जाति व्यवस्था भारत की सच्चाई है और धार्मिक कट्टरता को बनाए रखना आज की राजनीति की जरुरत है. अंतर जातीय और धार्मिक विवाह पर बनी वर्षों पुरानी धारणाओं को राजनीति का चोला पहनाकर आज आम लोगों पर थोपा जा रहा है. पिछले कुछ वर्षों में अंतरजातीय एवं अंतर धार्मिक विवाहों में हिंसा के मामले बढ़े हैं. इसमें से कुछ मामले हैं जिन्होंने देश के सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र को हिला कर रख दिया जैसे कि हरियाणा से मनोज और बबली का मामला, नासिक की सोनाई ऑनर किलिंग, शंकर और कौशल्या का मामला; तमिलनाडु से नंदीश स्वाति का मामला, अहमदनगर से नितिन आगे का मामला, नलगोंडा से प्रणय और अमृता का मामला, हाल ही में पुणे से विराज जगताप ऑनर किलिंग का मामला राष्ट्रीय मीडिया पर सुर्ख़ियों में रहा है. इस तरह की घटनाओं नें भारतीय घर्म और जाति समाज की कठोर वास्तविकता को उजागर किया है.
लव जिहाद और डर की राजनीति
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके परिवार संगठन अपने राजनीतिक लाभ के लिए तथा अल्पसंख्यकों के प्रति बहुसंख्यकों में द्वेष उत्पन्न करने के उद्देश्य से अलग-अलग कैंपेन चलाते रहे हैं. लव जिहाद उसी में से एक है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक तरफ अपने शीर्ष नेतृत्व में ऊंची जाति के जाति विशेष के लोगों को ही बिठाता आया है. लेकिन लोगों के आंखों में धूल फेंकने के लिए अपने आपको हिंदू समाज की जाति व्यवस्था के विरोध में दिखाने का प्रयास करता है. इसलिए उन्होंने ‘सामाजिक समरसता मंच’ नाम से संगठन खोल रखा है. उसके द्वारा वह अंतरजातीय विवाह से भी परहेज नहीं करने का दिखावा करता है. असल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जाति व्यवस्था में विश्वास रखता है और उसी के चलते स्मृति कथा, पुराण, धर्म ग्रंथों में समावेशित जाति भेदभाव का महिमा मंडन करता आया है.
तथाकथित हिंदू अस्मिता जगाने के लिए और हिंदू बहु संख्यक की राजनीति करने के लिए वह दिखावा स्वरूप दुश्मन अल्पसंख्यकों को बताता आया है. जहां पर लोग सबसे संवेदनशील और भावुक होते हैं वहां ऐसे लोग शादियों के रिश्ते तथा खून के रिश्ते बनाने की परंपराओं को गलत तरीके से व्याख्यायित करना चाहते हैं. यह एक प्रकार की इमोशनल ब्लैकमेलिंग है. इसे हम "डर की राजनीति" कह सकते हैं. अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर नकारात्मक बातें फैलाने, लड़की को घर की इज्जत बताकर इस तरह का डर लव जिहाद के द्वारा हिंदुओं में संघ परिवार फैलाता रहा है. जहां पर बीजेपी को चुनावी रणनीति के तहत विभिन्न जातियों में द्वेष फैलाना होता है वहां पर भी जाति का इस्तेमाल वह बखूबी करती है. आरएसएस बीजेपी के राजनीति का आधार देश के धर्म और जाति में नफरत की व्यवस्था ही रही है.
