परिवार ऐसे हैं जिन्हें रोज़ाना एक बार से कम भोजन मिल पाता है।
एक्टिविस्ट और अधिवक्ता आशीष पाठक का कहना है, “सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली के जंगलों में आदिवासियों का निवास था। लेकिन सरकारी नीतियों ने धीरे-धीरे उन्हें वहां से खदेड़ना शुरू कर दिया। जैसे ही आदिवासियों को हटाया गया, वन माफिया ने उनकी जगह घुसपैठ कर ली। वन कानून में किए गए नए संशोधन ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है। आज आदिवासी समुदायों को जंगलों में उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है।”
आशीष पाठक आगे कहते हैं, "सोनभद्र के आदिवासियों की दुश्वारियां, भूख और अभाव उन्हें एक अंधेरी खाई में धकेल रहे हैं, जिसमें अधिकारों का कोई उजाला नजर नहीं आता। यह हाशिए पर रहने वाले उन लोगों की कहानी है, जिनके पास खोने को अब सिर्फ सपने हैं, और वे भी धीरे-धीरे धुंधले होते जा रहे हैं। क्या कभी इनकी जिंदगी में असली बदलाव आएगा? या फिर यह संघर्ष और दुश्वारियां इनकी किस्मत बनकर यहीं रह जाएंगी, अनकही, अनसुनी? "
गांव-गिरांव के संपादक श्रीधर द्विवेदी कहते हैं, "घसिया समुदाय के लिए यह यायावरी एक दर्दनाक यात्रा है। उन्हें हर बार अपनी मिट्टी, अपनी यादों और अपनी पहचान को पीछे छोड़ते हुए नई जगह पर बसना पड़ता है। परंतु क्या उनके संघर्ष को समझने के लिए कोई तैयार है? उनके जीवन का यह अंतहीन विस्थापन केवल उनके घरों को नहीं, बल्कि उनकी संस्कृति, उनके रीति-रिवाजों और उनकी आत्मा को भी बेघर करता है। सरकार का यह विकास मॉडल, जिसमें मूल निवासियों को बार-बार विस्थापित कर दिया जाता है, केवल उनकी जमीन नहीं बल्कि उनके सपनों को भी कुचल देता है।"
"भाजपा जैसे राजनीतिक दल आज आदिवासियों को हिंदू बताने की कोशिश कर रहे हैं। अगर इस परत को हटाकर देखा जाए, तो यह कवायद केवल चुनावी लाभ के लिए है। आदिवासियों की स्थिति का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए किया जा रहा है। आज के समय में आदिवासी समुदाय एक बड़ी आबादी के रूप में उभर चुका है, जो आने वाले चुनावों में बड़ा बदलाव ला सकता है। यही कारण है कि राजनीतिक दलों की नजरें उनके वोटों पर टिकी हैं।"
दिवेदी आगे कहते हैं, "यह विस्थापन सिर्फ एक जगह से दूसरी जगह जाने की प्रक्रिया नहीं है; यह उनके आत्मसम्मान, उनके अधिकार और उनकी विरासत को बार-बार रौंदता है। विकास की इस आंधी में घसिया समुदाय के लोग अपनी पहचान और अस्तित्व की जंग लड़ रहे हैं। इन लोक कलाकारों के लिए तो एक अलग से गांव बसाने की जरूरत है, ताकि इन की कला और करमा नृत्य सालों-साल तक जिंदा रहे। सवाल यह है कि क्या हमारी विकास नीति में इनके अधिकारों के लिए कोई जगह है, या फिर यह विस्थापन और दर्द का सिलसिला यूं ही चलता रहेगा? "
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले की रौप घसिया बस्ती के आदिवासियों के सामने एक गहरी चिंता और चुनौती एक साथ खड़ी हो गई है। यहाँ के आदिवासी, जो अपनी मिट्टी और जमीन के साथ जीवन की हर मुश्किल को झेलते हुए अपने तरीके से जी रहे थे, अब विकास के नाम पर अपनी जड़ों से फिर कटने को मजबूर हो रहे हैं। जंगल और बस्तियों से दूर होता ये विकास, अब आदिवासियों के घरों तक पहुँच गया है, जहां उन्हें वर्षों से बसेरा मिला हुआ था। अब इस भूमि पर उनके कदम डगमगाने लगे हैं।
सरकारी फरमान आया है कि जिस जगह रह रहे हैं, उसे खाली करना होगा, मगर उनकी नजरें इस सवाल से भरी हैं, "अगर वे अपनी जड़ों से उखाड़ दिए गए,हम कहाँ जाएंगे?" और चुनौती यह कि जिस स्थान पर वो पिछले 36 साल से रह रहे हैं, उस जमीन को कैसे बचाएंगे? सोनभद्र की घसिया बस्ती अब मानो एक सूनी आवाज की तरह हो गई है, जैसे अपने दर्द की गूँज सुनाने को बैठी हो। लेकिन इस गूँज को सुनने वाले कान मानो बंद हो चुके हैं। इस बस्ती में एसडीएम के आदेश से डर का साया छाया हुआ है। उनका कहना है कि “हम दशकों से यहाँ रह रहे हैं, अब अचानक हमसे हमारा बसेरा क्यों छीना जा रहा है? "
फुलवा नाम की एक महिला ने अपनी आँखों में भय और दर्द के साथ बताया, "हमें यहाँ से जाने का हुक्म तो मिल गया, पर हमें कहीं और बसाने की कोई व्यवस्था नहीं है। हमें बस इतना कहा गया कि जाकर कांशीराम आवास में रहो।" मैंने उससे पूछा, "क्या आपने वह जगह देखी है?" उसने कहा, "नहीं, हमने नहीं देखा। सरकार को अगर हमें कहीं बसाना है, तो यहीं रहने दें जहाँ हमारे बाप-दादा ने बसाया था। हमारा तो आदमी ही गुजर गया है। कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। विकलांग हूं। बीमार रहती हूं। सरकार बताए कि आखिर हम जिंदा कैसे रहेंगे?"
