दलित युवती के कथित हत्या और बलात्कार मामले में सिर्फ़ अदालत के फ़ैसले पर सवाल उठाना सही नहीं होगा, क्योंकि इस मामले में शुरू से ही सबूतों को कमज़ोर करने की प्रशासनिक कोशिश दिखाई देती है।
उत्तर प्रदेश के बहुचर्चित हाथरस कांड में लगभग ढाई साल बाद आया स्थानीय अदालत का फैसला सवालों के घेरे में है। अदालत ने इस मामले में मुख्य आरोपी को छोड़कर बाकी सभी तीन आरोपियों को बरी कर दिया है। कोर्ट ने मुख्य आरोपी संदीप सिसोदिया को गैर इरादतन हत्या और एससी/एसटी एक्ट के तहत दोषी मानते हुए उम्रकैद और जुर्माने की सजा सुनाई है। हालांकि इस फैसले की सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि अदालत ने किसी को भी लड़की की हत्या और बलात्कार का दोषी नहीं माना है।
बता दें कि ये हाथरस का वही सितंबर 2020 का दलित युवती के साथ कथित हत्या और बलात्कार मामला है, जिसकी देश-विदेश में काफी चर्चा हुई थी। इस पूरे प्रकरण में पुलिस और प्रशासन पर गंभीर आरोप लगे थे। मृत पीड़िता का रात में ही आनन-फानन में अंतिम संस्कार कर दिया गया था। तो वहीं आरोपियों के समर्थन में सभाएं हुईं थी, जिलाधिकारी की भूमिका पर सवाल खड़े हुए थे। शासन-प्रशासन के दोहरे रवैये के बीच देश-विदेश में इंसाफ के लिए लोग सड़कों पर उतर आए थे। चौतरफा दबाव के बाद मामले को सीबीआई जांच के लिए सौंप दिया गया था।
"ये फैसला उत्तर प्रदेश से आया है, इसलिए बहुत आश्चर्यजनक नहीं है!”
इस फैसले को बहुत भयानक बताते हुए पूर्व सांसद और अखिल भारतीय महिला जनवादी समिति की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सुभाषिनी अली कहती हैं कि इस मामले को दो साल से अधिक का समय हो गया है लेकिन ये अभी तक आगे ही नहीं बढ़ा। निचली अदालत की तारीख पर तारीख में फंसा रह गया। और इस दौरान पीड़ित परिवार को पूरी तरह आतंकित करके रहने के लिए मजबूर किया गया है। जो सरकार ने उनसे वादे किए थे, वो अभी तक पूरे भी नहीं किए गए हैं।
इस फैसले को निराशाजनक बताते हुए सुभाषिनी अली कहती हैं कि इस मामले में पीड़िता के मृत्यु पूर्व बयान को दरकिनार कर चारों आरोपियों को बलात्कार के आरोप से बरी कर दिया गया है। साथ ही तीन लोगों को तो बिल्कुल ही निर्दोष बता दिया गया है, ये इन लोगों और इनकी जाति के लोगों के हौसलों को और बुलंद करेगा। इसके अलावा पीड़ित परिवार को डरा धमकाकर समझौता का दबाव भी बनाए जाने की आशंका है।
सुभाषिनी आगे बताती हैं, “जैसा कि हम जानते हैं कि ये फैसला उत्तर प्रदेश से आया है, तो ये बहुत आश्चर्यजनक नहीं है। क्योंकि उन्नाव के सेंगर मामले में खुद सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि न्याय संभव नहीं है। और फिर इस केस को दिल्ली में ट्रांसफर किया गया था, जिसके बाद कुलदीप सेंगर दोषी पाए गए, उन्हें सजा हुई। तो ये रिकॉर्ड देखते हुए ये फैसला आश्चर्यजनक नहीं लगता। इसलिए पीड़ित पक्ष के वकीलों को केस स्थानांतरित कराने की कोशिश करनी चाहिए।"
सुभाषिनी जरूरी सवाल उठाते हुए कहती हैं कि जो सरकार लॉ एंड ऑर्डर के नाम पर चुनाव में वोट मांग रही थी, उसके शासन में लॉ और ऑर्डर कहां है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो इन आरोपियों को बहुत पहले सजा हो गई होती। सुभाषिनी कहती हैं कि "जब ये घटना हुई थी उस समय सिर्फ प्रशासन ने ही नहीं मुख्यमंत्री ने भी पीड़िता पर सवाल उठाए थे। ऐसे में ये सरकार सिर्फ मनुवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम कर रही है और प्रदेश के तमाम और भी मामलों में देखने को मिल रहा है। फिलहाल यूपी की ये हालत है कि यहां अपराधी की जाति, धर्म देखकर उसकी सज़ा निर्धारित हो रही है, वहीं पीड़ित की जाति, धर्म देखकर न्याय सुनिश्चित किया जा रहा है।"
अदालत ने क्या कहा है अपने फैसले में?
