पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को शायद उनके देश में अल्पसंख्यकों की बदहाली का अंदाज़ा नहीं है। हाल में, एक कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने कहा कि उनकी सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को बराबरी का दर्ज़ा और एक समान अधिकार मिलें। वाह, क्या बात है! इसी भाषण में उन्होंने भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर भी अपनी चिंता व्यक्त की। इमरान खान को भारत में अल्पसंख्यकों के बारे में बोलने के पहले दस बार सोचना चाहिए। चोर का कोतवाल को डांटना ठीक नहीं लगता। यह सही है कि भारत में अल्पसंख्यकों को ‘दूसरे दर्जे का नागरिक’ बनाने के प्रयास हो रहे हैं परन्तु इसमें दो मत नहीं हो सकते कि भारत की तुलना में, पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की हालत कहीं अधिक ख़राब है।
खान शायद यह भूल गए कि हिन्दुओं और ईसाईयों- जिनके साथ पाकिस्तान में घोर दुर्व्यवहार किया जाता है- के अलावा, वहां तो इस्लाम के एक पंथ, अहमदियाओं, को भी मुसलमान नहीं माना जाता। यही कारण है कि इमरान चाह कर भी, मेधावी अर्थशास्त्री आतिफ मियां को इकनोमिक एडवाइजरी कौंसिल का सदस्य नहीं बनाये रख सके। प्रधानमंत्री पर कट्टरपंथी मौलानाओं का ज़बरदस्त दबाव था कि वे आतिफ मियां को निकाल बाहर करें। पाकिस्तान की राजनीति में मौलानाओं का काफी दखल है और इसी के चलते, पिछले कई दशकों से अहमदियायों को प्रताड़ित किया जाता रहा है। हाल में, बैंकाक में आयोजित एक अंतर्धार्मिक सम्मेलन में मेरी मुलाकात कई ऐसे अहमदियायों से हुई जो पाकिस्तान से भाग कर थाईलैंड में शरण लेने और वहां की नागरिकता पाने की कोशिश कर रहे हैं। भारत में भी काफी संख्या में अहमदिया हैं, जो इस बात से खासे मायूस और व्यथित हैं कि पाकिस्तान उन्हें मुसलमान के रूप में मान्यता तक नहीं देता।
आसिया नूरिन, जिन्हें हम सब आसिया बीबी के नाम से जानते हैं, को 2010 में ईशनिंदा का दोषी पाया गया। दो पाकिस्तानी नेता- अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शाहबाज़ भट्टी और पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर - आसिया बीबी के पक्ष में खड़े हुए और दोनों की हत्या कर दी गयी। उनके हत्यारे हीरो बन गए। पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने 31 अक्टूबर 2018 को आसिया बीबी को बरी कर दिया। इस निर्णय की पाकिस्तान में जबरदस्त खिलाफत हुई और इमरान को कट्टरपंथियों से बातचीत करनी पड़ी। सुप्रीम कोर्ट ने आसिया बीबी को बरी करते हुए कहा कि उनके खिलाफ “गवाहों के बयानों में महत्वपूर्ण विरोधाभास और अंतर हैं” जिनके कारण “घटनाक्रम का अभियोजन का विवरण संदेह के घेरे में आ जाता है।” इस निर्णय का जमकर विरोध हुआ और सभी बड़े शहरों में हुए प्रदर्शनों की कमान इस्लामवादी पार्टियों के हाथों में थी। दुनिया के अनेक मानवाधिकार संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की सराहना की। खान भी इस निर्णय के पक्ष में थे परन्तु वे इसका विरोध कर रहे शक्तिशाली इस्लामवादियों के सामने टिक न सके। धार्मिक स्वतंत्रता के पैरोकार कई ईसाई संगठनों ने आसिया बीबी का साथ दिया परन्तु उनके ही देश में उनका जिस तरह से विरोध हो रहा था, उसके चलते आसिया ने देश छोड़ना ही बेहतर समझा।
