आज ज्यादातर अखबारों में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के करीबियों के यहां पड़े आयकर के छापे और उसमें बरामद धन की खबर तथा फोटो है। मुझे याद नहीं है कि पहले चुनाव के आस-पास इस तरह के छापे पड़ते हों। तब माना जाता था कि चुनाव के समय सरकार काम चलाऊ होती है और उसे सिर्फ जरूरी काम करना चाहिए। अधिकारों का दुरुपयोग और सत्ता में होने के अवांछित लाभ चुनाव में नहीं लिए जाएं इसका नैतिक दायित्व चुनाव लड़ने वाले पर है। इसीलिए, छापेमारी को लेकर चुनाव आयोग ने केंद्र को आगाह किया है कि आचार संहिता के दौरान होने वाली कार्रवाई एकतरफा नहीं होनी चाहिए।
चुनाव आयोग ने ऐसी किसी भी कार्रवाई से पहले उसे सूचना देने के निर्देश दिए हैं। सूचना देकर भी छापा मारा जाए तो सत्तारूढ़ दल को लाभ होगा और जिसके यहां छापामारी होगी उसका नुकसान होगा – भले कुछ ना मिले। भारत में चुनावों में नकद का उपयोग होता है, सभी दल तय सीमा से ज्यादा खर्च करते हैं और उन कामों में पैसे लगाए जाते हैं जो गलत है। कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि यह सब बंद हो। पर विपक्ष मुक्त राजनीति चाहने वाली पार्टी को अगर छापा मारकर छवि बनाने के साथ-साथ दूसरों को कमजोर करने का काम करेगी तो चुनाव का कोई मतलब नहीं है।
आज टाइम्स ऑफ इंडिया और कुछ अन्य अखबारों ने इस बात को प्रमुखता से छापा है। टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर है कि आयकर छापामारी से राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया है। कमलनाथ ने यह कहा बताते हैं कि हम ऐसे तरीकों के लिए तैयार हैं। आयकर विभाग का कहना है कि यह छापामारी खुफिया सूचना पर की गई। नवोदय टाइम्स ने भी इसे टाइम्स ऑफ इंडिया की ही तरह छापा है और इस बात को प्रमुखता दी है कि छापेमारी के समय राज्य पुलिस मौके पर पहुंच गई और सीआरपीएफ से उसका टकराव हुआ।
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इसपर सवाल उठाया है और कहा है कि यह संविधान को ध्वस्त करने वाली घटना है। अगर अधिकारों का इस तरह दुरुपयोग होगा और संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा नहीं रहेगी तो यही होना है। आप देखिए कि आपके अखबार ने क्या छापा है। मुझे लगता है कि ऐसे ही चलता रहा तो चुनाव से लोकप्रियता नहीं संवैधानिक संस्थाओं को नियंत्रित करने की ताकत का पता लगेगा। हिन्दुस्तान ने भी इसे ‘टकराव’ कहा है और शीर्षक है कमलनाथ के करीबियों पर ताबड़तोड़ छापेमारी से बवाल। नवभारत टाइम्स ने इसे, “बंगाल के बाद अब एमपी बनाम केंद्र” शीर्षक से छापा है।
अमर उजाला ने इसे टॉप पर पांच कॉलम में छापा है। शीर्षक है, “कमलनाथ व करीबियों के 52 ठिकानों पर छापे”। इसके साथ कमलनाथ का बयान है, “विकास पर बोलने को नहीं (है) तो यह हथकंडा” और साथ में वित्त मंत्री अरुण जेटली का भी, “ओएसडी के पास कहां से आया इतना धन”। मेरे ख्याल से यह सामान्य समझ की बात है कि पैसे चुनाव के लिए उम्मीदवारों में सामान्य खर्च के साथ मतदाताओं को बांटने के लिए थे। अमर उजाला ने मुख्य खबर के साथ यह भी छापा है कि अगस्ता घोटाले में कमलनाथ के भांजे से पूछताछ हुई थी। और इसके साथ "सूत्रों के अनुसार" यह जानकारी भी कि यह पैसा चुनाव में बांटा जाना था।