विशेष अदालत ने 167 पन्नों के अपने विस्तृत आदेश पीड़िता के डाईंग डिक्लेरेशन को साइडलाइन करते हुए लिखा है कि 14 सितंबर 2020 को पीड़िता और उसकी मां ने डॉक्टरों को यौन हमले के बारे में नहीं बताया, जब उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया था। अदालत का कहना है कि पीड़िता के अस्पताल में भर्ती होने के एक हफ्ते बाद, 22 सितंबर को पहली बार उसके द्वारा यौन उत्पीड़न की बात कही गई थी।
हाथरस के विशेष न्यायाधीश त्रिलोक पाल सिंह ने अपने फ़ैसले में लिखा है, "इस प्रकरण में पीड़िता घटना के आठ दिन बाद तक बातचीत करती रही है और बोलती रही है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त का आशय निश्चित रूप से पीड़िता का हत्या करने का रहा था। इसलिए अभियुक्त संदीप का अपराध ग़ैर-इरादतन हत्या की श्रेणी में आता है न ही हत्या की श्रेणी में आता है।"
तीन आरोपियों को बरी करने के संबंध में अदालत का कहना है कि तीन अभियुक्तों के नाम पहले एफआईआर में नहीं थे। साथ ही 14 सितंबर 2020 को पीड़ित लड़की, उसके भाई या पिता ने पहले जो बयान दिए थे, उसमें भी उन तीनों का नाम नहीं था। 22 सितंबर को पुलिस द्वारा बयान दर्ज किए जाने के पहले तक पीड़िता ने दूसरे सह आरोपियों का नाम नहीं लिया था।
अदालत ने मेडिकल सबूतों के आधार पर ये माना है कि जब पीड़िता को अस्पताल ले जाया गया था तो उस वक्त उसकी रीढ़ की हड्डी गर्दन के पास से चोटिल थी। गर्दन पर लिगेचर मार्क लगातार दिख रहा था, जिससे पता चलता है कि पीड़िता का गला दबाने की कोशिश की गई, लेकिन इस वजह से मौत नहीं हुई है। इसके अलावा पीड़िता के शरीर पर मिले जख्म के निशान एक ही व्यक्ति द्वारा किये गए हैं। जख्मों से ये पता नहीं चलता है कि पीड़िता पर कई लोगों ने हमला किया है।
सबूतों के अभाव में बलात्कार का आरोप साबित नहीं
सभी आरोपियों को बलात्कार के आरोप से बरी करते हुए कोर्ट ने कहा है कि मेडिकल और फोरेंसिक जांच में ये आरोप साबित नहीं हो पाए हैं। वहीं पीड़िता के शरीर पर पाए जाने वाले दूसरे चोट के निशान भी गैंगरेप के आरोपों की पुष्टि नहीं करते हैं। अदालत के मुताबिक पीड़िता के बयान में बदलाव देखा गया है। पीड़िता ने 14 सितंबर को मीडिया कर्मियों के सामने जो बयान दिया था और वीडियो रिकॉर्ड किया था, उसमें यौन उत्पीड़न का खुलासा नहीं किया गया था। इसके अलावा पीड़िता ने जो बयान डॉक्टर को दिया है और जो स्टेटमेंट महिला कांस्टेबल को दिया है उसमें भी भिन्नता है।
यहां गौर करने वाली बात ये है कि अदालत के इस फैसले का आधार सबूतों का अभाव साफ देखा जा सकता है। मामले की शुरुआत से ही पुलिस और प्रशासन पर गंभीर आरोप लगे, उनकी ओर से दोहरा रवैया देखने को मिला। संदेहात्मक परिस्थितियों के बावजूद मामला केवल 307 के तहत दर्ज किया गया। पीड़ित परिवार ने पुलिस पर उदासीन बने रहने का आरोप लगाया था। बलात्कार के आरोपों को एफआईआर में एक सप्ताह बाद तब जोड़ा गया, जब पीड़िता ने पहली बार आधिकारिक तौर पर अपना बयान दर्ज करवाया। इस मामले में जो जरूरी और महत्वपूर्ण सबूत स्थानीय पुलिस द्वारा सुरक्षित किए जा सकते थे, वे पहले से ही जांच के शुरुआती चरणों में देरी के चलते नष्ट हो गए थे।