पाकिस्तान में हिन्दुओं और ईसाईयों की हालत हमेशा से बहुत ख़राब रही है। जबरदस्ती धर्मपरिवर्तन और हिन्दू लड़कियों को अगवा करने की घटनाएं बहुत आम है। हिन्दुओं और ईसाईयों के धार्मिक आचारों पर कई तरह के प्रतिबन्ध हैं। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के खिलाफ लगातार अत्यंत भयावह हिंसा होती रही है। पाकिस्तान की संविधान सभा में भाषण देते हुआ मुहम्मद अली जिन्ना ने 11 अगस्त 1947 को कहा था कि पाकिस्तानियों को अपने पुराने झगड़े भुलाकर, एक-दूसरे को क्षमा कर देना चाहिए ताकि सभी “।।।सबसे पहले, उसके बाद, और अंत में, इस राज्य के ऐसे नागरिक बन सकें, जिनके समान अधिकार हैं।।।”। जिन्ना ने इंग्लैंड का उदाहरण दिया, जहाँ पिछली कुछ सदियों में धार्मिक पंथों की प्रताड़ना की संस्कृति को अलविदा कह दिया गया था। उन्होंने कहा, “समय के साथ, न तो हिन्दू, हिन्दू रहेंगे और ना ही मुसलमान, मुसलमान - धार्मिक अर्थ में नहीं, क्योंकि वह तो प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत आस्था है, बल्कि राजनैतिक अर्थ में, और इस देश के नागरिक बतौर।” यह सचमुच चमत्कृत कर देने वाली सोच थी।
परन्तु यह सिद्धांत लम्बे समय तक नहीं चल सका। जिन्ना के जीवनकाल में ही, सांप्रदायिक तत्वों का जोर बढ़ने लगा था और उनकी मृत्यु के बाद तो मानो उनका ही राज हो गया। पाकिस्तान में प्रजातंत्र हमेशा खतरे में बना रहा। वहां एक के बाद एक तानाशाह राज करते रहे और प्रजातंत्र का दम घोंट दिया गया। सन 1973 में पाकिस्तान ने स्वयं को इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान घोषित कर दिया और फिर ज़िया-उल-हक के सत्ता सम्हालने की बाद तो पाकिस्तान का इस्लामीकरण अपने चरम पर पहुँच गया। शरिया अदालतें स्थापित हो गयीं और मुल्ला-मौलवियों का बोलबाला हो गया। इस सबसे अल्पसंख्यकों के हालात और ख़राब हो गए। पाकिस्तान का उदाहरण हमें बताता है कि ‘दूसरे’ का घेरा कैसे बढ़ता जाता है। पहले हिन्दू और ईसाई ‘दूसरे’ बने, फिर अहमदिया और उसके बाद शिया।
एक लम्बे समय तक, भारत और पाकिस्तान की तुलना ही नहीं की जा सकती थी। भारत के पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष संविधान और गाँधी-नेहरु के नेतृत्व के चलते, भारत बहुवाद की मज़बूत बुनियाद पर खड़ा था। पाकिस्तान तो एक देश भी नहीं रह सका। उसके दो टुकड़े हो गए और बांग्लादेश अस्तित्व में आया। इसके पीछे कई कारण थे और उनमें से सबसे महत्वपूर्ण था, उर्दू को राष्ट्रभाषा के रूप में पूरे देश पर लादने की कोशिश। यह हम सब के लिए एक सबक है कि धर्म, किसी भी प्रजातान्त्रिक राष्ट्र का आधार नहीं हो सकता। भारत में, विभाजन के बाद सांप्रदायिक हिंसा की शुरुआत जबलपुर में 1961 में हुए दंगों के साथ हुई। सन 1980 के दशक में सांप्रदायिक हिंसा अपने चरम में पहुँच गयी। बाबरी मस्जिद के ध्वंस, मुंबई और गुजरात के दंगे और मुज्ज़फरनगर में हुई हिंसा बताती है कि धार्मिक आधार पर समाज के ध्रुवीकरण और नफरत की राजनीति हमें कहाँ ले जा सकती है। सन 1990 के दशक से देश में ईसाई-विरोधी हिंसा की शुरुआत हुई। पास्टर स्टेंस को बर्बरतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया गया और उसके बाद कंधमाल में खून-खराबा हुआ। नफरत और हिंसा से शुरू हुई इन दोनों समुदायों के हशियेकरण की प्रक्रिया। सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्रा आयोगों की रपटें बताती हैं कि मुस्लिम समुदाय का किस हद तक हाशियाकरण हो चुका है।
पिछले कुछ वर्षों में स्थितियाँ और खराब हुईं हैं। सांप्रदायिक तत्वों और हिन्दू धर्म के स्वनियुक्त ठेकेदारों तक यह सन्देश पहुँच गया है कि वे कोई भी अपराध कर बच निकल सकते हैं। दो दशक पहले तक तो भारत और पाकिस्तान की तुलना अकल्पनीय थी। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद पाकिस्तानी कवियत्री फहमिदा रियाज़ ने एक कविता लिखी जिसका शीर्षक था ‘तुम भी हम जैसे निकले’। इमरान खान का वहां के अल्पसंख्यकों की हालात बेहतर करने का इरादा प्रशंसनीय है। परन्तु मुल्लाओं और मिलिट्री के चलते क्या वे ऐसा कर सकते हैं। भारत का अल्पसंख्यकों के सम्बन्ध में रिकॉर्ड बहुत बेहतर है। वर्तमान में देश में अल्पसंख्यकों की को स्थिति है वह सचमुच चिंताजनक है। हम केवल आशा कर सकते हैं कि ये हालात बेहतर होंगे।
