असल मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए नागरिकता क़ानून का मसला खड़ा किया गया: योगेंद्र यादव

Written by Sabrangindia Staff | Published on: January 3, 2020
नई दिल्ली: 3 जनवरी 2020, जिन लोगों ने आज़ादी की लड़ाई में अपने खून का एक क़तरा भी नहीं बहाया वो आज मुल्क़ के असली बाशिंदों से उनकी नागरिकता और देश भक्ति का सबूत मांग रहे हैं। हुकूमत दरअसल डूबती हुई अर्थव्यवस्था, बेरोज़गारी और मंहगाई जैसे विषम मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए नागरिकता के मुद्दे को पेचीदा बनाने वाले मसले पैदा कर रही है। यह बात जाने माने सामाजिक कार्यकर्त्ता और बुद्धिजीवी प्रो. योगेंद्र यादव ने "डिफेंडिंग आईडिया ऑफ़ इण्डिया" विषय पर दूसरा कैप्टेन अब्बास अली मेमोरियल व्याख्यान देते हुए कही।



प्रो. योगेंद्र यादव ने कहा कि इस वक़्त पूरे मुल्क़ में नागरिक अधिकारों को लेकर प्रतिरोध और नवचेतना की जो लहर चल रही है ऐसा इतिहास में कभी कभार ही होता है। ये एक ऐसा ग़ैर मामूली आंदोलन है जिसमें पंजाब से पोंडिचेरी तक लोग कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े हो गए हैं और एक बेहतरीन भारत का सपना देख रहे हैं। उन्होंने कहा की "इस वक़्त डेमोक्रेसी, डाइवर्सिटी और डेवलॅपमेंट तीनों दांव पर लगे हैं और ये लड़ाई मज़हब, संस्कृति और क़ौमपरस्ती की मदद से लड़ी जा सकती है क्यूंकि इन तीनो में असाधारण शक्ति है।" 

जाने माने समाजशास्त्री प्रो. आनंद कुमार ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा की प्रो. योगेंद्र यादव ने कैप्टेन अब्बास अली की याद व्याख्यान देते हुए जो बातें कहीं हैं वह अँधेरे में रौशनी की किरण है। कैप्टेन अब्बास अली ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान आज़ाद होने पर एक बेहतरीन हिंदुस्तान का ख्वाब देखा था और उन्होंने अपनी सारी जवानी इस ख्वाब की ताबीर पैदा करने में खर्च कर दी। 

कैप्टेन अब्बास अली फाउंडेशन ट्रस्ट की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम का संचालन करते हुए वरिष्ठ पत्रकार क़ुरबान अली ने कहा की कैप्टेन अब्बास अली की ख़्वाहिश इस मुल्क़ को आज़ाद होने के साथ साथ एक ऐसा हिंदुस्तान देखने की थी जहाँ अमीर-ग़रीब, के बीच और जाति, धर्म, सम्प्रदाय और भाषा के नाम पर शोषण न हो। जहाँ ज़ुल्म, ज़्यादती, अन्याय और सांप्रदायिकता न हो और जहाँ देश का हर नागरिक अपना सर ऊँचा करके चल सके। उन्होंने कहा की कैप्टेन अब्बास अली को सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी के देश में अमन चैन और आपसी भाई चारे तथा देश की एकता और अखंडता को बरक़रार रखा जा सके। 

आज़ाद हिन्द फ़ौज के सिपाही और मशहूर स्वतंत्रता सेनानी कैप्टेन अब्बास अली का जन्म 3 जनवरी 1920 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर ज़िले में हुआ था और यह उनका जन्मशती वर्ष है। इस जन्मशती समारोहों की शुरुआत दूसरे कैप्टेन अब्बास अली मेमोरियल व्याख्यान से हुई है जो अगले एक वर्ष तक चलेंगे। कैप्टेन अब्बास अली की आत्मकथा "न रहूँ किसी का दस्तनिगर-मेरा सफ़रनामा" राजकमल प्रकाशन द्वारा 2010 में उनके 90 वें जन्म दिन पर प्रकाशित हुई थी जिसका अब अंग्रेजी और उर्दू अनुवाद किया जा रहा है। 

कैप्टेन अब्बास अली का संक्षिप्त जीवन परिचय (3, जनवरी 1920-11,अक्टूबर 2014)
3 जनवरी 1920 को कलंदर गढ़ी, खुर्जा, जिला बुलंदशहर में एक मुस्लिम राजपूत ज़मींदार परिवार में जन्मे कप्तान अब्बास अली की प्रारम्भिक शिक्षा प्राइमरी सरकारी स्कूल ख़ुर्जा, जे.ए.एस इंटर कॉलेज ख़ुर्जा और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयु) अलीगढ़ में हुई। कप्तान अब्बास अली बच्पन से ही क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित रहे और महज़ 11 साल की उम्र में राष्ट्रीय आंदोलन में शरीक हो गए। वह पहले नौजवान भारत सभा और फिर 1937 में स्टूडेंट फ़ेडरेशन (एस.एफ़.) के सदस्य बने। 

