'आत्मनिर्भर भारत अभियान' यह कल मोदी जी के भाषण का सबसे बड़ा जुमला था क्योंकि 20 लाख करोड़ का विशेष आर्थिक पैकेज इसी 'आत्मनिर्भर भारत अभियान' के लिए दिया जा रहा है, इस दौरान छोटे मोटे जुमले भी खूब उछाले गए जैसे लोकल खरीदो ओर 'लोकल के लिए वोकल' आदि आदि।
मीडिया ऐसे पेश करेगा जैसे मोदी जी ने कोई अनोखी निराली बात कह दी हो, 2019 की आखिरी 'मन की बात' में ओर बनारस में दिए गए भाषण में ये 'लोकल खरीदो' 'लोकल को प्रमोट करो' वाली बातें ये पहले भी कर चुके हैं।
दरअसल 'आत्मनिर्भर भारत अभियान' भी 'मेक इन इंडिया' स्टैंडअप इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्किल डेवलपमेंट का ही मिला जुला रूप है जिसे ये अपने पहले कार्यकाल के पहले साल में बड़ी जोरशोर से लेकर आए थे लेकिन कालांतर में वह कहा गायब हो गए पता ही नही चला, अब मोदी जी न तो स्टैंडअप इंडिया-स्टार्टअप इंडिया, का नाम लेते हैं न, स्किल इंडिया का न मेक इन इंडिया का।
भाई कुछ ठोस किया गया हो तो इनका नाम ले लेकिन कुछ किया ही नही गया तो ऐसी फुस्सी फटाका योजनाओं का क्यो नाम ले!।
मेक इन इंडिया की घोषणा 15 अगस्त 2015 को हुई, 'मेक-इन इंडिया' को शुरू हुए 6 साल बीत चुके हैं लेकिन देशी विदेशी विनिर्माता कंपनियों ने भारत में कारखाने लगाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है। चीन से पलायन कर रही कंपनियां आज भी भारत में कोई दिलचस्पी नही दिखा रही है जबकि इस दौरान अमेरिका चीन के बीच ट्रेड वार तक शुरू हो गयी है, भारत के पास सबसे बेहतरीन मौका था लेकिन हमने उसे गंवा दिया।
मूलतः मेक इन इंडिया अभियान मैन्युफैक्चरिंग की गति को बढाने का अभियान था जिससे रोजगार जैसे लक्ष्य आसानी से प्राप्त होते मेक इन इंडिया में मूल लक्ष्य निम्न थे-
1) विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर 12-14 फीसदी सालाना तक बढ़ाना।
2) 2022 तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण की हिस्सेदारी 16 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी करना।
3) 2022 तक विनिर्माण के क्षेत्र में 10 करोड़ रोजगार का सृजन करना।
2019 की तीसरी तिमाही में मैन्युफैक्चरिंग की रफ्तार 0.6 फीसदी तक आ गिरी, साल 2008 के वित्तीय संकट के बाद सबसे खराब स्थिति थी, आज की तो बात ही क्या की जाए।
और रोजगार की हालत तो आप अच्छी तरह से जानते है आँकड़े छोड़िए अपने घर के या अड़ोस पड़ोस के बेरोजगार को ही देख लीजिए।
मेक इन इंडिया की सबसे बड़ी उम्मीद डिफेंस सेक्टर से ही थी। आप जानते है वहाँ क्या हाल हुए? मेक इन इंडिया के तहत रक्षा उत्पादन क्षेत्र में 49 प्रतिशत ओर विशेष मामलों में 100 प्रतिशत एफडीआई की अनुमति के बावजूद पहले 4 सालो में मात्र 1 करोड़ 17 लाख का ही विदेशी निवेश हो पाया। पिछले छह साल में मेक इन इंडिया के तहत कोई बड़ा डिफेंस प्रॉजेक्ट शुरू नहीं हो पाया है। कुछ समय पहले वायुसेना प्रमुख रहते हुए RKS भदौरिया ने स्वंय स्वीकार किया, ‘मेक इन इंडिया’ पर बातें बहुत की जाती हैं पर काम धीमा है।
स्मार्टफोन के कारोबार पर पूरी तरह से चीनी मोबाइल कम्पनियो का कब्जा है, जो टीवी निर्माता कंपनियां आई थी वो भी पिछले दो तीन सालो में भाग खड़ी हुई है।
आप किसी भी सेक्टर को देख लीजिए मेक इन इंडिया पूरी तरह से विफल रहा है, जाने-माने अर्थशास्त्री मोहन गुरुस्वामी ने दो साल पहले बिल्कुल सही कहा था कि 'मेक इन इंडिया मोदी सरकार के बाक़ी प्रोजक्ट्स की तरह है- जिसमें सारा ध्यान बढ़ा-चढ़ा कर बोलने पर है।'
अभी भी ये ही हो रहा है आत्मनिर्भर भारत अभियान' ओर 'विशेष आर्थिक पैकेज' के नाम पर देश की जनता को दुबारा भरमाया जा रहा है। मीडिया की सहायता से जनता को दोबारा मूर्ख बनाया जा रहा है। जनता दोबारा मूर्ख बनेगी। क्योंकि मीडिया पुरानी योजनाओं की तो बात करता ही नही है। जो सवाल करता है उसे ही पहले कठघरे में खड़ा कर देता है सबको सकारात्मक रहने उर्फ़ 'सरकारात्मक' रहने के पैसे जो खिलाए जा रहे हैं।