हालाँकि कुछ दिन पहले अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त “प्यू रिसर्च सेंटर”(Pew Research Centre) ने भारत में सर्वे करवाया. उसमें पाए गए निष्कर्ष समतामूलक समाज निर्माण करने का उद्देश्य रख रहे सभी प्रगतिशील विचारधारा के सामने चुनौती बनकर उभरे हैं. इस रिपोर्ट में लगभग सभी धर्म के लोगों में अन्तर जातीय व् अन्तर धार्मिक विवाह को लेकर लगभग समान मत देखा गया है. इनके अनुसार:
अंतर धार्मिक विवाह
अंतर धर्मी विवाह की यह धारणा उन परंपराओं और आदतों में परिलक्षित होती है जो भारत के धार्मिक समूहों को अलग करती हैं. उदाहरण के लिए, धार्मिक आधार पर विवाह और संबंधित धार्मिक रूपांतरण अत्यंत भिन्न अवधारणा हैं. अलग-अलग धार्मिक समुदायों में शादी को लेकर धारणाएँ काफी मिलती-जुलती हैं. कई धार्मिक समूहों में कई भारतीय कहते हैं कि अपने समुदाय के लोगों को अन्य धार्मिक समूहों में शादी करने से रोकना बहुत महत्वपूर्ण है. भारत में मोटे तौर पर दो-तिहाई हिंदू, हिंदू महिलाओं (67%) या हिंदू पुरुषों (65%) के अंतर्धार्मिक विवाह को रोकना चाहते हैं. मुसलमानों के बड़े हिस्से भी ऐसा ही महसूस करते हैं. 80% का कहना है कि मुस्लिम महिलाओं को उनके धर्म से बाहर शादी करने से रोकना बहुत महत्वपूर्ण है, और 76% का कहना है कि मुस्लिम पुरुषों को ऐसा करने से रोकना बहुत महत्वपूर्ण है. 37% क्रिश्चियन लोगों का क्रिश्चियन महिलाओं को और 35% लोगों का मानना है कि पुरुषों को धर्म से बाहर शादी करने से रोकना जरूरी है. उसी तरह 59% सिख लोगों का महिलाओं को और 58% लोगों का पुरुषों के लिए मानना है कि सिख धर्म के बाहर शादी करने से रोकना आवश्यक है. बौद्ध धर्म के लोग महिलाओं के लिए 46% और पुरुषों के लिए 44% लोग धर्म से बाहर शादी करने के खिलाफ हैं. जैन धर्म में भी महिलाओं के लिए 66% और पुरुषों के लिए 59% लोग धर्म के बाहर शादी करने के पक्ष में नहीं हैं.
अंतर जाति विवाह
भारत देश में 6000 से ज्यादा जाति और उपजातियां हैं. जो राष्ट्रवाद की बात करते हैं. लेकिन वह दो अलग-अलग जातियों में हो रहे जातिगत भेदभाव की बात नहीं करते हैं. बिना जाति भेदभाव को खत्म किए, बिना एकजुट हुए यहां असली राष्ट्रवाद पनप नहीं सकता. कागज पर लगभग सभी संगठन, सभी विचारधाराएं जाति व्यवस्था के विरोध की बात करते हैं. लेकिन कुछ चुनिंदा संगठन को छोड़कर शेष जमीन पर उस जाति व्यवस्था के विरोध पर काम नहीं करते. व्यवहार में कथनी और करनी का यह दोहरा रवैया आजकल सामान्य बनता जा रहा है.
देश में लगभग हर जाति और उपजाति के संगठन पैदा हो चुके हैं. उस विशेष जाति को लाभ पहुंचाने के या उनका आर्थिक सामाजिक स्तर बढ़ाने का काम करने के उनके प्रयासों की प्रशंसा होनी चाहिए. लेकिन क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं है कि शोषण की यह जाति व्यवस्था पूरी तरीके से जड़ से नष्ट की जाए? इस को नष्ट करने के लिए इन संगठनों के पास क्या कार्यक्रम एवं उपाय है? जाति उद्धार और जाति व्यवस्था की समाप्ति दोनों ही आवश्यक कदम हैं. डॉक्टर बाबा साहब अंबेडकर ने "अनहिलेशन ऑफ कास्ट" नाम की उनकी किताब में जाति व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की दिशा में अंतर जाति विवाह को आवश्यक कदम माना है. महात्मा फुले ने तो अपने अनुयाईयों का अंतर जाति विवाह करवाया था. संत महात्मा बसवेश्वर जी को तो अपने अनुयाई ऊंची जाति के मधुबरस और पिछड़ी जाति के हरलया इनके पुत्र और पुत्री का अंतरजातीय विवाह करवाने के लिए राजा और उसकी सेना की दुश्मनी झेलनी पड़ी थी जिसकी परिणति युद्ध तक भी पहुँच गयी. महात्मा गांधी ने डॉक्टर अंबेडकर से प्रभावित होने के बाद 1935 में यह कसम खाई थी कि वह इसके बाद सिर्फ और सिर्फ पिछड़ी जाति के विवाह समारोह में ही उपस्थित रहेंगे. इस कसम के चलते उन्होंने रिश्तेदार की अपनी ही जाति में होने वाली शादी में उपस्थित रहने से मना कर दिया. कुल मिलाकर जितने भी समाज सुधारक रहे हैं उन्होंने अंतर जाति विवाह का समर्थन करते हुए उनको प्रोत्साहन दिया है. आज हम 21वीं सदी में मिलेनियम युवा पीढ़ी की बात करते हैं. लेकिन आज भी यह अंतरजातीय व् अंतर धार्मिक विवाह सहजता से अपनाए नहीं जाते.