दैनिक जागरण में छापे की सूचना है और यह बताया गया है कि छापा कमलनाथ के किन करीबियों के यहां पड़ा और वो कौंन हैं। कमलनाथ के बयान का जो हिस्सा जागरण ने छापा है वह इस प्रकार है, “सारी स्थिति स्पष्ट होने पर ही कुछ कहना उचित होगा। इन घटनाओं से न तो हम डिगेंगे, न डरेंगे, अपितु और तेजी से विकास के पथ पर अग्रसर होंगे”। कमलनाथ की ही तरफ से दिग्विजय सिंह का भी बयान है, “दम हो तो मामा-मामी (पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी पत्नी) और अमित शाह के यहां छाप मारकर बताएं। इस खबर में क्या नहीं है, यह पाठक देख लें।
मेरे ख्याल से आईटी और ईडी को अपनी निष्पक्षता दिखाने के लिए दिग्विजय सिंह की चुनौती मान लेनी चाहिए। वैसे मुझे जवाब भी पता है, ऐसे छापा खुफिया सूचना पर मारे जाते हैं। खुफिया सूचना पर याद आया – हालत यह हो गई है कि पाकिस्तान के विदेशमंत्री, शाह महमूद कुरैशी ने कहा है कि उनके पास पक्की सूचना है कि भारत एक और हमले की योजना बना रहा है और यह 16 से 20 अप्रैल के बीच हो सकता है। भारत ने भले ही इसका खंडन कर दिया है पर पाकिस्तान ऐसा ऐसे ही नहीं कह रहा है। उसके पास ऐसा कहने का आधार है और अभी उसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है।
मेरा मानना है कि आयकर छापों के बारे में भी अगर ऐसा ही हो जाए तो कुछ समय बाद छापे पड़ेंगे, धन बरामद नहीं होगा। चूंकि छापे नहीं पड़ते थे इसलिए मिल रहा है और यह कुछ समय की बात है। हालांकि, छापा पड़ते रहे तो सत्तारूढ़ दल राजनीतिक लाभ फिर भी उठा ले जाएगा। इसका नुकसान देश को, राजनीति को है। वैसे भी, जब नोटबंदी के बाद देश का लगभग सारा कालाधन सफेद हो गया तो ये पैसे भी सफेद साबित हो जाएंगे। बाच सिर्फ चुनाव के समय बदनाम करने की है। उन्हें नहीं जो बिना विपक्ष की राजनीति करना चाहते हैं, सवाल नहीं सुनना चाहते। अगर भाजपा को अभी ऐसी कार्रवाई से नहीं रोका गया और जैसा कमलनाथ ने कहा है, हम इसके लिए तैयार हैं तो क्या कभी निष्पक्ष चुनाव हो पाएंगे?
चुनाव आयोग अभी ही कुछ करने की स्थिति में नहीं है तो जब हर कोई नैतिकता त्याग देगा और लक्ष्य सिर्फ चुनाव जीतना होगा तो स्थिति और मुश्किल होती जाएगी। चूंकि ऐसा कुछ अचानक संभव नहीं है तो जनता के पास उपाय यही है कि वह स्थिति को समझे और समझकर वोट दे। इसमें अखबारों की भूमिका हो सकती थी पर वह पहले ही एक पार्टी विशेष के पक्ष में झुका हुआ लगता है। उदाहरण के लिए, दैनिक भास्कर ने छापेमारी की खबर को लीड बनाया है और इसके साथ तीन कॉलम में पांच लाइन की खबर छापी है। शीर्षक है, “एक साल में आठ राज्यों में ऐसे ही छापे पड़े जब चुनाव नजदीक थे”।
इस शीर्षक से लगता है कि सरकार निष्पक्ष चुनाव के लिए ऐसा कर रही है जबकि यह काम उसका है ही नहीं। और अगर यह सूचना है तो इसके साथ बताया जाना चाहिए था कि ये आठ छापे किन दल वालों के यहां पड़े, इनमें भाजपा है कि नहीं। इसमें एक सूचना है कि रॉबर्ट वाड्रा की कंपनी के दफ्तरों में ईडी ने छापामारी की। चुनाव के समय में इस सूचना का क्या मतलब – अगर कुछ बरामद नहीं हुआ। और हुआ तो लिखा जाना चाहिए। पर नहीं है। आज के छापे की खबर से कांग्रेस एक भ्रष्ट पार्टी के रूप में नजर आ रही है। हो सकता है यह सही भी हो पर सत्तारूढ़ पार्टी है कि नहीं यह कैसे तय होगा?