जैसे-जैसे ये मामला आगे बढ़ा प्रशासन और पुलिस की भूमिका पर सवाल भी बढ़ते गए। बिना जांच पूरी हुए ही महज़ फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी की रिपोर्ट के आधार पर सत्तरूढ़ दल बीजेपी के नेताओं और यूपी पुलिस के बड़े आला अधिकारी ने इसे गैंगरेप की घटना मानने से इंकार कर दिया था। इस पूरी जांच की सत्यता पर भी सवाल उठे थे क्योंकि ये पीड़िता के गैंगरेप वाले आधिकारिक बयान के बाद की गई। इस दौरान कई साक्ष्य पहले ही नष्ट हो चुके थे और जिस वीर्य की बात पुलिस कर रही थी, वो मेडिकल एक्सपर्ट्स के मुताबिक सही नतीजों के लिए 72 से 90 घंटों के बीच ही किया जाना जरूरी है, जब पीड़िता ने पेशाब ना किया हो और न ही नहाया हो। लेकिन इस मामले में इस जांच में बहुत देरी की गई है। इस केस में पीड़ित लड़की का देर रात और बिना परिवार की अनुमति के अंतिम संस्कार कराने का आरोप भी था, जिस पर कोर्ट के फैसले में कुछ नहीं दिखाई देता।
पुलिस ने सही समय पर सक्रियता दिखाई होती, तो शायद फैसला कुछ और होता
इस संबंध ने सीबीआई ने भी अदालत में दलील दी थी कि अगर घटना वाले दिन ही पीड़िता की स्थानीय पुलिस द्वारा सही काउंसलिंग की गई होती, उसकी परिस्थिति को देखकर उसे सही माहौल दिया गया होता, तो शायद पीड़िता उसी दिन बलात्कार वाली बात बता देती और सही समय पर सभी जांच हो पाती। सीबीआई ने अदालत से ये भी कहा थी कि दलित होने के कारण उसे पुलिस थाने में सही से सुना नहीं गया, उसे इज्जत नहीं दी गई। ऐसे में ये सोचना लाज़मी है कि अगर इस मामले में लोकल पुलिस ने सही समय पर सक्रियता दिखाई होती तो शायद आज फैसला कुछ और हो सकता था।
ध्यान रहे कि सीबीआई ने इस मामले में 104 लोगों को गवाह बनाया था और करीब तीन महीने की जांच के बाद 18 दिसंबर 2020 को चारों अभियुक्तों के खिलाफ चार्जशीट कोर्ट में दाखिल की थी। सीबीआई ने 22 सितंबर को मौत से पहले पीड़िता के आखिरी बयान को आधार बनाकर करीब दो हजार पेज की चार्चशीट दाखिल की थी जिसमें कहा गया था कि चारों अभियुक्तों ने हत्या करने से पहले पीड़ित से गैंगरेप किया था। चार्जशीट में यूपी पुलिस पर भी लापरवाही के आरोप लगाए गए थे।
फैसले के खिलाफ पीड़ित और बचाव पक्ष दोनों ही हाईकोर्ट जाएंगे
इस फैसले पर पीड़ित परिवार ने असंतोष जाहिर किया है। पीड़ित परिवार की वकील सीमा कुशवाहा ने निराशा जाहिर करते हुए मीडिया से कहा कि इस मामले को राजनीतिक रूप से देखा गया और वो इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील करेंगी। और अगर जरूरत पड़ी तो सुप्रीम कोर्ट भी जाएंगी।
उन्होंने सवाल पूछते हुए कहा कि अगर एक ही आरोपी था, तो सीबीआई ने तीन अन्य के खिलाफ चार्जशीट क्यों दाखिल की। सीमा कुशवाहा के मुताबिक पीड़ित परिवार सीआरपीएफ के सुरक्षा घेरे में अपनी जिंदगी गुजार रहा है। सरकार ने उन्हें मकान और सरकारी नौकरी देने का वादा किया था, लेकिन यह वादा अभी तक पूरा नहीं किया गया।
वहीं बचाव पक्ष के वकिल मुन्ना सिंह पुंढीर ने बीबीसी से बातचीत में कहा है कि इस मामले में मीडिया ट्रायल की वजह से एक निर्दोष व्यक्ति को सज़ा दे दी गई है। इसके खिलाफ हाईकोर्ट में अपील करने की बात करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें भी निश्चित रूप से एक्विटल (बरी) होगा।