मीडिया ऐसे पेश करेगा जैसे मोदी जी ने कोई अनोखी निराली बात कह दी हो, 2019 की आखिरी 'मन की बात' में ओर बनारस में दिए गए भाषण में ये 'लोकल खरीदो' 'लोकल को प्रमोट करो' वाली बातें ये पहले भी कर चुके हैं।
दरअसल 'आत्मनिर्भर भारत अभियान' भी 'मेक इन इंडिया' स्टैंडअप इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्किल डेवलपमेंट का ही मिला जुला रूप है जिसे ये अपने पहले कार्यकाल के पहले साल में बड़ी जोरशोर से लेकर आए थे लेकिन कालांतर में वह कहा गायब हो गए पता ही नही चला, अब मोदी जी न तो स्टैंडअप इंडिया-स्टार्टअप इंडिया, का नाम लेते हैं न, स्किल इंडिया का न मेक इन इंडिया का।
भाई कुछ ठोस किया गया हो तो इनका नाम ले लेकिन कुछ किया ही नही गया तो ऐसी फुस्सी फटाका योजनाओं का क्यो नाम ले!।
मेक इन इंडिया की घोषणा 15 अगस्त 2015 को हुई, 'मेक-इन इंडिया' को शुरू हुए 6 साल बीत चुके हैं लेकिन देशी विदेशी विनिर्माता कंपनियों ने भारत में कारखाने लगाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है। चीन से पलायन कर रही कंपनियां आज भी भारत में कोई दिलचस्पी नही दिखा रही है जबकि इस दौरान अमेरिका चीन के बीच ट्रेड वार तक शुरू हो गयी है, भारत के पास सबसे बेहतरीन मौका था लेकिन हमने उसे गंवा दिया।
मूलतः मेक इन इंडिया अभियान मैन्युफैक्चरिंग की गति को बढाने का अभियान था जिससे रोजगार जैसे लक्ष्य आसानी से प्राप्त होते मेक इन इंडिया में मूल लक्ष्य निम्न थे-
1) विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर 12-14 फीसदी सालाना तक बढ़ाना।
2) 2022 तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण की हिस्सेदारी 16 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी करना।
3) 2022 तक विनिर्माण के क्षेत्र में 10 करोड़ रोजगार का सृजन करना।
2019 की तीसरी तिमाही में मैन्युफैक्चरिंग की रफ्तार 0.6 फीसदी तक आ गिरी, साल 2008 के वित्तीय संकट के बाद सबसे खराब स्थिति थी, आज की तो बात ही क्या की जाए।
और रोजगार की हालत तो आप अच्छी तरह से जानते है आँकड़े छोड़िए अपने घर के या अड़ोस पड़ोस के बेरोजगार को ही देख लीजिए।
मेक इन इंडिया की सबसे बड़ी उम्मीद डिफेंस सेक्टर से ही थी। आप जानते है वहाँ क्या हाल हुए? मेक इन इंडिया के तहत रक्षा उत्पादन क्षेत्र में 49 प्रतिशत ओर विशेष मामलों में 100 प्रतिशत एफडीआई की अनुमति के बावजूद पहले 4 सालो में मात्र 1 करोड़ 17 लाख का ही विदेशी निवेश हो पाया। पिछले छह साल में मेक इन इंडिया के तहत कोई बड़ा डिफेंस प्रॉजेक्ट शुरू नहीं हो पाया है। कुछ समय पहले वायुसेना प्रमुख रहते हुए RKS भदौरिया ने स्वंय स्वीकार किया, ‘मेक इन इंडिया’ पर बातें बहुत की जाती हैं पर काम धीमा है।
स्मार्टफोन के कारोबार पर पूरी तरह से चीनी मोबाइल कम्पनियो का कब्जा है, जो टीवी निर्माता कंपनियां आई थी वो भी पिछले दो तीन सालो में भाग खड़ी हुई है।
आप किसी भी सेक्टर को देख लीजिए मेक इन इंडिया पूरी तरह से विफल रहा है, जाने-माने अर्थशास्त्री मोहन गुरुस्वामी ने दो साल पहले बिल्कुल सही कहा था कि 'मेक इन इंडिया मोदी सरकार के बाक़ी प्रोजक्ट्स की तरह है- जिसमें सारा ध्यान बढ़ा-चढ़ा कर बोलने पर है।'
अभी भी ये ही हो रहा है आत्मनिर्भर भारत अभियान' ओर 'विशेष आर्थिक पैकेज' के नाम पर देश की जनता को दुबारा भरमाया जा रहा है। मीडिया की सहायता से जनता को दोबारा मूर्ख बनाया जा रहा है। जनता दोबारा मूर्ख बनेगी। क्योंकि मीडिया पुरानी योजनाओं की तो बात करता ही नही है। जो सवाल करता है उसे ही पहले कठघरे में खड़ा कर देता है सबको सकारात्मक रहने उर्फ़ 'सरकारात्मक' रहने के पैसे जो खिलाए जा रहे हैं।