‘मोदी मित्र’ कार्यक्रम के ज़रिए भाजपा का निशाना अब पसमांदा वोटबैंक पर है, मग़र पिछले एक दशक में हुई कुछ घटनाओं को अगर देखें, तो लगता नहीं कि ये कार्यक्रम और मंचों से दिखाई पड़ती मुसलमानों के प्रति चिंता सच है।
फाइल फ़ोटो। साभार : ट्विटर/एक्स
लोकसभा चुनाव 2024 से पहले सत्तारूढ़ बीजेपी, “मोदी मित्र” कार्यक्रम के सहारे मुस्लिम समाज का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रही है। “हिंदुत्व” की उत्साही पक्षसमर्थक बीजेपी, पसमांदा (पिछड़े) और सूफ़ी मुसलमानों की प्रति स्नेह दिखाकर मुस्लिम समाज के बीच अपनी पकड़ मज़बूत करने का प्रयोग कर रही है।
इस बीच बीजेपी के इस प्रयोग की “गंभीरता” को लेकर बहस शुरू हो गई है। सत्तारूढ़ पार्टी के प्रयोग को “संदेह” की दृष्टि से भी देखा जा रहा है, क्योंकि पिछले एक दशक में जितना “हिंदुत्व” की राजनीति का उभार हुआ है उतना ही मुस्लिम समाज हाशिये पर गया है। इस वक़्त अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा आदि का सामना कर रहा है।
कम होता राजनीतिक प्रतिनिधित्व
नरेंद्र मोदी की सरकार स्वतंत्र भारत की शायद पहली ऐसी सरकार है जिसमें एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है। यहां तक कि उत्तर प्रदेश में क़रीब 20 प्रतिशत आबादी वाले मुस्लिम समाज से केवल एक राज्यमंत्री, दानिश आज़ाद अंसारी, प्रदेश की योगी सरकार का हिस्सा हैं। केंद्र के सत्तारूढ़ दल में एक भी निर्वाचित संसद मुस्लिम नहीं है।
मुख़्तार अब्बास नक़वी के राज्यसभा के कार्यकाल समाप्त होने के बाद से केंद्र सरकार में कोई मुस्लिम मंत्री नहीं है। राजनीतिक विश्लेषक सवाल करते हैं अगर बीजेपी को पसमांदा मुसलमानों के प्रति स्नेह है तो उनको अपनी सरकार में प्रतिनिधित्व क्यों नहीं देती है??
संसद से सड़क तक
मुस्लिम मामलों के जानकार मानते हैं कि अल्पसंख्यक समाज के प्रति नफ़रत का ऐसा वातावरण तैयार किया गया है कि अगर सड़क पर उनकी लिंचिंग हो रही है तो संसद में उन के विरुद्ध अभद्र भाषा का प्रयोग हो रहा है। हाल में ही बीजेपी सांसद ने संसद के अन्दर बहुजन समाज पार्टी के सांसद दानिश अली के खिलाफ़ लोकसभा में अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया। बिधूड़ी के विरुद्ध करवाई करने की बजाए बीजेपी ने उनका राजनितिक क़द बड़ा करते हुए उनको राजस्थान के टोंक जिला का प्रभारी नियुक्त कर दिया।
लिंचिंग पर ख़ामोशी
हाल के वर्षों र्में देश में मुसलमानों की पीट-पीट कर हत्या (लिंचिंग) के कई मामले सामने आए हैं। लिंचिंग में अपनी जान गंवाने वाले कुछ पीड़ितों में मोहम्मद अख़लाक़, पहलू ख़ान, जुनैद, मोहम्मद मज़लूम अंसारी और अलीमुद्दीन उर्फ असग़र अंसारी आदि हैं।
लिंचिंग के शिकार होने वालों में बड़ी संख्या में "पसमांदा" थे जिन्हें कथित गौरक्षकों ने मार डाला। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत बीजेपी के सभी नेताओं ने इस उत्पीड़न के बारे में चुप रहना बेहतर समझा और यहां तक कि कुछ वर्ष पहले केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने भी लिंचिंग के दोषी लोगों को माला पहना कर स्वागत भी किया।
