आज से कुछ ही सप्ताह पहले तक लगता था कि सेकुलरिज्म, न्याय, आज़ादी, समता और आपसी भाईचारा कुछ ऐसे बेजान शब्द हैं जिनका कोई ख़ास अर्थ नहीं है, जो एक ऐसी पुस्तक के पन्नों में बंद हैं जिसे कम ही लोगों ने पढ़ा है. लेकिन आज इन सभी शब्दों में जैसे किसी ने नयी जान फूँक दी है, जो देश के कोने कोने से गरज रहे हैं, जो करोड़ों लोगों के जुबां पर भी हैं और दिलों में भी धड़क रहे हैं. "हम भारत के लोग", जो अनेक धर्म, जाति, लिंग और भाषा वाले हैं, एक साथ बुलंद आवाज़ में भारतीय संविधान की "उद्देशिका" पढ़ रहे हैं और शपथ ले रहे हैं कि संविधान के मौलिक मूल्य हमारे मूल्य हैं. भारत का संविधान आज जनता की किताब बन गयी है.
आज़ाद भारत के तीन धड़ों की अलग अलग तस्वीरों पर अगर आप नज़र डालें तो भारतीय मुसलमानों के बढ़ते कारवां की एक दिलचस्प झलक दिखाई देती है।
पहली तस्वीर (1985): उलेमा के आदेश पर देश के कोने कोने में लाखों लोग- सभी मुसलमान, सभी पुरुष- जोशीले नारे लगाते हुए सड़क पर उतर आये हैं. कारण ? उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय के उस फैसले को सही ठहराया है जिसमें यह आदेश हैं की एक बूढ़ी तलाकशुदा मुस्लिम महिला, शाह बानो, को उसके पति को हर महीने गुज़ारा के लिए Rs 179.20 देना होगा. हर तरफ "इस्लाम खतरे में है" का नारा गूँज रहा है, मांग की जा रही है की मुसलमान को शादी-तलाक़ जैसे घरेलू मामले में देश में लागू कानून नहीं शरिया कानून चाहिए। उस समय की राजीव गाँधी के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस सरकार हथियार डाल देती है और जन्म होता है धर्म पर आधारित Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986 का.
दूसरी तस्वीर (2018): फिर एक बार उलेमा के इशारे पर शहर शहर में हज़ारों की संख्या में जनता सड़क पर उतर आयी है. इस बार भी सभी मुसलमान हैं, पर सभी बुर्कापोश महिलायें हैं. यह आंदोलन नरेंद्र मोदी सरकार के उस नए कानून के खिलाफ है जो तीन तलाक़ को जुर्म (crime) करार देता है और अपराधी पति के लिए कड़ी सज़ा तय करता है. याद रहे, उलेमा का फरमान है कि मुस्लिम महिला का पब्लिक में दिखना और मुंह खोलना दोनों हराम हैं. इसलिए, कोई नारे सुनायी नहीं देते। हाँ पोस्टर ज़रूर हैं और उन पर लिखा हुआ है, "तीन तलाक़ बिल वापस लो, शरिया हमारी जान से प्यारी". यानि कि पत्नी अपने पति के उस हक के लिये सड़क पर आयी है जिसके रहते हुए पति जब चाहे एक पल में पत्नी से छुटकारा पा ले !
तीसरी तस्वीर (1919-20): पिछले कई हफ्तों में करोड़ों की तादाद में मुस्लमान फिर सड़कों पर उतर आये हैं. फर्क इस बार यह है की महिला पुरुष एक साथ मैदान में हैं और उनके साथ में बड़ी तादाद में अनेक धर्म के मानने वाले और किसी धर्म को न मानने वाले भी हैं. सभी का नारा है, "CAA वापस लो, NPR-NRC नहीं चाहिये, नहीं चाहिये"! तब और अब में बहुत और गहरा फ़र्क़ है.
