सरकारी भर्तियों के तलबगारों, मैं आपकी कातरता का काउंटर नहीं बनना चाहता। नौकरी सीरीज़ बंद है।
मेरे प्यारे सरकारी भर्तियों के तलबगारों,
बेरोज़गार का अब मतलब समाप्त हो गया है। इसका एक राजनीतिक अर्थ हुआ करता था। लेकिन युवाओं ने ही इस मुद्दे को अलग-अलग कारणों से समाप्त कर दिया। यह सार्वभौमिक मुद्दा नहीं रहा। इस वक्त की राजनीति का सबसे प्रभावशाली और फलदायक मुद्दा है धार्मिक पहचान का। यह मुद्दा उन्हीं युवाओं की मदद से परवान चढ़ा है जो ख़ुद को सप्ताह में एक दिन बेरोज़गार बताते हैं। इसलिए आप देखेंगे कि हर दूसरा मुद्दा धार्मिकता की चादर में लपेट कर पेश किया जाता है और वो आग की तरह लोगों के बीच पसरता है। कोरोना काल में युवाओं ने धार्मिकता के चश्मे से महामारी को देख कर साबित किया है। इसकी इतनी मांग है कि धार्मिक मुद्दों की आपूर्ति में घोर कमी आ गई है। इसलिए आई टी सेल का तंत्र खड़ा किया गया। नए नए किस्म के धार्मिक संगठन बनाए गए ताकि धार्मिक पहचान से जुड़े मुद्दों की आपूर्ति यानि सप्लाई बनी रहे। इसके लिए झूठ और अफवाह का सहारा लिया गया। चंद मामूली सी घटनाओं को धर्म के अस्तित्व पर ख़तरा बताते हुए राजनीतिक मुद्दे में बदल दिया गया।
मैं इस राजनीति का आलोचक हूं क्योंकि इससे राजनीति की हत्या हो जाती है। आप मुद्दों के आधार पर पक्ष नहीं चुनते बल्कि धार्मिक आधार पर पक्ष चुनते हैं। अब यह पक्ष इतना मज़बूत हो गया है कि कोई नेता व्यापार से लेकर रोज़गार चौपट कर देने के बाद भी शर्तियां लोकप्रिय बना रह सकता है और चुनाव जीत सकता है। धार्मिक पहचान का मुद्दा व्यक्तिवाद का मुकुट है। जो व्यक्ति इसे पहन लेगा या जिसे पहना दिया जाएगा वो सार्वभौमिक और सार्वकालिक हो सकता है। हो भी रहा है। जैसा कि मैंने कहा कि मैं आलोचक हूं लेकिन यह सच्चाई वास्तविक है, इसे स्वीकार भी करता हूं। धार्मिक पहचान की राजनीति लोकतंत्र के बुनियादी स्वभाव को खत्म कर देती है। इसलिए भारत के युवाओं के बीच राजनीति समाप्त हो गई है। नागरिकता विरोधी कानून के समय दिखी थी लेकिन वो भी जल्दी ही धार्मिक विभाजन का शिकार हो गई और उसकी परिणति दिखी दिल्ली दंगों में जब युवाओं के हाथ में बंदूकें थी और दिमाग में धार्मिक सनक सवार था।
अब ऐसा नहीं हो सकता कि आप अचानक एक निर्दोष इकाई की तरह प्रकट हो जाएं और कहें कि सरकार नौकरी दे दे। रोज़गार का सवाल राजनीतिक है। सिफारिश का प्रश्न नही है। आप यह न समझें कि एक मैसेज टाइप कर उसे पहले एक लाख लागों में बांटों और फिर एक लाख लोग उसी मैसेज को मुझे भेजते रहें तो इससे नौकरी मिल जाएगी। 90 के दशक के बाद से सरकारों ने सरकारी भर्तियां कम कर दीं। यह किसी राज्य विशेष की बात नहीं है। सभी राज्यों और केंद्र की बात है। आप ही थे जो मिमिनम गर्वनेंस का मतलब समझे बग़ैर तालियां बजा रहे थे। मिनिमम गर्वनेंस तब होता है जब सरकार में भी मिनिमम लोग होते हैं।