नफ़रत के नाम पर हो रहे अपराध को रोकने के प्रयास की इच्छा भी नहीं नज़र आती है। शायद इसी का नतीजा है कि रेलवे सुरक्षा बल के एक जवान ने इसी साल 31 जुलाई की सुबह महाराष्ट्र के पालघर रेलवे स्टेशन के पास ट्रेन में सवार चार लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी, जिसमें एक सहायक उप-निरीक्षक, एक मुस्लिम पुरुष जिसकी दाढ़ी थी, और एक मुस्लिम महिला शामिल है।
इस वारदात का कथित वीडियो भी सामने आया जिसमें अपराधी आरपीएफ कांस्टेबल चेतन कुमार, ख़ून से लथपथ शव के पास खड़े होकर अन्य यात्रियों से कह रहे हैं कि अगर वे वोट देना चाहते हैं और भारत में रहना चाहते हैं, तो 'मोदी और योगी, ये दो हैं, और आपके ठाकरे'।
आर्थिक बहिष्कार
ऐसा भी देखा गया है कि दक्षिणपंथी संगठन लगातार मुसलमानों के अर्थिक बहिष्कार का आह्वान करते हैं। दिल्ली से संसद सदस्य प्रवेश साहिब सिंह वर्मा ने विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) की एक स्थानीय शाखा द्वारा बुलाई गई रैली में हिंदुओं से मुसलमानों का आर्थिक रूप से बहिष्कार करने (समुदाय का नाम लिए बिना) का आह्वान किया था।
देश की राजधानी में आयोजित एक रैली में, यूपी के लोनी से भाजपा विधायक नंद किशोर गुर्जर ने मोहम्मद अख़लाक़ के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग किया था। ये वही मोहम्मद अखलाक हैं जिनकी दादरी रेलवे स्टेशन पर पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी।
उत्तर प्रदेश का ही मामला लीजिए, योगी सरकार की नज़र की मदरसों पर है, जहां मुख्यत कम आय वाले परिवारों के मुस्लिम बच्चे पढ़ने के लिए जाते हैं। यहां लगातार जांच, सर्वे और नोटिस आदि के नाम पर मदरसों को निशाना बनाया जाता है।
हाल में ही नियम के विरुद्ध जाकर मुज़फ़्फ़रनगर में 12 गैर मान्यता प्राप्त मदरसों को अपने पंजीकरण के दस्तावेज़ दिखाने के लिये बेसिक शिक्षा विभाग द्वारा नोटिस जारी कर दिया गया। जिसके विरोध के बाद वापस लिया गया। "लव जिहाद" और “हिजाब” का नाम लेकर भी मुस्लिम समाज को लगातार निशाना बनाया जाता है।
फ़िलिस्तीन का मसला
हाल में ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में जॉर्डन द्वारा प्रस्तुत एक मसौदा प्रस्ताव पर मतदान से दूरी बना ली। इस प्रस्ताव का मकसद केवल गाज़ा, फ़िलिस्तीन में तत्काल, टिकाऊ और निरंतर मानवीय संघर्ष विराम का आह्वान करना था। अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार मानते हैं कि भारत के इस फ़ैसले से भारत समेत सारी दुनिया के मुसलमानों को निराशा हुई है और यह सन्देश गया है कि भारत सदियों पुराना रिश्ता फ़िलिस्तीन से ख़त्म कर के इज़रायल के साथ हो गया है।
स्नेह या भ्रम पैदा करना है
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी मुस्लिम समाज के कुछ वर्गों के प्रति स्नेह दिखा कर मुस्लिम समाज की एकजुटता को ख़त्म करना चाहती है। प्रसिद्ध पत्रकार ज़िया उज़ सलाम कहते हैं कि बीजेपी के मुसलमानों के प्रति स्नेह का मक़सद केवल मुस्लिम समाज में भ्रम और बंटवारा पैदा करना है। उन्होंने ने सवाल किया कि तथाकथित गौ रक्षकों ने इतने मुसलमानों (जिसमें अधिकतर पसमांदा थे) की हत्या कर दी, क्या प्रधानमंत्री ने कभी इसका विरोध किया??