पहला: 1985 और 2018 में ऊपर से उलेमा का आदेश आया था, पर इस बार आम मुसलमान उलेमा के आदेश को नकारते हुए आगे आया है. लगता है कि मोदी-शाह के इशारे पर मुसलमानों के दिग्गज धर्म गुरुओं (जिसमें शाही जामा मस्जिद, दिल्ली, के इमाम अहमद बुखारी, जमीअतुल-उलेमा-ए-हिन्द के जनरल सेक्रेटरी मौलाना महमूद मदनी, अजमेर शरीफ दरगाह के दीवान सय्यद ज़ैनुल हुसैन चिस्ती और शिआओ के बड़े नेता कल्बे जव्वाद शामिल हैं) ने आह्वान दिया था कि CAA-NPR-NRC प्रक्रिया से भारतीय मुसलमानों को चिंता का कोई कारण नहीं है और उन्हें चाहिये की वह शांति से अपने घरों में बैठे रहें। पर कौन सुनता है उनकी इस बार? आज हम उस मुकाम पर आ खड़े हैं कि कल की भीड़ ने नेतृत्व की डोर अपने हाथोँ ले लिया है और उलेमा अब उनके पीछे चलने पर मजबूर हैं।
दूसरा: इस बार का आंदोलन धर्म पर आधारित नहीं है और लैंगिक भेदभाव से भी परे है. मुस्लिम महिला और पुरुष बाकी सभी भारतवासियों के साथ मैदान में उतर पड़े हैं. हाँ, कई महिलाएं बुर्कापोश हैं या हिजाब में हैं पर उनके बीच ऐसी बहुत सारी मुस्लिम महिलायें भी हैं जिन्हें देखकर साम्प्रदायिक सोच रखने वाले कहते हैं कि यह तो "मुसलमानों जैसी दिखती ही नहीं हैं".
तीसरा: इस आंदोलन की असली हीरो मुस्लिम महिलायें हैं जिसमें जामिया मिल्लिया इस्लामिया की वह युवतियां हैं जिनकी फोटो वायरल हो चुकी है जिसमें वह एक युवक को पुलिस के डंडों से बचाते ऊँगली के इशारे से "खबरदार" कह रही हैं. और हीरोइन वह "दबंग दादी अम्माएँ" और वह नौजवान महिला भी हैं जिन्होंने अपने 20-दिन की उम्र का बच्चा गोद में लिए हफ़्तों से नई दिल्ली के शाहीन बाग में पड़ाव डाल रखा है.
आख़िरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बार मुसलामन कोई "इस्लाम/शरिया खतरे में है" जैसा नारा सुनकर घरों से बहार नहीं निकला है. वह अच्छी तरह समझता है कि खतरे में है उसकी नागरिकता। उसके मन में आज दीन और दस्तूर (संविधान) के बीच कोई टेंशन नहीं नज़र आता. आम मुसलमान अच्छी तरह समझ चूका है कि संविधान ही उसे नागरिकता का अधिकार देता है और ये वो अधिकार है जिसके मिलने पर ही बाकी सारे संवैधानिक अधिकार मिल सकते हैं. इसीलिए आज मुसलमान मर्द और औरत दोनों सभी देश वासियों के साथ "संविधान बचाओ" आंदोलन का अटूट हिस्सा बन चुके हैं.
पिछले कुछ सालों में कई सेक्युलर लोग भी ये कहने लग गए थे कि सेकुलरिज्म अब एक बेजान सा शब्द बन कर रह गया है, इसमें कोई जज़्बाती अपील बाकी नहीं है. आज मनाए जश्न में भारतवासियों ने इसमें नयी जान डाल दी है. लेकिन ज़रुरत इस बात की भी है की मुसलमान और उनके शुभ चिंतक होशियार रहें कुछ ऐसे "इस्लामिस्ट" संगठनों से जो इस आंदोलन के चलते अपनी विचारधारा के लिये कैडर जुटाने की कोशिश में लगे हैं. मुस्लिम समाज में "इस्लामिस्टस" उन्हें कहा जाता है जो लोकशाही राजनीति में विश्वास नहीं रखते और जो भारत में और सारे जगत में इस्लामी खिलाफत कायम करना चाहते हैं। यानी कि जहाँ RSS देश में हिन्दू राष्ट्र लाने पर तुली है वहीँ "इस्लामिस्टस" खिलाफत के सपने देखते हैं.