घसिया बस्ती की दर्दनाक दास्तां
राबर्ट्सगंज से सटे रौप गांव की घसिया बस्ती की तस्वीर देखकर ऐसा लगता है जैसे समय थम गया हो। यहां विकास का नाम तो है, पर उसकी छाया भी इन गरीबों की जिंदगी में नहीं पहुंची। कली का साढ़े तीन साल का बेटा शिव अपने दुबले-पतले शरीर में बस किसी तरह साँसें भरता है। उसकी आंखों में एक ऐसी उदासी है, जैसे दुनिया का दर्द उसकी मासूम रूह ने समझ लिया हो। उसकी मां, कली, जो दिन-रात खेतों में मेहनत करती है, अपने बच्चे की ओर देखती है तो उसका दिल बैठ जाता है। उसके लिए ‘स्वास्थ्य’, ‘शिक्षा’, ‘विकास’ जैसे शब्द किसी सपने से कम नहीं हैं।
कली, और उसकी जैसी हज़ारों महिलाएं, घसिया बस्ती की उसी दुखभरी दास्तां का हिस्सा हैं, जहां जीने का मतलब भूख से लड़ना और गरीबी की चादर में अपने बच्चों को समेटकर उम्मीद की सांसें लेना है। यह बस्ती करमा नृत्य के अपने अनोखे हुनर के लिए तो जानी जाती है, पर इनके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। एक चारपाई, पुराने-फटे हुए बिस्तर, और मटमैली दीवारों से ढंकी झोपड़ियों में ये अपना जीवन बिताते हैं। इनके पास बस एक ही चीज़ है – अपनी मेहनत, जो इन्हें दिन-रात जिंदा रखती है।
घसिया बस्ती में एक चबूतरा है, जिसे यहां भूख से मरने वाले बच्चों की याद में एक स्मारक बना है, जिसे ‘शहीद स्मारक’ कहा जाता है। इस स्मारक पर उन बच्चों के नाम लिखे हैं जो बस दो वक्त की रोटी न मिलने के कारण दुनिया से रुखसत हो गए हैं। भूख से बिलबिलाते बच्चों ने चकवड़ का जहरीला पौधा खा लिया था, और उस जहर ने उनके नन्हें-नन्हें शरीरों को निगल लिया। बनारस की मानवाधिकार जन निगरानी समिति ने उनकी याद में एक स्मारक बनवाया, जो यहाँ के संघर्ष का गवाह है। इस स्मारक को देखना अपने आप में एक गहरी पीड़ा को महसूस करना है। इस पर पुन्नू, रोशन, विजमल, लालमोहन, प्रीति जैसे नाम दर्ज हैं, जो इस बात की गवाही देते हैं कि गरीबी और भूख ने उनकी छोटी सी ज़िंदगी को लील लिया।
2007 में इस स्मारक का उद्घाटन हुआ, लेकिन इनकी यादें, इनके परिवार वालों के दिलों में आज भी ताज़ा हैं। जब इन बच्चों की भूख से मौतें हुईं, तो प्रशासन ने तब जाकर आंखें खोलीं, लेकिन राहत के नाम पर यहां के लोगों को कुछ भी नहीं मिला। आज जब वे इस जगह को छोड़ने की बात करते हैं, तो उनके साथ केवल उनकी यादें ही जाएंगी। क्या सरकार का यह विकास इन लोगों की जिंदगी से बढ़कर है? क्या इनकी पुश्तैनी जमीनें सिर्फ फरमानों में बदलकर रह जाएंगी? राबर्ट्सगंज की घसिया बस्ती में दर्द का यह मंजर जैसे एक पुरानी दास्तान को दोहरा रहा है – एक बार फिर से उजाड़ने का फरमान, और एक बार फिर से अपनी पहचान की लड़ाई।
भय और अनिश्चितता की छाया
सोनभद्र की घसिया बस्ती में हर चेहरे पर एक भय और अनिश्चितता की छाया दिखाई दे रही है। यह बस्ती उस घसिया जनजाति की है, जिनका नाम उनके पारंपरिक कार्य – राजाओं और सामंतों के घोड़ों के लिए घास लाने से जुड़ा हुआ है। युगों से, घसिया समुदाय अपने करमा नृत्य की कला के लिए प्रसिद्ध रहा है, और आज भी यहाँ के दर्जनों नृत्य समूह अपनी कला से दूर-दूर तक पहचान बना रहे हैं। लेकिन इस समय इनकी कला और पहचान, दोनों संकट में हैं।
घसिया बस्ती की अनारा और गायत्री कहती हैं, "हम पैंतीस साल से इस जमीन पर रह रहे हैं। हम मेहनत-मजदूरी करके जीते हैं, और अब हमें अचानक यहाँ से जाने का आदेश दे दिया गया है। लेकिन अगर हमें यहाँ से हटाया जाएगा, तो हमें रहने के लिए जगह कहाँ मिलेगी?" यह बस्ती सोनभद्र हाइवे से सटी है, जहां एक तरफ चुर्क की सड़क जाती है और दूसरी तरफ बनारस-छत्तीसगढ़ राजमार्ग। इस इलाके में बढ़ते विकास और सुविधाओं के चलते यह स्थान अब प्रशासन की नजर में काफी 'कीमती' बन चुका है, और इसी वजह से प्रशासन ने इसे खाली करने का आदेश जारी कर दिया है। लेकिन क्या घसिया समुदाय के पास कोई विकल्प है?