इस सन्दर्भ में प्यू रिसर्च सेंटर बताता है कि 64% भारतीयों का कहना है कि अपने समुदाय की महिलाओं को दूसरी जातियों में शादी करने से रोकना बहुत ज़रूरी है, और लगभग उसी हिस्से (62%) का कहना है कि उनके समुदाय के पुरुषों को दूसरी जातियों में शादी करने से रोकना बहुत ज़रूरी है. ये आंकड़े विभिन्न जातियों के सदस्यों में केवल मामूली रूप से भिन्न होते हैं. जनरल कैटेगरी में 62% पुरुषों के लिए और 64% महिलाओं के लिए, अनुसूचित जाति में 59% पुरुषों के लिए और 60% महिलाओं के लिए, अनुसूचित जनजाति में 66% पुरुषों के लिए और 68% महिलाओं के लिए,OBC जाति में 67% पुरुषों के लिए और 69% महिलाओं के लिए अंतरजातीय विवाह रोकना जरूरी मानते हैं.
ऐसे ही अगर हम धर्म के आधार पर अंतर जाति विवाह के विरोध के लिए इस सर्वे का विश्लेषण करते हैं तो हिंदुओं में 63% लोग पुरुषों के लिए और 64% लोग महिलाओं के लिए, क्रिश्चियन में 36% पुरुषों के लिए और 37% महिलाओं के लिए, सिख धर्म में 59% पुरुषों के लिए और 60% महिलाओं के लिए, बौद्ध धर्म में 44% पुरुषों के लिए और 44% महिलाओं के लिए, जैन धर्म में 57% पुरुषों के लिए और 61% महिलाओं के लिए अंतर जाति विवाह रोकना आवश्यक है. अधिकांश हिंदू, मुस्लिम, सिख और जैन पुरुष और महिला दोनों के अंतर्जातीय विवाह को रोकना एक उच्च प्राथमिकता मानते हैं. तुलनात्मक रूप से, कम बौद्ध और ईसाई कहते हैं कि इस तरह के विवाह को रोकना बहुत महत्वपूर्ण है. हालांकि दोनों समूहों के बहुमत के लिए, लोगों को अपनी जाति से बाहर शादी करने से रोकना कम से कम "कुछ हद तक" महत्वपूर्ण है.
भारत के दक्षिण और पूर्वोत्तर में सर्वेक्षण किए गए लोगों को अपने समुदायों में अधिक जातिगत भेदभाव दिखाई देता है, और वे कुल मिलाकर अन्य भारतीयों की तुलना में अंतर-जातीय विवाह पर कम आपत्तियां उठाते हैं. इस बीच, कॉलेज में पढ़े-लिखे भारतीयों के कम शिक्षा वाले लोगों की तुलना में यह कहने की संभावना कम है कि अंतर-जातीय विवाह रोकना एक उच्च प्राथमिकता है. लेकिन, सबसे उच्च शिक्षित समूह के भीतर भी, लगभग आधे लोगों का कहना है कि इस तरह के विवाह को रोकना बहुत महत्वपूर्ण है.
सम्मान और श्रेष्ठता जैसी धारणाओं का मूल कारण धार्मिक ग्रंथों में निहित जाति-आधारित आधिपत्य रही है. यह ऋग्वेद का पुरुष सूक्त था जिसने चतुर्वर्ण प्रणाली के विचार को सामने रखा. हिंदू सामाजिक संगठन में, वर्ण सामाजिक स्तरीकरण का आधार है. जाति की संस्था भारतीय इतिहास के प्रारंभिक चरणों से अस्तित्व में रही है. नस्लें, जो अलग-अलग समय पर भारत में आईं, धीरे-धीरे मौजूदा जातियों में विलीन होती चली गयीं. उन्हें कुलीन जातियों द्वारा 'अशुद्धता' और 'पवित्रता' की अवधारणा के आधार पर विभिन्न व्यावसायिक कार्यों के साथ सौंपा गया था. यहां तक कि किसी अन्य जाति समूह के साथ विवाह संबंध भी सख्त वर्जित थे. केवल 'अनुलोम' विवाह की अनुमति थी.
