13 फ़रवरी को जस्टिस अरुण मिश्र और दो अन्य जजों की एक पीठ ने विभिन्न राज्यों की सरकारों को ये आदेश दे दिया के वे अपने वनों से अनाधिकृत लोगों या समुदायों को 12 जुलाई तक बाहर निकालें. न्यायलय का आदेश दरअसल एक पुरानी याचिका पर था जो मार्च 2018 में एक दूसरी बेंच के आदेश से सम्बंधित था और राज्यों के मुख्य सचिव उनपर आधिकारिक जवाब दे रहे थे. कोर्ट के आदेश से देशभर में मानवाधिकारों और आदिवासी अधिकारों के लिए कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं और संगठनों ने गहन निराशा और गुस्से की अभिव्यक्ति की. अगर यह आदेश लागू हो गया तो देशभर के वनों से 20 लाख से अधिक आदिवासी और वनों पर आधारित अन्य समूह विस्थापित होंगे जो देश में एक बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक संकट को जन्म दे सकता है. इस पूरे प्रश्न पर हमें बहुत संजीदगी से विचार करने की जरुरत है कि क्यों आज का पूंजीवादी ‘वन संरक्षण’ आदिवासियों के वनों का दुश्मन बना रहा है और क्यों सरकार और न्यायालय इस सन्दर्भ में नकारात्मक हुए हैं.
पहले इस पूरे प्रश्न की पृष्ठभूमि जानना जरुरी है. क्यों ये आदेश आया, इसके पीछे कौन लोग हैं और क्या आदिवासियों को भूमिहीन करने की साजिश में सरकार भी शामिल है?
यूं तो हम सभी जानते हैं कि वन अधिकार अधिनियम 2006 जन संगठनों के संघर्षों के लगातार दवाब के परिणामस्वरूप बना जिसमें आदिवासी और वन संपदा पर निर्भर समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय का जिक्र भी है। लेकिन शुरू से ही वाइल्ड लाइफ और वन संरक्षण वाली लॉबी इस कानून के विरुद्ध रही है और उन्होंने इस कानून के लागु होने में तरह-तरह के रोड़े अटकाए लेकिन फिर भी राजनैतिक इच्छाशक्ति के आगे उनकी नहीं चली तो उन्होंने इस कानून के खिलाफ न्यायालय में याचिका दायर किया. हालाँकि इस बावत 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेशपारित किया लेकिन देरी के चलते मार्च 2018 में पुनः यह याचिका जस्टिस मदन लोकुर की तीन सदस्यीय पीठ के सामने आई और फिर कोर्ट ने कुछ आदेश पारित किये जो बेहद महत्वपूर्ण थे. कोर्ट के सामने जो सवाल खड़े किये गए थे वो निम्न थे....
1. अनाधिकृत लोगों को वनों से तुरंत बाहर किया जाए. कोर्ट का मानना था कि जो क्लेम रिजेक्ट किये गए हैं उन्हें तुरंत हटाया जाय.
2. वनाधिकार कानून 2006 भारतीय वन अधिनियम और वाइल्ड लाइफ एक्ट और पर्यावरण सम्बन्धी और कई कानूनों का उलंघन करता है अतः इसे ख़ारिज कर दिया जाना चाहिए क्योंकि ये असंवैधानिक है.
3. तीसरी महत्वपूर्ण बात कि ग्राम सभा को विशेषज्ञ समिति और अधिकारियों के निर्णयों को अस्वीकार करने की शक्ति गलत है क्योंकि इस संदर्भ में उन्हें कुछ पता नहीं है.
इस पर कोर्ट की जो प्रक्रिया और आदेश था वो निम्न है:
1. वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत कुल अनुसूचित जनजाति और अन्य वर्गों के कितने लोगों ने आवेदन किये.
2. अनुसूचित जनजाति और अन्य लोगों के कितने दावे स्वीकार किये गए उनकी जानकारी अलग अलग दी जाए.
3. दोनों ही केटेगरी में कितने दावे ख़ारिज किये गए उनकी पूर्ण जानकारी.
4. जिस भूमि पर दावा प्रस्तुत किया गया और जिन्हें निरस्त किया गया उसका पूरा क्षेत्रफल.
5. जिन आवेदनकर्ताओं के दावे ख़ारिज किये गए उन पर की गयी कार्यवाही का ब्यौरा.
6. अतिक्रमण हटाने से खाली की गयी जमीन का पूरा क्षेत्रफल.
7. अभी तक जिनका अतिक्रमण हटाना है और नहीं हटा है उस जमीन का ब्यौरा, क्षेत्रफल.
8. इन सूचनाओं के लिए कट ऑफ डेट 31.12.2017 है.
मतलब ये कि जिन लोगों के दावा फार्म अस्वीकृत किए गए हैं, याचिकाकर्ताओं और कोर्ट के इस आदेश से वे अपने आप ही ‘एनक्रोचर’ हो गए हों और जैसे उनके सभी अधिकार समाप्त हो गए हैं. क्योंकि ज्यादातर अस्वीकृत किये गए दावों में गाँव सभा की सहमति नहीं ली गयी और वन विभाग और उनके अधिकारियों ने पूरे प्रयास किये कि ये अधिनियम पूर्णतः नाकाम हो जाए और इसके लिए क्रोनी कॉर्पोरेट और उसके द्वारा पोषित मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका रही है. अगर याचिकाकर्ताओं को देखें तो इनमें से अधिकतर संस्थाएं महाराष्ट्र से हैं जो वाइल्ड लाइफ पर काम करते हैं और शायद फंड्स की भी कोई कमी उनके पास न हो। वन विभाग के कुछ रिटायर्ड अधिकारी, कुछ तथाकथित पुर्व जमींदार जिनकी सम्पति या बेनामी सम्पति में वन भी हो, ने वन अधिकार कानून 2006 को असंवैधानिक घोषित करवाने के लिए पूरा जोर लगा दिया है जिसमें वाइल्ड लाइफ पर काम करने वाले बहुत सारे अन्तर्राष्ट्रीय संगठन भी हैं.
