2019 के चुनाव ने 2014 से पीछा छुड़ा लिया है। 2019 का चुनाव 2014 को भुलाने का चुनाव है। बीजेपी के प्रचार पोस्टरों को देखकर यही लगता है कि वह 2014 से भाग रही है। 2014 के पोस्टरों पर बीजेपी ने नए पोस्टर लगा दिए हैं। नए मुद्दों की मार्केटिंग हो रही है। इन पोस्टरों पर ज़बरदस्ती टैगलाइन गढ़े गए हैं। उनका भाव स्कूल में फेल होने वाले उस छात्र की तरह है जो घर आकर बताता है कि बहुत सारे बच्चे फेल हो गए। इस बार कापी ही ठीक से चेक नहीं हुई है। मोदी की बची-खुची राजनीतिक कामयाबी यही है कि विपक्ष के बाकी नेता और उनकी सरकारें भी फेल रही हैं। फेल करने वाला एक और काम करता है। घर में बताता है कि सब फेल हुए हैं मगर मोहल्ले में बताता है कि वह पास हो गया है। अपना रिज़ल्ट किसी को नहीं दिखाता। भारत की परीक्षा व्यवस्था में शामिल 50 फीसदी से अधिक छात्रों की यही कहानी है। नरेंद्र मोदी की यही कहानी है।
इसलिए जब आप इस बार के बीजेपी के पोस्टर देखते हैं तो हैरान हो जाते हैं। खोजने लगते हैं कि 2014 वाले नारे कहां चले गए। प्रचारों का कोई प्रचार नहीं है। 2014 में लोग खुद उन प्रचारों का प्रचार करते थे। सेना और इसरो का इस्तमाल न होता तो इस चुनाव में मोदी को अपना ही पोस्टर लगाने के लिए मुद्दा नहीं मिलता। आतंकवाद को भगा देने वाले मोदी घूरते नज़र आ रहे हैं। हाजीपुर में दीघा पुल से पहले लगा अंतरिक्ष की कामयाबी का पोस्टर देखकर लगता है कि जैसे घर आकर छात्र ने माता को अपनी कापी की जगह दूसरे छात्र की भरी हुई कापी दिखा दी हो। 2014 में मोदी ने सपना बेचा था। 2019 में मोदी अपनी असफलता बेच रहे हैं।
दिल्ली से जाने वाले पत्रकार लोगों के बीच मोदी-मोदी की गूंज को खोज रहे हैं। 2014 में माइक निकालते ही आवाज़ आने लगती थी मोदी-मोदी। 2019 में पब्लिक के बीच माइक निकालने पर आवाज़ ही नहीं आती है। पत्रकार सदमे में आ जाते हैं। लोग इस मीडिया के कारण भी मोदी-मोदी नहीं कर रहे हैं। जब टीवी दिन रात मोदी-मोदी कर रहा है तो अब उनके लिए क्या बचा है। मीडिया बिक गया है। डर गया है। केवल मोदी को दिखाता है। सभी भले न समझें हो मगर आपको ऐसी बात करने वाले लोग बड़ी संख्या में हर तरह की भीड़ में मिलेंगे। नौजवान से लेकर बुज़ुर्ग तक कहते मिल जाएंगे कि मोदी का मीडिया गोदी मीडिया है। जब मीडिया की विश्वसनीयता समाप्त है तो उस खंडहर पर मोदी के सपनों का घास कितना हरा हो जाएगा। यह बात मोदी के समर्थकों पर भारी पड़ जाती है। वे शर्मिंदा हो जाते हैं। उस गौरव के साथ मोदी मोदी नहीं कर पाते जैसे 2014 में करते थे।