गौरतलब है कि इस मामले में न्यायपालिका के फैसले पर सिर्फ सवाल नहीं उठाया जा सकता, क्योंकि अदालत सबूतों और गवाहों को देखती है, ऐसे में जो जरूरी साक्ष्य न्यायालय तक नहीं पहुंच सके उसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही भी तय होनी जरूरी है। ताकि सबूतों के अभाव में गंभीर मामले बस अदालत की चौखट पर ही दम न तोड़ दें, उसमें मुकम्मल सजा भी हो।
Courtesy: Newsclick
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बता दें कि ये हाथरस का वही सितंबर 2020 का दलित युवती के साथ कथित हत्या और बलात्कार मामला है, जिसकी देश-विदेश में काफी चर्चा हुई थी। इस पूरे प्रकरण में पुलिस और प्रशासन पर गंभीर आरोप लगे थे। मृत पीड़िता का रात में ही आनन-फानन में अंतिम संस्कार कर दिया गया था। तो वहीं आरोपियों के समर्थन में सभाएं हुईं थी, जिलाधिकारी की भूमिका पर सवाल खड़े हुए थे। शासन-प्रशासन के दोहरे रवैये के बीच देश-विदेश में इंसाफ के लिए लोग सड़कों पर उतर आए थे। चौतरफा दबाव के बाद मामले को सीबीआई जांच के लिए सौंप दिया गया था।
"ये फैसला उत्तर प्रदेश से आया है, इसलिए बहुत आश्चर्यजनक नहीं है!”
इस फैसले को बहुत भयानक बताते हुए पूर्व सांसद और अखिल भारतीय महिला जनवादी समिति की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सुभाषिनी अली कहती हैं कि इस मामले को दो साल से अधिक का समय हो गया है लेकिन ये अभी तक आगे ही नहीं बढ़ा। निचली अदालत की तारीख पर तारीख में फंसा रह गया। और इस दौरान पीड़ित परिवार को पूरी तरह आतंकित करके रहने के लिए मजबूर किया गया है। जो सरकार ने उनसे वादे किए थे, वो अभी तक पूरे भी नहीं किए गए हैं।
इस फैसले को निराशाजनक बताते हुए सुभाषिनी अली कहती हैं कि इस मामले में पीड़िता के मृत्यु पूर्व बयान को दरकिनार कर चारों आरोपियों को बलात्कार के आरोप से बरी कर दिया गया है। साथ ही तीन लोगों को तो बिल्कुल ही निर्दोष बता दिया गया है, ये इन लोगों और इनकी जाति के लोगों के हौसलों को और बुलंद करेगा। इसके अलावा पीड़ित परिवार को डरा धमकाकर समझौता का दबाव भी बनाए जाने की आशंका है।
सुभाषिनी आगे बताती हैं, “जैसा कि हम जानते हैं कि ये फैसला उत्तर प्रदेश से आया है, तो ये बहुत आश्चर्यजनक नहीं है। क्योंकि उन्नाव के सेंगर मामले में खुद सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि न्याय संभव नहीं है। और फिर इस केस को दिल्ली में ट्रांसफर किया गया था, जिसके बाद कुलदीप सेंगर दोषी पाए गए, उन्हें सजा हुई। तो ये रिकॉर्ड देखते हुए ये फैसला आश्चर्यजनक नहीं लगता। इसलिए पीड़ित पक्ष के वकीलों को केस स्थानांतरित कराने की कोशिश करनी चाहिए।"
सुभाषिनी जरूरी सवाल उठाते हुए कहती हैं कि जो सरकार लॉ एंड ऑर्डर के नाम पर चुनाव में वोट मांग रही थी, उसके शासन में लॉ और ऑर्डर कहां है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो इन आरोपियों को बहुत पहले सजा हो गई होती। सुभाषिनी कहती हैं कि "जब ये घटना हुई थी उस समय सिर्फ प्रशासन ने ही नहीं मुख्यमंत्री ने भी पीड़िता पर सवाल उठाए थे। ऐसे में ये सरकार सिर्फ मनुवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम कर रही है और प्रदेश के तमाम और भी मामलों में देखने को मिल रहा है। फिलहाल यूपी की ये हालत है कि यहां अपराधी की जाति, धर्म देखकर उसकी सज़ा निर्धारित हो रही है, वहीं पीड़ित की जाति, धर्म देखकर न्याय सुनिश्चित किया जा रहा है।"
अदालत ने क्या कहा है अपने फैसले में?