घसिया समुदाय के लोग मूलतः चिरूई मरकुड़ी से यहां आए थे, जब यह इलाका घने जंगलों से ढका हुआ था। सोनभद्र का अलग जिला बनना और शहर का विस्तार होना, इन बदलावों को घसिया समुदाय ने नजदीक से देखा है। धीरे-धीरे इस इलाके में प्रशासनिक कार्यालय बने, और विकास की दौड़ में इस बस्ती की जमीन का महत्व और बढ़ गया।
इस अनिश्चितता के बीच मानवाधिकार जन निगरानी समिति के संयोजक, डॉ. लेनिन ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और सोनभद्र के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर हस्तक्षेप की मांग की है। उन्होंने घसिया समुदाय के लिए भूमि आबंटन की मांग की है ताकि इस समुदाय को अपनी जमीन पर स्थायित्व मिल सके। उनका कहना है कि इस समुदाय का अधिकार जमींदारी उन्मूलन अधिनियम और भूमि सुधार अधिनियम के तहत सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
यहां का प्रशासन भी सवालों के घेरे में है। 2009 में, इस बस्ती में बनारस के दिवंगत पत्रकार सुशील त्रिपाठी की स्मृति में एक सामुदायिक केंद्र का निर्माण हुआ था, जिसका उद्घाटन तत्कालीन जिलाधिकारी पंधारी यादव ने किया था। उन्होंने घसिया लोगों को इस केंद्र के माध्यम से सरकारी सुविधाओं का लाभ दिलाने का आश्वासन दिया था। यदि यह बस्ती अवैध थी, तो उस समय यहाँ स्कूल और सामुदायिक केंद्र बनने की अनुमति क्यों दी गई?
आज, घसिया बस्ती के लोग अपने जीवन की अनिश्चितता से जूझ रहे हैं। विस्थापन का दर्द उनके चेहरे और बातों में साफ झलकता है। उनका सवाल है कि क्या विकास का मतलब उनके अधिकारों और जीवन से खिलवाड़ करना है? घसिया समुदाय के लोग अपने पैरों तले की जमीन को सुरक्षित रखना चाहते हैं, अपने बच्चों के भविष्य को संवारना चाहते हैं और अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाना चाहते हैं। परंतु विकास के नाम पर उन्हें दूसरी बार विस्थापन का दर्द झेलने के लिए मजबूर किया जा रहा है। यह कहानी केवल घसिया समुदाय की नहीं है; यह हर उस आदिवासी और कमजोर वर्ग की है जो विकास के नाम पर अपनी जड़ों से कटता जा रहा है।
विस्थापन और अस्थिरता का दर्द
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, उपजिलाधिकारी कार्यालय से दी गई रिपोर्ट में घसिया बस्ती के संबंध में चार महत्वपूर्ण बिंदुओं पर जानकारी दी गई थी। पहले बिंदु में स्पष्ट किया गया कि घसिया बस्ती के लोग 1.500 हेक्टेयर भूमि पर बसे हुए हैं, जिसकी लंबाई उत्तर से दक्षिण की दिशा में 150 मीटर, पूर्व में 80 मीटर और पश्चिम में 120 मीटर है। दूसरे बिंदु में यह बताया गया कि घसिया बस्ती के लोग जिस भूमि पर बसे हैं, वह आराजी नंबर 932 पर है, जो खतौनी में क्रीड़ास्थल के रूप में दर्ज है। तीसरे बिंदु के अनुसार इस भूमि की सीमाएं इस प्रकार हैं-उत्तर में क्रीड़ास्थल की शेष भूमि, दक्षिण में चुर्क जाने वाली सड़क, पूरब में संरक्षित वन, और पश्चिम में जंगल और कलेक्ट्रेट की भूमि। चौथे बिंदु में यह स्पष्ट किया गया कि घसिया बस्ती के लोग पिछले सात-आठ सालों से इस जमीन पर बसे हैं।
12 जून को जारी किए गए नोटिस के अनुसार, घसिया बस्ती के निवासियों को सरकारी भूमि को खाली करने का आदेश दिया गया था। इस बस्ती में रह रहे लोगों को सरकारी अधिकारियों ने मौखिक रूप से यह बताया है कि उन्हें कांशीराम आवास में स्थानांतरित किया जाएगा। लेकिन उन्हें इस नई जगह का निरीक्षण करने का मौका नहीं दिया गया, और न ही उन्हें इस बारे में कोई ठोस जानकारी दी गई है। बस्ती की निवासी उषा देवी के अनुसार, "हम लोगों को तो केवल खाली करने का आदेश मिला है, लेकिन हमारे लिए कोई दूसरा विकल्प तैयार नहीं किया गया।"
घसिया बस्ती के संदर्भ में वर्ष 2007 में एक स्थानीय निवासी द्वारा सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत जानकारी मांगी गई थी। इस जानकारी में खुलासा हुआ कि घसिया बस्ती के लोग 1.5 हेक्टेयर भूमि पर निवास कर रहे हैं, जिसे सरकारी रिकॉर्ड में खेल मैदान के रूप में दर्ज किया गया है। PVCHR के संस्थापक डॉ. लेनिन रघुवंशी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और सोनभद्र के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर मांग की है कि घसिया समुदाय के लोगों को ज़मीन का अधिकार दिया जाए, और जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम की धारा 122 B (4-F) के तहत इस बस्ती को वैधता दी जाए। उन्होंने यह भी बताया कि भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता अधिनियम, 2013 के अनुसार सरकार की जिम्मेदारी है कि वह उन लोगों को पुनर्वास और मुआवजा प्रदान करे जो भूमि अधिग्रहण के कारण विस्थापित होते हैं।