“मुस्लिम इन हिन्दू इंडिया” के लेखक ज़िया उज़ सलाम आगे कहते हैं पसमांदा मुसलमानों की बात केवल मोदी ने की थी, यह उसका व्यक्तिगत एजेंडा हो सकता है, क्योंकि उसके सिवा बीजेपी का कोई भी कद्दावर नेता अमित शाह या योगी आदित्यनाथ आदि मुस्लिम मुद्दों पर बात नहीं करते हैं। अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री स्मृति ईरानी तक मुसलमानों के मुद्दों पर ख़ामोश रहती हैं ।
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री केवल मुस्लिम समाज बात तो करते हैं, लेकिन उसमें प्रायोगिक प्रयास कुछ नहीं होता है। उनका कहना है, केवल कुछ दाढ़ी वालों को जमा कर के पसमांदा सम्मेलन, सूफ़ी संवाद या मोदी मित्र जैसे कार्यक्रम करने से यह सिद्ध नहीं होता कि प्रधानमंत्री मोदी मुसलामानों को लेकर गंभीर है। लेखक पत्रकार ज़िया उज़ सलाम कहते हैं, क्या आज तक लॉन्चिंग में मारे गये लोगों में से किसी एक के परिवर से भी प्रधानमंत्री मिले हैं? मदरसों और मस्जिदों पर हमले की कभी उन्होंने निंदा की है??
फ़िलीस्तीन पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि वहाँ मुसलमानों का नरसंहार हो रहा है और मोदी सरकार फ़िलीस्तीन-भारत से पुराने रिश्तों को भुलाकर, संघर्ष विराम के प्रस्ताव के समय, संयुक्त राष्ट्र महासभा, में मतदान से दूरी बना लेती है। इस से मुसलमानों के बारे में सरकार की सोच गंभीरता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
उच्च जातियों को छोड़ परवाह नहीं
मुस्लिम बुद्धिजीवी भी बीजेपी के मुसलमानों के स्नेह को मात्र एक दिखावा मानते हैं। दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व चेयरमैन ज़फ़र उल इस्लाम कहते हैं, अपने मुख्य समर्थन समूह, उच्च जातियों को छोड़कर, भाजपा को किसी भी समूह की परवाह नहीं है। बीजेपी किसी भी समूह को विभाजित करने के लिए तैयार है यदि वह उसकी चुनावी राजनीति के लिए उपयोगी हो।
ज़फ़र उल इस्लाम कहते हैं फिलहाल बीजेपी रट रही है कि उसे पसमांदा मुसलमानों और मुस्लिम महिलाओं की परवाह है। हकीक़त में ऐसा नहीं है, मोदी के शासन के दौरान जिन सैकड़ों मुसलमानों की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई, वे अधिकतर पसमांदा हैं, जिन्हें कोई न्याय नहीं मिला।
भाजपा को एक चुनाव जीतने वाली मशीन बताते हुए दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व चेयरमैन कहते हैं, कि बीजेपी अपने चुनावी खेल के लिए केवल समूहों को जीतने की परवाह करती है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। बीजेपी ने मुस्लिम महिलाओं या पसमांदा मुसलमानों के लिए या किसी निचली जाति समूह के लिए कुछ नहीं किया है।
बीजेपी को मुस्लिम समर्थन की उम्मीद
हालांकि बीजेपी को विश्वास है कि वह मुस्लिम समाज का विश्वास जीतने में सफल होगी। उत्तर प्रदेश बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष कुंवर बासित अली कहते हैं कि पहले हमने पसमांदा मुसलमानों और सूफियों से संपर्क किया और अब मोदी मित्र कार्यक्रम करने जा रहे हैं। जिस से मुस्लिम समाज को बीजेपी से क़रीब लाया जा रहा है।
कुँवर बासित अली कहते हैं कि बीजेपी सरकार "सबका साथ सबका विकास" नीति पर काम कर रही हैं और सरकार की सभी "जनकल्याण नीतियों" का लाभ मुस्लिम समाज को भी मिला है। उनका कहना है विपक्ष ने केवल अल्पसंख्यक को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया है, मुस्लिम समाज का विकास सिर्फ़ बीजेपी सरकार में हुआ है।
अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष का दावा है कि क़रीब 20 प्रतिशत तक मुस्लिम उनको वोट देगा क्योंकि वह बीजेपी सरकार की मुफ़्त अनाज और मकान जैसे कार्यक्रम का लाभार्थी है।