अब आप देखिए 2019 के लोकसभा चुनाव के समय हमारी नौकरी सीरीज़ क दबाव में रेलवे को एक लाख की भर्ती निकालनी पड़ी। चुनाव में ऐसी जीत मिली कि नेताओं को लगा होगा कि भर्ती न भी निकालते तो भी मिलती। नतीजा क्या हुआ, उस इम्तहान के रिजल्ट को निकले एक साल हो गए हैं, उसमें कोई कानूनी विवाद भी नहीं है फिर भी किसी की ज्वाइनिंग नही हुई है। उनमें से ज्यादातर वही हैं जिन्होंने सरकार को वापस चुना और भाजपा के घोर समर्थक हैं। शायद जीवनपर्यन्त समर्थक। आप बेशक भाजपा का समर्थक होने में गर्व करें लेकिन अपने मुद्दों को ही ख़ुद ख़त्म कर देंगे तो इसका दोष आप पर जाएगा। अगर आपने समर्थक होने के साथ साथ नागरिक होने का दबाव भी बनाया होता, एक नागरिक की तरह प्रश्न किया होता तो शायद रेलेवे की परीक्षा देने वाले सभी नौजवानों को नौकरी मिल जाती। लेकिन आप नौजवान अपने ही घर, रिश्तेदार या दोस्तों के बीच इसे परख लें। वो अब आपकी व्यक्तिगत बेरोज़गारी या सामूहिक बेरोज़गारी के आधारण पर राजनीतिक निर्णय नहीं लेते हैं। आपमें से भी बहुत से लोग आईट टी सेल के प्रोपेगैंडा की चपेट में हैं। उसी गोदी मीडिया को देखते हैं। उसका उपभोग करते हैं जो आपके या जनता के हितों की बात नहीं करता है।
अब युवाओं को तय करना होगा कि रोज़गार का प्रश्न राजनीतिक है या सिफारिशी। अगर राजनीतिक है तो यह तय करना होगा कि सरकारी भर्तियों को लेकर नीति क्या हो। प्राइवेट नौकरियों में लगातार काम की स्थिति खराब करने के लिए कानून बनाए जा रहे हैं। आप उन प्रश्नों पर चुप रहते हैं। इस नियति को आपने ही स्वीकार किया है। दुनिया भर में कोविड-19 के बाद बेरोज़गारों को सरकार ने भत्ते दिए हैं। भारत में इसकी चर्चा तक नहीं है। एक व्यक्ति की लोकप्रियता हर मुद्दे से महत्वपूर्ण हो गई है। यह तो नौजवानों ने ही बनाया है। उन्हीं का चुनाव है। तो फिर उन्हें शिकायत नहीं करनी चाहिए।
बेशक गोदी मीडिया रोज़गार के प्रश्न को नहीं उठाता है। उठाता भी तो क्या हो जाता। मैंने तो दो साल तक सारे मुद्दों को एक तरफ रखकर इस मुद्दो को उठाया। जैसे ही चुनाव समाप्त हुआ सरकारों ने ध्यान देना बंद कर दिया। क्योंकि उन्हें दिख रहा था कि युवा अब धार्मिक पहचान के पिंजड़ें में कैद हो चुका है। वह उसके फेंके गए अन्य मुद्दों को सर पर उठाए घूम रहा है। वह कभी न्यायपालिका से लेकर व्यवस्थापिका के अलोकतांत्रिक होने के प्रश्न को ज्वंलंत नहीं मानता है। वह झूठे धार्मिक मुद्दे पर ज़्यादा सक्रिय होता है। आक्रामक होता है। चारा फेंका जाता है और आप चुगने आ जाते हैं।