PVCHR ने इस मामले में पहले भी कई बार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से हस्तक्षेप की मांग की थी। वर्ष 2003 में PVCHR ने NHRC को एक याचिका भेजी, जिसके बाद NHRC के हस्तक्षेप से प्रशासन ने प्रभावित परिवारों को खाद्यान्न वितरित किया और उन्हें लाल कार्ड जारी किए। पीवीसीएचआर और कई दानदाताओं की मदद से घसिया समुदाय को कुछ राहत मिली है, लेकिन उनकी स्थिति अब भी बेहद दयनीय है। इन परिवारों के पास न तो पर्याप्त भूमि है, न पानी, न बिजली, न स्वास्थ्य सेवाएं और न ही शिक्षा तक पहुंच। वर्ष 2009 में यहां एक स्कूल का उद्घाटन हुआ, लेकिन प्रशासन द्वारा इसे कभी चालू नहीं किया गया।
हाल ही में मुख्यमंत्री कार्यालय के हस्तक्षेप के बाद बस्ती में बिजली की सुविधा उपलब्ध कराई गई है। PVCHR ने यहां एक ICDS केंद्र और सामुदायिक केंद्र भी स्थापित किया है, जिसका उद्घाटन जिलाधिकारी द्वारा किया गया। लेकिन इन सभी प्रयासों के बावजूद, घसिया बस्ती के लोग पुनर्वास के बिना इस बेदखली के संकट का सामना कर रहे हैं। डॉ. लेनिन रघुवंशी ने अपनी याचिका में NHRC से मांग की है कि घसिया समुदाय के लोगों को बिना पुनर्वास व्यवस्था के बेदखल नहीं किया जाए। उनकी डिमांड है कि जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम की धारा 122 (4-BF) के तहत घसिया जनजातियों के लिए भूमि का आवंटित किया जाए।
पीवीसीएचआर ने यह भी बताया कि कुछ भ्रष्ट राजस्व अधिकारी भूमि माफिया के साथ मिलकर इस मूल्यवान भूमि पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके चारों ओर पहले से ही एक मजबूत बाउंड्री वॉल बना दी गई है, जो निवासियों के भविष्य को लेकर गंभीर चिंता का कारण बन रहा है। डॉ. रघुवंशी ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से निवासियों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा के लिए त्वरित हस्तक्षेप की मांग की है। उनका मानना है कि अगर इस मामले में तत्काल कार्रवाई नहीं की गई, तो बस्ती के निवासियों का भविष्य खतरे में पड़ सकता है। घसिया बस्ती के निवासियों को उनकी भूमि का अधिकार मिलना चाहिए, ताकि वे यहां शांति से अपना जीवनयापन कर सकें।
क्या है नोटिस में?
यह नोटिस 12 जून, 2024 को जारी किया गया है, जिसमें कहा गया है कि रूप घसिया बस्ती के निवासी प्लॉट नंबर 932 पर अवैध कब्जा किए हुए हैं। यह भूमि वन अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत आती है और इसे खाली करने का आदेश दिया गया है। नोटिस में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि अगर इस जमीन को खाली नहीं किया गया, तो निवासियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।
अब सवाल उठता है कि जिला मुख्यालय के समीप स्थित इस भूमि पर जब इतने वर्षों से घसिया बस्ती बसी हुई थी, तो इसकी अनदेखी क्यों की गई? और अगर आज प्रशासन इसे अवैध मान रहा है, तो साल 2009 में इस जमीन पर स्कूल और सामुदायिक भवन बनाने की अनुमति क्यों दी गई थी? उस समय जिला प्रशासन के आला अधिकारियों ने इन भवनों का उद्घाटन किया था और समुदाय के विकास के लिए योजनाएं बनाई थीं। यह विरोधाभास प्रशासन के रवैये पर कई गंभीर सवाल खड़े करता है।
भूमि अधिग्रहण के संदर्भ में भारत में स्पष्ट कानून और नीति है। भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन का उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 के तहत, सरकार द्वारा किसी भी परियोजना या सार्वजनिक उद्देश्य के लिए जमीन अधिग्रहण की स्थिति में वहाँ बसे परिवारों का पुनर्वास और मुआवजा देना अनिवार्य है। इस अधिनियम के अनुसार विस्थापित परिवारों को सुरक्षित आवास देने की जिम्मेदारी सरकार अथवा परियोजना की उत्तरदायी संस्था की होती है।
इस अधिनियम के तहत, थलसेना, नौसेना, वायुसेना, और अर्धसैनिक बलों के कार्यों के लिए अधिग्रहण की गई जमीन पर बसे परिवारों को भी मुआवजा और पुनर्वास की व्यवस्था दी जानी चाहिए। इसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि निजी अस्पतालों, निजी शिक्षण संस्थानों और निजी होटलों के लिए जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता; उन्हें जमीन बाजार मूल्य पर खरीदनी होगी।