"यदि हम हिंदू धर्म में विवाह प्रणाली को देखें, तो किन्हीं दो जातियों के बीच विवाह को अंतर्जातीय विवाह कहा जाता है जिसे पूरी तरह से प्रतिबंधित रखा गया. उन्हें केवल वर्ण व्यवस्था के भीतर अंतर्विवाह विवाह के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. अंतर्जातीय विवाह के दो रूप थे, यानी 'अनुलोम'(5) (हाइपरगैमस) और 'प्रतिलोम' (हाइपोगैमी)। अनुलोम विवाह अन्तर्जातीय विवाह का एक रूप है जिसमें उच्च जाति के पुरुष निम्न जाति की महिलाओं से विवाह करते हैं. प्रतिलोम विवाहों में निम्न जाति के पुरुष उच्च जाति की स्त्रियों से विवाह करते हैं. मनु और अन्य प्राचीन ग्रंथों ने अनुलोम निर्धारित किया है. प्रतिलोम अर्थात स्त्री का निचली जाति के पुरुष से विवाह की अनुमति नहीं है." (मनु स्मृति, अध्याय 8, श्लोक 366).
19वीं शताब्दी में समाज सुधारकों की एक लहर थी, जिन्होंने रूढ़िवादी प्रथाओं का विरोध किया. जाति व्यवस्था में सार्थक परिवर्तन लाने का श्रेय जोतिबा फुले, डॉ बी आर अंबेडकर, ई वी रामासामी पेरियार और कई अन्य को जाता है. अंतर्जातीय विवाह के संबंध में, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर और ई.वी. रामासामी पेरियार के दृष्टिकोण बहुत महत्वपूर्ण हैं और इस पर विचार करने की आवश्यकता है. “जाति विनाश” पुस्तक में डॉ बी आर अम्बेडकर ने कहा, "एकमात्र प्रश्न जिस पर विचार किया जाना बाकी है, वह यह है कि हिंदू सामाजिक व्यवस्था में सुधार कैसे लाया जाए? जाति कैसे खत्म करें? अंतर्जातीय भोजन करने वालों के अलावा, मुझे विश्वास है कि असली उपाय अंतर जातीय विवाह है. खून का मेल ही नातेदार होने की भावना पैदा कर सकता है और जब तक यह नातेदारी की भावना सर्वोपरि नहीं हो जाती है तब तक जाति द्वारा बनाई गई अलगाववादी भावना गायब नहीं होगी. हिंदुओं में अंतर्विवाह अनिवार्य रूप से गैर-हिंदुओं के जीवन की अपेक्षा सामाजिक जीवन में अधिक बल का कारक होना चाहिए. जहाँ समाज पहले से ही अन्य बन्धनों से बँधा हुआ है, वहाँ विवाह जीवन की एक सामान्य घटना है. लेकिन जहां समाज टूट जाता है, वहां विवाह एक बाध्यकारी शक्ति के रूप में तत्काल आवश्यकता का विषय बन जाता है. जाति तोड़ने का असली उपाय अंतर्विवाह है. और कुछ भी जाति के विनाशक के रूप में काम नहीं करेगा."
डॉ बी आर अंबेडकर ने अंतर-जातीय विवाह को जाति को खत्म करने के कदमों में से एक सबसे महत्वपूर्ण कदम करार दिया।
"यहां तक कि ई.वी. रामास्वामी पेरियार ने अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित किया. उन्होंने इसे जाति व्यवस्था के विभिन्न तत्वों के खिलाफ लड़ने का साधन बताया. उन्होंने इसका स्पष्ट समर्थन किया. 'विवाह एक महिला और एक पुरुष के बीच एक अनुबंध है. उनके द्वारा शुरू किए गए आत्म-सम्मान आंदोलन का मुख्य उद्देश्य युवाओं को अपनी चिंता के रूप में विवाह का एहसास कराना था और माता-पिता का हस्तक्षेप केवल अनुचित है. उन्होंने आगे दावा किया कि, इस तरह के अरेंज मैरिज में बड़ों की अत्यधिक भागीदारी दहेज प्रथा को मजबूत करती है”. डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर जाति व्यवस्था की समस्या को लेकर कितने गंभीर थे यह उनके लेख और किताबों से पता चलता है. उन्होंने कहा था,"जब तक भारत में जाति मौजूद है, हिंदू शायद ही अंतर्जातीय विवाह करेंगे या बाहरी लोगों के साथ कोई सामाजिक संबंध नहीं रखेंगे और यदि हिंदू पृथ्वी पर अन्य क्षेत्रों में चले जाते हैं, तो भारतीय जाति एक विश्व समस्या बन जाएगी."
