तेरा जवाब नहीं, ग़ालिब

Written by हसन पाशा | Published on: November 21, 2022


मिर्ज़ा ग़ालिब अपने दोस्त मिर्ज़ा शहाब उद्दीन अहमद को एक खत में लिखते हैं," मैं जब जन्नत के बारे में सोचता हूँ तो जान हलक़ में आ जाती है कि इंसान एक हूर के साथ कितना वक़्त गुज़ार सकता है? कयामत तक उसी नेक बख्त के साथ साथ रहने का खयाल ही रूह को कंपा देने वाला है। पता नहीं क़यामत कब आये। शायद करोड़ों साल लग जाएं। अल्लाह ! अल्लाह ! ये ईनाम है या सज़ा? अगर इत्तेफ़ाक़ से किसी खुशफहमी की वजह से मुझे जन्नत में भेज दिया गया तो मेरे हिस्से की हूर तो मेरे लिए अजीरन बन जाएगी।"

ग़ालिब के खयाल से जन्नत एक निहायत बोरिंग जगह होगी। इसलिए उन्होंने खुदा से कहा है,:

क्यों न जन्नत में दोज़ख को मिला लें या रब
सैर के वास्ते थोड़ी सी फिज़ा और सही

शायद जन्नत से खुद को दूर रखने के लिए ही उन्होंने वो सारे शौक पाले जो शरा के खिलाफ़ थे। रोटी के ऊपर शराब को तरजीह दी, एक तवायफ़ के इश्क में पड़े और जुआ खेलने के जुर्म में जेल गए। हूर का डर दिल से भगाने के लिए ही शायद उन्होंने ये शेर कहा :

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है

जन्नत और हूरों से उनकी इसी वहशत की ही वजह से मज़हबी किस्म के लोगों ने इक़बाल को गले लगाया और ग़ालिब को टेढ़ी नज़र से देखा। हक़ीक़त ये है कि ग़ालिब एक सीधे-सरल आदमी थे, जो दिल में होता था कह डालते और एक आसान सी मुर्गा और शराब वाली ज़िंदगी उनकी ख्वाहिशों की सीमा थी। इसके विपरीत डॉक्टर इक़बाल दूर तक नज़र रखने रखने वाले एक बेहद महत्वाकांक्षी इंसान थे। उन्होंने हालात और समाज के मिजाज़ के मुताबिक रंग बदले और रुख अपनाया।

एक वक़्त था जब इकबाल ने महबूबाएं भी बदलीं और शराब-कबाब का भी शौक रखा। उस ज़माने में उनके मामले में अच्छी बात ये थी कि उन्हें किसी एक संप्रदाय से नहीं बल्कि पूरे हिंदुस्तान से प्यार था। वो राष्ट्रीय एकता की बात करते थे और उनके विचार आधुनिक थे। इसी दौर में उन्होंने कहा था : 

हिन्दी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा।

उसके बाद वो दौर आया जब इक़बाल बिल्कुल विपरीत बातें कहने लगे: 

मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा।

वो एक मुस्लिम राजनेता के रूप में ढलने लगे। शायद इस के पीछे उनकी एक समाज विशेष द्वारा हाथों-हाथ लिए जाने की उम्मीद थी जो खुशकिस्मती या बदकिस्मती से काफ़ी हद तक पूरी भी हुई। समाज के इसी हिस्से ने बड़े गर्व के साथ उन्हें पाकिस्तान की बुनियाद डालने वालों में शामिल किया। ये बात अलग है कि इक़बाल ने मुसलमानों के लिए अलग देश नहीं बल्कि उनके लिए एक स्वायत्त राज्य बनाने की ज़रूरत ज़ाहिर की थी।

इक़बाल एक बड़े मैदान के होशियार खिलाड़ी थे, ग़ालिब की दुनिया दोस्तों और रिश्तेदारों तक सीमित थी जिसका दायरा दिल्ली से शुरू हो कर रामपुर पर खत्म हो जाता था। उनकी दुनिया में हिन्दू मुसालमान सभी थे। कभी उन्होंने अलगाव की बात नहीं की , उनका सारा दीवान खंगाल डालिए। उन्होंने मज़हब को कभी अपनी कलाई पर नहीं पहना।

मैं उर्दू शायरी की कोई authority तो नहीं हूँ पर मेरा अपना एक ख़याल ज़रूर है। इक़बाल की शायरी के प्रशंसकों से माफ़ी मांगते हुए मैं कहना चाहता हूँ कि बतौर शायर इक़बाल और ग़ालिब की शायरी का कोई मुकाबला ही नहीं है। इक़बाल establishment के साथ चले हैं, ग़ालिब establishment के खिलाफ़ चले।

बंदगी में भी वो आज़ाद खुद बीं हैं कि हम
उलटे फिर आएं दरे काबा गर वा नहुआ

ऐसी बाग़ियाना शायरी करने की हिम्मत ग़ालिब ही कर सकते हैं, इक़बाल नहीं।

फ़रिश्ते से बेहतरहै इंसान होना
मगर इसमें लगती है मेहनत ज़्यादा

इक़बाल के इस शेर में अच्छी नसीहत है मगर क्या ऐसा नहीं लगता कि कोई मास्टर साहब अपने शागिर्दों को समझा रहे हैं ? इक़बाल की ज़्यादातर शायरी एक समाज सुधारक की शायरी है। ग़ालिब की शायरी में जो फ़लसफ़ा और गहराई है इक़बाल उससे काफी दूर हैं। ग़ालिब की शायरी में जो रंगा-रंगी है, जो वैभिन्नता हैं वो कहीं और मुश्किल से ही मिलेगी। एक तरफ़ वो रास्ते का शेर कहते हैं :

रात के वक़्त मय पिये, साथ ग़ैर को लिये
आएं वो यां खुदा करे लेकिन खुदा करे न यूं।

दूसरी तरफ़ वो फ़लसफ़ा और गहराई है जो ग़ालिब के यहाँ ही मिलती है:

दाम हर मौज में, हलक़ए सदकाम नेहंग
देखिए क्या गुज़रे क़तरे पर गुहर होने तक

इक़बाल को मुल्ला वर्ग की सहमति और प्रशंसा की ख्वाहिश सताती है, ग़ालिब को किसी की परवाह नहीं, वही उनकी ज़ुबान पर है जो उनके दिल में है। उनकी बदक़िस्मती रही कि वो ऐसे समाज में हुए जहां रचनाकार को भी उसके जीने के तौर-तरीकों से परखा जाता है। ग़ालिब को भी लगा था कि उनका आर्ट उनको वली का दर्जा दिलाता अगर वो शराब से परहेज़ करते। लेकिन दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए वो खुद को बदलने को तय्यार नहीं थे।

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