1939 में अमुवि से इंटरमीडिएट करने के बाद आप दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रितानी सेना में भरती हो गए और 1942 में महज़ 22 साल की उम्र में जापानियों द्वारा मलाया में युद्ध बंदी बना लिये गए। इसी दौरान आप जनरल मोहन सिंह द्वारा बनायी गयी आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हो गए और महज़ 22 साल की उम्र में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में देश की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी।1945 में जापान की हार के बाद मलाया में ब्रिटिश सेना द्वारा युद्ध बंदी बना लिए गए। आपको 1946 में मुल्तान के किले में रखा गया, कोर्ट मार्शल किया गया और सजा-ए-मौत सुनायी गयी, लेकिन 1946 में ही देश आज़ाद हो जाने का ऐलान हो जाने की वजह से आप 1947 में रिहा कर दिये गए। 

मुल्क आज़ाद हो जाने के बाद 28 साल की उम्र में आप सन 1948 में आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और डा. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए। पहले सोशलिस्ट पार्टी की जिला कार्यकारिणी फिर 1957 में जिला मंत्री, 1960 में राज्य कार्यकारिणी के सदस्य और 1966 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी तथा 1973 में सोशलिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश के राज्य मंत्री निर्वाचित हुए। 1967 में उत्तर प्रदेश में पहले संयुक्त विधायक दल और फिर चौ चरण सिंह के नेतृत्व में पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन करने में आपने अहम भूमिका निभायी। आपातकाल के दौरान 1975-77 में 15 माह तक बुलंदशहर, बरेली और नैनी सेन्ट्रल जेल में डी.आई.आर और मीसा क़ानून के तहत बंद रहे। 1977 में जनता पार्टी का गठन होने के बाद उसके सर्वप्रथम राज्याध्यक्ष बनाये गए और 1978 में 6 वर्षों के लिए विधान परिषद् के लिए सदस्य निर्वाचित हुए। 

आज़ाद हिन्दुस्तान में 50 से अधिक बार विभिन्न जन-आन्दोलनों के दौरान सिविल नाफ़रमानी करते हुए गिरफ्तार हुए और जेल यात्रा की। सन 2009 में आपकी आत्मकथा "न रहूँ किसी का दस्तनिगर-मेरा सफ़रनामा " राजकमल प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित कि गयी। 94 वर्ष कि उम्र तक आप अलीगढ, बुलंदशहर, लखनऊ और दिल्ली में होने वाले जन-आन्दोलनों में शिरकत करते रहे और अपनी पुरजोर आवाज़ से युवा पीड़ी को प्रेरणा देने का काम करते रहे।

11 अक्टूबर 2014 को दिल का दौरा पड़ने के कारण अलीगढ़ में कप्तान अब्बास अली का निधन हो गया।

देश के नाम
 कप्तान अब्बास अली का सन्देश

प्यारे दोस्तो!

मेरा बचपन से ही क्रांतिकारी विचारधारा के साथ सम्बन्ध रहा है।1931 में जब मैं पांचवीं जमात का छात्र था, 23 मार्च, 1931 को अँगरेज़ हुकूमत ने शहीद-ए-आज़म भगत सिंह को लाहौर में सजाए मौत दे दी। सरदार की फांसी के तीसरे दिन इसके विरोध में मेरे शहर खुर्जा में एक जुलूस निकाला गया जिसमें मैं भी शामिल हुआ। हम लोग बा-आवाजे बुलंद गा रहे थे......

     भगत सिंह तुम्हें फिर से आना पड़ेगा

     हुकूमत को जलवा दिखाना पड़ेगा

     ऐ, दरिया-ए-गंगा तू ख़ामोश हो जा

     ऐ दरिया-ए-सतलज तू स्याहपोश हो जा

     भगत सिंह तुम्हें फिर से आना पड़ेगा

     हुकूमत को जलवा दिखाना पड़ेगा ..........

इस घटना के बाद मैं नौजवान भारत सभा के साथ जुड़ गया और 1936-37 में खुर्जा से हाई स्कुल का इम्तिहान पास करने के बाद जब मैं अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिल हुआ तो वहां मेरा सम्पर्क उस वक़्त के मशहूर कम्युनिस्ट लीडर कुंवर मुहम्मद अशरफ़ (जो प्रो. के एम अशरफ़ के नाम से जाने जाते हैं और भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों सदस्यों में से एक थे) से हुआ जो उस वक़्त आल इंडिया कांग्रेस कमिटी के सदस्य होने के साथ साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के भी मेम्बर थे लेकिन डाक्टर अशरफ़, गाँधी जी की विचारधारा से सहमत नहीं थे और अक्सर कहते थे कि "ये मुल्क़ गाँधी के रास्ते से आज़ाद नहीं हो सकता". उनका मानना था कि जब तक फ़ौज बगावत नहीं करेगी मुल्क आज़ाद नहीं हो सकता। डाक्टर अशरफ़ अलीगढ में 'स्टडी सर्कल' चलाते थे और आल इंडिया स्टुडेंट फेडरेशन के भी सरपरस्त थे। उन्हीं के कहने पर मैं स्टुडेंट फेडरेशन का मेंबर बना। उसी समय हमारे जिला बुलंदशहर में सूबाई असेम्बली का एक उप-चुनाव हुआ। उस चुनाव के दौरान मैं, डाक्टर अशरफ़ के साथ रहा और कई जगह चुनाव सभाओं को सम्बोधित किया। उसी मौके पर कांग्रेस के आल इंडिया सद्र जवाहर लाल नेहरु भी खुर्जा तशरीफ़ लाए और उन्हें पहली बार नज़दीक से देखने और सुनने का मौक़ा मिला।