उदाहरण: उर्दू भाषा में जमात-ए-इस्लामी का 'दावत' नामक मुखपत्र छपता है. सन 2014 में, जब अबू बक्र अल-बग़दादी ने सीरिया और बग़दाद में इस्लामिक खिलाफत (ISIS) का एलान किया था तो उसके स्वागत में 'दावत' में अगस्त महीने में दो अग्रलेख छपे जिसका अंग्रेज़ी में अनुवाद कर न्यू ऐज इस्लाम (New Age Islam) नाम की एक पुरोगामी पोर्टल (portal) ने छापा था. अग्रलेख में लिखा था: "बहुत ज़रूरी है कि इस खिलाफत के एलान का स्वागत किया जाये क्योंकि हर मुसलमान का सपना है कि 'इस्लामिक खिलाफत' कायम हो. इस विषय पर इतिहास में कभी भी मुस्लिम समाज में कोई मतभेद नहीं रहा". यह भी ध्यान में रहे कि उस समय जमात-ए-इस्लामी के सिवाय और भी संगठनाएं और उलेमा थे जिन्हों ने भी ISIS का स्वागत किया था. लेकिन बाद में जब ISIS की बर्बरता की खबरें आम हो गयीं तो बग़दादी के समर्थकों को चुप्पी साधना पड़ा.
आज भी आप चाहें तो किसी जमात-ए-इस्लामी, वेलफेयर पार्टी ऑफ़ इंडिया (जमात की इलेक्टोरल विंग) या स्टूडेंट्स इस्लामिक आर्गेनाईजेशन (जमात की स्टूडेंट विंग) के फुल-टाइमर से पूछ सकते हैं की वह दिल से किस विचारधारा को मानते हैं. या आप गूगल सर्च करके जमात की कंस्टीटूशन (Constitution) को खुद पढ़ सकते हैं। पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया (PFI) और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ इंडिया (SDPI जो PFI का इलेक्टोरल विंग है) भी इसी विचारधारा से जुड़े हुए हैं.
अगर अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए इस्लामिस्ट संगठन भी CAA-NPR-NRC प्रक्रिया के खिलाफ अपना मोर्चा खड़ा करते हैं तो यह उनका मौलिक अधिकार है जिसे नकारा नहीं जा सकता. लेकिन उदारवादी वामपंथी (liberal leftists) लोगों को सचेत रहना आवश्यक है। कहीं ऐसा न हो कि मुसलमानों की मौलिक और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा करने के साथ साथ वह ऐसी इस्लामिस्ट शक्तियों के हाथ मज़बूत कर बैठें जिनकी विचार धारा लोकशाही उसूलों के खिलाफ है. ख़ास कर आज की परिस्थिती में जब की आंदोलन से मुसलमान हर दिन यह सीख ले रहा है कि इस्लाम और सेकुलरिज्म में कोई द्वन्द ज़रूरी नहीं है।
(यह लेख अंग्रेज़ी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में छपे लेख का अनुवाद है।)
आज़ाद भारत के तीन धड़ों की अलग अलग तस्वीरों पर अगर आप नज़र डालें तो भारतीय मुसलमानों के बढ़ते कारवां की एक दिलचस्प झलक दिखाई देती है।
पहली तस्वीर (1985): उलेमा के आदेश पर देश के कोने कोने में लाखों लोग- सभी मुसलमान, सभी पुरुष- जोशीले नारे लगाते हुए सड़क पर उतर आये हैं. कारण ? उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय के उस फैसले को सही ठहराया है जिसमें यह आदेश हैं की एक बूढ़ी तलाकशुदा मुस्लिम महिला, शाह बानो, को उसके पति को हर महीने गुज़ारा के लिए Rs 179.20 देना होगा. हर तरफ "इस्लाम खतरे में है" का नारा गूँज रहा है, मांग की जा रही है की मुसलमान को शादी-तलाक़ जैसे घरेलू मामले में देश में लागू कानून नहीं शरिया कानून चाहिए। उस समय की राजीव गाँधी के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस सरकार हथियार डाल देती है और जन्म होता है धर्म पर आधारित Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986 का.
