कचरों के बीच कालोनी है या कालोनी के बीच कचरे, हवा में दुर्गंध इतनी तेज़ है कि बग़ैर रूमाल के सांस नहीं ले सकते। मक्खियां और मच्छर इस कदर भिनभिना रहे हैं कि मुंह खुलते ही उनके भीतर जाने का ख़तरा है। ज़मीन पर नालियों का पानी और कीचड़ फैला है। अपने साफ-सुथरे जूते को रखें तो कहां। यह बाहर से भीतर आए मेरा नज़रिया था। भीतर रहने वालों ने इसे अलग से देखना कब का बंद कर दिया है। उन्हें पता है कि नालियों और मच्छरों के बिना नहीं बल्कि इनके साथ जीना है।
दिल्ली से बहुत दूर नहीं गया था। उसकी सीमा से सटा है छोटू राम नगर। राज्य के हिसाब से हरियाणा में है मगर हालात के हिसाब से ऐसी अनेक बस्तियां दिल्ली में भी हैं और दूसरे शहरों में भी। सर छोटू राम के नाम पर प्रधानमंत्री ने करोड़ों की मूर्ति और स्मारक का अनावरण किया। अच्छी बात है। मगर अच्छा होता छोटू राम नगर की हालत ऐसी न होती।
रास्ते पर पोलिथीन का कचरा फैला हुआ है। जहां मकान नहीं बना है वहां कचरा और नाली का पानी जमा है। सैनिटरी वेयर बनाने वाली एक कंपनी ने सिरेमिक का कचरा उसी कालोनी में फेंक रखा है। कई सालों से वह उसी जगह पर कचरा फेंक रही है जहां आबादी रहती है। किसी ने कहा कि कंपनी की ख़रीदी हुई ज़मीन है। क्या आपके मोहल्ले में कोई कंपनी ज़मीन ख़रीद कर कचरा फेंक सकती है? बेसिन और कमोड के टूटे हुए टुकड़ों के कारण बच्चों के पांव ज़ख्मी हो जाते हैं। किसे फर्क पड़ता है। इस बस्ती में कई कंपनियों ने अपना कचरा आबादी के बीच में डंप किया है। एक गड्ढे में केमिकल है। स्थानीय निवासी ने बताया कि गलती से आग लग जाए तो कई दिनों तक आग का धुआं उठता रहता है।
लोगों ने कचरे के साथ जीना सीख लिया है। स्वच्छता अभियान का फ्राड दिख रहा है। कुछ शहर और शहरों के कुछ हिस्से साफ हुए हैं। उन्हें पता है कि कुछ नहीं हो सकता। यहां पर स्वच्छता नहीं बल्कि अ-स्वच्छता अभियान सफल है। ऐसा लगता है कि किसी ने छोटू राम नगर में अस्वच्छता अभियान चला रखा है। पुलिस कंपनी से मिली है और कंपनी से नेता। शिकायत करें तो मुसीबत आती है। समाधान नहीं। लोगों ने कांग्रेस और बीजेपी दोनों को आज़मा लिया है। दोनों को बारी बारी से बदलना बदलाव नहीं है। ज़ुल्म जारी रहता है। ज़ुल्मी बस नया आ जाता है। बड़ी बात है कि वे भारत पर गर्व करते हैं।
8000 की मज़दूरी में इतना वक्त नहीं मिलता कि संविधान की किताब पढ़ें या अख़बार। न्यूज़ उनके जीवन का हिस्सा नहीं है। वही टीवी है जिसने इन्हें जैसा देश दिखाया है, उसे ही देश मान लिया है। अपने सामने जिस देश को देख रहे हैं वह इन्हें दिखना बंद हो गया है। न्यूज़ चैनलों की बातों को देश मानकर ये लोग दूसरे लोक में जा चुके हैं। नज़दीक के हालात को लेकर कोई गुस्सा नहीं है। वह अपने आर्थिक हालात को भी नहीं पढ़ पाता है। उसे नहीं मालूम कि सरकार ने श्रम नियमों में कितने बदलाव किए हैं। उन बदलावों से उसका जीवन पहले से और बदतर हुआ है। मगर वह जयकारे के परम आनंद में लीन है। या फिर शून्य हो चुका है। उसकी राजनीतिक चेतना समाप्त हो चुकी है।