अब यह चुनावों के बाद ही मालूम होगा की बीजेपी मुस्लिम समाज का विश्वास जीत पाती है या नहीं, फिलहाल बीजेपी मुस्लिम को अपने क़रीब लाने का प्रयास कर रही है। देश में क़रीब 14 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में क़रीब 19-20 प्रतिशत मुस्लिम चुनावी राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं। इसी लिए सभी दलों विशेषकर कांग्रेस और दूसरे क्षेत्रीय और जाति आधारित दलों की निगाहें हमेशा मुस्लिम वोटों पर रहती हैं। मुस्लिम वोटों की एकजुटता या बिखराव दोनों से चुनावी नतीजो पर बड़ा फर्क पड़ता है।
Courtesy: Newsclick
फाइल फ़ोटो। साभार : ट्विटर/एक्स
लोकसभा चुनाव 2024 से पहले सत्तारूढ़ बीजेपी, “मोदी मित्र” कार्यक्रम के सहारे मुस्लिम समाज का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रही है। “हिंदुत्व” की उत्साही पक्षसमर्थक बीजेपी, पसमांदा (पिछड़े) और सूफ़ी मुसलमानों की प्रति स्नेह दिखाकर मुस्लिम समाज के बीच अपनी पकड़ मज़बूत करने का प्रयोग कर रही है।
इस बीच बीजेपी के इस प्रयोग की “गंभीरता” को लेकर बहस शुरू हो गई है। सत्तारूढ़ पार्टी के प्रयोग को “संदेह” की दृष्टि से भी देखा जा रहा है, क्योंकि पिछले एक दशक में जितना “हिंदुत्व” की राजनीति का उभार हुआ है उतना ही मुस्लिम समाज हाशिये पर गया है। इस वक़्त अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा आदि का सामना कर रहा है।
कम होता राजनीतिक प्रतिनिधित्व
नरेंद्र मोदी की सरकार स्वतंत्र भारत की शायद पहली ऐसी सरकार है जिसमें एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है। यहां तक कि उत्तर प्रदेश में क़रीब 20 प्रतिशत आबादी वाले मुस्लिम समाज से केवल एक राज्यमंत्री, दानिश आज़ाद अंसारी, प्रदेश की योगी सरकार का हिस्सा हैं। केंद्र के सत्तारूढ़ दल में एक भी निर्वाचित संसद मुस्लिम नहीं है।
मुख़्तार अब्बास नक़वी के राज्यसभा के कार्यकाल समाप्त होने के बाद से केंद्र सरकार में कोई मुस्लिम मंत्री नहीं है। राजनीतिक विश्लेषक सवाल करते हैं अगर बीजेपी को पसमांदा मुसलमानों के प्रति स्नेह है तो उनको अपनी सरकार में प्रतिनिधित्व क्यों नहीं देती है??
संसद से सड़क तक
मुस्लिम मामलों के जानकार मानते हैं कि अल्पसंख्यक समाज के प्रति नफ़रत का ऐसा वातावरण तैयार किया गया है कि अगर सड़क पर उनकी लिंचिंग हो रही है तो संसद में उन के विरुद्ध अभद्र भाषा का प्रयोग हो रहा है। हाल में ही बीजेपी सांसद ने संसद के अन्दर बहुजन समाज पार्टी के सांसद दानिश अली के खिलाफ़ लोकसभा में अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया। बिधूड़ी के विरुद्ध करवाई करने की बजाए बीजेपी ने उनका राजनितिक क़द बड़ा करते हुए उनको राजस्थान के टोंक जिला का प्रभारी नियुक्त कर दिया।
लिंचिंग पर ख़ामोशी
हाल के वर्षों र्में देश में मुसलमानों की पीट-पीट कर हत्या (लिंचिंग) के कई मामले सामने आए हैं। लिंचिंग में अपनी जान गंवाने वाले कुछ पीड़ितों में मोहम्मद अख़लाक़, पहलू ख़ान, जुनैद, मोहम्मद मज़लूम अंसारी और अलीमुद्दीन उर्फ असग़र अंसारी आदि हैं।
लिंचिंग के शिकार होने वालों में बड़ी संख्या में "पसमांदा" थे जिन्हें कथित गौरक्षकों ने मार डाला। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत बीजेपी के सभी नेताओं ने इस उत्पीड़न के बारे में चुप रहना बेहतर समझा और यहां तक कि कुछ वर्ष पहले केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने भी लिंचिंग के दोषी लोगों को माला पहना कर स्वागत भी किया।
नफ़रत के नाम पर हो रहे अपराध को रोकने के प्रयास की इच्छा भी नहीं नज़र आती है। शायद इसी का नतीजा है कि रेलवे सुरक्षा बल के एक जवान ने इसी साल 31 जुलाई की सुबह महाराष्ट्र के पालघर रेलवे स्टेशन के पास ट्रेन में सवार चार लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी, जिसमें एक सहायक उप-निरीक्षक, एक मुस्लिम पुरुष जिसकी दाढ़ी थी, और एक मुस्लिम महिला शामिल है।
