दिल्ली की सीमाओं पर किसान 26 नवंबर से धरने पर बैठे हैं। सिंघू बार्डर, टीकरी बार्डर, गाजीपुर बार्डर, शाहजहांपुर बार्डर, पलवल, रेवाड़ी, गुड़गांव, ढांसा सभी सीमाओँ पर लाखों किसान लगातार एक उम्मीद-एक आस पर अपना घर बनाए हैं। बच्चे, बूढ़े, बुजुर्ग, जवान, महिलाएं। दादियां-नानियां-दादा-बाबा-नाती-पोते। सब। इनमें से बहुतों की उम्मीद टूट रही है। बहुतों की हिम्मत जवाब दे रही है। बहुतों को बीमारियों ने जकड़ रखा है। इस आंदोलन में शामिल दो सौ से ज्यादा किसान अब तक मौत का शिकार हो चुके हैं। कुछ ने आत्महत्या कर ली। कुछ बीमारियों से मर गए। लेकिन, उनके लिए क्या किसी ने लोकसभा या राज्यसभा में आंसुओं के सैलाब देखे हैं। क्या ये इतना मुश्किल है।
भारतीय जनता के विरोध-प्रदर्शनों पर अंग्रेज भी तमाम कानूनों को वापस लेने पर मजबूर हो गए थे। बंग भंग आंदोलन इसका सीधा उदाहरण है। लेकिन, क्या यह सरकार अंग्रेजों से भी ज्यादा अहंकारी और क्रूर है। फासिस्ट सरकारें पहले तो संस्थाओँ की हत्तक करती हैं, उनकी अवमानना करती हैं, उन्हें अप्रासांगिक बना देती हैं। फिर उन्हें समाप्त कर देती हैं। हम धीरे-धीरे तमाम संस्थाओँ के साथ ऐसा होते हुए देख रहे हैं।
कल महुआ मोइत्रा ने बहुत ही पुरजोर तरीके से कुछ सवाल उठाए। न्याय की सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ एक आदमी अपने ही मामले की खुद सुनवाई करता है। खुद ही अपने आपको दोषमुक्त करार देता है और खुद ही अपने खिलाफ हुए मुकदमे को समाप्त कर देता है और वही आदमी तीन महीने बाद लोकतंत्र के सर्वोच्च सदन में बैठा होता है। अफसोस की इन सवालों पर विचार करने की बजाय ऐसे सवाल करने के अधिकार पर ही अड़ंगा लगा दिया जाता है। लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था में भी अगर ये सवाल नहीं उठाया जा सकता है तो फिर आखिर वो जगह कौन सी है।
जिस राज्य से चुनकर एक प्रतिनिधि आता था। उस राज्य को आपने समाप्त कर दिया। उस राज्य का राज्य होने का दर्जा ही आपने छीन लिया। फिर उस प्रतिनिधि के सदन से विदाई समारोह पर आप आंसू बहा रहे हैं। क्या ये आंसू उस राज्य के लोगों और उनके प्रतिनिधियों का अपमान नहीं है। और आप चाहते हैं कि इन आंसुओँ पर लोग यकीन करें। ये आंसू उस राज्य के आम लोगों में भरोसा पैदा कर देंगे।
आप बहुत भावुक हैं सर। लेकिन, आपके आंसुओँ के दायरे में ये लाखों किसान नहीं आते। उनके हिस्से में तो आपकी कुटिल मुस्कान और आंदोलनजीवी का तमगा ही आता है। वे आपकी आंखों की किरकिरी बने हुए हैं। आपको चुभ रहे हैं।
पूरी तन्मयता से इस लोकतंत्र को सर्कस मे तब्दील किया जा रहा है। इसे अप्रासांगिक बनाया जा रहा है। ताकि, इस पर लोगों का भरोसा खतम हो जाए, लोग इस पर उम्मीद न रखें। फिर जब इसे खतम किया जाए तो लोगों को ज्यादा दर्द भी न हो। कोई लिखे या न लिखें लेकिन इतिहास इन बातों को दर्ज कर रहा है....
भारतीय जनता के विरोध-प्रदर्शनों पर अंग्रेज भी तमाम कानूनों को वापस लेने पर मजबूर हो गए थे। बंग भंग आंदोलन इसका सीधा उदाहरण है। लेकिन, क्या यह सरकार अंग्रेजों से भी ज्यादा अहंकारी और क्रूर है। फासिस्ट सरकारें पहले तो संस्थाओँ की हत्तक करती हैं, उनकी अवमानना करती हैं, उन्हें अप्रासांगिक बना देती हैं। फिर उन्हें समाप्त कर देती हैं। हम धीरे-धीरे तमाम संस्थाओँ के साथ ऐसा होते हुए देख रहे हैं।
कल महुआ मोइत्रा ने बहुत ही पुरजोर तरीके से कुछ सवाल उठाए। न्याय की सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ एक आदमी अपने ही मामले की खुद सुनवाई करता है। खुद ही अपने आपको दोषमुक्त करार देता है और खुद ही अपने खिलाफ हुए मुकदमे को समाप्त कर देता है और वही आदमी तीन महीने बाद लोकतंत्र के सर्वोच्च सदन में बैठा होता है। अफसोस की इन सवालों पर विचार करने की बजाय ऐसे सवाल करने के अधिकार पर ही अड़ंगा लगा दिया जाता है। लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था में भी अगर ये सवाल नहीं उठाया जा सकता है तो फिर आखिर वो जगह कौन सी है।
जिस राज्य से चुनकर एक प्रतिनिधि आता था। उस राज्य को आपने समाप्त कर दिया। उस राज्य का राज्य होने का दर्जा ही आपने छीन लिया। फिर उस प्रतिनिधि के सदन से विदाई समारोह पर आप आंसू बहा रहे हैं। क्या ये आंसू उस राज्य के लोगों और उनके प्रतिनिधियों का अपमान नहीं है। और आप चाहते हैं कि इन आंसुओँ पर लोग यकीन करें। ये आंसू उस राज्य के आम लोगों में भरोसा पैदा कर देंगे।
आप बहुत भावुक हैं सर। लेकिन, आपके आंसुओँ के दायरे में ये लाखों किसान नहीं आते। उनके हिस्से में तो आपकी कुटिल मुस्कान और आंदोलनजीवी का तमगा ही आता है। वे आपकी आंखों की किरकिरी बने हुए हैं। आपको चुभ रहे हैं।
पूरी तन्मयता से इस लोकतंत्र को सर्कस मे तब्दील किया जा रहा है। इसे अप्रासांगिक बनाया जा रहा है। ताकि, इस पर लोगों का भरोसा खतम हो जाए, लोग इस पर उम्मीद न रखें। फिर जब इसे खतम किया जाए तो लोगों को ज्यादा दर्द भी न हो। कोई लिखे या न लिखें लेकिन इतिहास इन बातों को दर्ज कर रहा है....