"उत्तराखंड वन विभाग ने "अवैध अतिक्रमणों" को हटाने के अपने अभियान के तहत वन क्षेत्रों के निवासियों (वन गुर्जरों) को बेदखली नोटिस जारी करने को एक चूक माना है। कहा- नोटिस गलती से जारी हुए हैं। खास है कि तराई पूर्व और पश्चिम डिवीजनों के कई गांवों के निवासियों ने इसे वन अधिकार अधिनियम (FRA) के प्रावधानों का उल्लंघन बताते हुए, विरोध प्रदर्शन किए थे और वरिष्ठ अधिकारियों को लिखा था।"
Image: Aftab Chouhan, VGTYS
वन विभाग ने उत्तराखंड के वन गुर्जरों को बेदखली नोटिस जारी करने में गलती मानी है। 25 मई, 2023 को उत्तराखंड वन विभाग ने स्वीकार किया कि वन गुर्जरों को बेदखली के जो नोटिस जारी किए गए थे वो एक चूक थी। गलती से नोटिस हो गए थे। वन पंचायत संघर्ष मोर्चा (VPSM) ने राज्य सरकार को लिखे पत्र में इस बात पर प्रकाश डाला था कि वन दरोगा द्वारा बेदखली नोटिस जारी किए जा रहे हैं, जबकि भारतीय वन अधिनियम के अनुसार, ऐसे नोटिस केवल मंडलीय वन अधिकारी द्वारा जारी किए जाते हैं।
अब, 'द हिंदू' के अनुसार, 25 मई के एक आदेश में, वन विभाग ने इन बेदखली नोटिसों को जारी करने में प्रक्रियात्मक उल्लंघनों को स्वीकार किया है। और अधिकारियों को यह ध्यान देने का निर्देश दिया कि खत्तों के नाम से जानी जाने वाली उनकी बस्तियों को तभी हटाया जा सकता है जब उनके पुनर्वास के लिए समुचित प्रावधान कर दिए जाएं।
तराई पूर्व और पश्चिम डिवीजनों के कई गांवों के वन गुर्जरों को इस तरह के बेदखली नोटिस प्राप्त हुए थे। हालांकि, जब टीओआई ने तराई पश्चिम डिवीजन में बन्नाखेड़ा रेंज के वन रेंज अधिकारी लक्ष्मण सिंह मर्तोलिया से बात की, तो उन्होंने कहा, "पत्र का उद्देश्य केवल उन्हें सूचित करना था कि वन क्षेत्र के भीतर वन विरोधी गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।"
खास है कि उत्तराखंड वन विभाग ने लगभग 400 वन गुर्जरों को बेदखली का नोटिस जारी किया था, ताकि वन संपत्ति पर से, धार्मिक स्थलों, बस्तियों या अवैध रूप से बनी किसी भी अन्य संरचना जैसे अतिक्रमण को हटाने के अभियान के तहत उनके घरों को खाली किया जा सके। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इनमें अधिकांश वन गुर्जर मुस्लिम समुदाय के हैं।
उत्तराखंड में रहने वाले वन गुर्जर एक देहाती खानाबदोश और घुमंतू चरवाहा समुदाय हैं। उत्तराखंड के वन गुर्जर गर्मियों के मौसम की शुरुआत हिमालय के 'बुग्याल' या घास के मैदानों में अपने प्रवास के साथ करते हैं, और सर्दियों के मौसम में वे शिवालिक रेंज के निचली पहाड़ियों में लौट आते हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, वनाश्रित समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाली संस्था, वन पंचायत संघर्ष मोर्चा (VPSM) ने प्रधान वन सचिव को पत्र लिखकर इन समुदायों के विस्थापन को रोकने और बेदखली आदेशों में चूक और प्रक्रियागत खामियों की ओर ध्यान दिलाया था। VPSM के सदस्य तरुण जोशी ने इस प्रक्रियागत खामी को उठाया कि , "इस तरह के नोटिस एक डिवीजनल फॉरेस्ट ऑफिसर के रैंक वाले अधिकारी द्वारा जारी किए जा सकते हैं"। यही नहीं, 22 मई को, उन्होंने महिलाओं और बच्चों सहित लगभग 100 वन गुर्जरों ने नैनीताल जिले के रामनगर में "जमीन को तुरंत खाली करने" के आदेश के विरोध में प्रदर्शन भी किया था।