इस वारदात का कथित वीडियो भी सामने आया जिसमें अपराधी आरपीएफ कांस्टेबल चेतन कुमार, ख़ून से लथपथ शव के पास खड़े होकर अन्य यात्रियों से कह रहे हैं कि अगर वे वोट देना चाहते हैं और भारत में रहना चाहते हैं, तो 'मोदी और योगी, ये दो हैं, और आपके ठाकरे'।
आर्थिक बहिष्कार
ऐसा भी देखा गया है कि दक्षिणपंथी संगठन लगातार मुसलमानों के अर्थिक बहिष्कार का आह्वान करते हैं। दिल्ली से संसद सदस्य प्रवेश साहिब सिंह वर्मा ने विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) की एक स्थानीय शाखा द्वारा बुलाई गई रैली में हिंदुओं से मुसलमानों का आर्थिक रूप से बहिष्कार करने (समुदाय का नाम लिए बिना) का आह्वान किया था।
देश की राजधानी में आयोजित एक रैली में, यूपी के लोनी से भाजपा विधायक नंद किशोर गुर्जर ने मोहम्मद अख़लाक़ के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग किया था। ये वही मोहम्मद अखलाक हैं जिनकी दादरी रेलवे स्टेशन पर पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी।
उत्तर प्रदेश का ही मामला लीजिए, योगी सरकार की नज़र की मदरसों पर है, जहां मुख्यत कम आय वाले परिवारों के मुस्लिम बच्चे पढ़ने के लिए जाते हैं। यहां लगातार जांच, सर्वे और नोटिस आदि के नाम पर मदरसों को निशाना बनाया जाता है।
हाल में ही नियम के विरुद्ध जाकर मुज़फ़्फ़रनगर में 12 गैर मान्यता प्राप्त मदरसों को अपने पंजीकरण के दस्तावेज़ दिखाने के लिये बेसिक शिक्षा विभाग द्वारा नोटिस जारी कर दिया गया। जिसके विरोध के बाद वापस लिया गया। "लव जिहाद" और “हिजाब” का नाम लेकर भी मुस्लिम समाज को लगातार निशाना बनाया जाता है।
फ़िलिस्तीन का मसला
हाल में ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में जॉर्डन द्वारा प्रस्तुत एक मसौदा प्रस्ताव पर मतदान से दूरी बना ली। इस प्रस्ताव का मकसद केवल गाज़ा, फ़िलिस्तीन में तत्काल, टिकाऊ और निरंतर मानवीय संघर्ष विराम का आह्वान करना था। अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार मानते हैं कि भारत के इस फ़ैसले से भारत समेत सारी दुनिया के मुसलमानों को निराशा हुई है और यह सन्देश गया है कि भारत सदियों पुराना रिश्ता फ़िलिस्तीन से ख़त्म कर के इज़रायल के साथ हो गया है।
स्नेह या भ्रम पैदा करना है
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी मुस्लिम समाज के कुछ वर्गों के प्रति स्नेह दिखा कर मुस्लिम समाज की एकजुटता को ख़त्म करना चाहती है। प्रसिद्ध पत्रकार ज़िया उज़ सलाम कहते हैं कि बीजेपी के मुसलमानों के प्रति स्नेह का मक़सद केवल मुस्लिम समाज में भ्रम और बंटवारा पैदा करना है। उन्होंने ने सवाल किया कि तथाकथित गौ रक्षकों ने इतने मुसलमानों (जिसमें अधिकतर पसमांदा थे) की हत्या कर दी, क्या प्रधानमंत्री ने कभी इसका विरोध किया??
“मुस्लिम इन हिन्दू इंडिया” के लेखक ज़िया उज़ सलाम आगे कहते हैं पसमांदा मुसलमानों की बात केवल मोदी ने की थी, यह उसका व्यक्तिगत एजेंडा हो सकता है, क्योंकि उसके सिवा बीजेपी का कोई भी कद्दावर नेता अमित शाह या योगी आदित्यनाथ आदि मुस्लिम मुद्दों पर बात नहीं करते हैं। अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री स्मृति ईरानी तक मुसलमानों के मुद्दों पर ख़ामोश रहती हैं ।
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री केवल मुस्लिम समाज बात तो करते हैं, लेकिन उसमें प्रायोगिक प्रयास कुछ नहीं होता है। उनका कहना है, केवल कुछ दाढ़ी वालों को जमा कर के पसमांदा सम्मेलन, सूफ़ी संवाद या मोदी मित्र जैसे कार्यक्रम करने से यह सिद्ध नहीं होता कि प्रधानमंत्री मोदी मुसलामानों को लेकर गंभीर है। लेखक पत्रकार ज़िया उज़ सलाम कहते हैं, क्या आज तक लॉन्चिंग में मारे गये लोगों में से किसी एक के परिवर से भी प्रधानमंत्री मिले हैं? मदरसों और मस्जिदों पर हमले की कभी उन्होंने निंदा की है??