दूसरी तस्वीर (2018): फिर एक बार उलेमा के इशारे पर शहर शहर में हज़ारों की संख्या में जनता सड़क पर उतर आयी है. इस बार भी सभी मुसलमान हैं, पर सभी बुर्कापोश महिलायें हैं. यह आंदोलन नरेंद्र मोदी सरकार के उस नए कानून के खिलाफ है जो तीन तलाक़ को जुर्म (crime) करार देता है और अपराधी पति के लिए कड़ी सज़ा तय करता है. याद रहे, उलेमा का फरमान है कि मुस्लिम महिला का पब्लिक में दिखना और मुंह खोलना दोनों हराम हैं. इसलिए, कोई नारे सुनायी नहीं देते। हाँ पोस्टर ज़रूर हैं और उन पर लिखा हुआ है, "तीन तलाक़ बिल वापस लो, शरिया हमारी जान से प्यारी". यानि कि पत्नी अपने पति के उस हक के लिये सड़क पर आयी है जिसके रहते हुए पति जब चाहे एक पल में पत्नी से छुटकारा पा ले !
तीसरी तस्वीर (1919-20): पिछले कई हफ्तों में करोड़ों की तादाद में मुस्लमान फिर सड़कों पर उतर आये हैं. फर्क इस बार यह है की महिला पुरुष एक साथ मैदान में हैं और उनके साथ में बड़ी तादाद में अनेक धर्म के मानने वाले और किसी धर्म को न मानने वाले भी हैं. सभी का नारा है, "CAA वापस लो, NPR-NRC नहीं चाहिये, नहीं चाहिये"! तब और अब में बहुत और गहरा फ़र्क़ है.
पहला: 1985 और 2018 में ऊपर से उलेमा का आदेश आया था, पर इस बार आम मुसलमान उलेमा के आदेश को नकारते हुए आगे आया है. लगता है कि मोदी-शाह के इशारे पर मुसलमानों के दिग्गज धर्म गुरुओं (जिसमें शाही जामा मस्जिद, दिल्ली, के इमाम अहमद बुखारी, जमीअतुल-उलेमा-ए-हिन्द के जनरल सेक्रेटरी मौलाना महमूद मदनी, अजमेर शरीफ दरगाह के दीवान सय्यद ज़ैनुल हुसैन चिस्ती और शिआओ के बड़े नेता कल्बे जव्वाद शामिल हैं) ने आह्वान दिया था कि CAA-NPR-NRC प्रक्रिया से भारतीय मुसलमानों को चिंता का कोई कारण नहीं है और उन्हें चाहिये की वह शांति से अपने घरों में बैठे रहें। पर कौन सुनता है उनकी इस बार? आज हम उस मुकाम पर आ खड़े हैं कि कल की भीड़ ने नेतृत्व की डोर अपने हाथोँ ले लिया है और उलेमा अब उनके पीछे चलने पर मजबूर हैं।
दूसरा: इस बार का आंदोलन धर्म पर आधारित नहीं है और लैंगिक भेदभाव से भी परे है. मुस्लिम महिला और पुरुष बाकी सभी भारतवासियों के साथ मैदान में उतर पड़े हैं. हाँ, कई महिलाएं बुर्कापोश हैं या हिजाब में हैं पर उनके बीच ऐसी बहुत सारी मुस्लिम महिलायें भी हैं जिन्हें देखकर साम्प्रदायिक सोच रखने वाले कहते हैं कि यह तो "मुसलमानों जैसी दिखती ही नहीं हैं".
तीसरा: इस आंदोलन की असली हीरो मुस्लिम महिलायें हैं जिसमें जामिया मिल्लिया इस्लामिया की वह युवतियां हैं जिनकी फोटो वायरल हो चुकी है जिसमें वह एक युवक को पुलिस के डंडों से बचाते ऊँगली के इशारे से "खबरदार" कह रही हैं. और हीरोइन वह "दबंग दादी अम्माएँ" और वह नौजवान महिला भी हैं जिन्होंने अपने 20-दिन की उम्र का बच्चा गोद में लिए हफ़्तों से नई दिल्ली के शाहीन बाग में पड़ाव डाल रखा है.
आख़िरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बार मुसलामन कोई "इस्लाम/शरिया खतरे में है" जैसा नारा सुनकर घरों से बहार नहीं निकला है. वह अच्छी तरह समझता है कि खतरे में है उसकी नागरिकता। उसके मन में आज दीन और दस्तूर (संविधान) के बीच कोई टेंशन नहीं नज़र आता. आम मुसलमान अच्छी तरह समझ चूका है कि संविधान ही उसे नागरिकता का अधिकार देता है और ये वो अधिकार है जिसके मिलने पर ही बाकी सारे संवैधानिक अधिकार मिल सकते हैं. इसीलिए आज मुसलमान मर्द और औरत दोनों सभी देश वासियों के साथ "संविधान बचाओ" आंदोलन का अटूट हिस्सा बन चुके हैं.