इसके एक साल पहले ही यानी 1936 में लखनऊ में 'स्टुडेंट फेडरेशन' कायम हुआ था और पंडित नेहरु ने इसका उदघाटन किया था जबकि मुस्लिम लीग के नेता कायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिनाह ने स्टुडेंट फेडरेशन के स्थापना सम्मलेन की सदारत कि थी। 1940 में स्टुडेंट फेडरेशन में पहली बार विभाजन हुआ और और नागपुर में हुए राष्ट्रीय सम्मलेन के बाद गांधीवादी समाजवादियों ने 'ऑल इंडिया स्टुडेंट कांग्रेस' के नाम से एक अलग संगठन बना लिया जो बाद में कई धड़ों में विभाजित हुआ।

1939 में अमुवि से इंटरमीडिएट करने के बाद डाक्टर अशरफ़ की सलाह पर मैं, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बिर्तानी सेना में भरती हो गया और 1943 में जापानियों द्वारा मलाया में युद्ध बंदी बनाया गया। इसी दौरान जनरल मोहन सिंह द्वारा बनायी गयी आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हो गया और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में देश कि आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी।1945 में दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद ब्रिटिश सेना द्वारा युद्ध बंदी बना लिया गया। 1946 में मुझे मुल्तान के किले में रखा गया, कोर्ट मार्शल किया गया और सज़ा-ए-मौत सुनायी गयी, लेकिन उसी समय पंडित नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन हो जाने और देश देश आज़ाद हो जाने का ऐलान हो जाने की वजह से मुझे रिहा कर दिया गया। 

मुल्क आज़ाद हो जाने के बाद जब 1948 में सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया गया तो मैं आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और डा. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गया और पहले जिला पार्टी की कार्यकारणी का सदस्य और फिर 1956 में जिला सचिव चुना गया।बाद में 1960 में मुझे सर्वसम्मति से उत्तर प्रदेश सोशलिस्ट पार्टी की राज्य कार्यकारणी का सदस्य तथा 1966 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) बनने पर उसका पहला राज्य सचिव चुना गया।1973 में संसोपा और प्रसोपा का विलय होने के बाद बनी सोशलिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश का राज्य मंत्री चुना गया। 1967 में उत्तर प्रदेश में पहले संयुक्त विधायक दल और फिर चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन करने में अहम भूमिका निभायी। आपातकाल के दौरान 1975 से 1977 तक 15 माह तक बुलंदशहर, बरेली और नैनी सेन्ट्रल जेल मैं DIR और MISA के तहत बंद रहा। 

अपने लगभग 78 वर्षों के सार्वजनिक जीवन में शुरूआती 16-17 वर्ष तो देश को आज़ाद कराने की जद्दोजहद में बीते और बाद के क़रीब 60 वर्ष समतामूलक समाज बनाने और समाजवादी आंदोलन में बीते।  

दोस्तो,
बचपन से ही अपने इस अज़ीम मुल्क को आज़ाद और खुशहाल देखने की तमन्ना थी जिसमें ज़ात- बिरादरी, मज़हब और ज़बान या रंग के नाम पर किसी तरह का इस्तेह्साल (शोषण) न हो। जहाँ हर हिन्दुस्तानी सर ऊँचा करके चल सके, जहाँ अमीर-गरीब के नाम पर कोई भेद-भाव न हो। हमारा पांच हज़ार साला इतिहास ज़ात और मज़हब के नाम पर शोषण का इतिहास रहा है। अपनी जिंदगी में अपनी आँखों के सामने अपने इस अज़ीम मुल्क को आज़ाद होते हुए देखने की ख्वाहिश तो पूरी हो गई लेकिन अब भी समाज में ग़ैर-बराबरी, भ्रष्टाचार, ज़ुल्म, ज़्यादती और फ़िरक़ापरस्ती का जो नासूर फैला हुआ है उसे देख कर बेहद तकलीफ होती है।

दोस्तो उम्र के इस पड़ाव पर हम तो चिराग- ए -सहरी (सुबह का दिया) हैं, न जाने कब बुझ जाएँ लेकिन आपसे और आने वाली नस्लों से यही गुज़ारिश और उम्मीद है कि सच्चाई और ईमानदारी का जो रास्ता हमने अपने बुजुर्गों से सीखा उसकी मशाल अब तुम्हारे हाथों में है, इस मशाल को कभी बुझने मत देना।

इन्कलाब जिंदाबाद !
आपका
कप्तान अब्बास अली

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