रोहतक से आ रहे एक दवा कारोबारी अपनी कार से उतरे। मेरे साथ सेल्फी खींचा ली और फिर बताया कि यहां दवा ख़ूब बिकती है। दो ढाई किमी के दायरे में फैली इस बस्ती में 55 दवा दुकानें हैं। लेकिन इस बस्ती में एक डिस्पेंसरी नहीं है। प्राथमिक चिकित्सालय नहीं है। अस्पताल नहीं है। झोला छाप डाक्टरों की भरमार है। सरकारी स्कूल नहीं है। अंग्रेज़ी सीखाने वाले स्कूल हैं। हज़ारों मज़दूरों के जाने के लिए एक ही रास्ता है। उस रास्ते पर रेलवे का फाटक है। न नीचे से अंडर पास है और न ऊपर से फुट ओवर ब्रीज। लोगों की बातचीत में महीने में दस लोगों का कट कर मर जाना सामान्य है। किसी ने मरने वालों की संख्या दो भी बताई। लेकिन दस और दो बताने वालों के भाव में कोई अंतर नहीं था। आदमी के मरने की संख्या गाजर मूली के भाव से भी मामूली हो चुकी है।
ये वो लोग हैं जिन्हें अच्छा स्कूल नहीं मिला। अच्छा कालेज नहीं मिला। कभी ढंग की किताब नहीं मिली। अच्छा वेतन नहीं मिला। अच्छा जीवन नहीं मिला। रहने के लिए अच्छा शहर नहीं मिला। बिहार यूपी से विस्थापित ये लोग हर उस चीज़ से विस्थापित हैं जिससे मिडिल क्लास का इंडिया बनता है। इन लोगों ने ख़ुद को उन सवालों से भी विस्थापित कर लिया है जिसे हम देश के सवाल समझते हैं। लोकतंत्र से विस्थापित इस लोक को न तो लोकतंत्र से ख़तरा है न ही संविधान के समाप्त हो जाने का ख़तरा है। ये लोक तो बगैर इन चीज़ों के जीने लगा है।
जीने के हर तरह के नागरिक अधिकारों वंचित इस समूह से किसी को उम्मीद क्यों होनी चाहिए। क्या जेट कंपनी से विस्थापित 16000 कर्मचारियों को यह प्रक्रिया समझ आती है, उनके पास तो टीवी है, अखबार है और अंग्रेज़ी है? छोटू राम नगर के मज़दूर और जेट के विस्थापित हज़ारों कर्मचारी अपनी चेतना में एक समान हो चुके हैं। शून्य हो चुके हैं। लोकतंत्र में यह संख्या के शून्य होने का दौर है। गंदगी यथास्थिति है।
दिल्ली से बहुत दूर नहीं गया था। उसकी सीमा से सटा है छोटू राम नगर। राज्य के हिसाब से हरियाणा में है मगर हालात के हिसाब से ऐसी अनेक बस्तियां दिल्ली में भी हैं और दूसरे शहरों में भी। सर छोटू राम के नाम पर प्रधानमंत्री ने करोड़ों की मूर्ति और स्मारक का अनावरण किया। अच्छी बात है। मगर अच्छा होता छोटू राम नगर की हालत ऐसी न होती।
रास्ते पर पोलिथीन का कचरा फैला हुआ है। जहां मकान नहीं बना है वहां कचरा और नाली का पानी जमा है। सैनिटरी वेयर बनाने वाली एक कंपनी ने सिरेमिक का कचरा उसी कालोनी में फेंक रखा है। कई सालों से वह उसी जगह पर कचरा फेंक रही है जहां आबादी रहती है। किसी ने कहा कि कंपनी की ख़रीदी हुई ज़मीन है। क्या आपके मोहल्ले में कोई कंपनी ज़मीन ख़रीद कर कचरा फेंक सकती है? बेसिन और कमोड के टूटे हुए टुकड़ों के कारण बच्चों के पांव ज़ख्मी हो जाते हैं। किसे फर्क पड़ता है। इस बस्ती में कई कंपनियों ने अपना कचरा आबादी के बीच में डंप किया है। एक गड्ढे में केमिकल है। स्थानीय निवासी ने बताया कि गलती से आग लग जाए तो कई दिनों तक आग का धुआं उठता रहता है।