केंद्र सरकार की रहस्यमयी चुप्पी
जब इस प्रकार की जन हित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आती है तो उसमें केंद्र सरकार एक पक्ष जरुर होती है क्योंकि वन अधिकार अधिनियम कैसे लागू हो रहा है इसकी जानकारी उसे होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जब कोर्ट में इस याचिका की सुनवाई हुई तो इससे प्रभावित होने वाले समूहों विशेषकर आदिवासियों और वन आधारित अन्य समूहों जैसे घुमंतू जातियों, पशुपालकों और अन्य समुदायों और उनसे संबंधित विभागों को भी नोटिस दिया जाना चाहिए था ताकि वे इस सन्दर्भ में अपनी बात रख सकें लेकिन ऐसा नहीं हुआ. क्या इसे संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ नहीं कहा जाएगा जब न्यायलय बिना किसी जांच पड़ताल के और लोगो को बिना कोई अवसर दिए इस नतीजे पर पहुँच जाती है कि जिन लोगों के दावा फार्म निरस्त किये गए हैं वे सभी ‘बाहरी’ हैं और उन्हें वनों से खदेड़ दिया जाना चाहिए. क्या कोर्ट ने इस निर्णय के बाद जो सुनामी आने वाली है उस पर विचार किया या नहीं. ऐसा लगता है कि सम्बंधित मंत्रालयों को आमंत्रित न कर या नोटिस न भेजकर न्याय प्रक्रिया में गलती हुई है. यदि कोर्ट ने इन मंत्रालयों को नोटिस भेजा और ये सुनवाई के दौरान मौजूद नहीं थे तो उनके विरुद्ध मानहानि का मुक़दमा बनता है. ये बात अब न्यायालय को साफ़ करनी चाहिए कि क्या ये भूल थी या उन्होंने ऐसा फैसला सब जानकर लिया था.
अब ये जानना भी जरुरी है कि आदिवासियों को ‘वनवासी’ बनाने वाली सरकार क्या कर रही है. हम सभी जानते हैं कि भारत ने आदिवासियों के अन्तराष्ट्रीय घोषणापत्र 2007 पर हस्ताक्षर किये हैं लेकिन सरकार अभी भी आधिकारिक तौर पर यह मानने को तैयार नहीं कि आदिवासी देश के मूलनिवासी हैं क्योंकि इससे संघ परिवार और उसके इतिहास लेखकों को आर्यों के भारत पर आक्रमण के सिद्धांत को स्वीकार करना पड़ेगा जो उनके भारत का मूल-नागरिक कहलाने और फिर ईसाई-मुसलमानों को विदेशी कहकर धमकाने के प्रोजेक्ट को बंद करना पड़ेगा. आदिवासियों को वनवासी कहकर उनके प्रति इस समाज के क्रूर और ऐतिहासिक अन्याय को झुठलाने की साजिश भी है. यदि हम ये भी मान ले के पुरानी गलतियों और अन्याय की जिम्मेवारी को आज की पीढ़ी पर क्यों लादें तो भी ये सवाल तो पूछना पड़ेगा कि आखिर इस समय की सरकार ने इस प्रश्न को गंभीरता से क्यों नहीं लिया. क्या सरकार जान बूझकर कोर्ट में नहीं गयी ताकि उसके कॉर्पोरेट चेले इस पूरे कानून को कोर्ट के जरिये खारिज करवा दें या सरकार कोई गेम खेल रही थी ताकि आदिवासियों को पुर्णतः कमजोर कर दिल्ली मुंबई के बनियों के स्थाई गुलाम बना कर रखें.
अभी सरकार के आदिवासी मंत्रालय ने कहा कि सरकार को इस विषय में जानकारी है और वह इस कानून को बचाने के लिए पुर्णतः कृतसंकल्प है. इस विषय में हम केवल इतना कहना चाहते हैं कि एक वर्ष से अधिक हो गया था इस पूरी कानूनी प्रक्रिया को तब ये मंत्रालय कहां थे और दुसरे यह कि इस कानून के ईमानदार निष्पादन के लिए सरकार ने क्या-क्या किया.
अब यदि कोर्ट के आदेश के संभावित परिणामो पे जाएं तो ये पक्का है कि इसके लागु होने पर बीस लाख से अधिक आदिवासी और वनों पर आधारित अन्य समुदाय सीधे तौर पर प्रभावित होंगे लेकिन मेरी दृष्टि में मामला इससे ज्यादा गंभीर हो सकता है.
अपनी ही जमीन पर अतिक्रमणकारी घोषित
13 फ़रवरी को सुप्रीम कोर्ट के आदेश में राज्य सरकारों को 12 जुलाई तक अपने हलफनामे दाखिल करने को कहा गया है कि जिन लोगों के आवेदन निरस्त किये गए उनपर कार्यवाही हुई है या नहीं. इस सन्दर्भ में कोर्ट ने सैटेलाईट इमेजेज भी मांगी हैं ताकि पता चल सके कि ये लोग कहां पर केन्द्रित हैं. इस तिथि पर भी केंद्र सरकार वहां नहीं थी. कोर्ट में विभिन्न राज्य सरकारों ने अपने शपथ पत्र दिए और 12 जुलाई तक कार्यवाही की बात कही.
अब आदिवासी मामलों से संबंधित मंत्रालय ने 31 मार्च 2017 तक सूचनायें इकट्ठा की हैं, उसके अनुसार कुल 41,69,982 दावे आये जिसमें 40,31,557 व्यक्तिगत और 1,38,425 सामुदायिक थे. जिनमें से 17,28,817 व्यक्तिगत और 62,889 सामुदायिक दावों को दावा प्रमाणपत्र दे दिया गया. इसका मतलब यह भी कि आधे से अधिक दावे निरस्त किये गए. खैर, सरकार कहती है कि उसने 36,38,234 दावों का निस्तारिकरण कर दिया जो कि लगभग 87.25% है.
अंग्रेजी के अख़बार द बिज़नेस स्टैण्डर्ड की एक खबर के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद विस्थापित होने वाले आदिवासी और वन समुदायों की संख्या 18 लाख 90 हज़ार तक होगी जबकि द वायर नामक न्यूज़ पोर्टल का कहना है के ये संख्या 20 लाख तक हो सकती है.