उसके कह देने से या इसलिए कि उसके यहां छापा नहीं पड़ा तो सरकार के मातहत एक विभाग मारता है और जिसे आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद चुनाव आयोग के नियंत्रण में होना चाहिए पर चुनाव आयोग कह रहा है कि छापे मारे जाएं तो उसे सूचना दी जाए। इसमें सरकार की मनमानी और चुनाव आयोग की लाचारी कितने लोग समझ और मान पाएंगे? सवाल यह भी है, जिनके यहां छापा नहीं पड़ा या खुफिया सूचना नहीं मिली क्या वो सभी दल कालेधन के बिना चुनाव लड़ रहे हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के ठीक पहले नोटबंदी की गई और इससे सबसे ज्यादा मुश्किल बहुजन समाज पार्टी को हुई।
यह पार्टी प्रमुख मायावती ने तो कहा ही, भाजपा अध्यक्ष ने भी कहा। इसके बाद चुनाव नतीजे आए तो मायावती को उसपर यकीन नहीं हुआ और उन्होंने कहा कि हार ईवीएम की वजह से हुई है। ऐसा नहीं है कि वे नोटबंदी के बाद खाता सील किए जाने, नकद पैसे जमा कराए जाने की खबरों से चिन्तित नहीं थीं। उन्होंने इसका मुकाबला करने की कोशिश भी की पर चुनाव परिणाम वही रहे जो ऐसी बदनामी के बाद होते हैं। मायावती ने तब भाजपा को अपने खातों का विवरण देने की चुनौती दी थी। भाजपा ने नहीं दी। पर नुकसान बसपा को हुआ। 2016 का मामला है – खातों और नकदी में गड़बड़ी होती तो क्या भाजपा ने उसका राजनीतिक लाभ नहीं लिया होता? जाहिर है चुनाव से पहले मामला जैसा बताया गया वैसा था नहीं और मकसद बसपा को हराना था। हरा दिया। तरीका कारगर है – इसलिए जारी है।
किस राज्य में किस पार्टी के लिए और किस चुनाव क्षेत्र में किस उम्मीदवार के लिए कौन धन का बंदोबस्त और बंटवारा कर रहा है, कर सकता है - यह सामान्य समझ की बात है। ऐसे में चुनाव के समय कहां छापा मारना है और धन बरामद कर लेना बड़ी बात नहीं है। खुफिया सूचना की कोई जरूरत नहीं है। मध्य प्रदेश में भी यही हुआ है। विधानसभा चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस की ओर से युवा नेतृत्व की जगह कमलनाथ और अशोक गहलोत को तरजीह मिलने का मुख्य कारण यही है – इसे कौन नहीं समझता। पर चुनाव जब ऐसे ही लड़े जाते हैं तो यह छूट देनी पड़ेगी या भाजपा की भी जांच जरूरी है – वह कौन करेगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं.)
चुनाव आयोग ने ऐसी किसी भी कार्रवाई से पहले उसे सूचना देने के निर्देश दिए हैं। सूचना देकर भी छापा मारा जाए तो सत्तारूढ़ दल को लाभ होगा और जिसके यहां छापामारी होगी उसका नुकसान होगा – भले कुछ ना मिले। भारत में चुनावों में नकद का उपयोग होता है, सभी दल तय सीमा से ज्यादा खर्च करते हैं और उन कामों में पैसे लगाए जाते हैं जो गलत है। कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि यह सब बंद हो। पर विपक्ष मुक्त राजनीति चाहने वाली पार्टी को अगर छापा मारकर छवि बनाने के साथ-साथ दूसरों को कमजोर करने का काम करेगी तो चुनाव का कोई मतलब नहीं है।
आज टाइम्स ऑफ इंडिया और कुछ अन्य अखबारों ने इस बात को प्रमुखता से छापा है। टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर है कि आयकर छापामारी से राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया है। कमलनाथ ने यह कहा बताते हैं कि हम ऐसे तरीकों के लिए तैयार हैं। आयकर विभाग का कहना है कि यह छापामारी खुफिया सूचना पर की गई। नवोदय टाइम्स ने भी इसे टाइम्स ऑफ इंडिया की ही तरह छापा है और इस बात को प्रमुखता दी है कि छापेमारी के समय राज्य पुलिस मौके पर पहुंच गई और सीआरपीएफ से उसका टकराव हुआ।