विशेष अदालत ने 167 पन्नों के अपने विस्तृत आदेश पीड़िता के डाईंग डिक्लेरेशन को साइडलाइन करते हुए लिखा है कि 14 सितंबर 2020 को पीड़िता और उसकी मां ने डॉक्टरों को यौन हमले के बारे में नहीं बताया, जब उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया था। अदालत का कहना है कि पीड़िता के अस्पताल में भर्ती होने के एक हफ्ते बाद, 22 सितंबर को पहली बार उसके द्वारा यौन उत्पीड़न की बात कही गई थी।
हाथरस के विशेष न्यायाधीश त्रिलोक पाल सिंह ने अपने फ़ैसले में लिखा है, "इस प्रकरण में पीड़िता घटना के आठ दिन बाद तक बातचीत करती रही है और बोलती रही है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त का आशय निश्चित रूप से पीड़िता का हत्या करने का रहा था। इसलिए अभियुक्त संदीप का अपराध ग़ैर-इरादतन हत्या की श्रेणी में आता है न ही हत्या की श्रेणी में आता है।"
तीन आरोपियों को बरी करने के संबंध में अदालत का कहना है कि तीन अभियुक्तों के नाम पहले एफआईआर में नहीं थे। साथ ही 14 सितंबर 2020 को पीड़ित लड़की, उसके भाई या पिता ने पहले जो बयान दिए थे, उसमें भी उन तीनों का नाम नहीं था। 22 सितंबर को पुलिस द्वारा बयान दर्ज किए जाने के पहले तक पीड़िता ने दूसरे सह आरोपियों का नाम नहीं लिया था।
अदालत ने मेडिकल सबूतों के आधार पर ये माना है कि जब पीड़िता को अस्पताल ले जाया गया था तो उस वक्त उसकी रीढ़ की हड्डी गर्दन के पास से चोटिल थी। गर्दन पर लिगेचर मार्क लगातार दिख रहा था, जिससे पता चलता है कि पीड़िता का गला दबाने की कोशिश की गई, लेकिन इस वजह से मौत नहीं हुई है। इसके अलावा पीड़िता के शरीर पर मिले जख्म के निशान एक ही व्यक्ति द्वारा किये गए हैं। जख्मों से ये पता नहीं चलता है कि पीड़िता पर कई लोगों ने हमला किया है।
सबूतों के अभाव में बलात्कार का आरोप साबित नहीं
सभी आरोपियों को बलात्कार के आरोप से बरी करते हुए कोर्ट ने कहा है कि मेडिकल और फोरेंसिक जांच में ये आरोप साबित नहीं हो पाए हैं। वहीं पीड़िता के शरीर पर पाए जाने वाले दूसरे चोट के निशान भी गैंगरेप के आरोपों की पुष्टि नहीं करते हैं। अदालत के मुताबिक पीड़िता के बयान में बदलाव देखा गया है। पीड़िता ने 14 सितंबर को मीडिया कर्मियों के सामने जो बयान दिया था और वीडियो रिकॉर्ड किया था, उसमें यौन उत्पीड़न का खुलासा नहीं किया गया था। इसके अलावा पीड़िता ने जो बयान डॉक्टर को दिया है और जो स्टेटमेंट महिला कांस्टेबल को दिया है उसमें भी भिन्नता है।
यहां गौर करने वाली बात ये है कि अदालत के इस फैसले का आधार सबूतों का अभाव साफ देखा जा सकता है। मामले की शुरुआत से ही पुलिस और प्रशासन पर गंभीर आरोप लगे, उनकी ओर से दोहरा रवैया देखने को मिला। संदेहात्मक परिस्थितियों के बावजूद मामला केवल 307 के तहत दर्ज किया गया। पीड़ित परिवार ने पुलिस पर उदासीन बने रहने का आरोप लगाया था। बलात्कार के आरोपों को एफआईआर में एक सप्ताह बाद तब जोड़ा गया, जब पीड़िता ने पहली बार आधिकारिक तौर पर अपना बयान दर्ज करवाया। इस मामले में जो जरूरी और महत्वपूर्ण सबूत स्थानीय पुलिस द्वारा सुरक्षित किए जा सकते थे, वे पहले से ही जांच के शुरुआती चरणों में देरी के चलते नष्ट हो गए थे।