दरअसल, आदिवासियों को वनों से विस्थापित करने की यह प्रक्रिया अन्य और प्रक्रियाओं को मजबूत करेगी और बड़े बांधों, अभयारण्यों, टाइगरजोन, संरक्षित क्षेत्रों, राजस्व वनों और वन विभाग के अंतर्गत आने वाले राजस्व ग्रामों के मध्य विवाद आदि से भी आदिवासियों पर गहरा असर पड़ा है और ऐसे अधिकारियों के हौसले बुलंद होंगे जो उनका हर कदम पर शोषण करते हैं.
पत्रिका डाउन टू अर्थ बताती है कि आदिवासी मामलों के मंत्रालय की नवम्बर 2018 तक की रिपोर्ट कहती है कि 18.94 लाख लोगों को कानूनी पट्टे दिए जा चुके हैं जबकि 19.39 लाख लोगों के दावे ख़ारिज हो चुके हैं. मतलब ये कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इन 19.39 लाख लोगों के पास अपनी बात को पुनः रखने और अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध लड़ने के शायद हर रास्ते बंद हो चुके हैं क्योंकि कोर्ट के एक आदेश में ही उसे अतिक्रमणकारी घोषित किया जा चुका है.
कौन कर रहे हैं वनों का दोहन
इन सबमें महत्वपूर्ण बात है केंद्र सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय की खतरनाक चुप्पी. ये बात किसी से छुपी नहीं है कि मंत्रालय ने प्राइवेट कंपनियों को वन क्षेत्रों में माइनिंग और ईको टूरिज्म के लिए जमीनें लीज पर देने के लिए इस कानून को ‘हल्का’ कर दिया ताकि ये सभी आसानी से हो सके.
वन अधिकार अधिनियम 2006 की धारा 12 किसी भी प्रोजेक्ट के लिए भू अधिग्रहण या माइनिंग अथवा अन्य उपयोग के लिए ग्राम सभा की सहमति या मंजूरी को अनिवार्य कहता है और यह ही ‘सहमति’ आज हमारे संगठनों और कंपनियों की आँखों की किरकिरी बना है. सुप्रीम कोर्ट में वकीलों की फौज ने अधिनियम के इस सेक्शन का विरोध किया, बिलकुल वैसे ही जैसे भूमि अधिग्रहण अधिनियम में अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा की मंजूरी को अनिवार्य करने के विरुद्ध खुद वर्तमान केंद्रीय सरकार रही है.
दिसंबर 2018 में सरकार ने संसद को बताया कि 2015-2018 के बीच 20,314.12 हेक्टेयर वन भूमि को गैर वानिकी उद्देश्यों के लिए सरकार ने विभिन्न कम्पनियों को सौंप दिया है. मंत्रालय के पास 4552 प्रपोजल आये और 1280 को अप्रूवल भी दे दिया गया. तेलंगाना, ओडिशा और मध्य प्रदेश इस प्रक्रिया में अन्य राज्यों से बहुत आगे हैं और इन तीनों राज्यों ने कुल 62% प्रोजेक्ट प्राइवेट कंपनियों को गैर वानिकी कार्यों के लिए सौंप दिए.
वन संरक्षण अधिनियम 1980 के अंतर्गत सरकार ने गत चालीस वर्षो में 27,144 प्रोजेक्टों को साढ़े दस लाख हेक्टेयर वन भूमि का आवंटन किया है. इस समय भारत में 617 संरक्षित क्षेत्र हैं जिसमें 50 टाइगर प्रोजेक्ट क्षेत्र हैं. अभी तक की इन्वेस्टमेंट का 70% पैसा बाघों के संरक्षण के नाम पर खर्च हो रहा है बाकि 567 क्षेत्रों के लिए मात्र 30% फंड्स बचे हैं. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि देश विदेश में बाघों के संरक्षण के लिए पैसा देने वालों की कमी नहीं है क्योंकि वो दुनिया भर में ‘ईको टूरिज्म’ के जरिये आमदनी का बहुत बड़ा जरिया है. इन संरक्षित क्षेत्रों में बड़े-बड़े ‘टाइगर-प्रेमियों’ के बड़े-बड़े रिसोर्ट और होटल्स हैं. लेकिन इसके विरुद्ध न तो कोई पर्यावरणविद न्यायालय गया और न ही कोई जीवजन्तु प्रेमी. आज तक किसी ने ये प्रश्न खड़े नहीं किये कि अभयारण्यों के कारण क्यों आदिवासी जीवन को बर्बाद किया जा रहा है.
आदिवासियों की आज के स्थिति पर श्वेत पत्र की जरुरत
ऐसा अनुमान है कि 1950 से 1990 तक ‘विकास’ की विभिन्न परियोजनाओं, बांधों के नाम पर लगभग एक करोड़ आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल हुए और उन्हें दोबारा से कहीं नहीं बसाया जा सका. ये आंकड़े अलग परियोजनाओं के तहत विस्थापित लोगों के आधार पर जुटाए गए हैं. ये कम ज्यादा भी हो सकते हैं. लेकिन ये भी हकीकत है कि 1990 के बाद से विस्थापन के आंकड़े जरुर इससे कहीं ज्यादा होंगे क्योंकि वैश्वीकरण के दौर में तो आदिवासी क्षेत्रों के विकास की याद सभी को आई चाहे विकास में उनकी भागीदारी हो या नहीं. अभयारण्यों, संरक्षित क्षेत्रों, बाघ परियोजनाओं, खदानों, माइनिंग, बांध परियोजनाओं के चलते आदिवासियों के क्षेत्र पर दुश्मन की ललचाई नज़र थी और वे कामयाब हो रहे हैं क्योंकि सत्ताधारियों और पूंजपतियों के गठबंधन ने उनके पवित्र क्षेत्रों में सेंधमारी शुरू कर दी है और क़ानूनी प्रक्रिया अब देश के मूलनिवासियों के विरुद्ध जा रही है. उनका भोलापन अब उनके शोषण का हथियार बन गया है. जब और जहां उन्होंने विरोध किया तो उनके नाम के आगे माओवादी होने का ठप्पा लगा दिया गया और फिर प्रशासन और पुलिस को हथियार लेकर कुछ भी करने की छूट मिल गयी. आदिवासी इलाकों में ‘विकास’ के नाम पर जबरन सैन्यीकरण की प्रक्रिया बढ़ी और अपनी ही जमीन पर उन्हें उसकी मिल्कियत के सबूत देने पड़ रहे हैं. ऐतिहासिक अन्याय को ख़त्म करने के बजाय और बढाया जा रहा है.