यह सच है कि भारत में जाति और धर्म की कट्टरता वर्षों से रही है लेकिन यह भी गौरतलब है कि जाति और धर्म का राजनीति में बेजा इस्तेमाल वर्तमान बीजेपी आरएसएस की सरकार द्वारा किया जा रहा है जिसकी परिणति नफरत और हिंसा तक पहुच चुकी है और जो भारत के धार्मिक सौहाद्र को चुनौती दे रही है. रिसर्च यह जरुर बताते हैं कि सामान्य जनमानुष अंतर जातीय और अंतर धार्मिक विवाह के पक्ष में नहीं हैं लेकिन इसका उपयोग राजनीति में करना वर्त्तमान सरकार के डर को दिखाता है. वर्तमान भारत अंतर जातीय और अंतर धार्मिक विवाह को लेकर उदात नहीं है और यह राजनीति के हलक में भी अटका हुआ है. आजादी के 75 साल बाद भी देश के यह हालत हमारे पिछड़ेपन और संकीर्णता का सूचक है.
लव जिहाद और डर की राजनीति
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके परिवार संगठन अपने राजनीतिक लाभ के लिए तथा अल्पसंख्यकों के प्रति बहुसंख्यकों में द्वेष उत्पन्न करने के उद्देश्य से अलग-अलग कैंपेन चलाते रहे हैं. लव जिहाद उसी में से एक है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक तरफ अपने शीर्ष नेतृत्व में ऊंची जाति के जाति विशेष के लोगों को ही बिठाता आया है. लेकिन लोगों के आंखों में धूल फेंकने के लिए अपने आपको हिंदू समाज की जाति व्यवस्था के विरोध में दिखाने का प्रयास करता है. इसलिए उन्होंने ‘सामाजिक समरसता मंच’ नाम से संगठन खोल रखा है. उसके द्वारा वह अंतरजातीय विवाह से भी परहेज नहीं करने का दिखावा करता है. असल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जाति व्यवस्था में विश्वास रखता है और उसी के चलते स्मृति कथा, पुराण, धर्म ग्रंथों में समावेशित जाति भेदभाव का महिमा मंडन करता आया है.
तथाकथित हिंदू अस्मिता जगाने के लिए और हिंदू बहु संख्यक की राजनीति करने के लिए वह दिखावा स्वरूप दुश्मन अल्पसंख्यकों को बताता आया है. जहां पर लोग सबसे संवेदनशील और भावुक होते हैं वहां ऐसे लोग शादियों के रिश्ते तथा खून के रिश्ते बनाने की परंपराओं को गलत तरीके से व्याख्यायित करना चाहते हैं. यह एक प्रकार की इमोशनल ब्लैकमेलिंग है. इसे हम "डर की राजनीति" कह सकते हैं. अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर नकारात्मक बातें फैलाने, लड़की को घर की इज्जत बताकर इस तरह का डर लव जिहाद के द्वारा हिंदुओं में संघ परिवार फैलाता रहा है. जहां पर बीजेपी को चुनावी रणनीति के तहत विभिन्न जातियों में द्वेष फैलाना होता है वहां पर भी जाति का इस्तेमाल वह बखूबी करती है. आरएसएस बीजेपी के राजनीति का आधार देश के धर्म और जाति में नफरत की व्यवस्था ही रही है.
हालाँकि कुछ दिन पहले अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त “प्यू रिसर्च सेंटर”(Pew Research Centre) ने भारत में सर्वे करवाया. उसमें पाए गए निष्कर्ष समतामूलक समाज निर्माण करने का उद्देश्य रख रहे सभी प्रगतिशील विचारधारा के सामने चुनौती बनकर उभरे हैं. इस रिपोर्ट में लगभग सभी धर्म के लोगों में अन्तर जातीय व् अन्तर धार्मिक विवाह को लेकर लगभग समान मत देखा गया है. इनके अनुसार:
अंतर धार्मिक विवाह
अंतर धर्मी विवाह की यह धारणा उन परंपराओं और आदतों में परिलक्षित होती है जो भारत के धार्मिक समूहों को अलग करती हैं. उदाहरण के लिए, धार्मिक आधार पर विवाह और संबंधित धार्मिक रूपांतरण अत्यंत भिन्न अवधारणा हैं. अलग-अलग धार्मिक समुदायों में शादी को लेकर धारणाएँ काफी मिलती-जुलती हैं. कई धार्मिक समूहों में कई भारतीय कहते हैं कि अपने समुदाय के लोगों को अन्य धार्मिक समूहों में शादी करने से रोकना बहुत महत्वपूर्ण है. भारत में मोटे तौर पर दो-तिहाई हिंदू, हिंदू महिलाओं (67%) या हिंदू पुरुषों (65%) के अंतर्धार्मिक विवाह को रोकना चाहते हैं. मुसलमानों के बड़े हिस्से भी ऐसा ही महसूस करते हैं. 80% का कहना है कि मुस्लिम महिलाओं को उनके धर्म से बाहर शादी करने से रोकना बहुत महत्वपूर्ण है, और 76% का कहना है कि मुस्लिम पुरुषों को ऐसा करने से रोकना बहुत महत्वपूर्ण है. 37% क्रिश्चियन लोगों का क्रिश्चियन महिलाओं को और 35% लोगों का मानना है कि पुरुषों को धर्म से बाहर शादी करने से रोकना जरूरी है. उसी तरह 59% सिख लोगों का महिलाओं को और 58% लोगों का पुरुषों के लिए मानना है कि सिख धर्म के बाहर शादी करने से रोकना आवश्यक है. बौद्ध धर्म के लोग महिलाओं के लिए 46% और पुरुषों के लिए 44% लोग धर्म से बाहर शादी करने के खिलाफ हैं. जैन धर्म में भी महिलाओं के लिए 66% और पुरुषों के लिए 59% लोग धर्म के बाहर शादी करने के पक्ष में नहीं हैं.