वर्तमान स्थिति में घसिया बस्ती के लोगों को हटाने की योजना प्रशासन द्वारा बनाई जा रही है, लेकिन मुआवजा और पुनर्वास की बात पर कोई स्पष्ट नहीं है। प्रशासन के इस कदम के खिलाफ मानवाधिकार जन निगरानी समिति के संयोजक डॉ. लेनिन ने राज्य के मुख्यमंत्री और सोनभद्र के जिलाधिकारी से हस्तक्षेप की अपील की है। उन्होंने मांग की है कि घसिया समुदाय को पुनर्वास के साथ ही भूमि का अधिकार दिया जाए।
प्रश्न यह उठता है कि अगर घसिया बस्ती को यहाँ से हटाया जाता है तो प्रशासन उनके पुनर्वास और मुआवजे की उचित व्यवस्था क्यों नहीं कर रहा? भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 के तहत विस्थापित परिवारों के पुनर्वास का दायित्व सरकार का है। पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) परियोजनाओं के लिए भी जमीन अधिग्रहण के लिए प्रभावित परिवारों की सहमति आवश्यक है, और कम से कम 70 प्रतिशत प्रभावित परिवारों की अनुमति के बिना अधिग्रहण नहीं किया जा सकता।
इस अधिनियम में उन परिवारों को पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन के लिए अधिकृत माना गया है जिनकी जमीन या घर का अधिग्रहण किया गया हो, वे परिवार जिनके पास जमीन नहीं है, लेकिन उस पर वर्षों से बटाईदारी या ठेके पर खेती कर रहे हों, और अनुसूचित जाति, जनजाति और वन क्षेत्र के निवासियों पर विशेष ध्यान दिया गया है।
इस अधिनियम के तहत, मुआवजे की राशि न्यायालय द्वारा निर्देशित सर्किल रेट के आधार पर तय होती है, जिसमें खड़ी फसलों, मकानों और पेड़ों के नुकसान की भरपाई का प्रावधान भी है। अधिग्रहण से पहले एक सामाजिक प्रभाव आकलन अनिवार्य है, जो यह सुनिश्चित करता है कि परियोजना से जनता के हितों की पूर्ति होगी या नहीं। प्रभावित परिवारों की सांस्कृतिक पहचान और उनके भविष्य के सवाल को ध्यान में रखते हुए, ग्राम पंचायत, ग्राम सभा, नगर पालिका, नगर निगम सहित स्थानीय संस्थाओं का प्रतिनिधित्व होना आवश्यक है।
क्या कहते हैं बस्ती के लोग?
इस घसिया बस्ती के निवासियों पर नोटिस का असर साफ दिखाई देता है। मैनेजर, जो इस बस्ती में करीब 28 सालों से बसे हुए हैं। इनका मकान जमींदोज हो गया है। नया मकान खड़ा करने के लिए पैसा नहीं है। वह कहते हैं, "हम मेहनत-मजूरी करके गुजर-बसर करते हैं। एक दिन एसडीएम साहब आए और बोले कि जगह खाली करनी होगी, लेकिन हम कहां जाएंगे?" घसिया बस्ती की लैला के पति लालब्रत पुलिस के खौफ के चलते गांव छोड़कर चले गए हैं। वो मुजफ्फरनगर में एक गन्ना किसान के यहां मजूरी करते हैं। लैला कहती हैं, "हमने काफी वर्षों से इस जमीन पर बसेरा किया है। यहां पुलिस द्वारा कई बार मारपीट की गई है, बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएं सबको प्रताड़ित किया गया है। पीवीसीएचर संस्था ने हमारी मदद की, राशन दिया और यहां स्कूल बनवाया। उन्होंने वादा किया था कि अब पुलिस हमें परेशान नहीं करेगी। इस जमीन पर हमारा हक है।"
एक बुजुर्ग महिला प्रतापी देवी की कहानी भी इसी दर्द को बयां करती है। वह कहती हैं, " हमने अपनी मेहनत से झोपड़ी बनाई है, और अब उसे तोड़ने का आदेश आ गया है। ये कहां का न्याय है? हमें यहाँ आधार कार्ड, राशन कार्ड, शौचालय, बिजली, गैस सब कुछ मिला है। इतने अधिकार देने के बाद अब सरकार हमें यहां से क्यों हटा रही है? हमें आयोजनों में सांस्कृतिक कार्यक्रम करने का मौका मिलता है। हम झोपड़ी में रहने को तैयार हैं, पर इस जमीन को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे।"
तारा नाम की महिला बताती हैं कि "घसिया बस्ती में 605 लोग रहते हैं। ज्यादातर महिलाएं झाड़ू बनाकर, और पुरुष रिक्शा चला कर अथवा मजूरी करके गुजारा करते हैं। हमने अपनी पूरी जिंदगी इसी जमीन पर मेहनत करके गुजारी है। अगर यह जमीन हमसे छीन ली गई, तो हमारा परिवार कहां जाएगा? हमने तब तय कर लिया था कि चाहे हमारी जान क्यों न चली जाए, हम इस जमीन को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे।"
जंगलों से तेंदू पत्ता, शहद और जलावन लकड़ी जैसे साधनों पर निर्भर ये घसिया आदिवासी अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। घसिया बस्ती के आदिवासी परिवारों ने यह ठान लिया है कि चाहे जो हो जाए, वे अपनी जमीन नहीं छोड़ेंगे। चंदा देवी कहती हैं, "हमारे पास ढेर सारे सरकारी कागजात हैं, और हम इसे किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ेंगे।"
