दिल्ली के शाहीनबाग की इंकलाबी औरतें

Written by Sayed Shaad | Published on: January 18, 2020
'पुतले हैं हम हदीद के पैकर हैं संग के 
इंसान नहीं पहाड़ हैं मैदान-ए-जंग के'



जोश मलीहाबादी का ये शेर शाहीन बाग की महिलाओं के इरादों की तर्जुमानि कर रहा है। कड़ाके की सर्दी के बावजूद शाहीन बाग की महिलाएं एक महीने से ज्यादा समय से नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ डटी हैं। सैकड़ों महिलाएं बीच सड़क पर अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ धरने पर बैठी हैं।

शाहीन बाग़ एक ऐसा धरना स्थल बन गया है जिसने पूरी दुनिया में सुर्ख़ियां बटोरी हैं। यहां की महिलाएं बहादुरी की मिसाल बन गई हैं। यहां बैठी महिलाओं ने कड़ाके की ठंड को भी मात दे दी है। शाहीन बाग़ की औरतों ने पूरे मुल्क में इंक़लाब बरपा कर दिया।

मजाज़ लखनवी ने बरसों पहले आँचल से परचम बनाने का जो ख्वाब बुना था- 
"तेरे माथे पर ये आँचल बहुत खूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था'' 

शाहीन बाग़ की औरतों ने मजाज़ लखनवी के इस ख्वाब को हकीकत में बदल कर दिखा दिया है।

वहीं अल्लामा इक़बाल का ये शेर शाहीन बाग़ इन महिलाओं की ज़ुबान पर है :-
"शक्ति की शांति भी भक्तों की गीत में है
धरती के बासियों की मुक्ति प्रीत में है"

जब से नागरिकता संशोधन कानून पास हुआ है और जिस तरह से शांतिपूर्ण तरीके से उसका विरोध किया गया है। वो इस शेर की वास्तविक आत्मा के मुताबिक है। शाहीन बाग़ के अमन पसंद लोग 24 घण्टे धरने पर बैठे हुए हैं। और सरकार के दमनकारी नीतियों और पुलिस की अपमानजनक कार्रवाईयों को नज़रअंदाज़ करते हुए वो गांधी के अहिंसावादी मार्ग पर चल रहे हैं।

अलम्मा इक़बाल ने सालों पहले कहा था- 
'न समझोगे तो मिट जाओगे हिन्दुस्तां वालों
तुम्हारी दास्तां तक न होगी दास्तानों में'

इस शेर के ज़रिए इक़बाल ने लोगों को समझाना चाहा है कि सद्भावना, शांति, भाईचारा एवं धर्मनिर्पेक्षिता भारत की आत्मा है। शाहीन बाग़ की महिलाएं इस हकीकत को बखूबी समझ रही हैं। इसलिए वो इस कड़कड़ाती सर्दी में भी रात भर खुले में बैठकर देश के अमन, शांति, सद्भावना, भाईचारा, समानता और धर्मनिर्पेक्षिता की लड़ाई लड़ रही हैं।

'गर्दों-ग़ुबार यां का खिलअत हो अपने तन को
मरकर भी चाहते हैं खाके-वतन कफ़न को' - बृज नारायण चकबस्त

इस तरह के अलग-अलग बैनर अपने हाथों में लिए एकजुटता, भाईचारा, धर्मनिर्पेक्षिता, समानता और संविधान बचाने की लड़ाई का जनसैलाब शाहीन बाग़ की सड़कों पर तैर रहा है। शाहीन बाग़ का ये प्रोटेस्ट एक मिसाल बन चुका है। एक मुस्लिम महिला बुर्खे में अपने गोद में एक सिख बच्चे को बिठाल रखी है। 

नाज़ सिद्दीकी जो एक छात्रा है और वो अबुल फजल इलाके में रहती हैं, कहती हैं ये प्रोटेस्ट मुस्लिम-ग़ैर मुस्लिम का नहीं है। ये देश और संविधान बचाने के लिए सभी धर्म और समुदाय के लोगों की है। यहां कहीं कोई धक्का-मुक्की नहीं। कहीं नफ़रत के नारे नहीं है। वो आगे कहती हैं शाहीन बाग ने दिखा दिया कि नागरिकता संशोधन क़ानून पास होने के बाद भी देश के गली-मोहल्ले में हिन्दू बनाम मुस्लिम की बहसों में नहीं फंसा है। इस कानून के पास होने के बाद वरना सारी बहस हिन्दू बनाम मुस्लिम की हो जाती।

शाहीन बाग़ ने ऐसी बहसों को खत्म कर दिया, जिसे गोदी मीडिया के सहारे तरह-तरह के संदर्भों के ज़रिए उभारा जा रहा था। शाहीन बाग़ ने बता दिया है कि हम संविधान बचाने के लिए सड़कों पर आए हैं।

जामिया नगर इलाके में रहने वाली एक छात्रा अफशां जबीं कहती है दरअसल, शाहीन बाग़ आंदोलन की एक ख़ूबसूरती यह भी है इनमें बहुत बड़े पैमाने पर महिलाएं और लड़कियां शामिल हैं। वे नारे लगा रही हैं, वे मार्च कर रही हैं, वे सरकार को चुनौती दे रही हैं, वे मैदान और मोर्चा नहीं छोड़ रही हैं। 

वो आगे कहती हैं, उन्होंने ऐसा 'प्रोटेस्ट' अपने होश में कभी नहीं देखा जहां खाने-पीने से लेकर, चाय तैयार करने से लेकर चंदा देने और दिन-रात एक जगह जुट कर प्रोटेस्ट करते हैं। 

आखिर में अल्लामा इक़बाल का ये शेर शाहीन बाग़ की इंक़लाबी औरतों को पेश-ए-नज़र है 
"तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा 
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं"

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