अंतर जाति विवाह
भारत देश में 6000 से ज्यादा जाति और उपजातियां हैं. जो राष्ट्रवाद की बात करते हैं. लेकिन वह दो अलग-अलग जातियों में हो रहे जातिगत भेदभाव की बात नहीं करते हैं. बिना जाति भेदभाव को खत्म किए, बिना एकजुट हुए यहां असली राष्ट्रवाद पनप नहीं सकता. कागज पर लगभग सभी संगठन, सभी विचारधाराएं जाति व्यवस्था के विरोध की बात करते हैं. लेकिन कुछ चुनिंदा संगठन को छोड़कर शेष जमीन पर उस जाति व्यवस्था के विरोध पर काम नहीं करते. व्यवहार में कथनी और करनी का यह दोहरा रवैया आजकल सामान्य बनता जा रहा है.
देश में लगभग हर जाति और उपजाति के संगठन पैदा हो चुके हैं. उस विशेष जाति को लाभ पहुंचाने के या उनका आर्थिक सामाजिक स्तर बढ़ाने का काम करने के उनके प्रयासों की प्रशंसा होनी चाहिए. लेकिन क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं है कि शोषण की यह जाति व्यवस्था पूरी तरीके से जड़ से नष्ट की जाए? इस को नष्ट करने के लिए इन संगठनों के पास क्या कार्यक्रम एवं उपाय है? जाति उद्धार और जाति व्यवस्था की समाप्ति दोनों ही आवश्यक कदम हैं. डॉक्टर बाबा साहब अंबेडकर ने "अनहिलेशन ऑफ कास्ट" नाम की उनकी किताब में जाति व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की दिशा में अंतर जाति विवाह को आवश्यक कदम माना है. महात्मा फुले ने तो अपने अनुयाईयों का अंतर जाति विवाह करवाया था. संत महात्मा बसवेश्वर जी को तो अपने अनुयाई ऊंची जाति के मधुबरस और पिछड़ी जाति के हरलया इनके पुत्र और पुत्री का अंतरजातीय विवाह करवाने के लिए राजा और उसकी सेना की दुश्मनी झेलनी पड़ी थी जिसकी परिणति युद्ध तक भी पहुँच गयी. महात्मा गांधी ने डॉक्टर अंबेडकर से प्रभावित होने के बाद 1935 में यह कसम खाई थी कि वह इसके बाद सिर्फ और सिर्फ पिछड़ी जाति के विवाह समारोह में ही उपस्थित रहेंगे. इस कसम के चलते उन्होंने रिश्तेदार की अपनी ही जाति में होने वाली शादी में उपस्थित रहने से मना कर दिया. कुल मिलाकर जितने भी समाज सुधारक रहे हैं उन्होंने अंतर जाति विवाह का समर्थन करते हुए उनको प्रोत्साहन दिया है. आज हम 21वीं सदी में मिलेनियम युवा पीढ़ी की बात करते हैं. लेकिन आज भी यह अंतरजातीय व् अंतर धार्मिक विवाह सहजता से अपनाए नहीं जाते.
इस सन्दर्भ में प्यू रिसर्च सेंटर बताता है कि 64% भारतीयों का कहना है कि अपने समुदाय की महिलाओं को दूसरी जातियों में शादी करने से रोकना बहुत ज़रूरी है, और लगभग उसी हिस्से (62%) का कहना है कि उनके समुदाय के पुरुषों को दूसरी जातियों में शादी करने से रोकना बहुत ज़रूरी है. ये आंकड़े विभिन्न जातियों के सदस्यों में केवल मामूली रूप से भिन्न होते हैं. जनरल कैटेगरी में 62% पुरुषों के लिए और 64% महिलाओं के लिए, अनुसूचित जाति में 59% पुरुषों के लिए और 60% महिलाओं के लिए, अनुसूचित जनजाति में 66% पुरुषों के लिए और 68% महिलाओं के लिए,OBC जाति में 67% पुरुषों के लिए और 69% महिलाओं के लिए अंतरजातीय विवाह रोकना जरूरी मानते हैं.