सयुंक्त राष्ट्र के आदिवासी घोषणापत्र के मुताबिक सरकारें आदिवासी स्वायत्तता का सम्मान करेंगी और उन्हें उनकी भूमि से अतिक्रमित नहीं करेंगी. फोरेस्ट राइट एक्ट 2006 के मुताबिक भी बिना क़ानूनी सुनवाई के आदिवासियों और वन समुदायों को उनके स्थानों से विस्थापित नहीं किया जा सकता है.
आज सरकार को चाहिए कि आदिवासियों की स्थिति को लेकर एक श्वेत पात्र लाये और ये बताये कि उनकी कितनी आबादी को न्यूनतम सुविधाएं मुहैय्या हैं. उनके पास कितनी जमीन है और कितने लोगों का विस्थापन हुआ है विभिन्न योजनाओं में तथा सरकार ने कितने लोगों को ससम्मान पुनर्वास किया है. आदिवासी क्षेत्रों में तथाकथित विकास के नाम पर चल रही परियोजनाओं की क्रमबद्ध जानकारी दें और ये बतायें कि उससे आदिवासियों का कितना लाभ हुआ और कितना पर्यावरण संरक्षित हुआ. श्वेत पत्र में आदिवासियों की सत्ता में भागीदारी के प्रश्नों को भी बताया जाए और ये भी कि अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे आदिवासियों में कितने लोग जेल की सलाखों के पीछे हैं और उन पर कबसे और किन धाराओं में मुक़दमे चल रहे हैं. क्या सरकार उन मुकदमों को फ़ास्ट ट्रैक करवाने के लिए कुछ करेगी या सब ऐसे ही चलता रहेगा. भारत सरकार और राज्य सरकारों को इन परियोजनाओं के कारण उजड़े आदिवासियों के घरों और उनकी आज की हालत की जानकारी भी देनी चाहिए तथा वर्तमान में सरकारी नौकरियों में आदिवासियों का क्या प्रतिशत है ये भी बताये.
न्याय के लिए न्याय प्रक्रिया में भागीदारी की आवश्यकता
सवाल ये है कि यदि ये देश आदिवासियों को उनकी भूमि का अधिकार नहीं देना चाहता या उनके लिए सत्ता में भागीदारी के सारे रास्ते बंद कर देना चाहता है तो वो क्या करें? अभी हम सब जानते हैं कि दलित आदिवासियों का आरक्षण भी खतरे में है. विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में सरकार ने ये प्रबंध कर दिया कि इन समुदायों के लोग बड़े पदों पर न पहुँच सकें और जो वहां पहले से मौजूद हैं उनके रस्ते और कठिन कर दिए जाएं. देश की 8.5% आबादी के लिए 7% आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन आदिवासियों और दलितों के लिए राजनैतिक आरक्षण भी पूना पैक्ट का शिकार है और अपने सिद्धांतों पर अडिग व्यक्ति के लिए इस व्यवस्था में चुन के आना बहुत मुश्किल है. सरकारी नौकरियों में आदिवासियों का प्रतिशत आज भी 7% नहीं है. ऐसा नहीं है कि वे उपलब्ध नहीं है लेकिन उनको सत्ता में हिस्सेदारी से हम सभी के पूर्वाग्रह साफ नज़र आते हैं. न ही सत्ताधारियों ने ऐसा प्रयास किया कि नई पीढ़ी को खड़ा किया जाए और उन्हें जीवन के सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ने के मौके मिलें. वो अपनी जमीन और जंगल में ख़ुशी की जिंदगी जीना चाहते हैं और हम उन्हें ऐसा भी नहीं करने देना चाहते.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अधिकारियों और टाइगर लॉबी के हौसले बुलंद हैं लेकिन ये आदिवासी क्षेत्रों में गहन असंतोष को बढ़ा सकती है जो देश के लिए बहुत ही भयावह हो सकता है. वनों और वन्य जीवों के सबसे बडे संरक्षक आदिवासी ही हो सकते हैं क्योंकि वो उन्ही के साथ जीवन व्यतीत करते हैं. वो पर्यावरण को बचाने वाले हमारे सबसे बड़े साथी हैं इसलिए विकास के मॉडल में उनकी भूमिका को सुनिश्चित किया जाए और आदिवासी ग्राम पंचायतों के अधिकारों को और मजबूत किया जाए.
पिछले कुछ वर्षो में सत्ता के सभी तंत्रों ने बहुत निराश किया है और इसने हमारी उसी बात को मजबूत किया है कि सत्ता तंत्रों में जब तक देश के विविध समुदायों की भूमिका और भागीदारी नहीं होगी, तो उनके साथ न्याय नहीं हो पायेगा और उनके प्रश्नों के प्रति संवेदनशीलता मामूली ही होगी. जिस प्रकार से कॉर्पोरेट लॉबी ने कानून के बड़े हाथों का इस्तेमाल आदिवासियों के विरुद्ध किया है और जैसे सत्ता के बड़े लोगों ने उनके क्षेत्रों को पूंजीपतियों के लिए खोल दिया है, वो यही साबित करता है कि न्याय पालिका में दलित आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित किये बिना न्याय की उम्मीद करना बेईमानी होगा. फिलहाल तो हम यही उम्मीद करते हैं कि आदिवासियों के नाम पर बने मंत्रालय और आयोग इस मामले में ईमानदार दखल दे और सुप्रीम कोर्ट एक सामाजिक न्याय बेंच स्थापित करे जिसमें वे लोग हों जिनकी इन प्रश्नों पर समझ और पकड़ रही हो. यदि न्यायपालिका का रुख नहीं बदलता तो सरकार इस पूरे क़ानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल दे ताकि इस कानून की वैधता को न्यायलय में चुनौती नहीं दी जा सके. ये कानून बहुत संघर्षो के बाद बना है और इसलिए इसको अवैध घोषित करने के प्रयास करने वाली सभी पूंजीवादी सामंती और सामाजिक न्याय की विरोधी शंक्तियों के मंसूबो को नाकाम बनाने के लिए हमें हर एक प्रयास करना होगा ताकि न केवल हमारे वन बच सकें अपितु उनके सरंक्षण वाला आदिवासी समाज भी ख़ुशी और सम्मान से अपनी जिंदगी बसर कर सके.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
पहले इस पूरे प्रश्न की पृष्ठभूमि जानना जरुरी है. क्यों ये आदेश आया, इसके पीछे कौन लोग हैं और क्या आदिवासियों को भूमिहीन करने की साजिश में सरकार भी शामिल है?
