2014 में एक फ़िल्म आई थी 'कोर्ट'। फिल्म एक मराठी जनकवि, लोकगायक और दलित कार्यकर्ता नारायण कांबले (वीरा साथीदार) पर चल रहे मुकदमे को दिखाती है। कांबले पर आरोप होता है कि उसका जनवादी गीत सुनकर मुंबई नगर निगम के एक सफाई कर्मचारी वासुदेव पवार ने आत्महत्या कर ली।
पवार बगैर सुरक्षा उपायों के अंडरग्राउंड गटर की सफाई के लिए उतरा था और वहां मृत पाया गया। पुलिस के अनुसार, पवार मरने से दो दिन पहले कांबले की सभा में गया था जहां इस लोकगायक ने गीत गाया था कि सारे सफाई कर्मचारियों को गटर में उतरकर आत्महत्या कर लेनी चाहिए।
मृतक के पोस्टमार्टम में यह बात साफ भी हो जाती है कि उसकी मौत फेफड़े में जहरीली गैस भर जाने के कारण हुई है। पर कोर्ट में सरकारी वकील और जज तथ्यों पर ध्यान न देकर आरोपी नारायण काम्बले को लगातार हिरासत में रखते हैं और अंततः UAPA लगाकर उन्हें जेल भेज जज साहब समर वैकेशन पर चले जाते हैं।
फ़िल्म में चल रही चीजें बड़ी हास्यास्पद लगती हैं। एक आम नागरिक जिसने कोर्ट का कभी सामना न किया हो और उसे न्यायिक प्रक्रिया पर पूरा भरोसा हो वह इस फ़िल्म को महज फिक्शन मानते हुए यही कहेगा कि भला ऐसा भी कहीं होता है?
पर यह फ़िल्म देखते हुए खयाल आया कि भीमा कोरेगांव मामले में जो गिरफ्तारियां हुई हैं वह क्या हास्यास्पद नहीं हैं?
भीमा कोरेगांव मामला यह है कि- 1 जनवरी 2018 को दलित समुदाय के लोग भीमा कोरेगांव में इकठ्ठा होकर शौर्य दिवस मना रहे थे और वहां पर हिंसा भड़क उठी।
इतिहास में जाएं तो भीमा कोरेगांव में 1818 में अंग्रेजों और पेशवाओं के बीच युद्ध हुआ था जिसमें अंग्रेज विजयी हुए थे। इस युद्ध में अंग्रेजों का साथ महार जाति के लोगों ने दिया था। महार लोग इसे अपने शौर्य से जोड़कर देखते हैं और 1 जनवरी 2018 के दिन इस जीत के 200 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में यह दिवस वे मना रहे थे और हिंसा भड़क गई।
इस मामले में पुणे पुलिस ने अगस्त 2018 में जिन पांच मुख्य लोगों को गिरफ्तार किया था वे वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फेरेइरा, गौतम नवलखा, वेर्नोन गोंसाल्वेस हैं। वरवर राव को लंबी बीमारी के बाद आखिरकार पिछले महीनें जमानत तब मिली जब वे पूरी तरीके से शारीरिक रूप से कमजोर हो चुके थे।
गिरफ्तारियों के पीछे इन सब पर आरोप यह था कि इन्होंने भीमा कोरेगांव मामले के पहले उकसावे वाले भाषण दिए और हिंसा भड़की।
इन राजनीतिक बंदियों में सुधा भारद्वाज की तबियत कुछ दिन से खराब बताई जा रही है। सुधा भारद्वाज अमेरिका में पैदा हुई थीं। वो पैदा तो अमरीका में हुईं लेकिन जब सिर्फ 11 साल की थीं तभी भारत आ गईं थीं। उन्होंने आईआईटी से गणित की डिग्री ली। वो चाहतीं तो वापस विदेश जाकर आगे की पढ़ाई करतीं और वहीं बस जातीं। मगर पढ़ाई के दौरान ही वो सुदूर अंचलों में आने-जाने लगीं और 1986 में छत्तीसगढ़ जनमुक्ति मोर्चा के मज़दूर नेता शंकर गुहा नियोगी से मिलीं और ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों के संघर्ष में शामिल हो गईं।
आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ के बहुत सारे इलाके भारत के संविधान की पांचवी सूची के अंतर्गत आते हैं। यहां किसी भी परियोजना के शुरू करने के पहले ग्राम सभा की अनुमति लेना जरूरी होता है। छत्तीसगढ़ में काम करते हुए सुधा भारद्वाज ने देखा कि गांव के लोगों का प्रशासन से अलग ही संघर्ष है। लोग आरोप लगा रहे थे कि कंपनियों के लोग प्रशासन के साथ मिलकर फर्जी तौर पर ग्राम सभा का आयोजन कर परियोजनाओं को मंजूरी दे देते थे। इन पिछड़े ग्रामीण आदिवासियों की आवाज सुनने वाला कोई न था। सुधा भारद्वाज इन सबके लिए उम्मीद की किरण बनकर आईं। आईआईटी से पढ़ी सुधा भारद्वाज ने इन सबके बीच काम करने के लिए, गरीबों मजलूमों का सहारा बनने के लिए कानूनी पढ़ाई पूरी की। समाज के सबसे निचले तबके के लिए काम करने वाली, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच काम करने वाली सुधा भारद्वाज पिछले तीन सालों से जेल में हैं।
जिन कागजों की बुनियाद पर इनपर आरोप लगाए गए हैं, नक्सलियों से संबंध बताये गए हैं उन कागजों को अदालत में मान्यता नहीं दी जा सकती है।
छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की हालत क्या है यह आये दिन अखबार, टेलीविजन, पत्रकारों से मिलती रहती है। खनिज संपदा युक्त छत्तीसगढ़ हमेशा से कारपोरेट की निगाह में रहा है। वहां की जमीन और संपदा को हथियाने में कारपोरेट किस तरह से सत्ता से साठगांठ करके काम करती है यह हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट से छुपा नहीं है। सलवा जुडूम की बर्बरता, सोनी सोरी, हिमांशु कुमार जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं पर प्रशासनिक बर्बरता की बातें आम हैं। ऐसे में जब कोई सुधा भारद्वाज जैसा इन आदिवासियों के न्याय के लिए खड़ा होता है तो उसे किस तरह से इन सब से अलग किया जाए उसका एक हास्यास्पद नमूना है सुधा भारद्वाज को भीमा कोरेगांव मामले से जोड़ना। जिस महिला ने सुखों को त्यागकर अमेरिका की नागरिकता छोड़ भारत के एक ऐसे क्षेत्र के लोगों के न्याय के लिए लड़ना चुना जो कारपोरेट, प्रशासन नक्सलवाद का शिकार हैं उस महिला को जेल में रखकर किनका भला हो रहा यह भलीभांति समझा जा सकता है।
इसी मामले में जिस मामले में सुधा और अन्य लोगों को गिरफ्तार किया गया है उनमें 'संभाजी भिड़े' भी आरोपी हैं। उनकी गिरफ्तारी अबतक क्यों नहीं हुई? क्या इस विषय पर भी पुलिस की कोई जांच चल रही है?
फरवरी 2021 में विदेशी मीडिया वॉशिंगटन पोस्ट की खबर के मुताबिक फॉरेंसिक रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि भीमा कोरेगांव केस में गिरफ्तार हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों के खिलाफ सूबतों को मालवेयर के सहारे लैपटॉप में प्लांट किया गया था। बाद में यही लैपटॉप पुलिस ने सीज कर लिए।
इस मामले में जांच कर रही NIA ने इस बात को खारिज कर दिया और किसी प्राइवेट फोरेसिंक जांच को सुबूत मनाने से इनकार कर दिया।
कहाँ तो इसे इस मामले में बड़ी लीड मानते हुए खुलासा करने वाली जांच एजेंसी के सहयोग से मामले को गंभीरता से लेना था। पर NIA ने इसे क्यों डिनाय किया समझ के परे है।
सुधा भारद्वाज की जमानत याचिका लगातार खारिज होती रही है। कल खबर मिली कि सुधाजी की याचिका पर बॉम्बे हाई कोर्ट में सुनवाई नहीं हुई। कल बेल की बेंच आधे दिन ही बैठनी थी। अब सोमवार मई 10 को वैकेसन बैंच के सामने ही सुनवाई होगी।
इस बीच सुधाजी की बात अधिवक्ता पायोशी से हुई है। वे बता रही थीं कि रविवार को उन्हें तेजी से दो अस्पतालों में ले जाकर, उनके ढ़ेर सारे टेस्ट करवाए गए थे। कौनसे टेस्ट और क्या रिपोर्ट आई, उन्हे मालूम नहीं था। शायद यही सब चीज़ कोर्ट में बताएगी सरकार।