ऐसे ही अगर हम धर्म के आधार पर अंतर जाति विवाह के विरोध के लिए इस सर्वे का विश्लेषण करते हैं तो हिंदुओं में 63% लोग पुरुषों के लिए और 64% लोग महिलाओं के लिए, क्रिश्चियन में 36% पुरुषों के लिए और 37% महिलाओं के लिए, सिख धर्म में 59% पुरुषों के लिए और 60% महिलाओं के लिए, बौद्ध धर्म में 44% पुरुषों के लिए और 44% महिलाओं के लिए, जैन धर्म में 57% पुरुषों के लिए और 61% महिलाओं के लिए अंतर जाति विवाह रोकना आवश्यक है. अधिकांश हिंदू, मुस्लिम, सिख और जैन पुरुष और महिला दोनों के अंतर्जातीय विवाह को रोकना एक उच्च प्राथमिकता मानते हैं. तुलनात्मक रूप से, कम बौद्ध और ईसाई कहते हैं कि इस तरह के विवाह को रोकना बहुत महत्वपूर्ण है. हालांकि दोनों समूहों के बहुमत के लिए, लोगों को अपनी जाति से बाहर शादी करने से रोकना कम से कम "कुछ हद तक" महत्वपूर्ण है.
भारत के दक्षिण और पूर्वोत्तर में सर्वेक्षण किए गए लोगों को अपने समुदायों में अधिक जातिगत भेदभाव दिखाई देता है, और वे कुल मिलाकर अन्य भारतीयों की तुलना में अंतर-जातीय विवाह पर कम आपत्तियां उठाते हैं. इस बीच, कॉलेज में पढ़े-लिखे भारतीयों के कम शिक्षा वाले लोगों की तुलना में यह कहने की संभावना कम है कि अंतर-जातीय विवाह रोकना एक उच्च प्राथमिकता है. लेकिन, सबसे उच्च शिक्षित समूह के भीतर भी, लगभग आधे लोगों का कहना है कि इस तरह के विवाह को रोकना बहुत महत्वपूर्ण है.
सम्मान और श्रेष्ठता जैसी धारणाओं का मूल कारण धार्मिक ग्रंथों में निहित जाति-आधारित आधिपत्य रही है. यह ऋग्वेद का पुरुष सूक्त था जिसने चतुर्वर्ण प्रणाली के विचार को सामने रखा. हिंदू सामाजिक संगठन में, वर्ण सामाजिक स्तरीकरण का आधार है. जाति की संस्था भारतीय इतिहास के प्रारंभिक चरणों से अस्तित्व में रही है. नस्लें, जो अलग-अलग समय पर भारत में आईं, धीरे-धीरे मौजूदा जातियों में विलीन होती चली गयीं. उन्हें कुलीन जातियों द्वारा 'अशुद्धता' और 'पवित्रता' की अवधारणा के आधार पर विभिन्न व्यावसायिक कार्यों के साथ सौंपा गया था. यहां तक कि किसी अन्य जाति समूह के साथ विवाह संबंध भी सख्त वर्जित थे. केवल 'अनुलोम' विवाह की अनुमति थी.
"यदि हम हिंदू धर्म में विवाह प्रणाली को देखें, तो किन्हीं दो जातियों के बीच विवाह को अंतर्जातीय विवाह कहा जाता है जिसे पूरी तरह से प्रतिबंधित रखा गया. उन्हें केवल वर्ण व्यवस्था के भीतर अंतर्विवाह विवाह के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. अंतर्जातीय विवाह के दो रूप थे, यानी 'अनुलोम'(5) (हाइपरगैमस) और 'प्रतिलोम' (हाइपोगैमी)। अनुलोम विवाह अन्तर्जातीय विवाह का एक रूप है जिसमें उच्च जाति के पुरुष निम्न जाति की महिलाओं से विवाह करते हैं. प्रतिलोम विवाहों में निम्न जाति के पुरुष उच्च जाति की स्त्रियों से विवाह करते हैं. मनु और अन्य प्राचीन ग्रंथों ने अनुलोम निर्धारित किया है. प्रतिलोम अर्थात स्त्री का निचली जाति के पुरुष से विवाह की अनुमति नहीं है." (मनु स्मृति, अध्याय 8, श्लोक 366).