यूं तो हम सभी जानते हैं कि वन अधिकार अधिनियम 2006 जन संगठनों के संघर्षों के लगातार दवाब के परिणामस्वरूप बना जिसमें आदिवासी और वन संपदा पर निर्भर समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय का जिक्र भी है। लेकिन शुरू से ही वाइल्ड लाइफ और वन संरक्षण वाली लॉबी इस कानून के विरुद्ध रही है और उन्होंने इस कानून के लागु होने में तरह-तरह के रोड़े अटकाए लेकिन फिर भी राजनैतिक इच्छाशक्ति के आगे उनकी नहीं चली तो उन्होंने इस कानून के खिलाफ न्यायालय में याचिका दायर किया. हालाँकि इस बावत 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेशपारित किया लेकिन देरी के चलते मार्च 2018 में पुनः यह याचिका जस्टिस मदन लोकुर की तीन सदस्यीय पीठ के सामने आई और फिर कोर्ट ने कुछ आदेश पारित किये जो बेहद महत्वपूर्ण थे. कोर्ट के सामने जो सवाल खड़े किये गए थे वो निम्न थे....
1. अनाधिकृत लोगों को वनों से तुरंत बाहर किया जाए. कोर्ट का मानना था कि जो क्लेम रिजेक्ट किये गए हैं उन्हें तुरंत हटाया जाय.
2. वनाधिकार कानून 2006 भारतीय वन अधिनियम और वाइल्ड लाइफ एक्ट और पर्यावरण सम्बन्धी और कई कानूनों का उलंघन करता है अतः इसे ख़ारिज कर दिया जाना चाहिए क्योंकि ये असंवैधानिक है.
3. तीसरी महत्वपूर्ण बात कि ग्राम सभा को विशेषज्ञ समिति और अधिकारियों के निर्णयों को अस्वीकार करने की शक्ति गलत है क्योंकि इस संदर्भ में उन्हें कुछ पता नहीं है.
इस पर कोर्ट की जो प्रक्रिया और आदेश था वो निम्न है:
1. वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत कुल अनुसूचित जनजाति और अन्य वर्गों के कितने लोगों ने आवेदन किये.
2. अनुसूचित जनजाति और अन्य लोगों के कितने दावे स्वीकार किये गए उनकी जानकारी अलग अलग दी जाए.
3. दोनों ही केटेगरी में कितने दावे ख़ारिज किये गए उनकी पूर्ण जानकारी.
4. जिस भूमि पर दावा प्रस्तुत किया गया और जिन्हें निरस्त किया गया उसका पूरा क्षेत्रफल.
5. जिन आवेदनकर्ताओं के दावे ख़ारिज किये गए उन पर की गयी कार्यवाही का ब्यौरा.
6. अतिक्रमण हटाने से खाली की गयी जमीन का पूरा क्षेत्रफल.
7. अभी तक जिनका अतिक्रमण हटाना है और नहीं हटा है उस जमीन का ब्यौरा, क्षेत्रफल.
8. इन सूचनाओं के लिए कट ऑफ डेट 31.12.2017 है.
मतलब ये कि जिन लोगों के दावा फार्म अस्वीकृत किए गए हैं, याचिकाकर्ताओं और कोर्ट के इस आदेश से वे अपने आप ही ‘एनक्रोचर’ हो गए हों और जैसे उनके सभी अधिकार समाप्त हो गए हैं. क्योंकि ज्यादातर अस्वीकृत किये गए दावों में गाँव सभा की सहमति नहीं ली गयी और वन विभाग और उनके अधिकारियों ने पूरे प्रयास किये कि ये अधिनियम पूर्णतः नाकाम हो जाए और इसके लिए क्रोनी कॉर्पोरेट और उसके द्वारा पोषित मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका रही है. अगर याचिकाकर्ताओं को देखें तो इनमें से अधिकतर संस्थाएं महाराष्ट्र से हैं जो वाइल्ड लाइफ पर काम करते हैं और शायद फंड्स की भी कोई कमी उनके पास न हो। वन विभाग के कुछ रिटायर्ड अधिकारी, कुछ तथाकथित पुर्व जमींदार जिनकी सम्पति या बेनामी सम्पति में वन भी हो, ने वन अधिकार कानून 2006 को असंवैधानिक घोषित करवाने के लिए पूरा जोर लगा दिया है जिसमें वाइल्ड लाइफ पर काम करने वाले बहुत सारे अन्तर्राष्ट्रीय संगठन भी हैं.