मैं यह बात नतीजे के संदर्भ में नहीं कह रहा कि मोदी हार जाएंगे। मैं न यह सवाल किसी से पूछता हूं और न इसमें मेरी दिलचस्पी है। मेरा लेख इस पर है कि मोदी खुद से हार रहे हैं। 2014 का विजेता जब खुद से हारने लगे तो उस जनता का चेहरा देखना चाहिए जो मोदी को वोट करना चाहता है। चुपके से पूछता है कि क्या मोदी ने एक भी अच्छा काम नहीं किया है। यह सवाल उन आलोचकों के लिए गढ़ा गया था मगर समर्थकों पर जा चिपका है। इसलिए न तो वह 2014 की तरह मोदी की सभा में दौड़ा दौड़ा जा रहा है और न ही उनके भाषणों पर दिल लुटा रहा है। मोदी के आलोचकों के पास ज़्यादा सवाल हैं। वे 2014 में हर बहस हार जाते थे। अब वे हर बहस में भाजपा समर्थकों को हरा देते हैं। उनके वोट से मोदी भले न हारें, मगर उनके सवालों से मोदी के समर्थक बहस हारने लगे हैं। इसलिए वे चुप हो गए हैं।
माहौल देखने वालों की पीड़ा माहौल का न मिलना है मगर जो माहौल बनाता है उसकी पीड़ा का क्या। 2019 उसे चुभ रहा है। भाजपा के मतदाताओं को नहीं लगा था कि इतनी जल्दी मोदी के विकल्प का सवाल उनके सामने आ खड़ा होगा। मोदी ज़रूरी से मजबूरी बन जाएंगे। जब कोई नेता मजबूरी का विकल्प होता है तब जनता चुप हो जाती है। वह एक दूसरे से नज़रें नहीं मिलाती है। 2014 में सब एक दूसरे से नज़रें मिलाते थे, मोदी-मोदी करते थे। मोदी को पसंद करने वाले मतदाता व्हाट्स एप की तरह अंतर्मुखी हो गए हैं। फेसबुक की तरह बाहर नहीं बोल रहे हैं। व्हाट्स एप यूनिवर्सटी ने उनका कैरेक्टर बदल दिया है। पांच साल तरह तरह के झूठ को निगलने के बाद उगला नहीं जा रहा है। झूठ ने उन्हें पहले आक्रामक बनाया अब अकेला बना दिया है।
मोदी के समर्थक नेता के विकल्प पर बात करने के लिए तैयार हैं। अगर आप विकल्प देंगे तो वे मोदी को छोड़ किसी और पर बात करने के लिए तैयार हैं। घर घर मोदी की जगह, मोदी नहीं तो कौन का सवाल उनके भीतर बनने लगा है। यह मतदाता ज़मीन पर राजनीति का यथार्थ देखता है। उसने सबको देखा है और मोदी को भी देख लिया है। वह क्या करे। क्या मोदी पर विश्वास करने की सज़ा खुद को दे? वह झूठ और प्रोपेगैंडा से पीछा छुड़ाना चाहता है। इस चुनाव में उसके पास 2014 की तरह सपने नहीं हैं। इधर न उधर। बार बार ठगे जाने की पीड़ा वह किसके पास लेकर जाए।
पत्रकार मोदी की पीड़ा समझते हैं, जनता की पीड़ा नहीं। जनता अपनी तकलीफों के बीच खड़ी है। मोदी को भी उससे सहानुभूति नहीं है। वे उसकी पीड़ा की बात न कर उस खेत में अंतरिक्ष की कामयाबी का ढिंढोरा पीट रहे हैं जहां पीने के लिए पानी नहीं है। यही कारण है कि जनता को विकल्पों में संभावना नज़र नहीं आती है। हर विकल्प उसके लिए एक धोखा है। सबने उस जनता को अकेला कर दिया है। इसलिए आपको मोदी-मोदी नज़र नहीं आता है। आप रिज़ल्ट जानना चाहते हैं जनता अपना हाल बताना चाहती है। इसलिए 2019 का चुनाव स्तब्ध जनता का चुनाव है।