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इसपर सवाल उठाया है और कहा है कि यह संविधान को ध्वस्त करने वाली घटना है। अगर अधिकारों का इस तरह दुरुपयोग होगा और संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा नहीं रहेगी तो यही होना है। आप देखिए कि आपके अखबार ने क्या छापा है। मुझे लगता है कि ऐसे ही चलता रहा तो चुनाव से लोकप्रियता नहीं संवैधानिक संस्थाओं को नियंत्रित करने की ताकत का पता लगेगा। हिन्दुस्तान ने भी इसे ‘टकराव’ कहा है और शीर्षक है कमलनाथ के करीबियों पर ताबड़तोड़ छापेमारी से बवाल। नवभारत टाइम्स ने इसे, “बंगाल के बाद अब एमपी बनाम केंद्र” शीर्षक से छापा है।
अमर उजाला ने इसे टॉप पर पांच कॉलम में छापा है। शीर्षक है, “कमलनाथ व करीबियों के 52 ठिकानों पर छापे”। इसके साथ कमलनाथ का बयान है, “विकास पर बोलने को नहीं (है) तो यह हथकंडा” और साथ में वित्त मंत्री अरुण जेटली का भी, “ओएसडी के पास कहां से आया इतना धन”। मेरे ख्याल से यह सामान्य समझ की बात है कि पैसे चुनाव के लिए उम्मीदवारों में सामान्य खर्च के साथ मतदाताओं को बांटने के लिए थे। अमर उजाला ने मुख्य खबर के साथ यह भी छापा है कि अगस्ता घोटाले में कमलनाथ के भांजे से पूछताछ हुई थी। और इसके साथ "सूत्रों के अनुसार" यह जानकारी भी कि यह पैसा चुनाव में बांटा जाना था।
दैनिक जागरण में छापे की सूचना है और यह बताया गया है कि छापा कमलनाथ के किन करीबियों के यहां पड़ा और वो कौंन हैं। कमलनाथ के बयान का जो हिस्सा जागरण ने छापा है वह इस प्रकार है, “सारी स्थिति स्पष्ट होने पर ही कुछ कहना उचित होगा। इन घटनाओं से न तो हम डिगेंगे, न डरेंगे, अपितु और तेजी से विकास के पथ पर अग्रसर होंगे”। कमलनाथ की ही तरफ से दिग्विजय सिंह का भी बयान है, “दम हो तो मामा-मामी (पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी पत्नी) और अमित शाह के यहां छाप मारकर बताएं। इस खबर में क्या नहीं है, यह पाठक देख लें।
मेरे ख्याल से आईटी और ईडी को अपनी निष्पक्षता दिखाने के लिए दिग्विजय सिंह की चुनौती मान लेनी चाहिए। वैसे मुझे जवाब भी पता है, ऐसे छापा खुफिया सूचना पर मारे जाते हैं। खुफिया सूचना पर याद आया – हालत यह हो गई है कि पाकिस्तान के विदेशमंत्री, शाह महमूद कुरैशी ने कहा है कि उनके पास पक्की सूचना है कि भारत एक और हमले की योजना बना रहा है और यह 16 से 20 अप्रैल के बीच हो सकता है। भारत ने भले ही इसका खंडन कर दिया है पर पाकिस्तान ऐसा ऐसे ही नहीं कह रहा है। उसके पास ऐसा कहने का आधार है और अभी उसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है।
मेरा मानना है कि आयकर छापों के बारे में भी अगर ऐसा ही हो जाए तो कुछ समय बाद छापे पड़ेंगे, धन बरामद नहीं होगा। चूंकि छापे नहीं पड़ते थे इसलिए मिल रहा है और यह कुछ समय की बात है। हालांकि, छापा पड़ते रहे तो सत्तारूढ़ दल राजनीतिक लाभ फिर भी उठा ले जाएगा। इसका नुकसान देश को, राजनीति को है। वैसे भी, जब नोटबंदी के बाद देश का लगभग सारा कालाधन सफेद हो गया तो ये पैसे भी सफेद साबित हो जाएंगे। बाच सिर्फ चुनाव के समय बदनाम करने की है। उन्हें नहीं जो बिना विपक्ष की राजनीति करना चाहते हैं, सवाल नहीं सुनना चाहते। अगर भाजपा को अभी ऐसी कार्रवाई से नहीं रोका गया और जैसा कमलनाथ ने कहा है, हम इसके लिए तैयार हैं तो क्या कभी निष्पक्ष चुनाव हो पाएंगे?