आपका महत्व एक नागरिक के रूप में समाप्त हो चुका है। नागरिकता का महत्व आप अकेले हासिल नहीं कर सकते। इसी पहचान और इसका अधिकार लोकतंत्र की संस्थाओं के साथ हासिल होता है। आप इन संस्थाओं के ध्वस्त होने पर चुप्पी साधे हैं। जब ये संस्थाएं ही नहीं रहेंगी तो आपकी नागरिकता सिर्फ काग़ज़ी बनी रह जाएगी। लोकतंत्र को रसोई के बर्तन की तरह समय समय पर मांजना पड़ता है। हर शाम को धो-पोछ कर अगली सुबह के लिए रखना होता है। आप युवाओं ने कभी भी लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए लड़ाई नहीं लड़ी। मीडिया की समाप्ति आपके बीच स्वीकृत है। आपने इसे अंगीकार किया है।
इसलिए मैंने नौकरी सीरीज़ बंद कर दी है। मैंने इसे अपने चैनल पर भी कहा है और फेसबुक पेज पर कई बार विस्तार से लिखा है। आप प्लीज़ मुझे मैसेज न करें। आप सिफारिश की तरह मैसेज करते हैं। सर मेरा वाला या मेरी परीक्षा का मसला उठा दें। दूसरी परीक्षा के छात्र अपनी पीड़ा को लेकर घूम रहे होते हैं। अनगिनत परीक्षाएं हैं। हर सरकार में और हर राज्य में। एक उठाओ तो दस आ जाते हैं कि हमारा नहीं उठाया। फिर उसे राजनीतिक हिसाब से देखने बताने लगते हैं। यह नहीं देखते कि जहां उठाया जिसके लिए उठाया उसका कुछ असर हुआ कि नहीं। अगर आप बेरोज़गारी के प्रति ईमानदार होते तो व्यवस्था की नाकामी से लेकर हर भर्ती के आंदोलन का साथ देते। आप ऐसा नहीं करते हैं।
मुझे आपसे सहानुभूति है। आपकी पीड़ा देखी नहीं जाती। आपका समाधान मेरे पास नहीं है यह और दुख देता है। मैं सिर्फ एक मुद्दे का पत्रकार नहीं हो सकता। फिर भी मैंने प्राइम टाइम में कई महीने तक नौकरी सीरीज़ चलाई। सारे मुद्दे छोड़ दिए। उन कार्यक्रमों की रेटिंग कुछ भी नहीं थी। यह आज बता रहा हूं। फिर भी करता चला गया। एक उम्मीद में कि सारे युवा मिलकर सभी राजनीतिक दलों की सरकारों पर दबाव डाल कर इस व्यवस्था को ठीक करेंगे। लेकिन युवा अब युवा नहीं हैं। वे एक समूह नहीं हैं। सब अपने अपने स्वार्थ से रोज़गार के मुद्दे को देखते हैं। मैं उसके डिटेल में नहीं जाना चाहता।
बस एक गुज़ारिश है कि मुझे फोन न करें और मैसेज न करें। मैं यह बात कई बार लिख चुका हूं। यह भी अभद्रता है कि किसी के इनबाक्स में आप दस हज़ार मैसेज कर देते हैं। आंखें दुख जाती हैं। मुझे क्यों सज़ा दे रहे हैं। क्या आपने मुझे सांसद और मंत्री बनाया है? मुझे तो वोट नहीं चाहिए और न वोट के लिए यह सब किया। इसलिए साफ साफ आपके बीच आकर कहा था कि नौकरी सीरीज़ बंद कर दी। तब भी बीच बीच में लिख देता हूं। आप राजनीति के मैदान में इस मुद्दे को ज्वलंत कीजिए। अगर आपकी धार्मिक पहचान की राजनीति काम आती है तो उसका भी सहारा लेकर देख लीजिए। क्या पता आजीवन राजनीतिक समर्थक होने का ही लाभ मिल जाए। मैं यही चाहूंगा कि आपको रोज़गार मिल जाए।