2014 ने मोदी समर्थकों को एक सामूहिकता दी थी। कई सारे सपनों ने मोदी के मतदाताओं को एक सूत्र में बांध दिया था। आज उन सपनों की कहीं कोई बात नहीं है। प्रोपेगैंडा और झूठ के अपराध बोध से दबा हुआ मोदी का मतदाता जब वोट करेगा तो नहीं चाहेगा कि कोई जाने। वह नहीं चाहता है कि किसी को पता चले कि उसने अपनी ग़लती दोहराई है। विपक्ष की तरफ से भी किसी ने उसका हाथ मज़बूती से नहीं थामा। उसे नए और अच्छे सपनों के सहारे दलदल से निकालने के लिए किसी ने हाथ नहीं बढ़ाया। मोदी को दिया जाने वाला वोट अब व्यक्तिगत है। सामूहिक नहीं है। 2014 से 2019 में यही बदला है।
इसलिए जब आप इस बार के बीजेपी के पोस्टर देखते हैं तो हैरान हो जाते हैं। खोजने लगते हैं कि 2014 वाले नारे कहां चले गए। प्रचारों का कोई प्रचार नहीं है। 2014 में लोग खुद उन प्रचारों का प्रचार करते थे। सेना और इसरो का इस्तमाल न होता तो इस चुनाव में मोदी को अपना ही पोस्टर लगाने के लिए मुद्दा नहीं मिलता। आतंकवाद को भगा देने वाले मोदी घूरते नज़र आ रहे हैं। हाजीपुर में दीघा पुल से पहले लगा अंतरिक्ष की कामयाबी का पोस्टर देखकर लगता है कि जैसे घर आकर छात्र ने माता को अपनी कापी की जगह दूसरे छात्र की भरी हुई कापी दिखा दी हो। 2014 में मोदी ने सपना बेचा था। 2019 में मोदी अपनी असफलता बेच रहे हैं।
दिल्ली से जाने वाले पत्रकार लोगों के बीच मोदी-मोदी की गूंज को खोज रहे हैं। 2014 में माइक निकालते ही आवाज़ आने लगती थी मोदी-मोदी। 2019 में पब्लिक के बीच माइक निकालने पर आवाज़ ही नहीं आती है। पत्रकार सदमे में आ जाते हैं। लोग इस मीडिया के कारण भी मोदी-मोदी नहीं कर रहे हैं। जब टीवी दिन रात मोदी-मोदी कर रहा है तो अब उनके लिए क्या बचा है। मीडिया बिक गया है। डर गया है। केवल मोदी को दिखाता है। सभी भले न समझें हो मगर आपको ऐसी बात करने वाले लोग बड़ी संख्या में हर तरह की भीड़ में मिलेंगे। नौजवान से लेकर बुज़ुर्ग तक कहते मिल जाएंगे कि मोदी का मीडिया गोदी मीडिया है। जब मीडिया की विश्वसनीयता समाप्त है तो उस खंडहर पर मोदी के सपनों का घास कितना हरा हो जाएगा। यह बात मोदी के समर्थकों पर भारी पड़ जाती है। वे शर्मिंदा हो जाते हैं। उस गौरव के साथ मोदी मोदी नहीं कर पाते जैसे 2014 में करते थे।
मैं यह बात नतीजे के संदर्भ में नहीं कह रहा कि मोदी हार जाएंगे। मैं न यह सवाल किसी से पूछता हूं और न इसमें मेरी दिलचस्पी है। मेरा लेख इस पर है कि मोदी खुद से हार रहे हैं। 2014 का विजेता जब खुद से हारने लगे तो उस जनता का चेहरा देखना चाहिए जो मोदी को वोट करना चाहता है। चुपके से पूछता है कि क्या मोदी ने एक भी अच्छा काम नहीं किया है। यह सवाल उन आलोचकों के लिए गढ़ा गया था मगर समर्थकों पर जा चिपका है। इसलिए न तो वह 2014 की तरह मोदी की सभा में दौड़ा दौड़ा जा रहा है और न ही उनके भाषणों पर दिल लुटा रहा है। मोदी के आलोचकों के पास ज़्यादा सवाल हैं। वे 2014 में हर बहस हार जाते थे। अब वे हर बहस में भाजपा समर्थकों को हरा देते हैं। उनके वोट से मोदी भले न हारें, मगर उनके सवालों से मोदी के समर्थक बहस हारने लगे हैं। इसलिए वे चुप हो गए हैं।