केंद्र सरकार की रहस्यमयी चुप्पी
जब इस प्रकार की जन हित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आती है तो उसमें केंद्र सरकार एक पक्ष जरुर होती है क्योंकि वन अधिकार अधिनियम कैसे लागू हो रहा है इसकी जानकारी उसे होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जब कोर्ट में इस याचिका की सुनवाई हुई तो इससे प्रभावित होने वाले समूहों विशेषकर आदिवासियों और वन आधारित अन्य समूहों जैसे घुमंतू जातियों, पशुपालकों और अन्य समुदायों और उनसे संबंधित विभागों को भी नोटिस दिया जाना चाहिए था ताकि वे इस सन्दर्भ में अपनी बात रख सकें लेकिन ऐसा नहीं हुआ. क्या इसे संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ नहीं कहा जाएगा जब न्यायलय बिना किसी जांच पड़ताल के और लोगो को बिना कोई अवसर दिए इस नतीजे पर पहुँच जाती है कि जिन लोगों के दावा फार्म निरस्त किये गए हैं वे सभी ‘बाहरी’ हैं और उन्हें वनों से खदेड़ दिया जाना चाहिए. क्या कोर्ट ने इस निर्णय के बाद जो सुनामी आने वाली है उस पर विचार किया या नहीं. ऐसा लगता है कि सम्बंधित मंत्रालयों को आमंत्रित न कर या नोटिस न भेजकर न्याय प्रक्रिया में गलती हुई है. यदि कोर्ट ने इन मंत्रालयों को नोटिस भेजा और ये सुनवाई के दौरान मौजूद नहीं थे तो उनके विरुद्ध मानहानि का मुक़दमा बनता है. ये बात अब न्यायालय को साफ़ करनी चाहिए कि क्या ये भूल थी या उन्होंने ऐसा फैसला सब जानकर लिया था.
अब ये जानना भी जरुरी है कि आदिवासियों को ‘वनवासी’ बनाने वाली सरकार क्या कर रही है. हम सभी जानते हैं कि भारत ने आदिवासियों के अन्तराष्ट्रीय घोषणापत्र 2007 पर हस्ताक्षर किये हैं लेकिन सरकार अभी भी आधिकारिक तौर पर यह मानने को तैयार नहीं कि आदिवासी देश के मूलनिवासी हैं क्योंकि इससे संघ परिवार और उसके इतिहास लेखकों को आर्यों के भारत पर आक्रमण के सिद्धांत को स्वीकार करना पड़ेगा जो उनके भारत का मूल-नागरिक कहलाने और फिर ईसाई-मुसलमानों को विदेशी कहकर धमकाने के प्रोजेक्ट को बंद करना पड़ेगा. आदिवासियों को वनवासी कहकर उनके प्रति इस समाज के क्रूर और ऐतिहासिक अन्याय को झुठलाने की साजिश भी है. यदि हम ये भी मान ले के पुरानी गलतियों और अन्याय की जिम्मेवारी को आज की पीढ़ी पर क्यों लादें तो भी ये सवाल तो पूछना पड़ेगा कि आखिर इस समय की सरकार ने इस प्रश्न को गंभीरता से क्यों नहीं लिया. क्या सरकार जान बूझकर कोर्ट में नहीं गयी ताकि उसके कॉर्पोरेट चेले इस पूरे कानून को कोर्ट के जरिये खारिज करवा दें या सरकार कोई गेम खेल रही थी ताकि आदिवासियों को पुर्णतः कमजोर कर दिल्ली मुंबई के बनियों के स्थाई गुलाम बना कर रखें.
अभी सरकार के आदिवासी मंत्रालय ने कहा कि सरकार को इस विषय में जानकारी है और वह इस कानून को बचाने के लिए पुर्णतः कृतसंकल्प है. इस विषय में हम केवल इतना कहना चाहते हैं कि एक वर्ष से अधिक हो गया था इस पूरी कानूनी प्रक्रिया को तब ये मंत्रालय कहां थे और दुसरे यह कि इस कानून के ईमानदार निष्पादन के लिए सरकार ने क्या-क्या किया.
अब यदि कोर्ट के आदेश के संभावित परिणामो पे जाएं तो ये पक्का है कि इसके लागु होने पर बीस लाख से अधिक आदिवासी और वनों पर आधारित अन्य समुदाय सीधे तौर पर प्रभावित होंगे लेकिन मेरी दृष्टि में मामला इससे ज्यादा गंभीर हो सकता है.
अपनी ही जमीन पर अतिक्रमणकारी घोषित
13 फ़रवरी को सुप्रीम कोर्ट के आदेश में राज्य सरकारों को 12 जुलाई तक अपने हलफनामे दाखिल करने को कहा गया है कि जिन लोगों के आवेदन निरस्त किये गए उनपर कार्यवाही हुई है या नहीं. इस सन्दर्भ में कोर्ट ने सैटेलाईट इमेजेज भी मांगी हैं ताकि पता चल सके कि ये लोग कहां पर केन्द्रित हैं. इस तिथि पर भी केंद्र सरकार वहां नहीं थी. कोर्ट में विभिन्न राज्य सरकारों ने अपने शपथ पत्र दिए और 12 जुलाई तक कार्यवाही की बात कही.
अब आदिवासी मामलों से संबंधित मंत्रालय ने 31 मार्च 2017 तक सूचनायें इकट्ठा की हैं, उसके अनुसार कुल 41,69,982 दावे आये जिसमें 40,31,557 व्यक्तिगत और 1,38,425 सामुदायिक थे. जिनमें से 17,28,817 व्यक्तिगत और 62,889 सामुदायिक दावों को दावा प्रमाणपत्र दे दिया गया. इसका मतलब यह भी कि आधे से अधिक दावे निरस्त किये गए. खैर, सरकार कहती है कि उसने 36,38,234 दावों का निस्तारिकरण कर दिया जो कि लगभग 87.25% है.
अंग्रेजी के अख़बार द बिज़नेस स्टैण्डर्ड की एक खबर के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद विस्थापित होने वाले आदिवासी और वन समुदायों की संख्या 18 लाख 90 हज़ार तक होगी जबकि द वायर नामक न्यूज़ पोर्टल का कहना है के ये संख्या 20 लाख तक हो सकती है.
दरअसल, आदिवासियों को वनों से विस्थापित करने की यह प्रक्रिया अन्य और प्रक्रियाओं को मजबूत करेगी और बड़े बांधों, अभयारण्यों, टाइगरजोन, संरक्षित क्षेत्रों, राजस्व वनों और वन विभाग के अंतर्गत आने वाले राजस्व ग्रामों के मध्य विवाद आदि से भी आदिवासियों पर गहरा असर पड़ा है और ऐसे अधिकारियों के हौसले बुलंद होंगे जो उनका हर कदम पर शोषण करते हैं.