घसिया बस्ती में न केवल जमीन पर मालिकाना हक का सवाल है, बल्कि पुनर्वास का भी सवाल है। वन विभाग ने जिन आदिवासियों को जमीन खाली करने का नोटिस दिया है, उनकी दलीलें सुनी नहीं जा रही हैं। इन आदिवासियों की कहानी एक गहरी पीड़ा की दास्तान है। सरकार के नए वन नियम और प्रशासन की इस अनदेखी ने आदिवासियों को एक अनिश्चित भविष्य की ओर धकेल दिया है। आदिवासी और वंचित समुदाय के लिए आवाज उठाने वाले अजय राय कहते हैं, "जिन जंगलों में आदिवासी रहते थे, उन्हें मुहिम चलाकर खाली कराया जा रहा है और वन माफिया वहां कब्जा कर रहे हैं। यह स्थिति आजादी के बाद से आज तक जारी है। सरकारें आदिवासियों को बार-बार उनके हक से महरूम करती रही हैं। वन विभाग और प्रशासन के बीच समन्वय की कमी ने आदिवासियों को कभी उनका हक नहीं मिलने दिया।"
"सोनभद्र के इन घसिया आदिवासियों की यह दास्तान हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या इनका भविष्य इसी तरह की पीड़ा और बेबसी में बीतेगा? क्या कभी ये लोग अपने अधिकारों को प्राप्त कर पाएंगे या फिर उनके अधिकार इसी तरह किसी कागजी प्रक्रिया में खो जाएंगे? क्या इनकी अनसुनी चीखें कभी उस लोकतंत्र के कानों तक पहुंच पाएंगी, जो इन्हीं के भरोसे पर खड़ा है? "
अजय राय यह भी कहते हैं, "यह मामला प्रशासन की लापरवाही और इस समुदाय के अधिकारों की अनदेखी को उजागर करता है। घसिया समुदाय के लोगों की यह बस्ती केवल उनकी आजीविका का केंद्र नहीं है, बल्कि उनकी सांस्कृतिक पहचान और उनके बच्चों का भविष्य भी इसी जमीन से जुड़ा हुआ है। ऐसे में, इनका विस्थापन न केवल उनकी आजीविका बल्कि उनके सामाजिक और सांस्कृतिक अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है।"
"घसिया बस्ती में जब कोई विकास की बात करता है, तो यह बातें किसी मजाक जैसी लगती हैं। भूख, कुपोषण, और गरीबी ने यहां के लोगों का जीना हर दिन एक संघर्ष बना दिया है। यहां के बच्चे सिर्फ रोटी के लिए तड़पते हैं, और उनका बचपन अपनी उम्र से पहले ही बूढ़ा हो जाता है। कली और उसके जैसे हज़ारों लोगों के लिए ‘विकास’ बस एक सपना है, जो शायद कभी पूरा नहीं होगा। उनके पास अधिकार, शिक्षा, स्वास्थ्य, कुछ भी नहीं है, बस है तो उनके दिन-रात की मेहनत और एक धुंधला सा सपना कि शायद एक दिन उनकी भी दुनिया बेहतर होगी।"
करमा नृत्य के फनकारों की बेबसी
घसिया बस्ती का हर आदमी और औरत लोकनृत्य का फनकार है, जो करमा, झूमर, शैला जैसे नृत्य रूपों में बेमिसाल हुनरमंद हैं। इस कला को जीवंत बनाए रखने वाले इन आदिवासी कलाकारों की हालत ऐसी है कि वे आज भी पानी, बिजली, और बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए जूझ रहे हैं। “सबका साथ-सबका विकास” जैसे नारों की गूंज यहां पहुंचती तो है, लेकिन यहां के लोग इन नारों को सिर्फ एक खोखली उम्मीद के रूप में देखते हैं।
पंचायत सदस्य सुक्खन और रामवृक्ष कहते हैं, "हम पिछले बीस साल से पानी के लिए दौड़-धूप कर रहे हैं। गांव में पानी का एकमात्र स्रोत वह पाइप है, जिसमें एक छेद से थोड़ी-बहुत बूंदें निकलती हैं। यहां दिन भर औरतें और बच्चे डिब्बे लेकर कतार में खड़े रहते हैं। बिजली का खंभा भी गिरा पड़ा है, जिससे घसिया बस्ती हमेशा अंधेरे में डूबी रहती है। यहां मलेरिया और बुखार का प्रकोप आम बात है।"
लोक कलाकार आशा की बातों में वर्षों की उपेक्षा का दर्द झलकता है। वे कहती हैं, "चुनाव के वक्त नेता आते हैं, हमें सपना दिखाते हैं, लेकिन चुनाव के बाद सब कुछ भूल जाते हैं। अफसर आते हैं, तरक्की के वादे करते हैं, पर हमारी बस्ती में सुविधाएं मांगने पर अपमान ही मिलता है। सच कहूं तो हमने इन लोगों की वादों पर विश्वास करना छोड़ दिया है।"
घसिया बस्ती की पहचान केवल गरीबी और संघर्ष से नहीं, बल्कि उनकी कला और उनकी पहचान से है। यह बस्ती वही जगह है, जहाँ के फनकार राष्ट्रीय स्तर के सांस्कृतिक आयोजनों में करमा नृत्य प्रस्तुत कर चुके हैं। 1986 में सोनिया गांधी के आवास पर करमा नृत्य पेश करने से लेकर पोर्टब्लेयर के फेस्टिवल में अपनी प्रस्तुति देने तक, यहां के कलाकारों ने अपनी कला को समर्पण से निभाया है। वे अपनी कला में निपुण हैं, लेकिन अपने जीवन में बेबस।
गजाधर घसिया, एक प्रमुख करमा कलाकार, निराशा से कहते हैं, "हमसे चुनाव में मतदाता जागरूकता के लिए नृत्य प्रस्तुतियां करवाई जाती हैं। विधानसभा चुनाव में मतदाता जागरूकता अभियान में हमने भाग लिया, लेकिन हमें इसका मेहनताना आज तक नहीं मिला। हमारी कला की सब सराहना करते हैं, पर हमारे दर्द को कोई नहीं समझता। हम कलाकार हैं, पर भूख से बिलबिला रहे हैं। हमारे घरों में जो भी गहना-गुरिया था, वो गिरवी रखकर बच्चों के लिए रोटी जुटाई। हम कब तक ऐसे जिएंगे?"