इस वक्त आपकी स्थिति दयनीय हो चुकी है। एक लाइन लिख देता हूं और बोल देता हूं तो आप कातर हो जाते हैं। मुझे उतने से ही श्रेय देने लगते हैं। शुक्रिया कहने लगते हैं। प्यार करने लगते हैं। मैं यह सब नहीं चाहता। मैं संबंधों और आदर में बराबरी चाहता हूं। आप खुद से हासिल करें। आप इस राजनीति को बदल दें। रोज़गार के प्रश्न को केंद्र में ले आएं। अपने लिए ही नहीं, सबके लिए। तब मैं आपके ऊपर लिखूं,आपके संघर्ष पर लिखूं और आप शुक्रिया कहें तो मुझे अच्छा लगेगा। मैं आपकी कातरता का काउंटर नहीं बनना चाहता कि आप हताश होकर अपनी चिट्ठी मुझे पकड़ा रहे हों। आप अपनी कातरता का पत्र मुझ तक न भेजें।
मेरे पास सभी परीक्षाओं के साथ न्याय करने, उन्हें कवर करने का संसाधन भी नहीं है। चाह कर भी सारे राज्यों का कवर नहीं कर सकता। अब तो इस आर्थिक संकट के बाद जो संसाधन हैं वो भी रहेंगे या नहीं पता नहीं। यह काम मैं अपनी प्रसिद्धि या महिमंडन के लिए नहीं करता। उसकी चिन्ता करता तो किसी पत्रकार में हिम्मत नहीं है कि सामने कह दे कि क्या कवर नहीं करेगा। मैं जानता हूं कि मैसेज भेजने वाले मुझे गालियां भी देते हैं। इनबाक्स में उन झूठे मीम को भी शेयर करते हैं जो मुझे बदनाम करने के लिए बनाए जाते हैं। और तो और कमेंट बाक्स में भी नज़र नहीं आते जब गालियां दी जाती हैं। मैं यह भी जानता हूं कि आपमें से ज्यादातर इस तरह के कामों का समर्थन करते हैं। सहयोग करते हैं। फिर भी निस्वार्थ भाव से आपकी सेवा में यह मुद्द उठाता रहा। आपको नौकरी मिले, एक बड़े भाई की तरह हमेशा चाहूंगा।
सच कहता हूं। आपके मैसेज डिलिट करते वक्त भी तकलीफ होती है। आपकी तकलीफ का समाधान मेरे पास नहीं है। मैंने एक प्रयोग किया था पत्रकारिता में। उसके सीमित परिणाम निकले। लाख से अधिक लोगों को नौकरी का पत्र मिला मगर वो चुनाव का समय था। सरकारों को डर था कि कहीं युवा हरा न दें। आपने उस डर या दबाव को खुद ही खत्म कर दिया। आपने साबित किया है कि आपके बीच झूठे और प्रोपेगैंडा से तैयार मुद्दे ही ज्यादा चलते हैं। मैं अब अन्य मुद्दों की तरफ बढ़ना चाहता हूं। बढ़ भी गया हूं। कभी वक्त ने इशारा किया तो ज़रूर लौटूंगा लेकिन फिलहाल नौकरी सीरीज़ बंद है। मैंने अपना क्षेत्र बदल लिया है। वो भी आपके जीवन से जा है। ये मज़दूर आपके ही रिश्तेदार हैं। जिस वक्त मैं मजदूरों की व्यथा दिखा रहा था आप उसी वक्त में हज़ारों मैसज मुझे भेजकर भावनात्मक यातनाएं दे रहे थे। लेकिन उन मैसेज में एक शब्द इन मज़दूरों के लिए नहीं था। मुझे आप पर बहुत शर्म आई। अफसोस हुआ।
मुझे ख़ुदगर्ज़ युवा नहीं चाहिए। मुझे ख़ुद्दार युवा चाहिए। मुझे नागरिक युवा चाहिए। मुझे लोकतांत्रिक युवा चाहिए। मुझे उदार युवा चाहिए। मुझे सेकुलर युवा चाहिए। मुझे कातर युवा नहीं चाहिए। मुझे इनबाक्स मेंदौड़ लगाने वाला युवा नहीं चाहिए। एक खुशहाल और सुंदर सपनों से सजा हुआ लोकतांत्रिक और राजनीतिक युवा चाहिए।