जैसे-जैसे ये मामला आगे बढ़ा प्रशासन और पुलिस की भूमिका पर सवाल भी बढ़ते गए। बिना जांच पूरी हुए ही महज़ फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी की रिपोर्ट के आधार पर सत्तरूढ़ दल बीजेपी के नेताओं और यूपी पुलिस के बड़े आला अधिकारी ने इसे गैंगरेप की घटना मानने से इंकार कर दिया था। इस पूरी जांच की सत्यता पर भी सवाल उठे थे क्योंकि ये पीड़िता के गैंगरेप वाले आधिकारिक बयान के बाद की गई। इस दौरान कई साक्ष्य पहले ही नष्ट हो चुके थे और जिस वीर्य की बात पुलिस कर रही थी, वो मेडिकल एक्सपर्ट्स के मुताबिक सही नतीजों के लिए 72 से 90 घंटों के बीच ही किया जाना जरूरी है, जब पीड़िता ने पेशाब ना किया हो और न ही नहाया हो। लेकिन इस मामले में इस जांच में बहुत देरी की गई है। इस केस में पीड़ित लड़की का देर रात और बिना परिवार की अनुमति के अंतिम संस्कार कराने का आरोप भी था, जिस पर कोर्ट के फैसले में कुछ नहीं दिखाई देता।
पुलिस ने सही समय पर सक्रियता दिखाई होती, तो शायद फैसला कुछ और होता
इस संबंध ने सीबीआई ने भी अदालत में दलील दी थी कि अगर घटना वाले दिन ही पीड़िता की स्थानीय पुलिस द्वारा सही काउंसलिंग की गई होती, उसकी परिस्थिति को देखकर उसे सही माहौल दिया गया होता, तो शायद पीड़िता उसी दिन बलात्कार वाली बात बता देती और सही समय पर सभी जांच हो पाती। सीबीआई ने अदालत से ये भी कहा थी कि दलित होने के कारण उसे पुलिस थाने में सही से सुना नहीं गया, उसे इज्जत नहीं दी गई। ऐसे में ये सोचना लाज़मी है कि अगर इस मामले में लोकल पुलिस ने सही समय पर सक्रियता दिखाई होती तो शायद आज फैसला कुछ और हो सकता था।
ध्यान रहे कि सीबीआई ने इस मामले में 104 लोगों को गवाह बनाया था और करीब तीन महीने की जांच के बाद 18 दिसंबर 2020 को चारों अभियुक्तों के खिलाफ चार्जशीट कोर्ट में दाखिल की थी। सीबीआई ने 22 सितंबर को मौत से पहले पीड़िता के आखिरी बयान को आधार बनाकर करीब दो हजार पेज की चार्चशीट दाखिल की थी जिसमें कहा गया था कि चारों अभियुक्तों ने हत्या करने से पहले पीड़ित से गैंगरेप किया था। चार्जशीट में यूपी पुलिस पर भी लापरवाही के आरोप लगाए गए थे।
फैसले के खिलाफ पीड़ित और बचाव पक्ष दोनों ही हाईकोर्ट जाएंगे
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उन्होंने सवाल पूछते हुए कहा कि अगर एक ही आरोपी था, तो सीबीआई ने तीन अन्य के खिलाफ चार्जशीट क्यों दाखिल की। सीमा कुशवाहा के मुताबिक पीड़ित परिवार सीआरपीएफ के सुरक्षा घेरे में अपनी जिंदगी गुजार रहा है। सरकार ने उन्हें मकान और सरकारी नौकरी देने का वादा किया था, लेकिन यह वादा अभी तक पूरा नहीं किया गया।
वहीं बचाव पक्ष के वकिल मुन्ना सिंह पुंढीर ने बीबीसी से बातचीत में कहा है कि इस मामले में मीडिया ट्रायल की वजह से एक निर्दोष व्यक्ति को सज़ा दे दी गई है। इसके खिलाफ हाईकोर्ट में अपील करने की बात करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें भी निश्चित रूप से एक्विटल (बरी) होगा।
गौरतलब है कि इस मामले में न्यायपालिका के फैसले पर सिर्फ सवाल नहीं उठाया जा सकता, क्योंकि अदालत सबूतों और गवाहों को देखती है, ऐसे में जो जरूरी साक्ष्य न्यायालय तक नहीं पहुंच सके उसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही भी तय होनी जरूरी है। ताकि सबूतों के अभाव में गंभीर मामले बस अदालत की चौखट पर ही दम न तोड़ दें, उसमें मुकम्मल सजा भी हो।
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