घसिया बस्ती के कलाकार हर बड़े नेताओं के दरबार में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। इनकी कला की ख्याति तो है, लेकिन उनकी परेशानियों का कोई समाधान नहीं। गजाधर की बातों में वर्षों की उपेक्षा का दर्द झलकता है। "करमा नृत्य के हर प्रोग्राम के लिए हमें 75 हज़ार से एक लाख रुपये तक मिलते हैं, लेकिन अफसरों को कमीशन और रिश्वत देने के पैसे नहीं होते, इसलिए हमारे पैसे फंसे रहते हैं। कई राज्य सरकारें हमारा पैसा दबाकर बैठी हैं। सरकार हमारी स्थिति को समझती ही नहीं। क्या वे कभी समझ पाएंगे कि गरीबी आखिर क्या होती है?"
यह दर्द सिर्फ गजाधर का नहीं, बल्कि घसिया बस्ती के हर कलाकार का है। इनकी कला का मूल्य जरूर है, पर इनके जीवन का कोई मूल्य नहीं। झूमर नृत्य की फनकार दुलारी कहती हैं, "पहाड़ों के झरनों का संगीत हमारे अंदर एक जोश भरता था, पर आज प्रशासन हमारे जीवन को नर्क बना रहा है। हमें जीने का भी अधिकार नहीं मिलता, और अक्सर पुलिस हम पर चोरी का झूठा इल्जाम लगाकर हमें प्रताड़ित करती है।"
भुखमरी और दर्द की बस्ती
घसिया बस्ती के 102 परिवार एक अदृश्य बोझ के साथ जी रहे हैं। यहां के लोगों को कभी अपनी संस्कृति और कला पर गर्व था, आज जीने के बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यहां के आदिवासी, जिनकी ज़िंदगियाँ कभी लोकनृत्य करमा और झूमर के लय से भरी थीं, आज अपने बच्चों के भूखे पेट और फटे कपड़ों को देखकर अपने अस्तित्व पर सवाल करते हैं।
पिछले दो दशक से घसिया आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ रही एक्टिविस्ट श्रुति नागवंशी कहती हैं, "यहां की महिलाओं और पुरुषों को समान रूप से डर का सामना करना पड़ता है। महिलाओं को अपनी इज़्ज़त की चिंता सताती है, तो पुरुष हमेशा इस बात से सहमे रहते हैं कि किसी झूठे मुकदमे में फंसा दिए जाएंगे। पुलिस या किसी सरकारी अधिकारी की गाड़ी देखते ही बच्चे और नौजवान इधर-उधर छिपने लगते हैं। प्रशासन इन आदिवासियों के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव करता है। एक ओर इनके करमा नृत्य को भारतीय संस्कृति का प्रतीक बताकर प्रचारित किया जाता है, दूसरी ओर इन्हीं कलाकारों के साथ अपराधियों जैसा व्यवहार किया जाता है। ऐसे में इनके हुनर का भविष्य क्या है, यह कहना मुश्किल है।”
करीब दो-ढाई दशक पहले जंगलों से विस्थापित हुए इन आदिवासियों ने इस बस्ती में शरण ली थी। उनके पास रहने को बस खास-फूस की झोपड़ियां थीं और पेट भरने के लिए न तो रोटी थी और न ही किसी रोजगार की गारंटी। भूख से संघर्ष करते हुए ये घसिया आदिवासी यहां आए थे, लेकिन उनके हालात में आज भी कोई खास बदलाव नहीं आया। अब वे न तो जंगलों में लौट सकते हैं और न ही शहर की सुविधाओं में कहीं ठिकाना बना सकते हैं। उनके पास रोजगार गारंटी कार्ड तो हैं, पर उस कार्ड पर काम आज तक नहीं मिला। ज़िला प्रशासन से पूछने पर जवाब मिलता है कि आदिवासियों ने शायद काम मांगा ही नहीं होगा।
रामसूरत, एक लोक कलाकार जिनकी दुनिया केवल उनकी कला और बच्चों के भरे पेट तक सीमित है, कहते हैं, “हम अगले चुनाव में उसी को वोट देंगे, जो हमारे लिए घर और रोजगार का वादा करेगा। साथ ही घसिया बस्ती को एक सांस्कृतिक गांव के रूप में मान्यता दिलाने की गारंटी देगा।" रामसूरत को नहीं पता कि अगला चुनाव दिल्ली का है या लखनऊ का, उन्हें बस एक छोटी-सी उम्मीद है कि शायद कभी कोई नेता आएगा, उनकी बात सुनेगा और उनके गांव की सुध लेगा।
लोकनृत्य की उनकी कला, जो कभी देश-विदेश में सराही जाती थी, अब भूख और अभाव की छाया में विलीन होती जा रही है। उनकी झोपड़ियां, जो अब तक बामुश्किल कच्चे घरों में बदली हैं, प्रधानमंत्री आवास योजना का इंतजार कर रही हैं। इस बस्ती के बच्चों को कुपोषण से छुटकारा दिलाने का सपना आज भी दूर है। सरकारी अभिलेखों में घसिया बस्ती को खेल का मैदान बताया गया है। प्रशासन का दावा है कि ये लोग दो-तीन दशक से उस जमीन पर काबिज हैं, इसलिए जमीन से बेदखल करने के निर्देश दिए गए हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर इन्हें शौचालय और हैंडपंप मिल सकते हैं, तो छत क्यों नहीं?