पत्रिका डाउन टू अर्थ बताती है कि आदिवासी मामलों के मंत्रालय की नवम्बर 2018 तक की रिपोर्ट कहती है कि 18.94 लाख लोगों को कानूनी पट्टे दिए जा चुके हैं जबकि 19.39 लाख लोगों के दावे ख़ारिज हो चुके हैं. मतलब ये कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इन 19.39 लाख लोगों के पास अपनी बात को पुनः रखने और अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध लड़ने के शायद हर रास्ते बंद हो चुके हैं क्योंकि कोर्ट के एक आदेश में ही उसे अतिक्रमणकारी घोषित किया जा चुका है.
कौन कर रहे हैं वनों का दोहन
इन सबमें महत्वपूर्ण बात है केंद्र सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय की खतरनाक चुप्पी. ये बात किसी से छुपी नहीं है कि मंत्रालय ने प्राइवेट कंपनियों को वन क्षेत्रों में माइनिंग और ईको टूरिज्म के लिए जमीनें लीज पर देने के लिए इस कानून को ‘हल्का’ कर दिया ताकि ये सभी आसानी से हो सके.
वन अधिकार अधिनियम 2006 की धारा 12 किसी भी प्रोजेक्ट के लिए भू अधिग्रहण या माइनिंग अथवा अन्य उपयोग के लिए ग्राम सभा की सहमति या मंजूरी को अनिवार्य कहता है और यह ही ‘सहमति’ आज हमारे संगठनों और कंपनियों की आँखों की किरकिरी बना है. सुप्रीम कोर्ट में वकीलों की फौज ने अधिनियम के इस सेक्शन का विरोध किया, बिलकुल वैसे ही जैसे भूमि अधिग्रहण अधिनियम में अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा की मंजूरी को अनिवार्य करने के विरुद्ध खुद वर्तमान केंद्रीय सरकार रही है.
दिसंबर 2018 में सरकार ने संसद को बताया कि 2015-2018 के बीच 20,314.12 हेक्टेयर वन भूमि को गैर वानिकी उद्देश्यों के लिए सरकार ने विभिन्न कम्पनियों को सौंप दिया है. मंत्रालय के पास 4552 प्रपोजल आये और 1280 को अप्रूवल भी दे दिया गया. तेलंगाना, ओडिशा और मध्य प्रदेश इस प्रक्रिया में अन्य राज्यों से बहुत आगे हैं और इन तीनों राज्यों ने कुल 62% प्रोजेक्ट प्राइवेट कंपनियों को गैर वानिकी कार्यों के लिए सौंप दिए.
वन संरक्षण अधिनियम 1980 के अंतर्गत सरकार ने गत चालीस वर्षो में 27,144 प्रोजेक्टों को साढ़े दस लाख हेक्टेयर वन भूमि का आवंटन किया है. इस समय भारत में 617 संरक्षित क्षेत्र हैं जिसमें 50 टाइगर प्रोजेक्ट क्षेत्र हैं. अभी तक की इन्वेस्टमेंट का 70% पैसा बाघों के संरक्षण के नाम पर खर्च हो रहा है बाकि 567 क्षेत्रों के लिए मात्र 30% फंड्स बचे हैं. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि देश विदेश में बाघों के संरक्षण के लिए पैसा देने वालों की कमी नहीं है क्योंकि वो दुनिया भर में ‘ईको टूरिज्म’ के जरिये आमदनी का बहुत बड़ा जरिया है. इन संरक्षित क्षेत्रों में बड़े-बड़े ‘टाइगर-प्रेमियों’ के बड़े-बड़े रिसोर्ट और होटल्स हैं. लेकिन इसके विरुद्ध न तो कोई पर्यावरणविद न्यायालय गया और न ही कोई जीवजन्तु प्रेमी. आज तक किसी ने ये प्रश्न खड़े नहीं किये कि अभयारण्यों के कारण क्यों आदिवासी जीवन को बर्बाद किया जा रहा है.
आदिवासियों की आज के स्थिति पर श्वेत पत्र की जरुरत
ऐसा अनुमान है कि 1950 से 1990 तक ‘विकास’ की विभिन्न परियोजनाओं, बांधों के नाम पर लगभग एक करोड़ आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल हुए और उन्हें दोबारा से कहीं नहीं बसाया जा सका. ये आंकड़े अलग परियोजनाओं के तहत विस्थापित लोगों के आधार पर जुटाए गए हैं. ये कम ज्यादा भी हो सकते हैं. लेकिन ये भी हकीकत है कि 1990 के बाद से विस्थापन के आंकड़े जरुर इससे कहीं ज्यादा होंगे क्योंकि वैश्वीकरण के दौर में तो आदिवासी क्षेत्रों के विकास की याद सभी को आई चाहे विकास में उनकी भागीदारी हो या नहीं. अभयारण्यों, संरक्षित क्षेत्रों, बाघ परियोजनाओं, खदानों, माइनिंग, बांध परियोजनाओं के चलते आदिवासियों के क्षेत्र पर दुश्मन की ललचाई नज़र थी और वे कामयाब हो रहे हैं क्योंकि सत्ताधारियों और पूंजपतियों के गठबंधन ने उनके पवित्र क्षेत्रों में सेंधमारी शुरू कर दी है और क़ानूनी प्रक्रिया अब देश के मूलनिवासियों के विरुद्ध जा रही है. उनका भोलापन अब उनके शोषण का हथियार बन गया है. जब और जहां उन्होंने विरोध किया तो उनके नाम के आगे माओवादी होने का ठप्पा लगा दिया गया और फिर प्रशासन और पुलिस को हथियार लेकर कुछ भी करने की छूट मिल गयी. आदिवासी इलाकों में ‘विकास’ के नाम पर जबरन सैन्यीकरण की प्रक्रिया बढ़ी और अपनी ही जमीन पर उन्हें उसकी मिल्कियत के सबूत देने पड़ रहे हैं. ऐतिहासिक अन्याय को ख़त्म करने के बजाय और बढाया जा रहा है.