रवीश कुमार।
मेरे प्यारे सरकारी भर्तियों के तलबगारों,
बेरोज़गार का अब मतलब समाप्त हो गया है। इसका एक राजनीतिक अर्थ हुआ करता था। लेकिन युवाओं ने ही इस मुद्दे को अलग-अलग कारणों से समाप्त कर दिया। यह सार्वभौमिक मुद्दा नहीं रहा। इस वक्त की राजनीति का सबसे प्रभावशाली और फलदायक मुद्दा है धार्मिक पहचान का। यह मुद्दा उन्हीं युवाओं की मदद से परवान चढ़ा है जो ख़ुद को सप्ताह में एक दिन बेरोज़गार बताते हैं। इसलिए आप देखेंगे कि हर दूसरा मुद्दा धार्मिकता की चादर में लपेट कर पेश किया जाता है और वो आग की तरह लोगों के बीच पसरता है। कोरोना काल में युवाओं ने धार्मिकता के चश्मे से महामारी को देख कर साबित किया है। इसकी इतनी मांग है कि धार्मिक मुद्दों की आपूर्ति में घोर कमी आ गई है। इसलिए आई टी सेल का तंत्र खड़ा किया गया। नए नए किस्म के धार्मिक संगठन बनाए गए ताकि धार्मिक पहचान से जुड़े मुद्दों की आपूर्ति यानि सप्लाई बनी रहे। इसके लिए झूठ और अफवाह का सहारा लिया गया। चंद मामूली सी घटनाओं को धर्म के अस्तित्व पर ख़तरा बताते हुए राजनीतिक मुद्दे में बदल दिया गया।
मैं इस राजनीति का आलोचक हूं क्योंकि इससे राजनीति की हत्या हो जाती है। आप मुद्दों के आधार पर पक्ष नहीं चुनते बल्कि धार्मिक आधार पर पक्ष चुनते हैं। अब यह पक्ष इतना मज़बूत हो गया है कि कोई नेता व्यापार से लेकर रोज़गार चौपट कर देने के बाद भी शर्तियां लोकप्रिय बना रह सकता है और चुनाव जीत सकता है। धार्मिक पहचान का मुद्दा व्यक्तिवाद का मुकुट है। जो व्यक्ति इसे पहन लेगा या जिसे पहना दिया जाएगा वो सार्वभौमिक और सार्वकालिक हो सकता है। हो भी रहा है। जैसा कि मैंने कहा कि मैं आलोचक हूं लेकिन यह सच्चाई वास्तविक है, इसे स्वीकार भी करता हूं। धार्मिक पहचान की राजनीति लोकतंत्र के बुनियादी स्वभाव को खत्म कर देती है। इसलिए भारत के युवाओं के बीच राजनीति समाप्त हो गई है। नागरिकता विरोधी कानून के समय दिखी थी लेकिन वो भी जल्दी ही धार्मिक विभाजन का शिकार हो गई और उसकी परिणति दिखी दिल्ली दंगों में जब युवाओं के हाथ में बंदूकें थी और दिमाग में धार्मिक सनक सवार था।
अब ऐसा नहीं हो सकता कि आप अचानक एक निर्दोष इकाई की तरह प्रकट हो जाएं और कहें कि सरकार नौकरी दे दे। रोज़गार का सवाल राजनीतिक है। सिफारिश का प्रश्न नही है। आप यह न समझें कि एक मैसेज टाइप कर उसे पहले एक लाख लागों में बांटों और फिर एक लाख लोग उसी मैसेज को मुझे भेजते रहें तो इससे नौकरी मिल जाएगी। 90 के दशक के बाद से सरकारों ने सरकारी भर्तियां कम कर दीं। यह किसी राज्य विशेष की बात नहीं है। सभी राज्यों और केंद्र की बात है। आप ही थे जो मिमिनम गर्वनेंस का मतलब समझे बग़ैर तालियां बजा रहे थे। मिनिमम गर्वनेंस तब होता है जब सरकार में भी मिनिमम लोग होते हैं।