लोगों ने कचरे के साथ जीना सीख लिया है। स्वच्छता अभियान का फ्राड दिख रहा है। कुछ शहर और शहरों के कुछ हिस्से साफ हुए हैं। उन्हें पता है कि कुछ नहीं हो सकता। यहां पर स्वच्छता नहीं बल्कि अ-स्वच्छता अभियान सफल है। ऐसा लगता है कि किसी ने छोटू राम नगर में अस्वच्छता अभियान चला रखा है। पुलिस कंपनी से मिली है और कंपनी से नेता। शिकायत करें तो मुसीबत आती है। समाधान नहीं। लोगों ने कांग्रेस और बीजेपी दोनों को आज़मा लिया है। दोनों को बारी बारी से बदलना बदलाव नहीं है। ज़ुल्म जारी रहता है। ज़ुल्मी बस नया आ जाता है। बड़ी बात है कि वे भारत पर गर्व करते हैं।
8000 की मज़दूरी में इतना वक्त नहीं मिलता कि संविधान की किताब पढ़ें या अख़बार। न्यूज़ उनके जीवन का हिस्सा नहीं है। वही टीवी है जिसने इन्हें जैसा देश दिखाया है, उसे ही देश मान लिया है। अपने सामने जिस देश को देख रहे हैं वह इन्हें दिखना बंद हो गया है। न्यूज़ चैनलों की बातों को देश मानकर ये लोग दूसरे लोक में जा चुके हैं। नज़दीक के हालात को लेकर कोई गुस्सा नहीं है। वह अपने आर्थिक हालात को भी नहीं पढ़ पाता है। उसे नहीं मालूम कि सरकार ने श्रम नियमों में कितने बदलाव किए हैं। उन बदलावों से उसका जीवन पहले से और बदतर हुआ है। मगर वह जयकारे के परम आनंद में लीन है। या फिर शून्य हो चुका है। उसकी राजनीतिक चेतना समाप्त हो चुकी है।
रोहतक से आ रहे एक दवा कारोबारी अपनी कार से उतरे। मेरे साथ सेल्फी खींचा ली और फिर बताया कि यहां दवा ख़ूब बिकती है। दो ढाई किमी के दायरे में फैली इस बस्ती में 55 दवा दुकानें हैं। लेकिन इस बस्ती में एक डिस्पेंसरी नहीं है। प्राथमिक चिकित्सालय नहीं है। अस्पताल नहीं है। झोला छाप डाक्टरों की भरमार है। सरकारी स्कूल नहीं है। अंग्रेज़ी सीखाने वाले स्कूल हैं। हज़ारों मज़दूरों के जाने के लिए एक ही रास्ता है। उस रास्ते पर रेलवे का फाटक है। न नीचे से अंडर पास है और न ऊपर से फुट ओवर ब्रीज। लोगों की बातचीत में महीने में दस लोगों का कट कर मर जाना सामान्य है। किसी ने मरने वालों की संख्या दो भी बताई। लेकिन दस और दो बताने वालों के भाव में कोई अंतर नहीं था। आदमी के मरने की संख्या गाजर मूली के भाव से भी मामूली हो चुकी है।
ये वो लोग हैं जिन्हें अच्छा स्कूल नहीं मिला। अच्छा कालेज नहीं मिला। कभी ढंग की किताब नहीं मिली। अच्छा वेतन नहीं मिला। अच्छा जीवन नहीं मिला। रहने के लिए अच्छा शहर नहीं मिला। बिहार यूपी से विस्थापित ये लोग हर उस चीज़ से विस्थापित हैं जिससे मिडिल क्लास का इंडिया बनता है। इन लोगों ने ख़ुद को उन सवालों से भी विस्थापित कर लिया है जिसे हम देश के सवाल समझते हैं। लोकतंत्र से विस्थापित इस लोक को न तो लोकतंत्र से ख़तरा है न ही संविधान के समाप्त हो जाने का ख़तरा है। ये लोक तो बगैर इन चीज़ों के जीने लगा है।
जीने के हर तरह के नागरिक अधिकारों वंचित इस समूह से किसी को उम्मीद क्यों होनी चाहिए। क्या जेट कंपनी से विस्थापित 16000 कर्मचारियों को यह प्रक्रिया समझ आती है, उनके पास तो टीवी है, अखबार है और अंग्रेज़ी है? छोटू राम नगर के मज़दूर और जेट के विस्थापित हज़ारों कर्मचारी अपनी चेतना में एक समान हो चुके हैं। शून्य हो चुके हैं। लोकतंत्र में यह संख्या के शून्य होने का दौर है। गंदगी यथास्थिति है।