वन गुर्जरों के अनुसार, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (जिसे वन अधिकार अधिनियम भी कहा जाता है) के तहत दायर उनके अधिकार दावे अभी भी सरकार के पास लंबित हैं।
नोटिस पूरी तरह गैरकानूनी और असंवैधानिक: अशोक चौधरी
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी ने भी नोटिस की कार्रवाई को गैर कानूनी और असंवैधानिक बताया था। चौधरी के अनुसार, वन गुर्जरों की बेदखली को लेकर उत्तराखंड वन विभाग की कार्रवाई पूरी तरह से गैरकानूनी और असंवैधानिक है। चौधरी कहते हैं कि वन अधिकार कानून के तहत जो लोग अपना दावा पेश कर चुके हैं, उन्हें वन भूमि से तब तक नहीं हटाया जा सकता, जब तक कि उनके दावों का निस्तारण नहीं हो जाता है।
चौधरी के अनुसार, वन अधिकार कानून में ग्राम सभा द्वारा पारित दावे को खारिज करने का अधिकार किसी को नहीं है। यही नहीं, फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी किसी भी बेदखली पर रोक लगा दी थी जिनके दावे लंबित है। संवैधानिक रूप से देंखे तो वनाधिकार कानून एक विशेष कानून है और वन विभाग के अन्य सभी कानूनों में सर्वोपरि है। इसलिए वन विभाग का नोटिस देना, खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।
वन अधिकार अधिनियम- 2006
वन अधिकार अधिनियम, 2006 की धारा 3, अनुसूचित जाति-जनजाति या अन्य पारंपरिक वन निवासी समुदाय के सदस्य या सदस्यों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करती है जो रहने के लिए या आजीविका के लिए स्व-खेती के व्यक्तिगत या सामान्य व्यवसाय के तहत वन भूमि में रहते हैं और वनों पर निर्भर हैं। इसके अलावा, अधिनियम की धारा 4 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि वे 'राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के महत्वपूर्ण वन्यजीव आवासों' में रह रहे हैं, तो इन वनवासियों को बेदखली से पहले समुचित रूप से पुनर्वासित करने की आवश्यकता है।
इसके अलावा, जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन पर दिशानिर्देश स्पष्ट रूप से कहते हैं,
Image: Aftab Chouhan, VGTYS
वन विभाग ने उत्तराखंड के वन गुर्जरों को बेदखली नोटिस जारी करने में गलती मानी है। 25 मई, 2023 को उत्तराखंड वन विभाग ने स्वीकार किया कि वन गुर्जरों को बेदखली के जो नोटिस जारी किए गए थे वो एक चूक थी। गलती से नोटिस हो गए थे। वन पंचायत संघर्ष मोर्चा (VPSM) ने राज्य सरकार को लिखे पत्र में इस बात पर प्रकाश डाला था कि वन दरोगा द्वारा बेदखली नोटिस जारी किए जा रहे हैं, जबकि भारतीय वन अधिनियम के अनुसार, ऐसे नोटिस केवल मंडलीय वन अधिकारी द्वारा जारी किए जाते हैं।
अब, 'द हिंदू' के अनुसार, 25 मई के एक आदेश में, वन विभाग ने इन बेदखली नोटिसों को जारी करने में प्रक्रियात्मक उल्लंघनों को स्वीकार किया है। और अधिकारियों को यह ध्यान देने का निर्देश दिया कि खत्तों के नाम से जानी जाने वाली उनकी बस्तियों को तभी हटाया जा सकता है जब उनके पुनर्वास के लिए समुचित प्रावधान कर दिए जाएं।
तराई पूर्व और पश्चिम डिवीजनों के कई गांवों के वन गुर्जरों को इस तरह के बेदखली नोटिस प्राप्त हुए थे। हालांकि, जब टीओआई ने तराई पश्चिम डिवीजन में बन्नाखेड़ा रेंज के वन रेंज अधिकारी लक्ष्मण सिंह मर्तोलिया से बात की, तो उन्होंने कहा, "पत्र का उद्देश्य केवल उन्हें सूचित करना था कि वन क्षेत्र के भीतर वन विरोधी गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।"