अब आप देखिए 2019 के लोकसभा चुनाव के समय हमारी नौकरी सीरीज़ क दबाव में रेलवे को एक लाख की भर्ती निकालनी पड़ी। चुनाव में ऐसी जीत मिली कि नेताओं को लगा होगा कि भर्ती न भी निकालते तो भी मिलती। नतीजा क्या हुआ, उस इम्तहान के रिजल्ट को निकले एक साल हो गए हैं, उसमें कोई कानूनी विवाद भी नहीं है फिर भी किसी की ज्वाइनिंग नही हुई है। उनमें से ज्यादातर वही हैं जिन्होंने सरकार को वापस चुना और भाजपा के घोर समर्थक हैं। शायद जीवनपर्यन्त समर्थक। आप बेशक भाजपा का समर्थक होने में गर्व करें लेकिन अपने मुद्दों को ही ख़ुद ख़त्म कर देंगे तो इसका दोष आप पर जाएगा। अगर आपने समर्थक होने के साथ साथ नागरिक होने का दबाव भी बनाया होता, एक नागरिक की तरह प्रश्न किया होता तो शायद रेलेवे की परीक्षा देने वाले सभी नौजवानों को नौकरी मिल जाती। लेकिन आप नौजवान अपने ही घर, रिश्तेदार या दोस्तों के बीच इसे परख लें। वो अब आपकी व्यक्तिगत बेरोज़गारी या सामूहिक बेरोज़गारी के आधारण पर राजनीतिक निर्णय नहीं लेते हैं। आपमें से भी बहुत से लोग आईट टी सेल के प्रोपेगैंडा की चपेट में हैं। उसी गोदी मीडिया को देखते हैं। उसका उपभोग करते हैं जो आपके या जनता के हितों की बात नहीं करता है।
अब युवाओं को तय करना होगा कि रोज़गार का प्रश्न राजनीतिक है या सिफारिशी। अगर राजनीतिक है तो यह तय करना होगा कि सरकारी भर्तियों को लेकर नीति क्या हो। प्राइवेट नौकरियों में लगातार काम की स्थिति खराब करने के लिए कानून बनाए जा रहे हैं। आप उन प्रश्नों पर चुप रहते हैं। इस नियति को आपने ही स्वीकार किया है। दुनिया भर में कोविड-19 के बाद बेरोज़गारों को सरकार ने भत्ते दिए हैं। भारत में इसकी चर्चा तक नहीं है। एक व्यक्ति की लोकप्रियता हर मुद्दे से महत्वपूर्ण हो गई है। यह तो नौजवानों ने ही बनाया है। उन्हीं का चुनाव है। तो फिर उन्हें शिकायत नहीं करनी चाहिए।
बेशक गोदी मीडिया रोज़गार के प्रश्न को नहीं उठाता है। उठाता भी तो क्या हो जाता। मैंने तो दो साल तक सारे मुद्दों को एक तरफ रखकर इस मुद्दो को उठाया। जैसे ही चुनाव समाप्त हुआ सरकारों ने ध्यान देना बंद कर दिया। क्योंकि उन्हें दिख रहा था कि युवा अब धार्मिक पहचान के पिंजड़ें में कैद हो चुका है। वह उसके फेंके गए अन्य मुद्दों को सर पर उठाए घूम रहा है। वह कभी न्यायपालिका से लेकर व्यवस्थापिका के अलोकतांत्रिक होने के प्रश्न को ज्वंलंत नहीं मानता है। वह झूठे धार्मिक मुद्दे पर ज़्यादा सक्रिय होता है। आक्रामक होता है। चारा फेंका जाता है और आप चुगने आ जाते हैं।