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
खान शायद यह भूल गए कि हिन्दुओं और ईसाईयों- जिनके साथ पाकिस्तान में घोर दुर्व्यवहार किया जाता है- के अलावा, वहां तो इस्लाम के एक पंथ, अहमदियाओं, को भी मुसलमान नहीं माना जाता। यही कारण है कि इमरान चाह कर भी, मेधावी अर्थशास्त्री आतिफ मियां को इकनोमिक एडवाइजरी कौंसिल का सदस्य नहीं बनाये रख सके। प्रधानमंत्री पर कट्टरपंथी मौलानाओं का ज़बरदस्त दबाव था कि वे आतिफ मियां को निकाल बाहर करें। पाकिस्तान की राजनीति में मौलानाओं का काफी दखल है और इसी के चलते, पिछले कई दशकों से अहमदियायों को प्रताड़ित किया जाता रहा है। हाल में, बैंकाक में आयोजित एक अंतर्धार्मिक सम्मेलन में मेरी मुलाकात कई ऐसे अहमदियायों से हुई जो पाकिस्तान से भाग कर थाईलैंड में शरण लेने और वहां की नागरिकता पाने की कोशिश कर रहे हैं। भारत में भी काफी संख्या में अहमदिया हैं, जो इस बात से खासे मायूस और व्यथित हैं कि पाकिस्तान उन्हें मुसलमान के रूप में मान्यता तक नहीं देता।
आसिया नूरिन, जिन्हें हम सब आसिया बीबी के नाम से जानते हैं, को 2010 में ईशनिंदा का दोषी पाया गया। दो पाकिस्तानी नेता- अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शाहबाज़ भट्टी और पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर - आसिया बीबी के पक्ष में खड़े हुए और दोनों की हत्या कर दी गयी। उनके हत्यारे हीरो बन गए। पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने 31 अक्टूबर 2018 को आसिया बीबी को बरी कर दिया। इस निर्णय की पाकिस्तान में जबरदस्त खिलाफत हुई और इमरान को कट्टरपंथियों से बातचीत करनी पड़ी। सुप्रीम कोर्ट ने आसिया बीबी को बरी करते हुए कहा कि उनके खिलाफ “गवाहों के बयानों में महत्वपूर्ण विरोधाभास और अंतर हैं” जिनके कारण “घटनाक्रम का अभियोजन का विवरण संदेह के घेरे में आ जाता है।” इस निर्णय का जमकर विरोध हुआ और सभी बड़े शहरों में हुए प्रदर्शनों की कमान इस्लामवादी पार्टियों के हाथों में थी। दुनिया के अनेक मानवाधिकार संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की सराहना की। खान भी इस निर्णय के पक्ष में थे परन्तु वे इसका विरोध कर रहे शक्तिशाली इस्लामवादियों के सामने टिक न सके। धार्मिक स्वतंत्रता के पैरोकार कई ईसाई संगठनों ने आसिया बीबी का साथ दिया परन्तु उनके ही देश में उनका जिस तरह से विरोध हो रहा था, उसके चलते आसिया ने देश छोड़ना ही बेहतर समझा।
पाकिस्तान में हिन्दुओं और ईसाईयों की हालत हमेशा से बहुत ख़राब रही है। जबरदस्ती धर्मपरिवर्तन और हिन्दू लड़कियों को अगवा करने की घटनाएं बहुत आम है। हिन्दुओं और ईसाईयों के धार्मिक आचारों पर कई तरह के प्रतिबन्ध हैं। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के खिलाफ लगातार अत्यंत भयावह हिंसा होती रही है। पाकिस्तान की संविधान सभा में भाषण देते हुआ मुहम्मद अली जिन्ना ने 11 अगस्त 1947 को कहा था कि पाकिस्तानियों को अपने पुराने झगड़े भुलाकर, एक-दूसरे को क्षमा कर देना चाहिए ताकि सभी “।।।सबसे पहले, उसके बाद, और अंत में, इस राज्य के ऐसे नागरिक बन सकें, जिनके समान अधिकार हैं।।।”। जिन्ना ने इंग्लैंड का उदाहरण दिया, जहाँ पिछली कुछ सदियों में धार्मिक पंथों की प्रताड़ना की संस्कृति को अलविदा कह दिया गया था। उन्होंने कहा, “समय के साथ, न तो हिन्दू, हिन्दू रहेंगे और ना ही मुसलमान, मुसलमान - धार्मिक अर्थ में नहीं, क्योंकि वह तो प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत आस्था है, बल्कि राजनैतिक अर्थ में, और इस देश के नागरिक बतौर।” यह सचमुच चमत्कृत कर देने वाली सोच थी।