खास है कि उत्तराखंड वन विभाग ने लगभग 400 वन गुर्जरों को बेदखली का नोटिस जारी किया था, ताकि वन संपत्ति पर से, धार्मिक स्थलों, बस्तियों या अवैध रूप से बनी किसी भी अन्य संरचना जैसे अतिक्रमण को हटाने के अभियान के तहत उनके घरों को खाली किया जा सके। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इनमें अधिकांश वन गुर्जर मुस्लिम समुदाय के हैं।
उत्तराखंड में रहने वाले वन गुर्जर एक देहाती खानाबदोश और घुमंतू चरवाहा समुदाय हैं। उत्तराखंड के वन गुर्जर गर्मियों के मौसम की शुरुआत हिमालय के 'बुग्याल' या घास के मैदानों में अपने प्रवास के साथ करते हैं, और सर्दियों के मौसम में वे शिवालिक रेंज के निचली पहाड़ियों में लौट आते हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, वनाश्रित समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाली संस्था, वन पंचायत संघर्ष मोर्चा (VPSM) ने प्रधान वन सचिव को पत्र लिखकर इन समुदायों के विस्थापन को रोकने और बेदखली आदेशों में चूक और प्रक्रियागत खामियों की ओर ध्यान दिलाया था। VPSM के सदस्य तरुण जोशी ने इस प्रक्रियागत खामी को उठाया कि , "इस तरह के नोटिस एक डिवीजनल फॉरेस्ट ऑफिसर के रैंक वाले अधिकारी द्वारा जारी किए जा सकते हैं"। यही नहीं, 22 मई को, उन्होंने महिलाओं और बच्चों सहित लगभग 100 वन गुर्जरों ने नैनीताल जिले के रामनगर में "जमीन को तुरंत खाली करने" के आदेश के विरोध में प्रदर्शन भी किया था।
वन गुर्जरों के अनुसार, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (जिसे वन अधिकार अधिनियम भी कहा जाता है) के तहत दायर उनके अधिकार दावे अभी भी सरकार के पास लंबित हैं।
नोटिस पूरी तरह गैरकानूनी और असंवैधानिक: अशोक चौधरी
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी ने भी नोटिस की कार्रवाई को गैर कानूनी और असंवैधानिक बताया था। चौधरी के अनुसार, वन गुर्जरों की बेदखली को लेकर उत्तराखंड वन विभाग की कार्रवाई पूरी तरह से गैरकानूनी और असंवैधानिक है। चौधरी कहते हैं कि वन अधिकार कानून के तहत जो लोग अपना दावा पेश कर चुके हैं, उन्हें वन भूमि से तब तक नहीं हटाया जा सकता, जब तक कि उनके दावों का निस्तारण नहीं हो जाता है।
चौधरी के अनुसार, वन अधिकार कानून में ग्राम सभा द्वारा पारित दावे को खारिज करने का अधिकार किसी को नहीं है। यही नहीं, फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी किसी भी बेदखली पर रोक लगा दी थी जिनके दावे लंबित है। संवैधानिक रूप से देंखे तो वनाधिकार कानून एक विशेष कानून है और वन विभाग के अन्य सभी कानूनों में सर्वोपरि है। इसलिए वन विभाग का नोटिस देना, खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।
वन अधिकार अधिनियम- 2006
वन अधिकार अधिनियम, 2006 की धारा 3, अनुसूचित जाति-जनजाति या अन्य पारंपरिक वन निवासी समुदाय के सदस्य या सदस्यों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करती है जो रहने के लिए या आजीविका के लिए स्व-खेती के व्यक्तिगत या सामान्य व्यवसाय के तहत वन भूमि में रहते हैं और वनों पर निर्भर हैं। इसके अलावा, अधिनियम की धारा 4 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि वे 'राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के महत्वपूर्ण वन्यजीव आवासों' में रह रहे हैं, तो इन वनवासियों को बेदखली से पहले समुचित रूप से पुनर्वासित करने की आवश्यकता है।