सयुंक्त राष्ट्र के आदिवासी घोषणापत्र के मुताबिक सरकारें आदिवासी स्वायत्तता का सम्मान करेंगी और उन्हें उनकी भूमि से अतिक्रमित नहीं करेंगी. फोरेस्ट राइट एक्ट 2006 के मुताबिक भी बिना क़ानूनी सुनवाई के आदिवासियों और वन समुदायों को उनके स्थानों से विस्थापित नहीं किया जा सकता है.
आज सरकार को चाहिए कि आदिवासियों की स्थिति को लेकर एक श्वेत पात्र लाये और ये बताये कि उनकी कितनी आबादी को न्यूनतम सुविधाएं मुहैय्या हैं. उनके पास कितनी जमीन है और कितने लोगों का विस्थापन हुआ है विभिन्न योजनाओं में तथा सरकार ने कितने लोगों को ससम्मान पुनर्वास किया है. आदिवासी क्षेत्रों में तथाकथित विकास के नाम पर चल रही परियोजनाओं की क्रमबद्ध जानकारी दें और ये बतायें कि उससे आदिवासियों का कितना लाभ हुआ और कितना पर्यावरण संरक्षित हुआ. श्वेत पत्र में आदिवासियों की सत्ता में भागीदारी के प्रश्नों को भी बताया जाए और ये भी कि अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे आदिवासियों में कितने लोग जेल की सलाखों के पीछे हैं और उन पर कबसे और किन धाराओं में मुक़दमे चल रहे हैं. क्या सरकार उन मुकदमों को फ़ास्ट ट्रैक करवाने के लिए कुछ करेगी या सब ऐसे ही चलता रहेगा. भारत सरकार और राज्य सरकारों को इन परियोजनाओं के कारण उजड़े आदिवासियों के घरों और उनकी आज की हालत की जानकारी भी देनी चाहिए तथा वर्तमान में सरकारी नौकरियों में आदिवासियों का क्या प्रतिशत है ये भी बताये.
न्याय के लिए न्याय प्रक्रिया में भागीदारी की आवश्यकता
सवाल ये है कि यदि ये देश आदिवासियों को उनकी भूमि का अधिकार नहीं देना चाहता या उनके लिए सत्ता में भागीदारी के सारे रास्ते बंद कर देना चाहता है तो वो क्या करें? अभी हम सब जानते हैं कि दलित आदिवासियों का आरक्षण भी खतरे में है. विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में सरकार ने ये प्रबंध कर दिया कि इन समुदायों के लोग बड़े पदों पर न पहुँच सकें और जो वहां पहले से मौजूद हैं उनके रस्ते और कठिन कर दिए जाएं. देश की 8.5% आबादी के लिए 7% आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन आदिवासियों और दलितों के लिए राजनैतिक आरक्षण भी पूना पैक्ट का शिकार है और अपने सिद्धांतों पर अडिग व्यक्ति के लिए इस व्यवस्था में चुन के आना बहुत मुश्किल है. सरकारी नौकरियों में आदिवासियों का प्रतिशत आज भी 7% नहीं है. ऐसा नहीं है कि वे उपलब्ध नहीं है लेकिन उनको सत्ता में हिस्सेदारी से हम सभी के पूर्वाग्रह साफ नज़र आते हैं. न ही सत्ताधारियों ने ऐसा प्रयास किया कि नई पीढ़ी को खड़ा किया जाए और उन्हें जीवन के सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ने के मौके मिलें. वो अपनी जमीन और जंगल में ख़ुशी की जिंदगी जीना चाहते हैं और हम उन्हें ऐसा भी नहीं करने देना चाहते.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अधिकारियों और टाइगर लॉबी के हौसले बुलंद हैं लेकिन ये आदिवासी क्षेत्रों में गहन असंतोष को बढ़ा सकती है जो देश के लिए बहुत ही भयावह हो सकता है. वनों और वन्य जीवों के सबसे बडे संरक्षक आदिवासी ही हो सकते हैं क्योंकि वो उन्ही के साथ जीवन व्यतीत करते हैं. वो पर्यावरण को बचाने वाले हमारे सबसे बड़े साथी हैं इसलिए विकास के मॉडल में उनकी भूमिका को सुनिश्चित किया जाए और आदिवासी ग्राम पंचायतों के अधिकारों को और मजबूत किया जाए.
पिछले कुछ वर्षो में सत्ता के सभी तंत्रों ने बहुत निराश किया है और इसने हमारी उसी बात को मजबूत किया है कि सत्ता तंत्रों में जब तक देश के विविध समुदायों की भूमिका और भागीदारी नहीं होगी, तो उनके साथ न्याय नहीं हो पायेगा और उनके प्रश्नों के प्रति संवेदनशीलता मामूली ही होगी. जिस प्रकार से कॉर्पोरेट लॉबी ने कानून के बड़े हाथों का इस्तेमाल आदिवासियों के विरुद्ध किया है और जैसे सत्ता के बड़े लोगों ने उनके क्षेत्रों को पूंजीपतियों के लिए खोल दिया है, वो यही साबित करता है कि न्याय पालिका में दलित आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित किये बिना न्याय की उम्मीद करना बेईमानी होगा. फिलहाल तो हम यही उम्मीद करते हैं कि आदिवासियों के नाम पर बने मंत्रालय और आयोग इस मामले में ईमानदार दखल दे और सुप्रीम कोर्ट एक सामाजिक न्याय बेंच स्थापित करे जिसमें वे लोग हों जिनकी इन प्रश्नों पर समझ और पकड़ रही हो. यदि न्यायपालिका का रुख नहीं बदलता तो सरकार इस पूरे क़ानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल दे ताकि इस कानून की वैधता को न्यायलय में चुनौती नहीं दी जा सके. ये कानून बहुत संघर्षो के बाद बना है और इसलिए इसको अवैध घोषित करने के प्रयास करने वाली सभी पूंजीवादी सामंती और सामाजिक न्याय की विरोधी शंक्तियों के मंसूबो को नाकाम बनाने के लिए हमें हर एक प्रयास करना होगा ताकि न केवल हमारे वन बच सकें अपितु उनके सरंक्षण वाला आदिवासी समाज भी ख़ुशी और सम्मान से अपनी जिंदगी बसर कर सके.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)