माहौल देखने वालों की पीड़ा माहौल का न मिलना है मगर जो माहौल बनाता है उसकी पीड़ा का क्या। 2019 उसे चुभ रहा है। भाजपा के मतदाताओं को नहीं लगा था कि इतनी जल्दी मोदी के विकल्प का सवाल उनके सामने आ खड़ा होगा। मोदी ज़रूरी से मजबूरी बन जाएंगे। जब कोई नेता मजबूरी का विकल्प होता है तब जनता चुप हो जाती है। वह एक दूसरे से नज़रें नहीं मिलाती है। 2014 में सब एक दूसरे से नज़रें मिलाते थे, मोदी-मोदी करते थे। मोदी को पसंद करने वाले मतदाता व्हाट्स एप की तरह अंतर्मुखी हो गए हैं। फेसबुक की तरह बाहर नहीं बोल रहे हैं। व्हाट्स एप यूनिवर्सटी ने उनका कैरेक्टर बदल दिया है। पांच साल तरह तरह के झूठ को निगलने के बाद उगला नहीं जा रहा है। झूठ ने उन्हें पहले आक्रामक बनाया अब अकेला बना दिया है।
मोदी के समर्थक नेता के विकल्प पर बात करने के लिए तैयार हैं। अगर आप विकल्प देंगे तो वे मोदी को छोड़ किसी और पर बात करने के लिए तैयार हैं। घर घर मोदी की जगह, मोदी नहीं तो कौन का सवाल उनके भीतर बनने लगा है। यह मतदाता ज़मीन पर राजनीति का यथार्थ देखता है। उसने सबको देखा है और मोदी को भी देख लिया है। वह क्या करे। क्या मोदी पर विश्वास करने की सज़ा खुद को दे? वह झूठ और प्रोपेगैंडा से पीछा छुड़ाना चाहता है। इस चुनाव में उसके पास 2014 की तरह सपने नहीं हैं। इधर न उधर। बार बार ठगे जाने की पीड़ा वह किसके पास लेकर जाए।
पत्रकार मोदी की पीड़ा समझते हैं, जनता की पीड़ा नहीं। जनता अपनी तकलीफों के बीच खड़ी है। मोदी को भी उससे सहानुभूति नहीं है। वे उसकी पीड़ा की बात न कर उस खेत में अंतरिक्ष की कामयाबी का ढिंढोरा पीट रहे हैं जहां पीने के लिए पानी नहीं है। यही कारण है कि जनता को विकल्पों में संभावना नज़र नहीं आती है। हर विकल्प उसके लिए एक धोखा है। सबने उस जनता को अकेला कर दिया है। इसलिए आपको मोदी-मोदी नज़र नहीं आता है। आप रिज़ल्ट जानना चाहते हैं जनता अपना हाल बताना चाहती है। इसलिए 2019 का चुनाव स्तब्ध जनता का चुनाव है।
2014 ने मोदी समर्थकों को एक सामूहिकता दी थी। कई सारे सपनों ने मोदी के मतदाताओं को एक सूत्र में बांध दिया था। आज उन सपनों की कहीं कोई बात नहीं है। प्रोपेगैंडा और झूठ के अपराध बोध से दबा हुआ मोदी का मतदाता जब वोट करेगा तो नहीं चाहेगा कि कोई जाने। वह नहीं चाहता है कि किसी को पता चले कि उसने अपनी ग़लती दोहराई है। विपक्ष की तरफ से भी किसी ने उसका हाथ मज़बूती से नहीं थामा। उसे नए और अच्छे सपनों के सहारे दलदल से निकालने के लिए किसी ने हाथ नहीं बढ़ाया। मोदी को दिया जाने वाला वोट अब व्यक्तिगत है। सामूहिक नहीं है। 2014 से 2019 में यही बदला है।