फ़िलीस्तीन पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि वहाँ मुसलमानों का नरसंहार हो रहा है और मोदी सरकार फ़िलीस्तीन-भारत से पुराने रिश्तों को भुलाकर, संघर्ष विराम के प्रस्ताव के समय, संयुक्त राष्ट्र महासभा, में मतदान से दूरी बना लेती है। इस से मुसलमानों के बारे में सरकार की सोच गंभीरता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
उच्च जातियों को छोड़ परवाह नहीं
मुस्लिम बुद्धिजीवी भी बीजेपी के मुसलमानों के स्नेह को मात्र एक दिखावा मानते हैं। दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व चेयरमैन ज़फ़र उल इस्लाम कहते हैं, अपने मुख्य समर्थन समूह, उच्च जातियों को छोड़कर, भाजपा को किसी भी समूह की परवाह नहीं है। बीजेपी किसी भी समूह को विभाजित करने के लिए तैयार है यदि वह उसकी चुनावी राजनीति के लिए उपयोगी हो।
ज़फ़र उल इस्लाम कहते हैं फिलहाल बीजेपी रट रही है कि उसे पसमांदा मुसलमानों और मुस्लिम महिलाओं की परवाह है। हकीक़त में ऐसा नहीं है, मोदी के शासन के दौरान जिन सैकड़ों मुसलमानों की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई, वे अधिकतर पसमांदा हैं, जिन्हें कोई न्याय नहीं मिला।
भाजपा को एक चुनाव जीतने वाली मशीन बताते हुए दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व चेयरमैन कहते हैं, कि बीजेपी अपने चुनावी खेल के लिए केवल समूहों को जीतने की परवाह करती है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। बीजेपी ने मुस्लिम महिलाओं या पसमांदा मुसलमानों के लिए या किसी निचली जाति समूह के लिए कुछ नहीं किया है।
बीजेपी को मुस्लिम समर्थन की उम्मीद
हालांकि बीजेपी को विश्वास है कि वह मुस्लिम समाज का विश्वास जीतने में सफल होगी। उत्तर प्रदेश बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष कुंवर बासित अली कहते हैं कि पहले हमने पसमांदा मुसलमानों और सूफियों से संपर्क किया और अब मोदी मित्र कार्यक्रम करने जा रहे हैं। जिस से मुस्लिम समाज को बीजेपी से क़रीब लाया जा रहा है।
कुँवर बासित अली कहते हैं कि बीजेपी सरकार "सबका साथ सबका विकास" नीति पर काम कर रही हैं और सरकार की सभी "जनकल्याण नीतियों" का लाभ मुस्लिम समाज को भी मिला है। उनका कहना है विपक्ष ने केवल अल्पसंख्यक को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया है, मुस्लिम समाज का विकास सिर्फ़ बीजेपी सरकार में हुआ है।
अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष का दावा है कि क़रीब 20 प्रतिशत तक मुस्लिम उनको वोट देगा क्योंकि वह बीजेपी सरकार की मुफ़्त अनाज और मकान जैसे कार्यक्रम का लाभार्थी है।
अब यह चुनावों के बाद ही मालूम होगा की बीजेपी मुस्लिम समाज का विश्वास जीत पाती है या नहीं, फिलहाल बीजेपी मुस्लिम को अपने क़रीब लाने का प्रयास कर रही है। देश में क़रीब 14 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में क़रीब 19-20 प्रतिशत मुस्लिम चुनावी राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं। इसी लिए सभी दलों विशेषकर कांग्रेस और दूसरे क्षेत्रीय और जाति आधारित दलों की निगाहें हमेशा मुस्लिम वोटों पर रहती हैं। मुस्लिम वोटों की एकजुटता या बिखराव दोनों से चुनावी नतीजो पर बड़ा फर्क पड़ता है।
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