परन्तु यह सिद्धांत लम्बे समय तक नहीं चल सका। जिन्ना के जीवनकाल में ही, सांप्रदायिक तत्वों का जोर बढ़ने लगा था और उनकी मृत्यु के बाद तो मानो उनका ही राज हो गया। पाकिस्तान में प्रजातंत्र हमेशा खतरे में बना रहा। वहां एक के बाद एक तानाशाह राज करते रहे और प्रजातंत्र का दम घोंट दिया गया। सन 1973 में पाकिस्तान ने स्वयं को इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान घोषित कर दिया और फिर ज़िया-उल-हक के सत्ता सम्हालने की बाद तो पाकिस्तान का इस्लामीकरण अपने चरम पर पहुँच गया। शरिया अदालतें स्थापित हो गयीं और मुल्ला-मौलवियों का बोलबाला हो गया। इस सबसे अल्पसंख्यकों के हालात और ख़राब हो गए। पाकिस्तान का उदाहरण हमें बताता है कि ‘दूसरे’ का घेरा कैसे बढ़ता जाता है। पहले हिन्दू और ईसाई ‘दूसरे’ बने, फिर अहमदिया और उसके बाद शिया।
एक लम्बे समय तक, भारत और पाकिस्तान की तुलना ही नहीं की जा सकती थी। भारत के पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष संविधान और गाँधी-नेहरु के नेतृत्व के चलते, भारत बहुवाद की मज़बूत बुनियाद पर खड़ा था। पाकिस्तान तो एक देश भी नहीं रह सका। उसके दो टुकड़े हो गए और बांग्लादेश अस्तित्व में आया। इसके पीछे कई कारण थे और उनमें से सबसे महत्वपूर्ण था, उर्दू को राष्ट्रभाषा के रूप में पूरे देश पर लादने की कोशिश। यह हम सब के लिए एक सबक है कि धर्म, किसी भी प्रजातान्त्रिक राष्ट्र का आधार नहीं हो सकता। भारत में, विभाजन के बाद सांप्रदायिक हिंसा की शुरुआत जबलपुर में 1961 में हुए दंगों के साथ हुई। सन 1980 के दशक में सांप्रदायिक हिंसा अपने चरम में पहुँच गयी। बाबरी मस्जिद के ध्वंस, मुंबई और गुजरात के दंगे और मुज्ज़फरनगर में हुई हिंसा बताती है कि धार्मिक आधार पर समाज के ध्रुवीकरण और नफरत की राजनीति हमें कहाँ ले जा सकती है। सन 1990 के दशक से देश में ईसाई-विरोधी हिंसा की शुरुआत हुई। पास्टर स्टेंस को बर्बरतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया गया और उसके बाद कंधमाल में खून-खराबा हुआ। नफरत और हिंसा से शुरू हुई इन दोनों समुदायों के हशियेकरण की प्रक्रिया। सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्रा आयोगों की रपटें बताती हैं कि मुस्लिम समुदाय का किस हद तक हाशियाकरण हो चुका है।
पिछले कुछ वर्षों में स्थितियाँ और खराब हुईं हैं। सांप्रदायिक तत्वों और हिन्दू धर्म के स्वनियुक्त ठेकेदारों तक यह सन्देश पहुँच गया है कि वे कोई भी अपराध कर बच निकल सकते हैं। दो दशक पहले तक तो भारत और पाकिस्तान की तुलना अकल्पनीय थी। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद पाकिस्तानी कवियत्री फहमिदा रियाज़ ने एक कविता लिखी जिसका शीर्षक था ‘तुम भी हम जैसे निकले’। इमरान खान का वहां के अल्पसंख्यकों की हालात बेहतर करने का इरादा प्रशंसनीय है। परन्तु मुल्लाओं और मिलिट्री के चलते क्या वे ऐसा कर सकते हैं। भारत का अल्पसंख्यकों के सम्बन्ध में रिकॉर्ड बहुत बेहतर है। वर्तमान में देश में अल्पसंख्यकों की को स्थिति है वह सचमुच चिंताजनक है। हम केवल आशा कर सकते हैं कि ये हालात बेहतर होंगे।
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)