पिछले कुछ सालों में कई सेक्युलर लोग भी ये कहने लग गए थे कि सेकुलरिज्म अब एक बेजान सा शब्द बन कर रह गया है, इसमें कोई जज़्बाती अपील बाकी नहीं है. आज मनाए जश्न में भारतवासियों ने इसमें नयी जान डाल दी है. लेकिन ज़रुरत इस बात की भी है की मुसलमान और उनके शुभ चिंतक होशियार रहें कुछ ऐसे "इस्लामिस्ट" संगठनों से जो इस आंदोलन के चलते अपनी विचारधारा के लिये कैडर जुटाने की कोशिश में लगे हैं. मुस्लिम समाज में "इस्लामिस्टस" उन्हें कहा जाता है जो लोकशाही राजनीति में विश्वास नहीं रखते और जो भारत में और सारे जगत में इस्लामी खिलाफत कायम करना चाहते हैं। यानी कि जहाँ RSS देश में हिन्दू राष्ट्र लाने पर तुली है वहीँ "इस्लामिस्टस" खिलाफत के सपने देखते हैं.
उदाहरण: उर्दू भाषा में जमात-ए-इस्लामी का 'दावत' नामक मुखपत्र छपता है. सन 2014 में, जब अबू बक्र अल-बग़दादी ने सीरिया और बग़दाद में इस्लामिक खिलाफत (ISIS) का एलान किया था तो उसके स्वागत में 'दावत' में अगस्त महीने में दो अग्रलेख छपे जिसका अंग्रेज़ी में अनुवाद कर न्यू ऐज इस्लाम (New Age Islam) नाम की एक पुरोगामी पोर्टल (portal) ने छापा था. अग्रलेख में लिखा था: "बहुत ज़रूरी है कि इस खिलाफत के एलान का स्वागत किया जाये क्योंकि हर मुसलमान का सपना है कि 'इस्लामिक खिलाफत' कायम हो. इस विषय पर इतिहास में कभी भी मुस्लिम समाज में कोई मतभेद नहीं रहा". यह भी ध्यान में रहे कि उस समय जमात-ए-इस्लामी के सिवाय और भी संगठनाएं और उलेमा थे जिन्हों ने भी ISIS का स्वागत किया था. लेकिन बाद में जब ISIS की बर्बरता की खबरें आम हो गयीं तो बग़दादी के समर्थकों को चुप्पी साधना पड़ा.
आज भी आप चाहें तो किसी जमात-ए-इस्लामी, वेलफेयर पार्टी ऑफ़ इंडिया (जमात की इलेक्टोरल विंग) या स्टूडेंट्स इस्लामिक आर्गेनाईजेशन (जमात की स्टूडेंट विंग) के फुल-टाइमर से पूछ सकते हैं की वह दिल से किस विचारधारा को मानते हैं. या आप गूगल सर्च करके जमात की कंस्टीटूशन (Constitution) को खुद पढ़ सकते हैं। पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया (PFI) और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ इंडिया (SDPI जो PFI का इलेक्टोरल विंग है) भी इसी विचारधारा से जुड़े हुए हैं.
अगर अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए इस्लामिस्ट संगठन भी CAA-NPR-NRC प्रक्रिया के खिलाफ अपना मोर्चा खड़ा करते हैं तो यह उनका मौलिक अधिकार है जिसे नकारा नहीं जा सकता. लेकिन उदारवादी वामपंथी (liberal leftists) लोगों को सचेत रहना आवश्यक है। कहीं ऐसा न हो कि मुसलमानों की मौलिक और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा करने के साथ साथ वह ऐसी इस्लामिस्ट शक्तियों के हाथ मज़बूत कर बैठें जिनकी विचार धारा लोकशाही उसूलों के खिलाफ है. ख़ास कर आज की परिस्थिती में जब की आंदोलन से मुसलमान हर दिन यह सीख ले रहा है कि इस्लाम और सेकुलरिज्म में कोई द्वन्द ज़रूरी नहीं है।
(यह लेख अंग्रेज़ी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में छपे लेख का अनुवाद है।)