19वीं शताब्दी में समाज सुधारकों की एक लहर थी, जिन्होंने रूढ़िवादी प्रथाओं का विरोध किया. जाति व्यवस्था में सार्थक परिवर्तन लाने का श्रेय जोतिबा फुले, डॉ बी आर अंबेडकर, ई वी रामासामी पेरियार और कई अन्य को जाता है. अंतर्जातीय विवाह के संबंध में, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर और ई.वी. रामासामी पेरियार के दृष्टिकोण बहुत महत्वपूर्ण हैं और इस पर विचार करने की आवश्यकता है. “जाति विनाश” पुस्तक में डॉ बी आर अम्बेडकर ने कहा, "एकमात्र प्रश्न जिस पर विचार किया जाना बाकी है, वह यह है कि हिंदू सामाजिक व्यवस्था में सुधार कैसे लाया जाए? जाति कैसे खत्म करें? अंतर्जातीय भोजन करने वालों के अलावा, मुझे विश्वास है कि असली उपाय अंतर जातीय विवाह है. खून का मेल ही नातेदार होने की भावना पैदा कर सकता है और जब तक यह नातेदारी की भावना सर्वोपरि नहीं हो जाती है तब तक जाति द्वारा बनाई गई अलगाववादी भावना गायब नहीं होगी. हिंदुओं में अंतर्विवाह अनिवार्य रूप से गैर-हिंदुओं के जीवन की अपेक्षा सामाजिक जीवन में अधिक बल का कारक होना चाहिए. जहाँ समाज पहले से ही अन्य बन्धनों से बँधा हुआ है, वहाँ विवाह जीवन की एक सामान्य घटना है. लेकिन जहां समाज टूट जाता है, वहां विवाह एक बाध्यकारी शक्ति के रूप में तत्काल आवश्यकता का विषय बन जाता है. जाति तोड़ने का असली उपाय अंतर्विवाह है. और कुछ भी जाति के विनाशक के रूप में काम नहीं करेगा."
डॉ बी आर अंबेडकर ने अंतर-जातीय विवाह को जाति को खत्म करने के कदमों में से एक सबसे महत्वपूर्ण कदम करार दिया।
"यहां तक कि ई.वी. रामास्वामी पेरियार ने अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित किया. उन्होंने इसे जाति व्यवस्था के विभिन्न तत्वों के खिलाफ लड़ने का साधन बताया. उन्होंने इसका स्पष्ट समर्थन किया. 'विवाह एक महिला और एक पुरुष के बीच एक अनुबंध है. उनके द्वारा शुरू किए गए आत्म-सम्मान आंदोलन का मुख्य उद्देश्य युवाओं को अपनी चिंता के रूप में विवाह का एहसास कराना था और माता-पिता का हस्तक्षेप केवल अनुचित है. उन्होंने आगे दावा किया कि, इस तरह के अरेंज मैरिज में बड़ों की अत्यधिक भागीदारी दहेज प्रथा को मजबूत करती है”. डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर जाति व्यवस्था की समस्या को लेकर कितने गंभीर थे यह उनके लेख और किताबों से पता चलता है. उन्होंने कहा था,"जब तक भारत में जाति मौजूद है, हिंदू शायद ही अंतर्जातीय विवाह करेंगे या बाहरी लोगों के साथ कोई सामाजिक संबंध नहीं रखेंगे और यदि हिंदू पृथ्वी पर अन्य क्षेत्रों में चले जाते हैं, तो भारतीय जाति एक विश्व समस्या बन जाएगी."
यह सच है कि भारत में जाति और धर्म की कट्टरता वर्षों से रही है लेकिन यह भी गौरतलब है कि जाति और धर्म का राजनीति में बेजा इस्तेमाल वर्तमान बीजेपी आरएसएस की सरकार द्वारा किया जा रहा है जिसकी परिणति नफरत और हिंसा तक पहुच चुकी है और जो भारत के धार्मिक सौहाद्र को चुनौती दे रही है. रिसर्च यह जरुर बताते हैं कि सामान्य जनमानुष अंतर जातीय और अंतर धार्मिक विवाह के पक्ष में नहीं हैं लेकिन इसका उपयोग राजनीति में करना वर्त्तमान सरकार के डर को दिखाता है. वर्तमान भारत अंतर जातीय और अंतर धार्मिक विवाह को लेकर उदात नहीं है और यह राजनीति के हलक में भी अटका हुआ है. आजादी के 75 साल बाद भी देश के यह हालत हमारे पिछड़ेपन और संकीर्णता का सूचक है.