आपका महत्व एक नागरिक के रूप में समाप्त हो चुका है। नागरिकता का महत्व आप अकेले हासिल नहीं कर सकते। इसी पहचान और इसका अधिकार लोकतंत्र की संस्थाओं के साथ हासिल होता है। आप इन संस्थाओं के ध्वस्त होने पर चुप्पी साधे हैं। जब ये संस्थाएं ही नहीं रहेंगी तो आपकी नागरिकता सिर्फ काग़ज़ी बनी रह जाएगी। लोकतंत्र को रसोई के बर्तन की तरह समय समय पर मांजना पड़ता है। हर शाम को धो-पोछ कर अगली सुबह के लिए रखना होता है। आप युवाओं ने कभी भी लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए लड़ाई नहीं लड़ी। मीडिया की समाप्ति आपके बीच स्वीकृत है। आपने इसे अंगीकार किया है।
इसलिए मैंने नौकरी सीरीज़ बंद कर दी है। मैंने इसे अपने चैनल पर भी कहा है और फेसबुक पेज पर कई बार विस्तार से लिखा है। आप प्लीज़ मुझे मैसेज न करें। आप सिफारिश की तरह मैसेज करते हैं। सर मेरा वाला या मेरी परीक्षा का मसला उठा दें। दूसरी परीक्षा के छात्र अपनी पीड़ा को लेकर घूम रहे होते हैं। अनगिनत परीक्षाएं हैं। हर सरकार में और हर राज्य में। एक उठाओ तो दस आ जाते हैं कि हमारा नहीं उठाया। फिर उसे राजनीतिक हिसाब से देखने बताने लगते हैं। यह नहीं देखते कि जहां उठाया जिसके लिए उठाया उसका कुछ असर हुआ कि नहीं। अगर आप बेरोज़गारी के प्रति ईमानदार होते तो व्यवस्था की नाकामी से लेकर हर भर्ती के आंदोलन का साथ देते। आप ऐसा नहीं करते हैं।
मुझे आपसे सहानुभूति है। आपकी पीड़ा देखी नहीं जाती। आपका समाधान मेरे पास नहीं है यह और दुख देता है। मैं सिर्फ एक मुद्दे का पत्रकार नहीं हो सकता। फिर भी मैंने प्राइम टाइम में कई महीने तक नौकरी सीरीज़ चलाई। सारे मुद्दे छोड़ दिए। उन कार्यक्रमों की रेटिंग कुछ भी नहीं थी। यह आज बता रहा हूं। फिर भी करता चला गया। एक उम्मीद में कि सारे युवा मिलकर सभी राजनीतिक दलों की सरकारों पर दबाव डाल कर इस व्यवस्था को ठीक करेंगे। लेकिन युवा अब युवा नहीं हैं। वे एक समूह नहीं हैं। सब अपने अपने स्वार्थ से रोज़गार के मुद्दे को देखते हैं। मैं उसके डिटेल में नहीं जाना चाहता।
बस एक गुज़ारिश है कि मुझे फोन न करें और मैसेज न करें। मैं यह बात कई बार लिख चुका हूं। यह भी अभद्रता है कि किसी के इनबाक्स में आप दस हज़ार मैसेज कर देते हैं। आंखें दुख जाती हैं। मुझे क्यों सज़ा दे रहे हैं। क्या आपने मुझे सांसद और मंत्री बनाया है? मुझे तो वोट नहीं चाहिए और न वोट के लिए यह सब किया। इसलिए साफ साफ आपके बीच आकर कहा था कि नौकरी सीरीज़ बंद कर दी। तब भी बीच बीच में लिख देता हूं। आप राजनीति के मैदान में इस मुद्दे को ज्वलंत कीजिए। अगर आपकी धार्मिक पहचान की राजनीति काम आती है तो उसका भी सहारा लेकर देख लीजिए। क्या पता आजीवन राजनीतिक समर्थक होने का ही लाभ मिल जाए। मैं यही चाहूंगा कि आपको रोज़गार मिल जाए।