इसके अलावा, जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन पर दिशानिर्देश स्पष्ट रूप से कहते हैं,
"अधिनियम की धारा 4(5) एकदम विशिष्ट है जिसमें स्पष्ट प्रावधान है कि मान्यता और सत्यापन प्रक्रिया पूरी होने तक, वन में रहने वाले अनुसूचित जनजाति या अन्य पारंपरिक वनाश्रित समुदाय के किसी भी सदस्य को उसके कब्जे वाली वन भूमि से बेदखल या हटाया नहीं जाएगा। यह खंड पूर्ण प्रकृति का है और वनों में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों या अन्य पारंपरिक वन निवासियों को उनके वन अधिकारों के बंदोबस्त के बिना, बेदखल करने की सभी संभावनाओं को खारिज करता है क्योंकि यह खंड "प्रदान करें अन्यथा सहेजें" (सेव एज अदरवाइज) शब्दों के साथ शुरू होता है। बेदखली के खिलाफ इस सुरक्षात्मक खंड के पीछे तर्क, यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी मामले में एक वन निवासी को उसके अधिकारों की मान्यता के बिना बेदखल नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वही उसे, उन मामलों में विस्थापन की स्थिति में, उचित मुआवजे का हकदार बनाता है, जहां अधिकारों की मान्यता के बाद भी, किसी वन क्षेत्र को वन्यजीव संरक्षण के लिए अनुल्लंघनीय घोषित किया जाना है या किसी अन्य उद्देश्य के लिए परिवर्तित किया जाना है। किसी भी मामले में, धारा 4(1), पात्र वन निवासियों को उनके वन अधिकारों को पहचानने और निहित करने की शक्ति प्रदान करती है। इसलिए, जब तक अधिनियम के तहत वनाधिकारों की मान्यता और निहित करने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, तब तक कोई बेदखली नहीं होनी चाहिए।
वे आगे बताते हैं, "अधिनियम की धारा 4(5) के प्रावधानों के मद्देनजर, राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों में भी, उनके दावों की मान्यता और सत्यापन से संबंधित सभी औपचारिकताएं पूरी होने तक, कोई बेदखली और पुनर्वास की अनुमति नहीं है।" इसे सुनिश्चित करना राज्य स्तरीय निगरानी समिति का कर्तव्य है कि इन दिशानिर्देशों का पालन किया जाए।
उत्तराखंड हाई कोर्ट का आदेश
थिंक एक्ट राइज फाउंडेशन में अर्जुन कसाना बनाम उत्तराखंड राज्य और अन्य 2019 की रिट याचिका (पीआईएल) संख्या 140 (25 मई 2021 का आदेश) में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश के माध्यम से वन गुर्जरों के क़ाफ़िले (कारवां) के उत्तरकाशी जिले के गोविंद पशु विहार राष्ट्रीय उद्यान में बुग्यालों (हिमालयी अल्पाइन घास के मैदान) के अपने ग्रीष्मकालीन घरों में प्रवास करने के अधिकार को बरकरार रखा था।
"वास्तव में, यह कहना घिनौना है कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 राज्य को, अपने लोगों के जीवन को, जानवरों के अस्तित्व से भी नीचे रखने (कम करने) से, रोकता है। प्रत्येक नागरिक को न केवल जीने का अधिकार है, बल्कि सम्मान के साथ जीने का अधिकार है।
अंत में, वन गुर्जरों को बेदखली नोटिस, राज्य की ओर से उन्हें उनकी भूमि से हटाने का प्रयास दिखाता है जो अपने आप में संविधान के अनुच्छेद 21 और वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन है।
अनुवाद- नवनीश कुमार
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