सुधा जी की सेहत उम्र और कोरोना महामारी को देखते हुए उन्हें जल्द से जल्द रिहा किया जाए। सामाजिक कार्यकर्ताओं को सरकारें सताना बंद करें।
पवार बगैर सुरक्षा उपायों के अंडरग्राउंड गटर की सफाई के लिए उतरा था और वहां मृत पाया गया। पुलिस के अनुसार, पवार मरने से दो दिन पहले कांबले की सभा में गया था जहां इस लोकगायक ने गीत गाया था कि सारे सफाई कर्मचारियों को गटर में उतरकर आत्महत्या कर लेनी चाहिए।
मृतक के पोस्टमार्टम में यह बात साफ भी हो जाती है कि उसकी मौत फेफड़े में जहरीली गैस भर जाने के कारण हुई है। पर कोर्ट में सरकारी वकील और जज तथ्यों पर ध्यान न देकर आरोपी नारायण काम्बले को लगातार हिरासत में रखते हैं और अंततः UAPA लगाकर उन्हें जेल भेज जज साहब समर वैकेशन पर चले जाते हैं।
फ़िल्म में चल रही चीजें बड़ी हास्यास्पद लगती हैं। एक आम नागरिक जिसने कोर्ट का कभी सामना न किया हो और उसे न्यायिक प्रक्रिया पर पूरा भरोसा हो वह इस फ़िल्म को महज फिक्शन मानते हुए यही कहेगा कि भला ऐसा भी कहीं होता है?
पर यह फ़िल्म देखते हुए खयाल आया कि भीमा कोरेगांव मामले में जो गिरफ्तारियां हुई हैं वह क्या हास्यास्पद नहीं हैं?
भीमा कोरेगांव मामला यह है कि- 1 जनवरी 2018 को दलित समुदाय के लोग भीमा कोरेगांव में इकठ्ठा होकर शौर्य दिवस मना रहे थे और वहां पर हिंसा भड़क उठी।
इतिहास में जाएं तो भीमा कोरेगांव में 1818 में अंग्रेजों और पेशवाओं के बीच युद्ध हुआ था जिसमें अंग्रेज विजयी हुए थे। इस युद्ध में अंग्रेजों का साथ महार जाति के लोगों ने दिया था। महार लोग इसे अपने शौर्य से जोड़कर देखते हैं और 1 जनवरी 2018 के दिन इस जीत के 200 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में यह दिवस वे मना रहे थे और हिंसा भड़क गई।
इस मामले में पुणे पुलिस ने अगस्त 2018 में जिन पांच मुख्य लोगों को गिरफ्तार किया था वे वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फेरेइरा, गौतम नवलखा, वेर्नोन गोंसाल्वेस हैं। वरवर राव को लंबी बीमारी के बाद आखिरकार पिछले महीनें जमानत तब मिली जब वे पूरी तरीके से शारीरिक रूप से कमजोर हो चुके थे।
गिरफ्तारियों के पीछे इन सब पर आरोप यह था कि इन्होंने भीमा कोरेगांव मामले के पहले उकसावे वाले भाषण दिए और हिंसा भड़की।
इन राजनीतिक बंदियों में सुधा भारद्वाज की तबियत कुछ दिन से खराब बताई जा रही है। सुधा भारद्वाज अमेरिका में पैदा हुई थीं। वो पैदा तो अमरीका में हुईं लेकिन जब सिर्फ 11 साल की थीं तभी भारत आ गईं थीं। उन्होंने आईआईटी से गणित की डिग्री ली। वो चाहतीं तो वापस विदेश जाकर आगे की पढ़ाई करतीं और वहीं बस जातीं। मगर पढ़ाई के दौरान ही वो सुदूर अंचलों में आने-जाने लगीं और 1986 में छत्तीसगढ़ जनमुक्ति मोर्चा के मज़दूर नेता शंकर गुहा नियोगी से मिलीं और ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों के संघर्ष में शामिल हो गईं।
आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ के बहुत सारे इलाके भारत के संविधान की पांचवी सूची के अंतर्गत आते हैं। यहां किसी भी परियोजना के शुरू करने के पहले ग्राम सभा की अनुमति लेना जरूरी होता है। छत्तीसगढ़ में काम करते हुए सुधा भारद्वाज ने देखा कि गांव के लोगों का प्रशासन से अलग ही संघर्ष है। लोग आरोप लगा रहे थे कि कंपनियों के लोग प्रशासन के साथ मिलकर फर्जी तौर पर ग्राम सभा का आयोजन कर परियोजनाओं को मंजूरी दे देते थे। इन पिछड़े ग्रामीण आदिवासियों की आवाज सुनने वाला कोई न था। सुधा भारद्वाज इन सबके लिए उम्मीद की किरण बनकर आईं। आईआईटी से पढ़ी सुधा भारद्वाज ने इन सबके बीच काम करने के लिए, गरीबों मजलूमों का सहारा बनने के लिए कानूनी पढ़ाई पूरी की। समाज के सबसे निचले तबके के लिए काम करने वाली, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच काम करने वाली सुधा भारद्वाज पिछले तीन सालों से जेल में हैं।