इस वक्त आपकी स्थिति दयनीय हो चुकी है। एक लाइन लिख देता हूं और बोल देता हूं तो आप कातर हो जाते हैं। मुझे उतने से ही श्रेय देने लगते हैं। शुक्रिया कहने लगते हैं। प्यार करने लगते हैं। मैं यह सब नहीं चाहता। मैं संबंधों और आदर में बराबरी चाहता हूं। आप खुद से हासिल करें। आप इस राजनीति को बदल दें। रोज़गार के प्रश्न को केंद्र में ले आएं। अपने लिए ही नहीं, सबके लिए। तब मैं आपके ऊपर लिखूं,आपके संघर्ष पर लिखूं और आप शुक्रिया कहें तो मुझे अच्छा लगेगा। मैं आपकी कातरता का काउंटर नहीं बनना चाहता कि आप हताश होकर अपनी चिट्ठी मुझे पकड़ा रहे हों। आप अपनी कातरता का पत्र मुझ तक न भेजें।
मेरे पास सभी परीक्षाओं के साथ न्याय करने, उन्हें कवर करने का संसाधन भी नहीं है। चाह कर भी सारे राज्यों का कवर नहीं कर सकता। अब तो इस आर्थिक संकट के बाद जो संसाधन हैं वो भी रहेंगे या नहीं पता नहीं। यह काम मैं अपनी प्रसिद्धि या महिमंडन के लिए नहीं करता। उसकी चिन्ता करता तो किसी पत्रकार में हिम्मत नहीं है कि सामने कह दे कि क्या कवर नहीं करेगा। मैं जानता हूं कि मैसेज भेजने वाले मुझे गालियां भी देते हैं। इनबाक्स में उन झूठे मीम को भी शेयर करते हैं जो मुझे बदनाम करने के लिए बनाए जाते हैं। और तो और कमेंट बाक्स में भी नज़र नहीं आते जब गालियां दी जाती हैं। मैं यह भी जानता हूं कि आपमें से ज्यादातर इस तरह के कामों का समर्थन करते हैं। सहयोग करते हैं। फिर भी निस्वार्थ भाव से आपकी सेवा में यह मुद्द उठाता रहा। आपको नौकरी मिले, एक बड़े भाई की तरह हमेशा चाहूंगा।
सच कहता हूं। आपके मैसेज डिलिट करते वक्त भी तकलीफ होती है। आपकी तकलीफ का समाधान मेरे पास नहीं है। मैंने एक प्रयोग किया था पत्रकारिता में। उसके सीमित परिणाम निकले। लाख से अधिक लोगों को नौकरी का पत्र मिला मगर वो चुनाव का समय था। सरकारों को डर था कि कहीं युवा हरा न दें। आपने उस डर या दबाव को खुद ही खत्म कर दिया। आपने साबित किया है कि आपके बीच झूठे और प्रोपेगैंडा से तैयार मुद्दे ही ज्यादा चलते हैं। मैं अब अन्य मुद्दों की तरफ बढ़ना चाहता हूं। बढ़ भी गया हूं। कभी वक्त ने इशारा किया तो ज़रूर लौटूंगा लेकिन फिलहाल नौकरी सीरीज़ बंद है। मैंने अपना क्षेत्र बदल लिया है। वो भी आपके जीवन से जा है। ये मज़दूर आपके ही रिश्तेदार हैं। जिस वक्त मैं मजदूरों की व्यथा दिखा रहा था आप उसी वक्त में हज़ारों मैसज मुझे भेजकर भावनात्मक यातनाएं दे रहे थे। लेकिन उन मैसेज में एक शब्द इन मज़दूरों के लिए नहीं था। मुझे आप पर बहुत शर्म आई। अफसोस हुआ।
मुझे ख़ुदगर्ज़ युवा नहीं चाहिए। मुझे ख़ुद्दार युवा चाहिए। मुझे नागरिक युवा चाहिए। मुझे लोकतांत्रिक युवा चाहिए। मुझे उदार युवा चाहिए। मुझे सेकुलर युवा चाहिए। मुझे कातर युवा नहीं चाहिए। मुझे इनबाक्स मेंदौड़ लगाने वाला युवा नहीं चाहिए। एक खुशहाल और सुंदर सपनों से सजा हुआ लोकतांत्रिक और राजनीतिक युवा चाहिए।
रवीश कुमार।