क्या मिट जाएगा घसिया बस्ती का अस्तित्व
घसिया बस्ती के लोग अपने जीवन की जद्दोजहद में दिन-रात लगे रहते हैं। यह कहानी केवल सोनभद्र की घसिया बस्ती की नहीं है। यह उन सभी आदिवासियों की कहानी है, जिनकी ज़िंदगियाँ किसी एक अदृश्य चक्र में फंसी हुई हैं। सोनभद्र में घसिया आदिवासियों की संख्या लगभग 60 हजार से अधिक है, लेकिन अधिकांश आदिवासी बच्चे स्कूल से बाहर हैं। कई परिवारों की मासिक आमदनी 700-800 रुपये से भी कम है, जिससे उनके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया है। भूख और गरीबी के इन आँकड़ों को बीपीएल जनगणना 2002 की रिपोर्ट ने भी उजागर किया है। ऊर्जांचल में 4,633 परिवार, मिर्जापुर में 45,952 परिवार और चंदौली में 716 परिवार ऐसे हैं जिन्हें रोज़ाना एक बार से कम भोजन मिल पाता है।
एक्टिविस्ट और अधिवक्ता आशीष पाठक का कहना है, “सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली के जंगलों में आदिवासियों का निवास था। लेकिन सरकारी नीतियों ने धीरे-धीरे उन्हें वहां से खदेड़ना शुरू कर दिया। जैसे ही आदिवासियों को हटाया गया, वन माफिया ने उनकी जगह घुसपैठ कर ली। वन कानून में किए गए नए संशोधन ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है। आज आदिवासी समुदायों को जंगलों में उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है।”
आशीष पाठक आगे कहते हैं, "सोनभद्र के आदिवासियों की दुश्वारियां, भूख और अभाव उन्हें एक अंधेरी खाई में धकेल रहे हैं, जिसमें अधिकारों का कोई उजाला नजर नहीं आता। यह हाशिए पर रहने वाले उन लोगों की कहानी है, जिनके पास खोने को अब सिर्फ सपने हैं, और वे भी धीरे-धीरे धुंधले होते जा रहे हैं। क्या कभी इनकी जिंदगी में असली बदलाव आएगा? या फिर यह संघर्ष और दुश्वारियां इनकी किस्मत बनकर यहीं रह जाएंगी, अनकही, अनसुनी? "
गांव-गिरांव के संपादक श्रीधर द्विवेदी कहते हैं, "घसिया समुदाय के लिए यह यायावरी एक दर्दनाक यात्रा है। उन्हें हर बार अपनी मिट्टी, अपनी यादों और अपनी पहचान को पीछे छोड़ते हुए नई जगह पर बसना पड़ता है। परंतु क्या उनके संघर्ष को समझने के लिए कोई तैयार है? उनके जीवन का यह अंतहीन विस्थापन केवल उनके घरों को नहीं, बल्कि उनकी संस्कृति, उनके रीति-रिवाजों और उनकी आत्मा को भी बेघर करता है। सरकार का यह विकास मॉडल, जिसमें मूल निवासियों को बार-बार विस्थापित कर दिया जाता है, केवल उनकी जमीन नहीं बल्कि उनके सपनों को भी कुचल देता है।"
"भाजपा जैसे राजनीतिक दल आज आदिवासियों को हिंदू बताने की कोशिश कर रहे हैं। अगर इस परत को हटाकर देखा जाए, तो यह कवायद केवल चुनावी लाभ के लिए है। आदिवासियों की स्थिति का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए किया जा रहा है। आज के समय में आदिवासी समुदाय एक बड़ी आबादी के रूप में उभर चुका है, जो आने वाले चुनावों में बड़ा बदलाव ला सकता है। यही कारण है कि राजनीतिक दलों की नजरें उनके वोटों पर टिकी हैं।"
दिवेदी आगे कहते हैं, "यह विस्थापन सिर्फ एक जगह से दूसरी जगह जाने की प्रक्रिया नहीं है; यह उनके आत्मसम्मान, उनके अधिकार और उनकी विरासत को बार-बार रौंदता है। विकास की इस आंधी में घसिया समुदाय के लोग अपनी पहचान और अस्तित्व की जंग लड़ रहे हैं। इन लोक कलाकारों के लिए तो एक अलग से गांव बसाने की जरूरत है, ताकि इन की कला और करमा नृत्य सालों-साल तक जिंदा रहे। सवाल यह है कि क्या हमारी विकास नीति में इनके अधिकारों के लिए कोई जगह है, या फिर यह विस्थापन और दर्द का सिलसिला यूं ही चलता रहेगा? "
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)