जिन कागजों की बुनियाद पर इनपर आरोप लगाए गए हैं, नक्सलियों से संबंध बताये गए हैं उन कागजों को अदालत में मान्यता नहीं दी जा सकती है।
छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की हालत क्या है यह आये दिन अखबार, टेलीविजन, पत्रकारों से मिलती रहती है। खनिज संपदा युक्त छत्तीसगढ़ हमेशा से कारपोरेट की निगाह में रहा है। वहां की जमीन और संपदा को हथियाने में कारपोरेट किस तरह से सत्ता से साठगांठ करके काम करती है यह हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट से छुपा नहीं है। सलवा जुडूम की बर्बरता, सोनी सोरी, हिमांशु कुमार जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं पर प्रशासनिक बर्बरता की बातें आम हैं। ऐसे में जब कोई सुधा भारद्वाज जैसा इन आदिवासियों के न्याय के लिए खड़ा होता है तो उसे किस तरह से इन सब से अलग किया जाए उसका एक हास्यास्पद नमूना है सुधा भारद्वाज को भीमा कोरेगांव मामले से जोड़ना। जिस महिला ने सुखों को त्यागकर अमेरिका की नागरिकता छोड़ भारत के एक ऐसे क्षेत्र के लोगों के न्याय के लिए लड़ना चुना जो कारपोरेट, प्रशासन नक्सलवाद का शिकार हैं उस महिला को जेल में रखकर किनका भला हो रहा यह भलीभांति समझा जा सकता है।
इसी मामले में जिस मामले में सुधा और अन्य लोगों को गिरफ्तार किया गया है उनमें 'संभाजी भिड़े' भी आरोपी हैं। उनकी गिरफ्तारी अबतक क्यों नहीं हुई? क्या इस विषय पर भी पुलिस की कोई जांच चल रही है?
फरवरी 2021 में विदेशी मीडिया वॉशिंगटन पोस्ट की खबर के मुताबिक फॉरेंसिक रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि भीमा कोरेगांव केस में गिरफ्तार हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों के खिलाफ सूबतों को मालवेयर के सहारे लैपटॉप में प्लांट किया गया था। बाद में यही लैपटॉप पुलिस ने सीज कर लिए।
इस मामले में जांच कर रही NIA ने इस बात को खारिज कर दिया और किसी प्राइवेट फोरेसिंक जांच को सुबूत मनाने से इनकार कर दिया।
कहाँ तो इसे इस मामले में बड़ी लीड मानते हुए खुलासा करने वाली जांच एजेंसी के सहयोग से मामले को गंभीरता से लेना था। पर NIA ने इसे क्यों डिनाय किया समझ के परे है।
सुधा भारद्वाज की जमानत याचिका लगातार खारिज होती रही है। कल खबर मिली कि सुधाजी की याचिका पर बॉम्बे हाई कोर्ट में सुनवाई नहीं हुई। कल बेल की बेंच आधे दिन ही बैठनी थी। अब सोमवार मई 10 को वैकेसन बैंच के सामने ही सुनवाई होगी।
इस बीच सुधाजी की बात अधिवक्ता पायोशी से हुई है। वे बता रही थीं कि रविवार को उन्हें तेजी से दो अस्पतालों में ले जाकर, उनके ढ़ेर सारे टेस्ट करवाए गए थे। कौनसे टेस्ट और क्या रिपोर्ट आई, उन्हे मालूम नहीं था। शायद यही सब चीज़ कोर्ट में बताएगी सरकार।
सुधा जी की सेहत उम्र और कोरोना महामारी को देखते हुए उन्हें जल्द से जल्द रिहा किया जाए। सामाजिक कार्यकर्ताओं को सरकारें सताना बंद करें।