चुनाव आयोग अभी ही कुछ करने की स्थिति में नहीं है तो जब हर कोई नैतिकता त्याग देगा और लक्ष्य सिर्फ चुनाव जीतना होगा तो स्थिति और मुश्किल होती जाएगी। चूंकि ऐसा कुछ अचानक संभव नहीं है तो जनता के पास उपाय यही है कि वह स्थिति को समझे और समझकर वोट दे। इसमें अखबारों की भूमिका हो सकती थी पर वह पहले ही एक पार्टी विशेष के पक्ष में झुका हुआ लगता है। उदाहरण के लिए, दैनिक भास्कर ने छापेमारी की खबर को लीड बनाया है और इसके साथ तीन कॉलम में पांच लाइन की खबर छापी है। शीर्षक है, “एक साल में आठ राज्यों में ऐसे ही छापे पड़े जब चुनाव नजदीक थे”।
इस शीर्षक से लगता है कि सरकार निष्पक्ष चुनाव के लिए ऐसा कर रही है जबकि यह काम उसका है ही नहीं। और अगर यह सूचना है तो इसके साथ बताया जाना चाहिए था कि ये आठ छापे किन दल वालों के यहां पड़े, इनमें भाजपा है कि नहीं। इसमें एक सूचना है कि रॉबर्ट वाड्रा की कंपनी के दफ्तरों में ईडी ने छापामारी की। चुनाव के समय में इस सूचना का क्या मतलब – अगर कुछ बरामद नहीं हुआ। और हुआ तो लिखा जाना चाहिए। पर नहीं है। आज के छापे की खबर से कांग्रेस एक भ्रष्ट पार्टी के रूप में नजर आ रही है। हो सकता है यह सही भी हो पर सत्तारूढ़ पार्टी है कि नहीं यह कैसे तय होगा?
उसके कह देने से या इसलिए कि उसके यहां छापा नहीं पड़ा तो सरकार के मातहत एक विभाग मारता है और जिसे आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद चुनाव आयोग के नियंत्रण में होना चाहिए पर चुनाव आयोग कह रहा है कि छापे मारे जाएं तो उसे सूचना दी जाए। इसमें सरकार की मनमानी और चुनाव आयोग की लाचारी कितने लोग समझ और मान पाएंगे? सवाल यह भी है, जिनके यहां छापा नहीं पड़ा या खुफिया सूचना नहीं मिली क्या वो सभी दल कालेधन के बिना चुनाव लड़ रहे हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के ठीक पहले नोटबंदी की गई और इससे सबसे ज्यादा मुश्किल बहुजन समाज पार्टी को हुई।
यह पार्टी प्रमुख मायावती ने तो कहा ही, भाजपा अध्यक्ष ने भी कहा। इसके बाद चुनाव नतीजे आए तो मायावती को उसपर यकीन नहीं हुआ और उन्होंने कहा कि हार ईवीएम की वजह से हुई है। ऐसा नहीं है कि वे नोटबंदी के बाद खाता सील किए जाने, नकद पैसे जमा कराए जाने की खबरों से चिन्तित नहीं थीं। उन्होंने इसका मुकाबला करने की कोशिश भी की पर चुनाव परिणाम वही रहे जो ऐसी बदनामी के बाद होते हैं। मायावती ने तब भाजपा को अपने खातों का विवरण देने की चुनौती दी थी। भाजपा ने नहीं दी। पर नुकसान बसपा को हुआ। 2016 का मामला है – खातों और नकदी में गड़बड़ी होती तो क्या भाजपा ने उसका राजनीतिक लाभ नहीं लिया होता? जाहिर है चुनाव से पहले मामला जैसा बताया गया वैसा था नहीं और मकसद बसपा को हराना था। हरा दिया। तरीका कारगर है – इसलिए जारी है।
किस राज्य में किस पार्टी के लिए और किस चुनाव क्षेत्र में किस उम्मीदवार के लिए कौन धन का बंदोबस्त और बंटवारा कर रहा है, कर सकता है - यह सामान्य समझ की बात है। ऐसे में चुनाव के समय कहां छापा मारना है और धन बरामद कर लेना बड़ी बात नहीं है। खुफिया सूचना की कोई जरूरत नहीं है। मध्य प्रदेश में भी यही हुआ है। विधानसभा चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस की ओर से युवा नेतृत्व की जगह कमलनाथ और अशोक गहलोत को तरजीह मिलने का मुख्य कारण यही है – इसे कौन नहीं समझता। पर चुनाव जब ऐसे ही लड़े जाते हैं तो यह छूट देनी पड़ेगी या भाजपा की भी जांच जरूरी है – वह कौन करेगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं.)